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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 153 - मुनिसंघ का पदार्पण

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१५३

    १२-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

    मोक्षपथ पर धीरे-धीरे पग बढ़ाने वाले दादागुरु श्रद्धेय आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के तपोवृद्ध चरणों में त्रिकाल नतमस्तक हूँ...

    हे गुरुवर! मारोठ से १ मार्च को ६ कि.मी. दूर सुरेरा ग्राम के लिए विहार किया। १० घर की समाज ने भव्य स्वागत किया और फाल्गुन की आष्टाह्निक पर्व पर सिद्धचक्र महामण्डल विधान हुआ। बहुत बड़ी प्रभावना हुई। इस सम्बन्ध में ‘जैन गजट' ०८ अप्रैल १९७१ एवं ‘जैन सन्देश' १७-०४१९७१ को सुरेरा के श्रीमान् भागचंद जी लुहाड़िया ने समाचार प्रकाशित कराया

     

    मुनिसंघ का पदार्पण

    “सुरेरा (सीकर) यहाँ पर १ मार्च को श्री आचार्य श्री १०८ मुनि ज्ञानसागर जी तथा मुनि विद्यासागर जी व ऐलक १०५ श्री सन्मतिसागर जी व क्षुल्लक १०५ श्री विनयसागर जी व क्षुल्लक सुखसागर जी संघ का शुभागमन हुआ। महाराज साहब यहाँ पर १८ रोज रहे। महाराज साहब के यहाँ आने से लोगों में धर्म के प्रति जागरुकता बढ़ी। महाराज के ओजस्वी भाषण का प्रभाव समाज के अलावा अन्य समाज पर गहरा पड़ा। बहुत से लोगों ने रात को भोजन त्याग, पानी छानकर पीना, मांस-मदिरा आदि न करने का प्रण लिया। यहाँ के समाज के लोगों को आहार देने का ज्ञान नहीं था। महाराज साहब के पदार्पण से आहार देना सीखा। अष्टाह्निका पर्व में मण्डल विधान पूजा भी खूब ठाट-बाट से हुई, यह सब आचार्य श्री का ही प्रभाव था। महाराज साहब १८ मार्च को गाजे-बाजे के साथ मण्डा के लिए विहार कर गये। इस समय महाराज साहब दांता में हैं।''

     

    इस तरह आप गुरु-शिष्य की अन्तर्यात्रा ज्यों-ज्यों बढ़ती गई, त्यों-त्यों बाहर भी धर्मयात्रा बढ़ती गई । सुरेरा के श्री भागचंद जी लुहाड़िया ने एक संस्मरण, ब्यावर २०१६ में सुनाया। जो आपके लाड़ले मुनि श्री विद्यासागर जी के दिव्यज्ञान को दर्शाता है|

     

    दिव्यज्ञान के धनी मनोज्ञ मुनि विद्यासागर

    ‘‘एक दिन की बात है आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का पूरा संघ आहार करके मन्दिर आ चुका था। मैं मुनिसंघ के दर्शन करने के लिए ११ बजे के बाद पहुँचा। जैसे ही मैंने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के दर्शन किए तो वे बोले-‘महानुभाव! आप यहाँ और आपकी दुकान में आग लग रही है। यह सुनकर मैं एकदम से अचंभित रह गया। तत्काल मैंने निवेदन किया महाराज! मैं तो अभी-अभी दुकान से ही आ रहा हूँ। ऐसा कुछ भी नहीं है। तब वे बोले-एक बार जाकर देख लो।' मैं तत्काल गया जाकर दुकान खोलकर देखी तो धुआँ उठ रहा था। अनाज की बोरी में आग लगी हुई थी। तत्काल उसे हटाय और फिर उसके बाद हाथों-हाथ मैं मुनिवर के पास गया और घटना बतलायी तो वे मंद-मंद मुस्कुरा रहे। इस तरह सुरेरा प्रवास के बाद मण्डा पहुँचे और लगभग ७-८ दिन का प्रवास रहा। मण्डा से सम्बन्धित एक संस्मरण श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने सुनाया

