पत्र क्रमांक-१४४
०२-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
आगमचक्खु गुरुवर परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में कोटिशः नमोऽस्तु करता हूँ... हे गुरुवर! आपकी सच्ची भावश्रुत ज्ञान साधना से आकर्षित होकर सरस्वती उपासक आपके दर्शनार्थ खिचे चले आते थे और आपसे आर्षमार्गी समाधान पाते थे। रेनवाल चातुर्मास में पर्युषण पर्व के बाद पं. श्री विद्याकुमार सेठी न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, विद्याभूषण, सिद्धान्तभूषण, भूतपूर्व हैड पण्डित राजकीय ओसवाल जैन उच्च विद्यालय अजमेर ने ०५-०९-१९७० को रेनवाल में आपके बारे में अपनी अनुभूति लिखी। जो ‘प्रवचनसार' (प्रकाशक-श्री महावीर प्रसाद (सांगाका) पाटनी किशनगढ़-रेनवाल, राजस्थान) में दो शब्द के रूप में प्रकाशित है। वह मैं आपको बताकर गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ-
‘‘गत आश्विन मास में कुचामन के पर्युषण पर्व को व्यतीत कर जब मैं आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा में किशनगढ़-रेनवाल पहुँचा और प्रस्तुत ग्रन्थ प्रवचनसार को आद्योपांत पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उस समय मेरे भाव हुए कि वर्तमान काल में दिगम्बर जैन समाज में निश्चयनय की मुख्यता तथा व्यवहार नय की मुख्यता को लेकर बहुत खिचाव हो रहा है, उनमें समन्वयमूलक सद्भावनापूर्वक आर्षमार्ग का विरोध नहीं करते हुए सच्चा समाधान-लौकिक संस्कृत विद्या के धुरन्धर विद्वान्, आत्मा के साधक, चिरतपस्वी, उपाध्याय एवं आचार्य परमेष्ठी द्वारा विरचित प्रस्तुत ग्रन्थ द्वारा ही हो सकता है। यह एक अनुपम अप्रकाशित निधि है, इसके प्रकाशन से अध्यात्म प्रेमी भाईयों को एक आदर्शमार्ग की सत्प्रेरणा प्राप्त होगी। हर्ष है कि मेरी इस प्रार्थना पर पूर्ण ध्यान देकर श्री १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपना अमूल्य समय व्यतीत करते हुए इसकी प्रतिलिपि पूर्ण करके दी । इस ग्रन्थ की कई विशेषताएँ हैं-
१. मूल ग्रन्थ की गाथाओं का केवल छायानुवाद ही नहीं बल्कि उसके मार्मिक लक्ष्य को अनुष्टुप सरीखे छोटे श्लोकों में रचकर गागर में सागर भरने का प्रयत्न किया है।
२. इसके साथ ही श्लोक का भाव भी यदि कहीं स्पष्ट न हुआ हो तो उसी का समर्थक एक हिन्दी भाषामय पद्य बनाकर एक बड़ी कमी की पूर्ति भी इस ग्रन्थ में आचार्य महाराज द्वारा की गई है।
३. सारांश एवं शंकापूर्वक सरल हिन्दी गद्य में विवेचन करके तो आचार्यश्री ने अपने अनुपम पाण्डित्य एवं क्षयोपशम के द्वारा संस्कृत से अपरिचित आबालवृद्ध सज्जनों का बड़ा भारी उपकार किया है; स्थान-स्थान पर प्रत्येक जटिल विषय को समझाने के लिए बड़ी सरल परिभाषायें लिखकर लौकिक दृष्टान्तों द्वारा उन गम्भीरतम विषयों का सरलीकरण करके दिगम्बर जैन मुनि संघ के अपवाद को दूर करने का बड़ा सुन्दर प्रयत्न किया है क्योंकि कई लोग ऐसा कहते हैं कि वर्तमान में दिगम्बर जैन मुनियों में चौके और खान-पान की शुद्धि पर ही जोर दिया जाता है, इसके अतिरिक्त साधु महात्मा कुछ भी लोक के उपकार करने का ध्यान नहीं रखते हैं। अधिक कहाँ तक कहा जाय, इस ग्रन्थ के अत्यन्त सरल एवं हृदय में अद्भुत ज्योति के संचार करने वाले वाक्य पढ़कर पाठक इस प्रयत्न की भूरि-भूरि प्रशंसा किए बिना नहीं रहेंगे।
