पत्र क्रमांक-१५६
१५-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
समर्थ-सम्पूर्ण-अदीन-अयाचक आत्म स्वभाव के साधक दादागुरु परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल वन्दना करता हूँ.. हे गुरुवर ! जिस प्रकार नीम के सहारे ऊपर चढ़ने वाली गुरबेल लता में नीम का प्रभाव भी आ जाने से वह कई गुना गुणकारी हो जाती है। ठीक इसी प्रकार गुरु के सहारे चलने वाला शिष्य भी गुरु स्वभाव के प्रभाव में आता है और वैसा ही बनता है। जिस प्रकार आप बचपन से ही स्वाभिमानी थे। किसी से कुछ नहीं माँगते थे न ही लेते थे। आपने गमछे बेचकर शास्त्री की और त्यागीव्रती जीवन में किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखी उसी प्रकार आपके लाड़ले शिष्य मेरे गुरुवर भी किसी से कुछ नहीं माँगते, यहाँ तक की संघस्थ क्षुल्लक ऐलक ब्रह्मचारियों से भी नहीं। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भीलवाड़ा में ०७-११-२०१५ को बताया-
अयाचकवृत्ति के धनी मुनि श्री विद्यासागर जी
‘‘मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने काफी काव्य रचनाओं का सृजन किया। वे कॉपी में लिखा करते थे। उन दिनों डॉट पेन एवं फाऊन्टेन पेन मुनिगण उपयोग नहीं करते थे। सूखे काले रंग से हाथ से बनाई गई स्याही का उपयोग करते थे और कलम या निब वाले होल्डर से डुबो डुबो कर लिखा करते थे। संघस्थ ऐलक सन्मतिसागर जी महाराज मुनि श्री के लिए सूखे काले रंग को एक कटोरी में डालकर कमण्डलु के प्रासुक जल से घोलकर स्याही बनाते थे और मुनि श्री विद्यासागर जी उस स्याही का उपयोग उसी दिन ही करते थे दूसरे दिन नहीं क्योंकि वह अप्रासुक हो जाया करती थी और स्वयं स्याही मांगा नहीं करते थे। समाप्त हो जाने पर मौन रहते थे। १-१.२-२ दिन स्याही नहीं मिलती तो भी वे अपनी अयाचकवृत्ति नहीं छोड़ते थे। उनकी यह वृत्ति दिगम्बरत्व की स्वाभिमानपूर्ण चर्या को दर्शाती थी।" | हे दादा गुरुवर! आपके लाड़ले शिष्य की लेखनी का जादू चल पड़ा और साहित्य सर्जन यात्रा अनवरत जारी रही। प्राप्त पाण्डुलिपि में २६-०७-१९७१ को प्रतिलिपि की गई
फलतः दूर होता भवकूल
वीतराग जीवनोपवन में,
निवेशता जब राग प्रभंजन।
उन्मूलित तत्क्षण मूल से ही,
सुचिदानन्द-नग जान सांजन।
वस्तुतः निमंत्रण देना रे, सहचर! राग को विसार
भूल, फलतः दूर होता भवकू ल ॥१॥
तथा क्रोधाग्नि धधक-धधक औ,
संतप्त हो हे लया उठती।
यथा वन गहन में दावा रे!,
पवन रथ से ज्वलित हो बढ़ती।
यों सुधर्म-द्रुमों को जलाती, जो हैं सुखद-नितांत
अनुकूल, फलतः दूर होता भव कूल ॥२॥
आश्रव सहायक राग-लघु-चल,
कंपाता विकृत-जीव-द्रुम को।
दु:ख प्रदायक संवररोधक,
यों गिराता संवर-कुसुम को।
खेद सम-समय में उड़-उड़ आ, हा! हा! (उमड़ते ?)