     

    आकस्मिक परीषहविजयी

    यहाँ पर १ दिगम्बर जैन मन्दिर, ५-६ घर सरावगी दिगम्बर जैन परिवार निवास करते हैं। एक दिन मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को श्रावक की असावधानी के कारण आहार में कड़वी लौकी का आहार दिया गया, जिससे उन्हें अत्यधिक परेशानी का सामना करना पड़ा।५-७ दिन तक दस्त आते रहे और बुखार भी बना रहा। इसके बावजूद मुनिवर अपनी साधना निर्दोष रीति से करते रहे। विशेष बात यह रही कि उन्होंने कड़वी लौकी के बारे में नहीं बताया। चौके वाले श्रावकों ने ही गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को अपनी गलती बतायी। तब अस्वस्थता का कारण पता चला। आकस्मिक परीषह को सहज ही सहन करते रहे। ऐसी स्थिति को देखते हुए मण्डा के स्थानीय वैद्यराज श्री दुर्गाप्रसाद जी ने अपने उपचार से उन्हें स्वस्थ किया।''

     

    इस प्रकार आपके लाडले दृढ़चारित्री परीषह विजयी मेरे गुरुवर कर्मों की निर्जरा करने में हर पल, हर क्षण तैयार रहते और नये कर्म के बन्ध से बचने के लिए आर्तध्यान से बचे रहते । कैसी भी स्थिति हो चौबीसों घण्टे धर्मध्यान में लगे रहते । तभी तो उनकी हर क्रिया चर्या एक संस्मरण बनकर भक्त पाठक को आदर्श प्रस्तुत करती। इसी प्रकार यहाँ से जब रामगढ़ होते हुए दांता पहुँचे, तब का एक संस्मरण दांता निवासी कलकत्ता प्रवासी कल्याणमल जी झांझरी ने अपनी डायरी में लिखा है उसकी छायाप्रति सन् २०१५ में उन्होंने भीलवाड़ा में भिजवायी। जिसमें आपके चारित्र की विशुद्धि एवं ज्ञान की शुद्धि तथा अभीक्ष्णज्ञानोपयोग का दर्शन होता है

     

    चारित्र और ज्ञानशुद्धि के प्रतीक

    “आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज सदा ज्ञान-ध्यान-तप में लीन रहते थे। हमने जब भी देखा तो उन्हें अध्ययन-अध्यापन कराते देखा। एक बार रात को क्षुल्लक सुखसागर जी महाराज छहढाला का पाठ सुना रहे थे तो उनसे गलत उच्चारण हो गया, तब गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के मुख से शुद्ध पाठ निकल गया किन्तु तत्काल उन्हें रात्रि में बोलने की गलती का अहसास हो गया। तो उसी समय उन्होंने खड़े होकर कायोत्सर्ग किया।'' धन्य हैं गुरुवर! आप कभी भी चारित्र में दोष नहीं लगने देते थे। यदा-कदा कभी दोष लग भी जाये तो आप तत्काल शुद्धिकरण करते यही कारण है कि आपकी चारित्रविशुद्धि देख नसीराबाद समाज ने आपको ‘चारित्रविभूषण' उपाधि से अलंकृत किया था। आपके समागम और सुसंस्कारों ने मेरे गुरु में भी ऐसी चारित्रविशुद्धि प्रकट की है कि आज मुनिचारित्र संविधान बन समाज में मुनिचर्या की कसौटी बन गए हैं। दांता के सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा ने भी बताया

     

