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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

इन्द्रियों को काम में नहीं लेते


संयम स्वर्ण महोत्सव

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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने प्रवचनों में  कहा की जब हम सुनते हैं तब कान का प्रयोग करते हैं और बाकि 4 इन्द्रियों को काम में नहीं लेते हैं । हाथ में दीपक होता है तो हम दीपक को देखते हैं अन्यत्र नहीं देखते हैं इससे स्पष्ट होता है हमारा उपयोग जब स्थिर होता है तो दिखता है जिसको हम देखना चाहते हैं यदि स्थिर नहीं होता तो बही दिखता है जो मन सोचता है जैंसे दुकानदार ग्राहक को देखता है अपने सामान को बारबार नहीं देखता क्योंकि दुकान उसकी होती है सामान उसका होता है ग्राहक उसका नहीं होता। आप यदि अरबपति हैं तो आपको लखपति दिखाई नहीं देगा परन्तु सच ये है की आपकी रोजी रोटी उस लखपति ग्राहक से ही चलने बाली है और आपको उस गरीब ग्राहक के लिए अपना माल दिखानेे की उठक बैठक तो करनी ही पड़ती है।आज के परिवेश में तो अरवपति ,उद्योगपति अपने उत्पाद को बिक्रय करने के लिए ग्राहक को घर पहुँच सेवा भी प्रदान करने लगे हैं |

 

आज व्यापारी अपने माल को खपाने के लिए तरह तरह के उपक्रम करता है उसे तो बस अपना मुनाफा ही दिखाई देता है न सोता है, न आराम करता है बस नोटों की खुशबू के पीछे उसका मन दौड़ता है आप नोटों की गड्डियों के पीछे न खाना देख रहे हैं ,न पीना देख रहे हैं बस नोटों की गड्डियां देख रहे हैं फिर बाद में इन नोटों की गड्डियों को लेकर डॉक्टर के पीछे दौड़ना पड़ता है। फिर आपकी दृष्टि दवाई की और जाती है और डॉक्टर की दृष्टि नोटों की गड्डियों की ओर।
 

दुनिया इस चक्रव्यूह में हैरान है परंतु ज्ञानी जीव दुनिया के इस चक्रव्यूह को देखकर हैरान है और सोचता है कि मरघट तो सबका एक है चाहे बो अरबपति हो, करोड़पति हो या राष्ट्रपति हो सबको एक ही तरीके से एक सामान व्यव्हार किया जाता है। वहाँ कोई भेदभाव नहीं होता सबका एकसा स्वागत होता है। क्या जीवन है क्या इसकी लीला है ,कहाँ से प्रारम्भ कहाँ इसका समापन है।
 

उन्होंने कहा की जब आप धर्म की गहराई को नापोगे तो समझ आएगा क़ि दुनिया का ये गोल गोल चक्कर बेकार है । अर्थ का अर्थ धन भी होता है और अर्थ का अर्थ जीवन के जटिल प्रश्नों का उत्तर भी होता है अर्थ (धन) के पीछे भागते है उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है जो सच्चे अर्थ के पीछे जाते हैं धर्म की शरण में उनका जीवन सार्थक और समर्थ हो जाता है । आपने जीवन का मंथन किया आपको फिर भी कोई सार नहीं मिला बस ये अथाह संसार मिला । आप इस धर्मसभा में आये और आपका मन दुकान की और भाग रहा है , नोटों की गड्डियों की और दौड़ रहा है तो फिर आपको यहां से कुछ हासिल नहीं होने बाला है।
 

सब अपने अपने प्रयोजन के लिए कार्य कर रहे हैं परंतु जो अपने भीतर के प्रयोजन के लिए करेगा उसे सफलता अवश्य मिलेगी।

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