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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. राग-द्वेष विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार राग से संसार का पदार्थ भोग्य हो जाता है और द्वेष से अभोग्य हो जाता है, इष्टानिष्ट कल्पना करने से ऐसा हो जाता है। राग-द्वेष का नाम प्रवृत्ति है और इनके अभाव का नाम निवृत्ति है। पर-पदार्थों से राग या आकर्षण पाप के लिए ही होता है। बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष करना छोड़ दो, फिर धीरे-धीरे अबुद्धिपूर्वक राग-द्वेष होना भी छूट जायेगा। ज्ञानियों की होड़ (स्पर्धा) राग-द्वेष कम करने में लगी रहती है। राग-द्वेष कम करना ही स्वभाव की ओर जाना है। राग-द्वेष से कर्म बंध होता है, इसके फलस्वरूप शरीरादि मिलते हैं, इसी का नाम संसार है। संसार की चक्की को बंद करना चाहते हो तो राग-द्वेष का कनेक्शन हटा दो। राग-द्वेष रूपी बोझ को उतारने (हटाने) का नाम चारित्र है, धारण करने का नाम नहीं। हमारे जीवन की नाव राग-द्वेष रूपी पानी से पूर्ण खाली होनी चाहिए, तभी संसार सागर से पार हो सकते हैं। राग-द्वेष के बहाव में बहने वाला कभी भी नदी पार नहीं कर सकता। विषयों में रस तब तक आता है जब तक राग मौजूद रहता है। रुचि होने पर, राग होने पर, गंदी वस्तु में भी गुण दिखने लगते हैं। जैसे चुनाव में पर पक्ष की बात अच्छी नहीं लगती, वैसे ही साधु को राग-द्वेष व मोह की बात अच्छी नहीं लगनी चाहिए, वरन् पर-पक्ष की ओर जाने से आपकी हार निश्चित है। समता और ध्यानाग्नि के माध्यम से राग-द्वेष रूपी तुषार से बचा जा सकता है। राग वह बारुद है, जिस पर वह बरस जाये, वह जल जाता है। राग की पहचान करने के लिए रागी की दशा देख लो, राग की अपने आप पहचान हो जायेगी, क्योंकि रागी हमेशा दुखी रहता है, रागी घर से नहीं निकल पाता, अंत में निकाल दिया जाता है। राग बिना भी जी सकते हो-जैसे निर्धूम अग्नि। राग-द्वेष से ऊपर उठने वालों को जड़-पदार्थों से भी ऊपर उठना चाहिए, ममत्व का त्याग करना चाहिए। रोग से मुक्ति चाहते हो तो कुपथ्य को दूर से ही छोड़ देना चाहिए, वैसे ही दुख से मुक्ति चाहते हो तो दु:ख के कारण राग-द्वेष को दूर से ही छोड़ देना चाहिए। राग-द्वेष की कारणभूत वस्तुओं को मत हटाओ बल्कि उनसे अपनी दृष्टि को हटाओ,कर्मबंध से बच जाओगे। राग-द्वेष का आह्वान हमारी कमजोरी को प्रदर्शित करता है, मतलब यह हुआ वस्तु आपसे मतलब नहीं रखती आप उससे मतलब रखते हैं। इस मार्ग पर राग-द्वेष को छोड़ने के उद्देश्य से चल रहे हैं तो बाह्य से सम्बन्ध पहले हटाना चाहिए। घड़ी का पैंण्डूलम दायें-बायें होता रहता है, इससे सिद्ध होता है कि घड़ी चल रही है। वैसे ही राग-द्वेष चलता रहता है तो इससे सिद्ध होता है कि कर्म बंध भी होता रहता है, ऐसा श्रद्धान रखना चाहिए। राग-द्वेष के कारण संसार-भ्रान्ति चलती रहती है। काँटा खींचकर निकाल दिया, ऊपर आ गया तो कह दिया देखो ऊपर आ गया तुम ही निकाल लो, उससे द्वेष रखकर यदि नहीं निकालोगे तो वह चाँई बन जायेगी। इसलिए दोष को (द्वेष को) गौण करके राग को निकालने का प्रयास करो। अधिक प्रसन्नता