    हिन्दी साहित्य की जिज्ञासा

    ‘‘वहाँ पर ३०-३५ घर की दिगम्बर जैन सरावगी समाज ने भव्य आगवानी की और दूसरे ही दिन स्थानीय विद्वान् पण्डित इन्द्रमणी शर्मा गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शन करने आये तब उन्होंने साहित्य पर चर्चा की। तो मुनि श्री विद्यासागर जी की जिज्ञासा को देखते हुए गुरुदेव ने शर्मा जी से कहा जब तक हम यहाँ विराजते हैं, तब तक आप इनको हिन्दी साहित्य का ज्ञान करायें। तब मुनि श्री विद्यासागर जी ने रोज २-२,३-३ घण्टे हिन्दी साहित्य का अध्ययन किया। एक दिन अजमेर के सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शन करने पधारे और उन्होंने आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की जन्म शताब्दी समारोह की स्मृति में फलटण (महाराष्ट्र) से सन् १९७२-७३ में तैयार होने वाले स्मृति ग्रन्थ हेतु अपनी रचना प्रदान करने का निवेदन किया। शारीरिक अस्वस्थता व अशक्तता होने से गुरुवर ने इस कार्य हेतु मुनि श्री विद्यासागर जी की ओर इशारा कर दिया। गुरुवर का इशारा पाकर सर सेठ भागचंद जी सोनी जी ने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज से निवेदन किया । तब मुनिवर मुस्कुराते हुए बोले-देखो गुरु आशीष से जो हो जाये और तब एक और स्तुति आचार्य शान्तिसागर जी महाराज को श्रद्धांजलि स्वरूप रचना कर डाली।

     

    ब्राह्मी-विद्या-आश्रम जबलपुर से प्राप्त पाण्डुलिपियों में मुझे वह स्तुति की प्रतिलिपि जो २५o७-१९७१ को की गई है, प्राप्त हुई। जिसमें राज्य, जिला, ग्राम-शोभा का वर्णन है, ग्राम से निकली सरिताओं का वर्णन है, माता-पिता का वर्णन है। युगल बच्चों के जन्म का वर्णन है। विवाह, वैराग्य का वर्णन है, देवेन्द्रकीर्ति से दीक्षा लेने का वर्णन है। मुनि नाम, परमतप का वर्णन है, गुणों का वर्णन है। यह सब वर्णन साहित्यिक, रसात्मक, अलंकारिक छटा को लिए हुए है। अन्त में समाधि का वर्णन कर अपनी श्रद्धांजली पूर्ण की है। यह मन्दाक्रान्ता के १९ छन्दों की रचना अप्रकाशित है अतः आपको भेज रहा हूँ

     

    आ. १०८ शान्तिसिन्धु गुरु चरणों में आ. ज्ञानसागर महाराज के प्रथम शिष्य

    विद्यासागर की हार्दिक श्रद्धाञ्जलि शोभा वाला इस भारत पे ख्यात मैसूर राज्य,

    जिल्हा न्यारी उसही बीच में और है बेलगाम ।

    श्रीमान् धीमान् प्रवरजन से व्याप्त है भोज देखो,

    छोटा तो है पर मुकुट सा राजता शोभता है ॥१॥

     

    देखो भाई! युगल सरिता भोज में आ मिली है,

    साक्षात् लक्ष्मी सम सुललिता एक है। दूधगंगा।

    दूजी छोटी जिस सरित की वेदगंगा सुसंज्ञा,

    दोनों गंगा वर नगर की है बढ़ा दी सुशोभा ॥२॥

     

    भीमागौड़ा उस नगर में शक्तिशाली किसान,

    प्यारी स्त्री थी उस नृवर की सत्यरूपा सुरूपा।

    अच्छे बच्चे युगल उपजे आपके कँख से थे,

    प्यारे-प्यारे खमणि शशि यों आपके लाड़ले थे ॥३॥

     

    दोनों में से प्रथम वह था देवगौड़ा सुनन्द,

    दूजे को तो सबही कहते थे सदा सातगौड़ा।

    जाते थे वे लव-कुश समा स्कूल दोनों हमेशा,

    शिक्षा पाके सुचतुर हुए स्तोक ही काल में थे ॥४॥

     

