पत्र क्रमांक-१४९
०७-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
मोहमुक्त चैतन्य अनुविधायी आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आप गुरु-शिष्य कैसे निर्मोही हैं संसारियों के बीच में रहते हुए भी निर्लिप्त रहते हैं। किन्तु आपके निर्मोही आचरण से संसारियों को मोह हो जाता है। वे सदा उसमें लिप्त रहना चाहते हैं। पर ‘बहता पानी, रमता जोगी' को कोई बाँध सका है क्या? वह तो नि:संग वायु के समान सदा बहता रहता है। अंततः वह क्षण आ ही गया। जब आपने किशनगढ़-रेनवाल में चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करके २८ नवम्बर को विहार कर दिया क्योंकि आगम की आज्ञा जो है और दोपहर में ७ कि.मी. चलकर करड ग्राम पहुँचे वहाँ पर एक जैन मन्दिर है किन्तु किसी जैन का घर नहीं है। रात्रिविश्राम करके दूसरे दिन प्रातः ८ कि.मी. चलकर करड से काँकरा ग्राम पहुँचे, वहाँ एक मन्दिर है और १० दिगम्बर जैन घर हैं। समाज ने बड़े उत्साह के साथ आगवानी की। इस सम्बन्ध में कॉकरा के निवासी सूरत प्रवासी श्रीमान् शान्तिस्वरूप पाटनी ने २०१६ ब्यावर चातुर्मास में बतलाया-
बच्चे अपने चहेते महाराज का रखते ध्यान
“सन् १९७0 में रेनवाल चातुर्मास के बाद कड़ाके की ठण्ड में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के साथ मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज एवं २-३ क्षुल्लक, ऐलक महाराज का हमारे गाँव काँकरा (जिला सीकर) में पदार्पण हुआ था। तब लगभग ४५-५० दिन के आस-पास उनका प्रवास रहा कड़ाके की ठण्ड में भी पूरा संघ अपनी चर्या पालन करने में काफी सतर्क था। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज हम बच्चों को प्रोत्साहित करते थे उस समय हम बच्चों की उम्र लगभग १०-१२ वर्ष की थी। जब भी हम बच्चे उनके पास जाते तो वे पढ़ते रहते थे। हम लोगों को देखकर मुस्कुरा देते थे। सुबह धूप निकलने पर चारा बाहर छत पर फैलाने के लिए वे हम लोगों से मंगवाते थे, तो हम लोग कक्ष में से चारा लाकर उनको देते थे। तो वे अपनी पिच्छी से जमीन को साफ करके चारे को वहाँ फैला देते थे। फिर शाम को जब धूप जाने लगती तो हम लोगों से कहते वह चारा लेकर आओ, तो हम लोग ले करके आते तो वे कमरे में पाटे को साफ करके बिछा देते थे। फिर वे गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को लेकर आते और उस पर विराजमान करते थे। फिर उनकी सेवा करते थे। रात्रि में सोते समय वे घास का उपयोग नहीं करते थे। तब हमारे बड़े बुजुर्गों ने कहा था कि तुम लोग अपने महाराज का ध्यान रखा करो। जब वे लेटते थे तो हम लोग उनकी नींद लगने पर उनके ऊपर धीरे से घास-चारे को डालकर धीरे से भाग जाते थे। उन्होंने हम बच्चों को धर्म की बातें पढ़ायीं थीं।"
इसी प्रकार काँकरा प्रवास के बारे में रेनवाल के श्रीमान् गुणसागर जी ठोलिया ने एक संस्मरण सुनाया-
प्रवचनों का प्रभाव : मांसाहारी बना शाकाहारी
“जब आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज संघ सहित काँकरा ग्राम पहुँचे तब वहाँ लगभग डेढ़ माह का प्रवास रहा। प्रतिदिन दोपहर में मुनि विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन होता था। उनकी सरलता और सहजता से दिए गए वैराग्यपूर्ण प्रवचनों से जैन ही नहीं बल्कि अजैन बन्धु भी प्रभावित होते थे। एक दिन काँकरा निवासी अलानूर तेली (मुस्लिम बन्धु) ने मुनि श्री के प्रवचन के बाद भरी सभा में खड़े होकर कहा- ‘महाराज! आज से मैं नियम लेता हूँ मैं कभी भी अण्डा, मछली, मांस का सेवन नहीं करूंगा।' जब काँकरा से संघ का विहार हुआ तो वह मारौठ तक संघ के साथ पद विहार करते हुए गया था और वहाँ से रोते हुए आशीर्वाद लेकर लौटा था।"
इस तरह सन् १९७० वर्ष आपके साथ कदमताल मिलाते हुए गाँव-गाँव नगर-नगर चला, तरहतरह की प्रभावना के दिन देखे और गुरु-शिष्य की तपस्या से प्रभावित होकर उसने स्वर्णिम इतिहास रच दिया और जाते हुए अपने भाई सन् १९७१ को कहकर गया- दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जो अपने लिए तो जीते हैं किन्तु दूसरों का ध्यान रखकर। जिनकी श्वासें स्व-पर हित में तत्पर रहती हैं। जिनकी इन्द्रियाँ स्व-पर हित के लिए कर्म करती हैं। जिनका ज्ञानपुरुषार्थ स्व-पर हित के लिए कर्तव्य करता है। ऐसे ही महापुरुषों से इस दुनियाँ का अस्तित्व खड़ा हुआ है।' सन् १९७0 की उत्साहपूर्ण बातें सुनकर नया वर्ष सन् १९७१ आप गुरु-शिष्य का स्वागत करने के लिए तैयार हो गया और इतिहास में अपना नाम अमर करने के लिए आपके पगों पर, आपकी श्वासों पर, आपके क्रिया-कलापों पर पहरा देने के लिए सावधान खड़ा हो गया।
हे गुरुदेव! मैं भी आपके स्वर्णिम इतिहास को पढ़ने के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा हूँ कि सन् १९७१ ने अपने इतिहास के स्वर्णिम पन्नों पर मेरे दादागुरु और मेरे गुरु के बारे में क्या-क्या टांका है। इस प्रतीक्षा में...
आपका शिष्यानुशिष्य
मुनिवर महिमा
(तर्ज–जे हम तुम चोरी से-“धरती कहे पुकार के'')
छवि मुनिराई ये, मेरे मन भाई ये, बनी है जी अंखियों की नूर।
किया दर्शन जो आपका ॥ टेर।
बालक जैसे प्यारा, रूप है अविकारा, तेज है टपकता, मुखड़े से देखो न्यारा,
दर्शन से नाश, हो, नाश हो, भव-भव के पाप का। छवि...॥१॥
मृदुभाषी ज्ञानदाता, मंगलमय ज्ञानसागर,
विद्याधर गुण आगर, कहूँ या विद्यासागर,
मिटता है शर्ण में, शर्ण में, दु:ख जग के ताप का। छवि...॥२॥
ज्ञानामृत की धारा, सरस मुख बरसै, जिसमें है निज आतम,
शीशे की नाईं दरसै, मिल जाये रास्ता, रास्ता, ‘प्रभु' मोक्ष धाम का । छवि...॥३॥
(श्रद्धा सुमन-पंचम पुष्य, रचयिता-प्रभुदयाल जैन,
प्रकाशक-श्री दि. जैन महिला समाज, केसरगंज, अजमेर
वीर नि. सं. २४९५)