गृहस्थ जीवन
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने आज अपने प्रवचनों में कहा क़ी गृहस्थ जीवन में धन की आवश्यकता होती है और गृहस्थ आश्रम चलाने के लिए धन को गौंड़ नही करते हुए भी उसे सिरमौर नही बनाना चाहिए इसी तरह धर्म को सुरक्षित रखने के लिए अर्थ का सहारा ले सकते है इसमें कोई बाधा नही है किंतु आज कल की व्यवसथा इसके विपरीत हो गई है व्यवस्था बड़ी हो गई है बड़े बड़े धन वालो की लाइन लग गई है।उन्होंने कहा कि अर्थ के लिए बड़ा कार्य आवश्यक है दुकान यदि मौके पर नही होगी तो पुराना ग्राहक तो आ जायेगा नया नही आएगा और दूकान मौके की होगी तो पगड़ी भी बड़ी ही दी गई होगी ।
साहूकारी एवं बैंक वाले भी ऐसा ही करते है जो भी ग्राहक बनाये जाते है वह बने रहते है और उनके मुनाफे में से ही नए ग्राहकों को ऋण देते रहते है इसी प्रकार मौके की दूकान होती है तो मकान मालिक अपना किराया बढ़ाता जाता है इसलिए व्यापार को उस हिसाब से मुनाफे का करना पड़ता है इसी तरह आज धार्मिक अनुष्ठान बड़े स्तर के हो रहे है उसमें बड़े स्तर का दान आता है तो खर्चे भी उसी प्रकार होते है इन अनुष्ठानों के माध्यम से जो धर्म से विमुख होता है वह भी इसमें शामिल हो सकता है। केवल पैसे की बात मत किया करो बो तो आएगा ही लक्ष्मी के पीछे भागोगे बह उतनी ही दूर जायेगी तथा लक्ष्मी से जितने दूर होंगे बो उतना ही पास आएगी । लक्ष्मी के पिछलग्गू नहीं बनो। धर्म को हमेशा अपने पास रखो तब अपने आप लाभ होता जायेगा। धन तो आएगा परंतु उसे सिरमौर नहीं बनाओ ।उन्होंने कहा कि मोर की आवाज सुनकर सारे सांप भाग जाते हैं इसलिए उसे सिरमौर कहा गया है।
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