दिखलाना भी राग का ही रूप है, राग की ही अभिव्यक्ति है। अज्ञानी जीव में उपयोग की धरती पर ही राग-द्वेष रूपी अंकुर उत्पन्न होते हैं। राग-द्वेष से वही बच पाता है जो गुप्ति में लीन रहता है। वस्तु स्वरूप न जानने से वस्तु अच्छी, बुरी लगती है यह सब अज्ञान की धरती पर ही घटित होता है। आप सभी इतने अधिक रागी होकर भी एक अकेले महावीर प्रभु को रागी नहीं बना पाये। न हि उनके साथ हो सके और न ही उन्हें अपना बना सके। आज सुना है ऊपर से खूब खाते पीते रहो भीतर राग-द्वेष छूट जावेगा ऐसी मशीन आने लगी है, लेकिन इनसे सावधान रहना। रागादि की उत्पत्ति में आत्म तत्व का हाथ है, भले वह अज्ञान मूलक है। संसार के पदार्थों की ओर आप राग के कारण ही आकर्षित होते हो। रागादि भाव चिन्तागत हैं, इनका विमोचन करते समय समझ में आ जाता है। रागद्वेष छोड़ने का नाम ही तप, साधना है। रागद्वेष रूपी सर्प ज्ञान व वैराग्य के मंत्र से ही रोके जा सकते हैं। रागद्वेष से रहित अवस्था का नाम ही अहिंसा है। रागद्वेष में परिणमन करने वाला बहिरात्मा है। निमित-नैमितिक सम्बन्ध को जो नहीं जानता वह रागद्वेष को कभी छोड़ ही नहीं सकता। रागद्वेष हटाने का लक्ष्य नहीं है तो उसके बिना साधना शून्य मानी जाती है। बड़ी सुकुमारता से रागद्वेष छोड़ा जाता है ताकि आत्मा को धक्का न लगे। जैसे चावल के ऊपर की ललाई बड़ी सुकुमारता से हटाते हैं, ताकि चावल को क्षति न पहुँचे। बाल मात्र भी राग विद्यमान है तो सभी आगम की जानने वाला भी आत्मा को नहीं जान सकता, आत्मा का अनुभव नहीं कर सकता। राग-द्वेष और हठाग्रह के द्वारा जो दोष होते हैं उनसे बचते रहना चाहिए। रागद्वेष को छोड़ने की प्रणाली आंतरिक साधना मानी जाती है। रागद्वेष रूपी कड़वाहट के दूर होने पर ही आत्मा का स्वाद आता है। पंचेन्द्रिय विषयों से मात्र राग-द्वेष का ही लाभ होता है। यह संसारी प्राणी रागद्वेष को जहर समझकर भी उन्हें करता ही रहता है, क्योंकि अनादिकाल से गहरे संस्कार पड़े हुए हैं और वह कर्मों की थपेड़ों से पीड़ित है। जिसे भूख लगी रहती है वह अच्छा/बुरा नहीं देखता, बिना रागद्वेष किये पेट भर लेता है। रागद्वेष करना एक अविवेकपूर्ण कार्य है, यह विवेक से जान लेना चाहिए। इष्टानिष्ट पदार्थों में मोह मत करो, रागद्वेष मत करो, चित्त को स्थिर करने का यही उपाय है। जानने के लिए तीन लोक है और छोड़ने के लिए रागद्वेष व मोह। संसार में कहीं भी चले जाओ इष्टानिष्ट पदार्थ हमेशा उपस्थित रहेंगे। कर्म बंध से बचने का उपाय है, इनमें रागद्वेष नहीं करना।
  2. रसना इन्द्रिय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार रसना इन्द्रिय स्वयं कहती है कि बाहर रस ना। बाह्य पदार्थों में रस नहीं है और फिर भी रस माँगती है तो समझना उसके पास सिर ना (बुद्धि नहीं है) फिर भी असर ना हो तो क्या करें? रसना इन्द्रिय का लोलुपी सुभौम, चक्रवर्ती की सम्पदा पाकर भी नरकगामी हुआ। इन्द्रियों का विषयों की ओर न जाने देना इन्द्रिय दमन कहलाता है। रसना इन्द्रिय पर जो नियंत्रण रखता है, वह अकारण अस्वस्थ्य नहीं होता है। रसना इन्द्रिय में आते ही वचन बल आ जाता है। स्पर्शन और रसना, भोगेन्द्रियाँ मानी जाती हैं। अचित्त प्रासुक भोजन (फलादि) से रसनेन्द्रिय विजय नामक मूलगुण का पालन होता है।
