पत्र क्रमांक-१४७
०५-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
भव्यों के सम्यग्ज्ञान उद्घाटक परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन भावों के समक्ष त्रिकालिक नतमस्तक हूँ... हे गुरुवर! जिस प्रकार आप सदा ज्ञान-ध्यान में लीन रहते, इसी प्रकार मेरे गुरुवर आपकी चर्या क्रिया को देख संस्कार पाते और वे भी स्व-पर क्रियाओं के माध्यम से सतत सम्यग्ज्ञानी पुरुषार्थ करते रहते थे। इस सम्बन्ध में कुछ संस्मरण आपको लिख रहा हूँ। रेनवाल के डॉ. सुरेश कुमार जैन सेठी, चाईल्ड स्पेशलिस्ट, जो वर्तमान में गुवाहाटी असम में रहते हैं १८-११-२०१६ को उन्होंने बताया-
बच्चों को लाडले महाराज ने भक्तामर सिखाया
‘‘रेनवाल चातुर्मास में हम और हमारे मित्र अशोक पाटनी, अनिल रावका आदि ५-६ मित्र मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के पास रोज जाया करते थे। वे कभी कहानी तो कभी भजन सुनाया करते थे। वे बच्चों को देखकर बड़े खुश होते थे। उस समय हम लोगों की उम्र लगभग ११-१३ वर्ष के बीच थी। एक दिन महाराज बोले- तुम लोग भक्तामर याद करो।' तो हम लोगों ने कहा-संस्कृत पढ़ना नहीं आता। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज बोले- ‘शाम को तुम लोग आ जाया करो तो उच्चारण सिखा दूंगा।' तब हम लोग प्रतिदिन उनके पास जाने लगे। जैन भवन की छत पर वे हम लोगों को उच्चारण सिखाते थे। हम लोग पुस्तक में देखते थे और वे बिना पुस्तक के ही बड़ी सुरीली आवाज में एक-एक शब्द का उच्चारण करते थे। फिर हम लोग पढ़ते थे। जितना वे उच्चारण कराते उतना हम लोग याद कर लेते थे। आज तक वह सब स्मरण में है। तब हम लोगों ने उनसे पूछा-‘महाराज जी ! आपको ये कब से याद है?' तब उन्होंने बताया-‘जैसे आप लोग आज है ना, ऐसे ही समय पर याद किया था।"
इस प्रकार मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज यदि किसी को समय देते तो संसार की बातें नहीं करते अपितु उनके कल्याणार्थ ज्ञान की बातें करते इसी प्रकार सदलगा के श्रीमान् महावीर जी अष्टगे जो ब्रह्मचारी विद्याधर जी के अग्रज भ्राता हैं, उन्होंने २०१६ ब्यावर में बताया-
जाना तो निश्चित है! किन्तु संयम के साथ या असंयम के साथ? विचार करो
‘‘विद्याधर ने दादा पारिसप्पा को नहीं देखा क्योंकि मेरे जन्म के २ वर्ष बाद उनका स्वर्गवास हो गया था किन्तु विद्याधर को दादीजी काशीबाई का प्यार दुलार खूब मिला। सन् १९७० में मेरी दादी काशीबाई का स्वर्गवास हो गया था। इस कारण १९७0 चातुर्मास में पूरा परिवार दर्शन हेतु नहीं गया, किन्तु मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और रेनवाल गया था। दूसरे दिन हमने मुनि श्री विद्यासागर जी को बताया कि दादी का स्वर्गवास हो गया। तब सुनकर मुनि विद्यासागर जी बोले- ‘अच्छा-अच्छा! उम्र तो काफी हो गई थी। पहले के लोग १00 साल तक जीवित रहते थे और बिना कोई रोग-शोक के बिना तकलीफ के आयु पूर्ण करते थे। सभी को एक दिन यहाँ से जाना है। कोई पहले जाता है, कोई बाद में जाता है। बस विशेषता यह है कि कैसे जाना है-संयम के साथ या असंयम के साथ? इस पर अच्छे से विचार कर लेना चाहिए। वही समझदार कहलाता है। बस उनकी यह प्रेरणा लेकर जब हम घर वापिस आये और सभी परिवार को यह संदेश सुनाया तो सभी सुनकर बहुत भीतर तक चले गये।'' इस प्रकार मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज कोई भी चर्चा में तत्त्व को पकड़ लेते थे। धन्य हैं! ऐसे गुरु-शिष्य को पाकर हम शिष्यानुशिष्य कृत-कृत्य हो गए। उनके श्री चरणों की धूल तब तक बना रहूँ जब तक मुक्ति न मिले..
आपका
शिष्यानुशिष्य