वसु-कर्म शूल, फलतः दूर होता भवकूल ॥३॥
यही राग-पवन द्रुत पातता,
ज्ञान-दर्शन-हृद में अघ धूल।
हाय! इसी के प्रभाव से ही,
पत बनता तप विपरीत झूल।
‘विद्या' अथवा क्षण मात्र में हि, भूलुंठित
हो निर्जरा-फूल, फलतः दूर होता भवकूल ॥४॥
शारदा स्तुति
मेरे गुरुदेव ने किशनगढ़-मदनगंज में संस्कृत भाषा में श्री सरस्वती स्तोत्र का प्रणयन किया, जिसका नामकरण उन्होंने 'शारदा स्तुति' किया है। इस स्तोत्र की प्रतिलिपि २९-०७-१९७१ को की गई है। यह स्तुति द्रुतविलम्बित १२ छन्दों में लिखी गई है उसके बाद इन छन्दों का हिन्दी में पद्यानुवाद भी किया है। जो कि प्रकाशित होकर आपके पास पहुँची है। जिसका प्रथम श्लोक दृष्टव्य है-
जिनवरानननीरजनिर्गते, गणधरैः पुनरादरसंश्रिते।
सकलसत्त्वहिताय वितानिते, तदनु तैरिति हे! किल शारदे ॥१॥
जिन मुख पंकज से निकली हो,
सविनय ऋषियों से बिखरी हो।
सकल लोक का हित हो,
तम को हरो शारदे ! वर दो हमको ॥१॥
कल्याणमन्दिर स्तोत्र का पद्यानुवाद
आचार्य कुमुदचंद्र विरचित इस संस्कृत स्तोत्र में ४३ काव्य वसन्ततिलका छन्द एवं १ काव्य आर्या छन्द में है जिनका पद्यानुवाद भी आपके लाड़ले शिष्य ने ४३ काव्य वसन्ततिलका छन्द तथा १ काव्य आर्या छन्द में ही किया है। प्रतिलिपिकार ने १२-१०-१९७१ को प्रतिलिपि की। जो कृति प्रकाशित होकर आप तक पहुँची है। जिसका प्रथम एवं अन्तिम श्लोक के पद्यानुवाद दृष्टव्य हैं-
कल्याण-खाण-अघनाशक औ उदार, हैं जो जिनेश-पद-नीरज विश्वसार।
संसारवार्धि वर पोत! स्ववक्षधार, उन्हें यहाँ नमन मैं कर बार-बार ॥१॥
जननयन कुमुदचन्द्र!, परमस्वर्गीय भोग को भोग।
वे वसुकर्म नाशकर, पाते शीघ्र मोक्ष को लोग ॥४४॥
एकीभाव स्तोत्र पद्यानुवाद
मुनि श्री वादिराजकृत संस्कृत भाषा में एकीभाव स्तोत्र की रचना उपलब्ध है। जिसमें २५ काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द में हैं और २६वां आर्या छन्द में हैं। इनका पद्यानुवाद मेरे गुरुवर ने मन्दाक्रान्ता छन्द में २५ काव्यों एवं अन्तिम दो छन्द वसन्ततिलका छन्द में किए हैं। जिसकी प्रतिलिपिकार ने १०-१२-१९७१ को प्रतिलिपि की है। यह कृति भी प्रकाशित होकर आपके पास पहुँच चुकी है। जिसके प्रथम एवं अन्तिम दो छन्द दृष्टव्य हैं-
मेरे द्वारा, अमित भव में, प्राप्त नो कर्म सारे,
तेरी प्यारी, जबकि स्तुति से, शीघ्र जाते निवारे ।
मेरी को, क्या, फिर वह न ही, वेदना से बचाती?
स्वामी ! सद्यः लघु, दुरित को क्या नहीं रे भगाती? ॥१॥
त्रैलोक्य पूज्य यतिराज सुवादिराज,
आदर्श सादृश सदा वृष-शीश-ताज।
वन्दें तुम्हें सहज ही सुख तो मिलेगा,
‘विद्यादिसागर' बनँ दुख तो मिटेगा ।
इष्टोपदेश का पद्यानुवाद
आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने संस्कृत भाषा में भटके हुए संसारी जीवों के लिए ५० अनुष्टुप छन्दो में और १ वसन्ततिलका छन्द में इष्टोपदेश नामक ग्रन्थ की रचना की। जिसका पद्यानुवाद मेरे गुरुवर ने ५२ वसन्ततिलका छन्द में किया है। जिसकी प्रतिलिपिकार ने १२-१२-१९७१ को प्रतिलिपि की है। यह प्रकाशित कृति भी आपके देखने में आ गई होगी। पुनश्च प्रथम एवं अन्तिम छन्द दृष्टव्य है-
दुष्टाष्ट कर्म दल को करके प्रनाश, पाया स्वभाव जिनने, परितः प्रकाश।
जो शुद्ध हैं अमित, अक्षय बोधधाम, मेरा उन्हें विनय से शतशः प्रणाम ॥१॥
थे भव्य-पंकज-प्रभाकर पूज्यपाद, था आपमें अति प्रभावित साम्यवाद।
वन्दें उन्हें विनय से मन से त्रिसंध्या ‘विद्या’ मिले, सुख मिले, पिघले अविद्या ॥