  3. रस विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार इस जीव को जब तक पुद्गल में रस आ रहा है, तब तक आत्मा का रस नहीं आ सकता। संसार के विषयों में रस लेने वाले को समयसार का रस नहीं आ सकता।
  4. रत्नत्रय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार रत्नत्रय पर भरोसा आत्मा का रहे, मन का नहीं मन तो तस्कर है। आज भी पंचमकाल में, भरतक्षेत्र में रत्नत्रयधारी भावलिंगी मुनि हैं। ऐसा पूर्ण श्रद्धान रखना चाहिए। रत्नत्रय तो वही है भले आज हीन संहनन हो। बाजार में सोना-चाँदी रत्न तो मिल सकते हैं, लेकिन सम्यक दर्शन आदि रत्न नहीं मिल सकते। रत्नत्रय तो आत्मा को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकता। प्रभु कृपा, गुरु कृपा से ही यह महान् रत्नत्रय की निधि प्राप्त होती है। संसारी प्राणी रत्नत्रय की चाह न करके पाषाण खण्ड रूपी रत्नों की चाह करता है, अर्थात् चिंतामणि रत्न को छोड़कर काँच के टुकड़ों को प्राप्त करना चाहता है। रत्नत्रय को धारण किए बिना निश्चय मोक्षमार्ग प्राप्त नही होता। रत्नत्रय की आराधना हमेशा बनी रहे, सभी साधक यही भावना रखते हैं, लेकिन जब शरीर इसके लिए साथ नहीं देता तो वह उस रत्नत्रय धर्म के लिए शरीर का साथ छोड़ देता है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की काया कृश् थी पर रुनत्रय का मावा सफेद ही था।
  5. महावीर भगवान के निर्वाण के उपरान्त भरत क्षेत्र में तीर्थकरों का अभाव हुआ। वह इस भरत क्षेत्र के प्राणियों का एक प्रकार से अभाग्य ही कहना चाहिए। भगवान् के साक्षात् दर्शन और उनकी दिव्यध्वनि को सुनने का सौभाग्य जब प्राप्त होता है तो संसार की असारता के बारे में सहज ही ज्ञान और विश्वास हो जाता है। आज जो आचार्य-परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है और जो महान् पूर्वाचार्य हमारे लिए प्रेरणादायक हैं उनके माध्यम से यदि हम चाहें तो जिस और भगवान् जा चुके हैं, पहुँच चुके हैं, उस ओर जाने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। आचार्यों ने, जो संसार से ऊपर उठने की इच्छा रखते हैं उन्हें दिग्दर्शन कराया है, दिशाबोध दिया है, उसका लाभ लेना हमारे ऊपर निर्भर है। उन्होंने जीवन पर चिन्तन, मनन और मन्थन करके नवनीत के रूप में हमें जो ज्ञान दिया है उसमें अवगाहन करना और आत्म तत्व को पहचानना, विषय-कषाय से युक्त संसारी प्राणी के लिए टेढ़ी खीर है। आसान नहीं है। पर फिर भी कुछ बातें आपके सामने रख रहा हूँ। आचार्यों के साहित्य में अध्यात्म की ऐसी धारा बही है कि कोई भी ग्रन्थ उठायें, कोई भी प्रसंग ले लें, हर गाथा, हर पद पर्याप्त है। उसमें वही रस, वही संवेदन और वही अनुभूति आज भी प्राप्त हो सकती है जो उन आचार्यों को प्राप्त हुई थी। पर उसे प्राप्त करने वाले विरले ही जीव हैं। उसे प्राप्त तो किया जा सकता है पर सभी प्राप्त कर लेंगे, यह नहीं कहा जा सकता। मात्र अहिंसा का सूत्र ले लें। महावीर भगवान् ने अहिंसा की उपासना की, उनके पूर्व तेईस