    शादी होते शिशु समय में थाट से भोज में हैं,

    स्त्री पाती है मरण द्रुत हा! सातगौड़ा शशि की।

    माता बोली अरु पितर भी सातगौड़ा सुधी को,

    बेटा तेरा परिणय यहाँ चाहते हैं सुदूजा ॥५॥

     

    मेरी काया, सुतप तपना, चाहती है सदा ही,

    मेरा जी तो, इस सदन में, चाहता है न जीना।

    मैं कैसा माँ, इस भवन में, जी सकें औ रहूँ भी,

    ऐसा बोला, “हत-हत नहीं', सातगौड़ा कुमार ॥६॥

     

    आगे जागी, अनुज-मन में, भावना शोभनीया,

    जो थी न्यारी, विन विषय की, किन्तु मोक्षान्वयी थी।

    मौका पाके, इक दिन सुनो, सातगौड़ा सुधीठा,

    दीक्षा ले ली, परम मुनि, देवेन्द्र कीर्ति ऋषी से ॥७॥

     

    दीक्षा लेके, श्रमण बन के, नाम पाया सुयोग्य,

    जो है प्यारा, जलधर समा, ‘शान्तिसिन्धू' सुचारु।

    प्रायः प्रायः, सब मनुज तो, जानते आपको हैं,

    तो कैसा मैं, अविदित रहूँ, आप से हे! मुनीन्द्र ॥८॥

     

    मैं तो भाई, परम सुखदा, और विश्वोपकारी,

    शांती सिन्धू, परमयति के, पाद के दास होऊँ।

    श्रद्धामाला, कुसुमकलिता, भक्ति से मोचता हूँ,

    बारंबार, हृदयतल में, धारता हूँ ऋषी को ॥९॥

     

    मिश्री सिक्ता, विपुलमधुरा, आपकी भारती थी,

    आभा न्यारी, दिनकर समा, आस्य की आपकी थी।

    फूले कंजों, अधरयम जो, सा अती शोभनीय,

    आँखें दोनों, वृषभ कथिता, दो नयों का हि जोड़ा ॥१०॥

     

    या मानों दो, हिमकर समात्यन्त आमोदकारी,

    स्याद्वाणी से, कलितनिटिला आपका था ललाम।

    क्या क्या बोलू, अबुधवर हूँ, हूँ अभागा वृषेच्छू,

    ऐसी कान्ती, गुरुवदन की, थी सुसौन्दर्यपूर्णा ॥११॥

     

    मीठी-मीठी, लयनतल से, सत्य धर्मानुकूल,

    निर्दोषा भी, करण मधुरा, छोड़ते ये सुवाणी।

    नासा दृष्टी, सुतप तपते, मेरु सा हो अकम्प,

    साक्षात् सेतू, भवजलधि के, शान्ति सिन्धू तपस्वी ॥१२॥

     

    वाहू दोनों, तव महत थी, दीर्घ भी शोभनीया,

    प्यारी प्यारी, प्रचुर दृढ़ भी, पीन बाहूबली सी।

    शाखायें जो, मृदुलकर की, आपकी लम्ब माना,

    वे यों मानों, दशधरम ही, थीं क्षमामार्दवादि ॥१३॥

     

    तृष्णा चम्पा, मुकुलित हुई, आपको देखते ही,

    आशा, माया, अरु लुषित थीं, सी निशासूर्य से ज्यों।

    ज्ञानी हो या, चतुर कवि हो, क्यों न योद्धा कुधी हो,

    राजा मन्त्री, अवनिसुर हो, दीन हो या दुखी हो ॥१४॥

     

    हाथी घोड़ा, सबल पशु या, सिंह शार्दूल कुत्ता,

    पंछी मक्खी, मन विकल भी, और नारी विमारी।

    प्रायः सारे, कुसुमशर के, भेद्य है बाण से रे!

