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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

रागी व्यक्ति वीतरागी बनने का संकल्प लेता जो वीतरागी बन चुके उनके आधार पर


संयम स्वर्ण महोत्सव

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मंगल प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज (कुंडलपुर) [22/05/2016]

 

कुण्डलपुर। रागी व्यक्ति वीतरागी बनने का संकल्प लेता जो वीतरागी बन चुके उनके आधार पर लेता है। वे सफल हुये तो हम भी साधना कर सफल होंगे। मोक्ष मार्ग में जो अनुष्ठान होते हैं। वे अवश्य ही फलीभूत हो सकते हैं। बड़े बाबा के अनुष्ठान में देवें नारकी भाग नहीं ले सकते। मनुष्य ही सहभागी बढ़ सकता है किन्तु जो भोगों में लिप्त है वे सम्मिलित नहीं हो सकते। जो देख रहा है वह दिखता नहीं और जो दिखता है वो देखता नहीं। आँख पूरी दुनिया को देखती है किन्तु अपने आप को नहीं देख पाती।

प्राण वाले को प्राणी कहते हैं प्राणी तभी रहता है जब उसमें पानी रहता है। अकाल पड़ा 12 वर्ष का वर्षा नहीं हुई अनुष्ठान करने वाले चपेट में आ गये। शास्त्रों में लिखा है बड़े-बड़े हिंसक पशु, सर्प, मगरमच्छ, जैसे क्रूर पशु भी धर्म मार्ग पर चलकर स्वर्ग जा सकते हैं। आज विचित्र स्थिति है पानी बिक रहा है और प्राणी भी बिक रहा है। पशु-पक्षी यदि मोक्ष मार्ग में पढ़ सकते हैं तो पशुपति के साथ रहने वाले मनुष्य मोक्ष क्यों नहीं पा सकते हैं। पवित्र क्षेत्रों पर प्रदुषित वस्तुएं प्रवेश न कर पाये। तीर्थ क्षेत्रों को 5 स्टार और 7 स्टार जैसी सुविधा जनक मत बनाओं इन पवित्र क्षेत्रों को शुद्ध बना रहने दो।

यह अनुष्ठान भारत में शाकाहार का गौंढ़ होना और मांसाहार का प्रचलन बढ़ना शिथिलता के कारण आया है। शाकाहार की ऐसी वस्तुओं का उत्पादन होने लगा जिनमें मांसाहारी पदार्थ डले हैं। ज्ञात नहीं हो पाता है। बाजार की वस्तुएं न लेकर घर में ही निर्माण करके शाकाहार वृत का पालन किया जा सकता है। वृत के पालन करने में कठिनाईयों का आना स्वाभिक है। अहिंसा धर्म के पालन हेतु ऐसी वस्तुओं का त्याग करना चाहिए। जिनमें मांस आदि पदार्थों का उपयोग होता है। आज भी धर्म उपवास करने की परम्परा है। उपवास करना एक औषध की तरह है। इन्द्री के दास होते हैं। आत्मा देखती है किन्तु दिखती नहीं दृढ़ता की कमी है शरीर के अधीन होकर चलागें। बड़े बाबा के पास जाना चाहते हो तो मन वचन मात्र से शुद्ध होना चाहिए। मान, माया, क्रोध लोभ का त्याग होना जरूरी है। एक हाथ में विस्किट और एक हाथ में माला ऐसा प्रचलन प्रारम्भ हो गया है जो सर्वथा विपरीत है।

उपरोक्त उद्गार आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने रविवारीय प्रवचनों में विद्या भवन में अभिव्यक्त किए गये।

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