आचार्यश्री ने आध्यात्मिक ग्रन्थों के साथ-साथ उच्चतम साहित्यिक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया है। आप स्वर्गीय श्री १०८ आचार्य श्री वीरसागर जी एवं श्री १०८ आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज के संघ में सफल उपाध्याय के रूप में भी रह चुके हैं और इस वृद्धावस्था में भी श्री १०८ श्री विद्यासागर जी सदृश विद्वान् साधु का निर्माण करके सदा ज्ञान और ध्यान में ही लीन रहते हुए अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावना की पूर्ण साधना कर रहे हैं। इस कार्य की श्री १०८ आचार्य धर्मसागर जी महाराज भी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं।
जब सम्यग्दर्शन की महिमा के ही इतने गीत गाए जाते हैं तो सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के एकात्मक रूप रत्नत्रय मोक्ष के मार्ग का क्या कहना है! हमारा उसके प्रति बहुमान कैसे नहीं होगा? सम्यग्दर्शनरूपी वृक्ष की सफलता तो चारित्र से ही है, सम्यग्दर्शन तो चारों गतियों में भी हो सकता है किन्तु सम्यक्चारित्र की पूर्णता तो मनुष्यगति के अतिरिक्त कहीं नहीं है। मैं इस ग्रन्थके कई मौलिक अवतरणों से अत्यन्त प्रभावित हुआ हूँ और उन मार्मिक स्थलों को ध्यानपूर्वक पढ़ने के लिए पाठकों से निवेदन भी करना चाहता था किन्तु खाण्ड की रोटी जिधर से तोड़ो उधर से ही मीठी है। इस ग्रन्थ का कोई भी भाग उपेक्षणीय नहीं है। वह सारा ही ग्रन्थ कम से कम तीन बार पढ़ने के योग्य है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन के मनोरथ को पूर्ण करने में श्री महावीरप्रसाद जी पाटनी, किशनगढ़रेनवाल से हमें आर्थिक सहायता के रूप में ५००१/-रु. की राशि प्राप्त हुई, इसके लिए इनको ग्रन्थमाला की ओर से जितना धन्यवाद दें उतना ही थोड़ा है। ये बड़े उत्साही और कृतज्ञ सज्जन हैं।
ग्रन्थ की पूर्ण संलग्नता से प्रेस कापी करके श्री पण्डित महेन्द्रकुमार जी पाटनी, काव्यतीर्थ, मदनगंज-किशनगढ़ ने प्रकाशन कार्य में सक्रिय सहयोग दिया एतदर्थ उन्हें भी इस समय नहीं भुलाया जा सकता। श्री नेमिचंद जी बाकलीवाल को भी सुन्दर एवं आकर्षक मुद्रण के लिए धन्यवाद दिए बिना नहीं रह सकता, जिनके प्रयत्नों के कारण यह ग्रन्थ इतना सुन्दर बन पड़ा है। अध्यात्मिक ग्रन्थ एक शुष्क चट्टान के समान है जिसे कोई नहीं चाटना चाहता किन्तु आकर्षक एवं पठनीय ग्रन्थ का छपना इस दिशा में बहुत आवश्यक प्रयत्न है।''
इस प्रकार मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज आपकी आगमोक्त कृति का प्रकाशन शीघ्र कराना चाहते थे। अतः निमित्त पाकर उन्होंने अपने व्यस्ततम समय में से आपकी हस्तलिखित प्रवचनसार की पाण्डुलिपि को प्रकाशन योग्य लिपि में लिखकर प्रकाशन हेतु पण्डित जी को दी। जो आज तक समाज में जिज्ञासुओं की जिज्ञासायें शान्त कर ज्ञानामृत से तृप्त कर रही है। धन्य हैं ऐसे आर्षमार्गी मूलसंघी आचार्य कुन्दकुन्दाम्नायी गुरु-शिष्य को पाकर यह भटकती आत्मा उपकृत हुई है। ऐसे पावन चरणों में नमस्कार करता हुआ...
आपका शिष्यानुशिष्य