    कोई विर्ता, परम सुकृती, मोक्षमार्गानुगामी ॥१५॥

     

    कंदपरी, शिवसुख तृषी, आपसा जन्मते हैं,

    तेरा क्या तो, फिर अब यहाँ नाम कामारी ना है?

    ऐसे योगी, स्वपर हि तकारी सदा पूजनीय,

    ऐसे ज्ञानी, नितहि मुझ में, ही बसे औ, रहे भी ॥१६॥

     

    देखो भाई परम तिथि है, भादव श्री सुदी में,

    दौड़ी आयी हिमकर समा, चन्द्रिका ले सुदूजा।

    आचार्य श्री इस अवनि से आज ही तो खुशी से,

    धर्म ध्यानी स्व सुरस चखि स्वर्ग में जा बसे हैं ॥१७॥

     

    आओ गाओ सरस वच से, कूदते नाचते भी,

    बाजा अच्छा करण मधु जो, एकता से बजाओ।

    प्रातः प्रातः पूरे शहर में हो, सके तो सुचारू,

    फेरी अच्छी कुछ समय लौं, शान्तता से निकालो ॥१८॥

     

    ऐसे योगी श्रमण वर को शान्तिसिन्धु गुरु को,

    ध्याऊँ भाऊँ मन वचन से, औ पुनीतांग से भी।

    श्रद्धारूपी सित कमल से आपके पादकों की,

    हूँ मैं ‘विद्या' निशिदिन सुपूजा करूं या सपर्या ॥१९॥

     

    इस तरह साहित्य पढ़ने और रचने की जिजीविषा को निमित्त मिलते ही काव्य की रचना हो गई। दांता में ८ अप्रैल १९७१ गुरुवार चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन महावीर जयन्ती महोत्सव मनाया गया। गुरुवर ससंघ के सान्निध्य में बड़ी प्रभावना हुई और मुनि श्री विद्यासागर जी ने महावीर जयंती के उपलक्ष्य पर भगवान महावीर स्वामी की कथा को आधार बनाते हुए बड़ा ही रोचक-मार्मिक प्रवचन किया। तदुपरान्त गुरुदेव का भी मार्मिक प्रवचन हुआ। जैन सिद्धान्त प्रचारिणी सभा नसीराबाद का मासिक मुख पत्र ‘जैन सिद्धान्त' का महावीर जयन्ती विशेषांक मार्च-अप्रैल १९७१ में मुनि श्री विद्यासागर जी का वह प्रवचन छापा गया। जिसको पढ़ने से पाठक को सहज ही अनुभव हो जायेगा कि दो वर्ष के छोटे से काल में मुनि श्री विद्यासागर जी ने आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का साहित्य पढ़कर और हिन्दी के विद्वानों से साहित्य की चर्चा करके जो ज्ञान हासिल किया वह उनके प्रवचनों में परिलक्षित होने लगा। थोड़े से ही काल में इतनी बड़ी प्रतिभा हासिल करना ये उनकी प्रातिभा का ही परिचायक है। जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं

     