समाधितंत्र का पद्यानुवाद
१९७१ मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास में ही आचार्य पूज्यपाद स्वामीकृत समाधितंत्र ग्रन्थ के १०५ संस्कृत श्लोकों का मेरे गुरुदेव ने वसन्ततिलका छंद में पद्यानुवाद किया। अन्तिम छन्द में पूज्यपाद स्वामी को नमस्कार करते हुए अपनी भावना व्यक्त की है-
थे पूज्यपाद वृषपाल वशी वरिष्ठ, थे आपके न रिपु मित्र अनिष्ट इष्ट।
मैं पूज्यपाद यति को प्रणहूँ त्रिसंध्या, ‘विद्यादिसागर' बनँ तज दें अविद्या ॥
योगसार का पद्यानुवाद
१९७१ मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास में ही आचार्य योगीन्द्रदेवकृत अपभ्रंश भाषाबद्ध योगसार ग्रन्थ की १०९ गाथाओं का वसन्ततिलका छन्द में पद्यानुवाद किया। इस ग्रन्थ को श्रुत का एवं विश्व का सार बताते हुए अन्तिम छन्द दृष्टव्य है-
है योगसार श्रुतसार व विश्वसार, जो भी इसे बुध पढे सुख तो अपार ।
मैं भी इसे विनय से पढ़ आत्म ध्याऊँ, ‘विद्यादिसागर' जहाँ डुबकी लगाऊँ ॥
पञ्चास्तिकाय की संस्कृत छाया
सन् १९७१ मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास में ही परमपूज्य आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कृत पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ की शौरसैनी प्राकृत गाथाओं का संस्कृत भाषा में वसन्ततिलका छन्द में अनुवाद किया है। गुरुदेव की संस्कृत भाषा में अनुवाद की यह प्रथम रचना है। यह रचना अभी तक अप्राप्त थी किन्तु ब्राह्मी-विद्याश्रम जबलपुर से प्राप्त पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियों में खोजबीन कर रहा था तब मुझे बिना शीर्षक की एक रचना देखने में आयी, उसे पढ़ते ही पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ से मिलान की तो वह मिल गई। यह देख अत्यधिक हर्ष हुआ जो रचना वर्षों से मिल नहीं रही थी वह हम शिष्यानुशिष्यों के पुण्योदय से मिल गई। जैसा कि जिज्ञासा-समाधान करते हुए डिंडौरी (म.प्र.) में ता. २१-०३-२०१८ को आचार्यश्री ने बताया कि पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ गुम हो जाने के बाद संस्कृत छायानुवाद का अधूरा ही काम हो पाया था।
प्रस्तुत प्रति में मुझे भी १५, ५६-७३, ८६-१०४, १०७-११६, १४९-१५१ गाथाओं की छाया प्राप्त नहीं हुई। जैसी की तैसी गुरुदेव के पास पहुँचा दी है। कुछ गाथाओं की छाया दृष्टव्य है-
इन्द्रेश्शतैर्मम नमः खलु वन्दितेभ्यः,
भूमावमेयगुणकेभ्य उताऽजकेभ्यः।
त्रैलोक्यजीवहितसाधनदर्शितेभ्यः
निर्दोषशब्दनिचयैर्जितसंसृतिभ्यः ॥१॥
येऽनन्तकाः खलु सदा भुवि तेषु जीवाः,
ते पुद्गलारथ च नैकतमो भवन्ति ।
धर्मो ऽप्यधर्म इह नीरद मार्ग एकः,
जानीहि भव्य भवभीत! शिवालयेऽस्मिन् ॥४॥
आत्मार्थसाधकयतिः शिवमार्गरूढो,
व्यालङ्कृतो भवति यः खलु संवरेण ।
आत्मानमेव परिगम्य समर्चते यं,
ज्ञानं च सैव नियतं विधुनोति कर्म ॥१४५॥
मार्गप्रभावन य एव जनेन येन,
सूत्रं तथा समयभक्तिनिचोदितेन।
सारं मया प्रवचनस्य तथेदमस्ति,
पञ्चास्तिकायनिचयं गदितं स्वशक्त्या ॥१७३॥
इस तरह आपके लाड़ले शिष्य मेरे गुरुवर ने अन्तर्यात्रा, ज्ञानयात्रा, चारित्रयात्रा, तपयात्रा, प्रभावना यात्रा के साथ-साथ साहित्य सृजन यात्रा के भी यात्री बन गए। ऐसे लोकोपकारी साहित्य सृजनकार गुरु-शिष्य के पावन चरणों में नमोऽस्तु करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य