तीर्थकरों ने भी और उनके पूर्व भी इस अहिंसा की उपासना की जाती रही। अहिंसा के अभाव में आत्मोपलब्धि संभव नहीं है। विश्व का प्रत्येक व्यक्ति शान्ति चाहता है। जीवन जीना चाहता है। सुख की इच्छा रखता है और दुख से भयभीत है। दुख निवृत्ति के उपाय में अहर्निश प्रयत्नवान है लेकिन वास्तविक सुख क्या है इसकी जानकारी नहीं होने से तात्कालिक सुख, भौतिक सुख को पाने में लगा हुआ है। इसी में अनंतकाल खो चुका है। महावीर भगवान् ने जो अहिंसा का उपदेश दिया है वह अनंत सुख की इच्छा रखने वाले हम सभी के लिए दिया है। उस अहिंसा का दर्शन करना उसके, स्वरूप को समझना भी आज के व्यस्त जीवन में आसान नहीं है। यहाँ हजारों व्यक्ति विद्यमान हैं और सभी धर्म श्रवण कर रहे हैं। वास्तव में श्रवण तो वही है, जो जीवन को परिवर्तित कर दे। प्रवचन सुनने के साथ-साथ आप के मन में ख्याल बना रहता है कि प्रवचन समाप्त हो और चलें। यह जो आकुलता है, यह जो अशान्ति है, यह अशांति ही आपको अहिंसा से दूर रखती है। आकुलता होना ही हिंसा है। दूसरों को पीड़ा देना भी हिंसा है लेकिन यह अधूरी परिभाषा है। इस हिंसा के त्याग से जो अहिंसा आती है वह भी अधूरी है। वास्तव में जब तक आत्मा से रागद्वेष परिणाम समाप्त नहीं होते तब तक अहिंसा प्रकट नहीं होती। अहिंसा की परिभाषा के रूप में महावीर भगवान् ने संदेश दिया है कि ‘जियो और जीने दो।' 'जियो' पहले रखा और 'जीने दो' बाद में रखा है। जो ठीक से जियेगा वही जीने देगा। जीना प्रथम है तो किस तरह जीना है यह भी सोचना होगा। वास्तविक जीना तो रागद्वेष से मुक्त होकर जीना है। यही अहिंसा की सर्वोत्तम उपलब्धि है। सुना है विदेशों में भारत की तुलना में हत्याएँ कम होती हैं लेकिन आत्म-हत्याएँ अधिक हुआ करती हैं। जो अधिक खतरनाक चीज है। स्वयं अपना जीना ही जिसे पसंद नहीं है, जो स्वयं के जीने को पसंद नहीं करता, जो स्वयं के जीवन के लिए सुरक्षा नहीं देता वह सबसे अधिक खतरनाक साबित होता है। उससे क्रूर और निर्दयी और कोई नहीं है। वह दुनिया में शान्ति देखना पसंद नहीं करेगा। शान्ति के अनुभव के साथ जो जीवन है उसका महत्व नहीं जानना ही हिंसा का पोषण है। आकुल, व्याकुल हो जाना ही हिंसा है। रात-दिन बेचैनी का अनुभव करना, यही हिंसा है। तब ऐसी स्थिति में जो भी मन, वचन काय की चेष्टाएँ होंगी उनका प्रभाव दूसरे पर भी पड़ेगा और फलस्वरूप द्रव्य-हिंसा बाह्य में घटित होगी। द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा, ये दो प्रकार की हिंसा हैं। द्रव्य हिंसा में दूसरे की हिंसा हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है किन्तु भाव-हिंसा के माध्यम से अपनी आत्मा का विनाश अवश्य होता है और उसका प्रभाव भी पूरे विश्व पर पड़ता है। स्वयं को पीड़ा में डालने वाला यह न सोचे कि उसने मात्र अपना घात किया है, उसने आसपास सारे विश्व को भी दूषित किया है। प्रत्येक धर्म में अहिंसा की उपासना पर जोर दिया गया है। किन्तु महावीर भगवान् का संदेश अहिंसा को लेकर बहुत गहरा है। वे कहते हैं कि प्राण दूसरे के ही नहीं अपने भी हैं। हिंसा के द्वारा दूसरे के प्राणों का घात हो ही, ऐसा नहीं