    १. श्री ही धृति आदि देवांगनायें पूर्व से ही आ उपस्थित हुई थी और अहर्निश त्रिशला देवी की सेवा में व्यस्त थीं। उसी प्रकार इन्द्रादि देवों ने भी वहाँ आकर प्रथम गर्भ कल्याणक महोत्सव सानंद सम्पन्न किया। यहाँ पर विचारणीय बात तो यह है कि उन देव-देवांगनाओं को किसने बुलाया? क्या बिना बुलाये ही आयीं थीं? नहीं, कहना पड़ेगा कि यह विशेषता तीर्थंकर नामकर्म की ही है। वाह! वाह !! उस कर्म को धारण करने वाला जीव उदर में और तीर्थंकर नामकर्म स्वयं पुद्गलात्मक किन्तु बाहर के पुद्गलों और जीवों पर उसका प्रभाव पड़ रहा है। यह पुद्गल की अपरिमेय शक्ति है। इसका ज्ञान केवल दार्शनिक आत्मवादी को ही उपलब्ध है। नवनवीन वैज्ञानिक इससे वंचित हैं, इसके बारे में अनभिज्ञ हैं। इस पाप एवं पुण्यमय पुद्गल को आधुनिक वैज्ञानिक शक्ति जिसका नाम ‘अणुबम' है, वह भी नष्ट-ध्वस्त करने में असमर्थ है किन्तु पुण्यरूपी अणुबम को धारण करने वाला सद्यःजात बालक दुनिया को डर दिखा सकता है। पुण्यरूपी अणुबम में इतनी शक्ति विद्यमान है कि जिसकी तुलना आधुनिक अणुबम के साथ करना। सागर के साथ बूंद की करने के समान है। पुण्य-पापात्मक पुद्गल पुंज को चक्षु एवं आधुनिक दूरदर्शक अधिगम नहीं कर सकते हैं। वह आधुनिक परमाणु आटम (एटम) से भी असंख्यात गुणा सूक्ष्म हैं। जिसको मात्र ज्ञानरूपी नेत्र ही अपना विषय बना सकता है अर्थात् देख सकता है। अतः आधुनिक वैज्ञानिक भाईयों के लिए मेरा यह अनुरोध है कि यदि आपको परमाणु का अन्वेषण करना है तो जैन सिद्धान्त का गम्भीर अध्ययन और असीम अविनश्वर आत्मशक्ति का साक्षात्कार अनिवार्य करना होगा अन्यथा, आपका प्रयास व्यर्थ रहेगा, आपकी वह कामना कभी भी पूर्ण नहीं होगी। अस्तु ।

     

    २. अब वीर बालक दिनो-दिन दूज के चन्द्रमा के समान वृद्धि को प्राप्त होने लगा और सबको आनन्द प्रदान करने लगा। काले कृष्णतम जो बालक के सिर में बाल उग आये थे और वे उसी प्रकार दिखते थे, मानो वीर के पास स्थान न पाकर तामस गुण ही बाहर आ गये हों। अच्छे-अच्छे वस्त्रों को जो बालक खेलते-खेलते फाड़ता था, मानो वह अभी से दिगम्बरी दीक्षा ही लेना चाहता था। उसी प्रकार जब मसृण मखमल पर जो बन्धुगण सुलाते थे, तब वह प्रायः पृथ्वी पर आ सो जाता था, मानो उससे वह बालक भूशयन को ही श्रेयस्कर समझता था और खेलते-खेलते दीपकों को इसलिए बुझाता था कि पतंगा वगैरह न मर सके अर्थात् बचपन से मौनरूप से जिओ और जीने दो' इस दिव्य संदेश को दुनिया के सामने रखना चाहता था तथा सांख्य मतानुयायियों ने स्वीकार की हुई सर्वथा कूटस्थ, नित्य वस्तु को अप्रभाव सिद्ध करते हुए और कथंचित नित्य वस्तु ही प्रमाणभूत है' ऐसे सांख्यों को समझाने के लिए ही मानो वीर तब बीच-बीच में अपने नयनों को मीचता रहता था।

     

    ३. निःसंग होकर अर्थात् बाह्याभ्यंतर ग्रन्थि विरत होकर जब तक यह संसारी आत्मा (मनुष्य) परीषहों का सामना नहीं करेगा तब तक वह आत्मानुभव नहीं कर सकता और मुझे तो आत्मानुभव ही प्रिय एवं सुखप्रदाता दिखता है। सांसारिक भोग-सामग्री तो विषम विषतुल्य प्रतिभासित हो रहीं हैं अर्थात् आत्मानुभव रागद्वेषोत्पादक भोग सामग्री को भोगते हुए प्राप्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि आत्मानुभव परनिरपेक्षित है तथा स्वापेक्षित है। जब तक दूसरे पदार्थ के साथ रागपूर्वक इस संसारी आत्मा का सम्बन्ध रहेगा तब तक स्वात्मानुभव दूर है क्योंकि रागी आत्मा के साथ आत्मानुभव का विरोध दिन-रात के समान लेकिन वर्तमान में इस प्रकार की आवाज कानों तक आ रही है एवं अनेक लेख पढ़ने के लिए भी उपलब्ध हैं कि घर में रहकर भी आत्मानुभव प्राप्त किया जा सकता है किन्तु इस मान्यता के लिए जैन सिद्धान्त में स्थान नहीं है। मनीषियों के सामने यह मान्यता कट जाती है भूलुंठित हो जाती है।

