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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 145 - निष्पृही निर्दोष चर्यापालक दादागुरु

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१४५

    ०३-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

    स्वभावगत संवादी, सुखी शान्तिपूर्ण जीवन के स्वामी परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु.. हे गुरुवर! आपकी तपस्या एवं आशीर्वाद के कई चमत्कार रेनवाल वालों ने सुनाये, जो मैं आपको बता रहा हूँ। श्रीमान् गुणसागर जी ठोलिया ने बताया-

     

    गुरु ने दिया अर्थपुरुषार्थ का उपदेश

     

    “आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज बड़े दयालु थे और सीधे-सरल साधु थे। उनकी सेवा में ४ माह तक धर्मचंद जी बाकलीवाल पूरे तन-मन से लगे हुए थे। एक दिन उनके परिजनों ने आचार्य श्री से कहा- यह कुछ भी नहीं करता है। कैसे चलेगा? महाराज! इसे कुछ बुद्धि तो दो- कुछ तो काम-धाम करे। हाथ पै हाथ धरे बैठे रहने से जीवन कैसे चलेगा? तब आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने धर्मचंद जी से पूछा- क्या कारण है?' तब धर्मचंद जी बोले-महाराज यहाँ कोई काम नहीं है । तब आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज बोले-' श्रावक के योग्य जो पुरुषार्थ है वह करना चाहिए। फिर ५-७ मिनिट बाद बोले-तुम्हारा अच्छा समय आ गया है। जैसे बने वैसे पुरुषार्थ करो और माता-पिता की सेवा करो। धर्म को कभी मत भूलना।' तब चातुर्मास के बाद धर्मचंद जी आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज से आशीर्वाद लेकर असम चले गए और वहाँ पुरुषार्थ करके धन और नाम दोनों कमाये।'' इसी प्रकार रेनवाल के रतनलाल जी गंगवाल, जो वर्तमान में सुभाषनगर जयपुर में निवासरत हैं, उन्होंने १५-११-२०१५ को बताया-

     

    आचार्य गुरुवर की तपस्या का चमत्कार

     

    ‘‘सन् १९७० में रेनवाल चातुर्मास में एक दिन जयचंदलाल जी सेठी आचार्य महाराज के पास आये और अपने हाथों की अंगुलियों में हुए चर्म रोग को दिखाकर बोले- क्या मैं आहार दे सकता हूँ? तब ज्ञानसागर जी महाराज बोले- 'यह तो चर्म रोग है, ऐसे रोग वालों से आहार लेने के लिए आगम में निषेध किया गया है। वे काफी दुखी हुये तभी पास में बैठे एक सज्जन ने कहा- 'आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पादप्रच्छालन का गंधोदक अपनी अंगुलियों पर लगाओ यह रोग ठीक हो जायेगा। जयचंदलाल जी उन सज्जन की बात पर विश्वास करके प्रतिदिन गंधोदक लगाने लगे। कुछ ही दिनों में वह रोग कम होते-होते समाप्त हो गया और उन्होंने अन्त में आहारदान देकर पुण्यार्जन किया। उनके मन से सारा दु:ख पलायन कर गया। यह चमत्कारी बात सर्वत्र फैल गई तब रेनवाल के ही जगदीशप्रसाद जी असावा (माहेश्वरी) जो जयचंदलाल जी के मित्र थे। वे यह बात सुनकर उनके पास आये। उन्होंने ३० वर्षों से गर्दन के पीछे चर्मरोग दिखाया और बोले बहुत इलाज करा लिया लेकिन ठीक नहीं हो रहा है। तब जयचंदलाल जी ने उनको भी आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का गंधोदक लगाने की सलाह दी। तब उन्होंने भी वैसा ही किया। देखते ही देखते कुछ दिनों में उनका भी चर्मरोग दूर हो गया। इस तरह आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की तपस्या की सिद्धी के कई उदाहरण हैं।"

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    निष्पृही संत आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज

     

