पत्र क्रमांक-१४६
०४-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
ज्ञाता और ज्ञेय में अन्तर्निहित क्रियावती शक्ति के ज्ञायक परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ज्ञानाचरण में प्रणिपात करता हूँ... हे गुरुवर! रेनवाल चातुर्मास में आपने ज्ञान की गंगा बहायी। तब ग्रन्थों में जहाँ कहीं कोई अशुद्धि किसी कारणवश आयी है, वह आप बताते और सुधराते थे। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया-
आचार्य गुरुवर ने करायी भूल-सुधार
‘‘रेनवाल चातुर्मास में एक दिन गुरुदेव ने प्रात:कालीन धर्म-परीक्षा में पं.दौलतराम जी की छहढाला के बारे में बताया कि छहढाला में दौलतराम जी ने जैनधर्म का सार मानो गागर में सागर के समान भर दिया है। आगे एक सुधार बतलाते हुए बोले- ‘चौथी ढाल में श्रावक के शिक्षाव्रतों के अन्तर्गत एक पंक्ति आती है- 'धर उर समता भाव, सदा सामायिक करिये।' इसमें सदा सामायिक करिये' के स्थान पर ‘सामायिक प्रतिदिन करिये।' यह वाक्य अधिक उपयुक्त बैठता है, क्योंकि सामायिक चारित्र तो महाव्रती मुनिराजों का होता है, श्रावक का नहीं, इसलिए सदा के स्थान पर प्रतिदिन बोलना चाहिए।'
गुरुवर ने शुद्ध पाठ पर दिलाया ध्यान
आचार्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की आगम पर इतनी मजबूत पकड़ थी कि वे स्वाध्याय के दौरान अशुद्ध पाठों को बताते थे और उसे संस्कृत व्याकरण से, सिद्धान्त से, अध्यात्म से, साहित्य से, दर्शन से सिद्ध करते थे। ऐसे महान् ज्ञानी गुरुदेव ने एक दिन ‘बृहद् स्वयंभू स्तोत्र' पढ़ाते समय बोले- आजकल के प्रकाशक अज्ञानता के कारण अशुद्ध पाठ छाप देते हैं। हम लोगों ने पूछा जैसे! तब उन्होंने बताया-
‘सर्वस्य तत्त्वस्य भवान् प्रमाता,
मातेव बालस्य हितानुशास्ता।
गुणावलोकस्य जनस्य नेता,
मयापि भक्त्या परिणूयसेऽद्य ॥३५॥
भगवान सुपार्श्वनाथ की स्तुति के इस छन्द में चतुर्थ चरण में ‘परिणूयऽतेद्य' होना चाहिए क्योंकि भवान् प्रमाता शब्दानुसार परिणूयते क्रिया सही है।
स्वजीविते कामसुखे च तृष्णया,
दिवा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजाः ।।
त्वमार्य ! नक्तंदिवमप्रमत्तवा
नजागरेवात्मविशुद्धवर्मनि ॥४८॥
भगवान शीतलनाथ जी की स्तुति के इस छन्द के तीसरे चरण में दिवप्रमाद्वान्' पाठ उपयुक्त बैठता है और भगवान वासुपूज्य की स्तुति का यह छन्द भी शुद्ध नहीं लगता।
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे,
न निन्दया नाथ विवान्तवैरे।
तथापि ते पुण्यगुणस्मृति नः,
पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥५७॥
यहाँ पर चतुर्थ चरण में 'पुनाति चित्तं' पाठ ज्यादा श्रेष्ठ बैठता है।
भगवान मुनिसुव्रत जिनस्तवन की स्तुति में ११५वें छन्द के प्रथम चरण में दुरितमलकलंकमष्टकं के स्थान पर दुरितमलकलंकाष्टकं पाठ अच्छा बैठता है।'' इस प्रकार आप समय-समय पर श्रुतज्ञान के दोषों से संघ को बचाते रहते थे। आपश्री के ज्ञायकभाव को त्रिकाल वंदन करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य