     

    हाँ, गृहस्थावस्था में रहते हुए गृहस्थ गुरु-मुखारविन्द से जिनवाणी सुनकर अथवा आचार्य प्रणीत ग्रन्थ का स्वाध्याय करके परोक्ष तत्त्वश्रद्धान तो कर सकता है अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति गृहस्थावस्था में हो सकती है किन्तु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यक्त्व और आत्मानुभव एक नहीं हैं। आत्मानुभव दिगम्बरत्व में निहित है और वही दिगम्बरत्व है जो कि आर्त-रौद्र ध्यान से सर्वथा शून्य है। यह आर्त-रौद्र शून्यावस्था सातवें गुणस्थान के नीचे तीन काल में प्राप्त नहीं की जा सकती। इसी बात को ग्रन्थराज सूत्रजी के रचयिता १०८ आचार्य उमास्वामी जी ने भी नवमें अध्याय में सुस्पष्ट किया है अर्थात् पंचम गुणस्थान तक आर्तरौद्र ध्यान दोनों बने ही रहते हैं और छठे गुणस्थान के अन्त तक आर्त ध्यान अवश्य देखने में आ जाता है। ऐसी स्थिति में गृहस्थावस्था में आत्मानुभव कैसे प्राप्त किया जा सकता है? नहीं, कभी नहीं। यदि घर में ही प्राप्त होता तो घर-परिवार को त्यागकर मुनि होने की आवश्यकता तीर्थंकरों को नहीं पड़ती।

     

    ४. केवलज्ञान के उपरान्त करीबन ६६ दिन तक वीर की दिव्यध्वनि नहीं खिरी। क्या वीर को अनन्तशक्ति की प्राप्ति नहीं हुई थी? अथवा तीर्थंकर प्रकृति का उदय अभी नहीं हुआ था? नहीं, नहीं बात कुछ और ही थी। हर एक कार्य सम्पन्न होने में दो कारण अनिवार्य हैं पहला उपादान, दूसरा निमित्त । दोनों कारणों का महत्त्व है, एक के अभाव में तीन काल में भी कार्य की निष्पत्ति नहीं हो सकती। दिव्यध्वनिरूप कार्य सम्पन्न होने में उपादान तो विद्यमान था कहना पड़ेगा वहाँ पर निमित्त की न्यूनता अवश्य थी। गणधर परमेष्ठी से वह समवसरण शून्य रहा तब तक दिव्यध्वनिरूपी गंगा वीर शैलेश से नहीं झरी।

     

    खेद क्या करें? वर्तमान में निमित्तकारण को न कुछ मानने वाले भी विद्वान् विद्यमान हैं। मेरे विचार के अनुसार निमित्त को न कुछ मानना ही अपने आपको एकान्तवादी सिद्ध करना है, अनेकान्त से द्रोह रखना है और अनेकान्त से प्रतिकूल चलने वाला ही वीर प्रभु से प्रतिकूल चलता है। वह वीर का अनुगामी नहीं है एवं उपासक भी। फिर उस व्यक्ति में समता कैसे स्थान प्राप्त करेगी? और समता के बिना अनन्तसुख की प्राप्ति नहीं होगी और उसके बिना चतुर्गति चंक्रमण रुक नहीं सकता। एतावता एकान्तवादी का संसार ज्यों का त्यों बना ही रहता है। अतः भव्यजीवों का यह परम कर्तव्य होता है कि वे अपने विचारों को अनेकान्त से सम्बन्धित रखें और आचरण अहिंसा से।