    १९७० किशनगढ़-रेनवाल चातुर्मास में सुबह-शाम स्वाध्याय धर्मचर्चा चला करती थी। मेरे पिताजी श्री गुलाबचंद जी की स्वाध्याय में काफी रुचि होने से वे भी स्वाध्याय में जाया करते थे। एक दिन आकर घर पर बोले- वास्तव में निष्पृही साधु कैसे होते हैं? इसे जानने के लिए पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज को देखें तो उसे पता चल जायेगा। तब मैंने पिताजी से पूछा- 'आपने ऐसा क्या देख लिया?' तब पिताजी बोले-आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ब्रह्मचारी पं. भूरामल शास्त्री की अवस्था में थे तब उन्हें कई मन्त्रों की सिद्धियाँ थीं । एक बार एक गृहस्थ व्यक्ति को कोई विशेष विपत्ति आयी तो पं. भूरामल जी ने एक मंत्रित वस्तु मुझे दी थी और मैंने वह वस्तु उस व्यक्ति को दे दी थी। उससे वह व्यक्ति शीघ्र ही उस विपत्ति से बाहर निकल आया था। बाधाएँ दूर हो गयीं थीं। कुछ वर्ष पश्चात् पं. भूरामल जी ने क्षुल्लक दीक्षा ले ली थी। तब मैं रेनवाल के एक दूसरे व्यक्ति की समस्या लेकर क्षुल्लक ज्ञानभूषण जी के पास गया और उनको सारी बात बतलाई । निवेदन किया कि कोई मन्त्रित वस्तु दे दीजिए जिससे उसका भला हो जाये। तब क्षुल्लक जी बोले-‘गुलाबचंद जी वे सब बातें ब्रह्मचारी अवस्था के साथ ही चलीं गईं। अब तो मैंने पिच्छी धारण कर ली है। पिच्छीधारी ये सब कार्य नहीं करते।' इतना बोलकर वे मौन हो गए। मैं उनकी पिच्छी के महत्त्व और साधुओं की मर्यादा के पालन की दृढ़ता को देखकर अचम्भित रह गया उनकी साधना को प्रणाम करके चला आया। तब मैं गुरुवर ज्ञानसागर महाराज की निष्पृह वृत्ति एवं वीतराग साधना को पहचान पाया। इसी प्रकार दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भी आपके करुणारस के बारे में बताया-

     

    गुरुदेव ने किया स्वाध्यायरूपी चमत्कार

     

    ‘‘रेनवाल चातुर्मास में एक दिन एक श्रावक ने आचार्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के पास आकर असाता कर्मोदय के कारण आये कष्टों को रोते हुए बताया और इन कष्टों से कैसे बचा जाये उसका निवारण पूछा। तब गुरुदेव ने सान्त्वना देते हुए कहा-‘घबराओ नहीं सब ठीक हो जायेगा। ७ दिनों में पद्मपुराण का पूर्ण स्वाध्याय करो। नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर शुरु करना और नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर बंद करना । विनय-भक्तिपूर्वक स्वाध्याय करना और स्वाध्याय की पूर्णता के लिए सात दिन तक कोई वस्तु का खाने में त्याग करना, जाओ सब ठीक हो जायेगा।' सात दिन बाद वह व्यक्ति आया तो बड़ा खुश हँसते हुए बोला आपने हमारे कष्टों को दूर कर दिया। चार दिन बाद हमारे कष्ट कम होते-होते पूर्णरूप से दूर हो गए। आज स्वाध्याय पूर्ण करके आया हूँ। संघस्थ सभी साधु गुरुदेव का यह स्वाध्यायरूपी चमत्कार देख प्रसन्न हो गए।

     

    आचार्य गुरुदेव ने दिया शान्ति के लिए मंत्र

    रेनवाल चातुर्मास में एक दिन एक श्रावक ने शाम को गुरुदेव से पूछा-महाराज! मेरा मन बहुत । अशान्त रहता है। कौन से मंत्र का जाप करूं? तब आचार्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज बोले-‘दुनिया का सबसे बड़ा मंत्र है महामंत्र णमोकार। इसकी जाप, शुद्धि के साथ, सुबह-शाम किया करो। सब अशान्ति भाग जायेगी। समय का ध्यान रखना और अभक्ष्य नहीं खाना। अभक्ष्य खाने से मुख अपवित्र रहेगा तो मंत्र प्रभाव नहीं करेगा, ध्यान रखना।' कुछ दिनों बाद वह व्यक्ति आया और गुरुदेव को बताने लगा महाराज आपने बहुत बड़ा उपकार किया। आपके बताये अनुसार मंत्र जाप शुरु किया तो अशान्ति के सारे कारण दूर हो गये और अब मन पूर्णतः शान्त है। आचार्य महाराज बोले-‘लेकिन मंत्र मत छोड़ना। यही तारेगा तुमको संसार से।'' इस प्रकार आपके आशीर्वाद-तपस्या-वाणी-ज्ञान के अतिशय लोगों ने देखे हैं। आज हम शिष्यानुशिष्य उन संस्मरणों को सुन-सुनकर भावविभोर हो जाते हैं। हे दादागुरु! आप अपने मुनित्व की मर्यादाओं के अनुसार अपनी चर्या का पालन करते हुए भव्यों का दु:ख-दर्द हरते और उन्हें कल्याण का । मार्ग बताते। ऐसे निष्पृही निर्दोष चर्यापालक दादागुरु के पवित्र चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य

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