     

    ५. अहिंसा धर्म के आधार से ही इस संसारी जीव का उत्थान होने वाला है अहिंसा के बिना स्वपर विवेक की जागृति हो नहीं सकती अर्थात् जीवन में जितनी मात्रा में अहिंसा का संचार होता है, उतनी ही मात्रा में ज्ञानगुण की अभिव्यक्ति होती है। अहिंसा से शून्य जीवन गजभुक्त कपित्थ के समान नि:सार है। अतः वह, पशु जीवन से भी अध:पतित है। अहिंसक की उपासना स्वर्गीय देव भी करते हैं। अतः अहिंसक सदा सुखी रहता है और दूसरों के लिए भी सुख प्रदान करता है। सुख का साधन अहिंसा एवं अहिंसा का फल सुख। अतः सुख पिपासुओं का यह परम कर्तव्य है कि वे अपने जीवन में अहिंसा को यथाशक्ति स्थान दें। राजनैतिक सामाजिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में भी इसी को प्रथम मूर्धन्य स्थान उपलब्ध है अतः अहिंसा, माँ तुल्य-प्रिय आदरणीय वस्तु है।''

     

    इस तरह दांता में ज्ञान-साधना प्रभावना पूर्ण प्रवास करके लगभग २५ अप्रैल को विहार कर रुलाणां होते हुए खाचरियावास और फिर कुली पहुँचे। कुली के श्रीमान् बाबूलाल जी जैन गंगवाल ने २०१६ ब्यावर में एक संस्मरण सुनाया, जिसे सुनकर रूह कांप गई, मन विशाद से भर गया लेकिन गर्व भी हुआ जिसे सुनकर आप भी मेरी इस स्थिति को अनुभव कर स्मरण करेंगे

     

    वीरचर्यापालक का वीर जवाब

    ‘‘आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज और विद्यासागर जी महाराज ससंघ अप्रैल के अंत में कुली पधारे थे। दूसरे दिन मुनि विद्यासागर जी ने केशलोंच (दीक्षोपरान्त ग्यारहवाँ) कर लिया। केशलोंच के दूसरे दिन आहार के लिए गये तो चौके में जल्दी-जल्दी में एक अविवेकी श्रावक ने शुरु में ही बहुत तेज गर्म दूध उनकी अंजुली में दिया तब मुनि विद्यासागर जी महाराज सहन नहीं कर पाये और अंतराय मानकर बैठ गए। हम सब देख रहे थे उनके मुंख पर किंचित मात्र भी विषाद नहीं था और हाथ लाल-लाल हो गए थे। उनकी उस विशिष्ट मुद्रा को देखकर मैं भाव विह्वल हो गया और उस घटना को मैं आज तक नहीं भूल सका हूँ। उनके पीछे-पीछे हम मन्दिर आये और जैसे ही गुरु महाराज ज्ञानसागर जी आहार करके आये। देखते ही मुस्कुराते हुए बोले-‘आहार चर्या जल्दी हो गई ।' तब हम लोगों ने गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को पूरी स्थिति बतलाई । तो गुरु महाराज यह सुनकर और भीषण गर्मी में केशलोंच-उपवास के बाद अन्तराय को देखते हुए अफसोस करने लगे। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज मुस्कुराते हुए बोले-महाराज जी! आपके आशीर्वाद से मेरा परीषहजय हो जायेगा।'

     

    इस तरह धर्म यात्रा के साथ-साथ मेरे गुरुवर की अन्तर्यात्रा, ज्ञानयात्रा, तपोयात्रा और प्रभावनायात्रा नित्यप्रति चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ती जा रही थी। ऐसे प्रतिभा सम्पन्न गुरु-शिष्य का अनुशिष्य होने का गौरव होता है। उनके जैसे बनने की इच्छा लिए उनके पावन चरणों में नमस्कार करता हूँ...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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