है पर अपने प्राणों का विघटन अवश्य होता है। दूसरे के प्राणों का विघटन बाद में होगा, पर हिंसा के भाव मात्र से अपने प्राणों का विघटन पहले होगा। अपने प्राणों का विघटन होना ही वस्तुत: हिंसा है। जो हिंसा का ऐसा सत्य-स्वरूप जानेगा वही अहिंसा को प्राप्त कर सकेगा। "बिन जाने तै दोष गुणन को कैसे तजिये गहिये"- गुण और दोष का सही-सही निर्णय जब तक हम नहीं कर पायेंगे तब तक गुणों का ग्रहण और दोषों का निवारण नहीं हो सकेगा। आज तक हम लोगों ने अहिंसा को चाहा तो है लेकिन वास्तव में आत्मा की सुरक्षा नहीं की है। आत्मा की सुरक्षा तब हो सकती है जब भावहिंसा से हमारा जीवन बिल्कुल निवृत्त हो जाये। भाव-हिंसा के हटते ही जो अहिंसा हमारे भीतर आयेगी उसकी महक, उसकी खुशबू-बाहर भीतर सब और बिखरने लगेगी। जो व्यक्ति राग करता है या द्वेष करता है और अपनी आत्मा में आकुलता उत्पन्न कर लेता है वह व्यक्ति संसार के बंधन में बंध जाता है और निरंतर दुख पाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति स्वयं बंधन को प्राप्त करेगा और बंधन में पड़कर दुखी होगा, उसका प्रतिबिंब दूसरे पर पड़े बिना नहीं रहेगा, वह वातावरण को भी दुखमय बनायेगा। एक मछली कुएँ में मर जाये तो उस सारे जल को गंदा बना देती है। जल को जीवन माना है तो एक प्रकार से जीने के लिए जो तत्व था जीवन था वही विकृत हो गया। एक व्यक्ति रोता है तो वह दूसरे को भी रुलाता है। एक व्यक्ति हँसता है तो दूसरा भी हँसने लगता है। फूल को देखकर बच्चा बहुत देर तक रो नहीं सकता। फूल हाथ में आते ही वह रोतारोता भी खिल जायेगा, हँसने लगेगा और सभी को हँसा देगा। हँसाये ही यह नियम नहीं है किन्तु प्रभावित असर करेगा। आप कह सकते हैं कि कोई अकेला रो रहा हो तो किसी दूसरे को क्या दिक्कत हो सकती है? किन्तु 'आचार्य उमास्वामी' कहते हैं कि शोक करना, आलस्य करना, दीनता अभिव्यक्त करना, सामने वाले व्यक्ति पर प्रभाव डाले बिना नहीं रहते। आप बैठकर शांति से दत्तचित्त होकर भोजन कर रहे हैं। किसी प्रकार का विकारी भाव आपके मन में नहीं है। ऐसे समय में यदि आपके सामने कोई बहुत भूखा व्यक्ति रोटी मांगने गिड़गिड़ाता हुआ आ जाता है तो आप में परिवर्तन आये बिना नहीं रहेगा। उसका रोना आपके ऊपर प्रभाव डालता है। आप भी दुखी हो जाते हैं और यह असातावेदनीय कर्म के बंध के लिए कारण बन सकता है। इसलिए ऐसा मत समझिये कि हम राग कर रहे हैं, द्वेष कर रहे हैं तो अपने आप में तड़प रहे हैं, दूसरे के लिए क्या कर रहे हैं ? हमारे भावों का दूसरे पर भी प्रभाव पड़ता है। हिंसा का संपादन कर्ता हमारा रागद्वेष परिणाम है। शारीरिक गुणों का घात करना द्रव्यहिंसा है और आध्यात्मिक गुणों का घात करना, उसमें व्यवधान डालना भावहिंसा है। भावहिंसा, ‘स्व' 'पर' दोनों की हो सकती है। गृहस्थाश्रम की बात है। माँ ने कहा अंगीठी के ऊपर दूध है भगौनी में। उसे नीचे उतार कर दो बर्तनों में निकाल लेना। एक बर्तन में दही जमाना है और एक मैं दूध ही रखना है। जो छोटा बर्तन है उसे आधा रखना उसमें दही जमाने के लिए सामग्री पड़ी है और दूसरे बर्तन में जितना दूध शेष रहे, रख देना। दोनों को पृथक्-पृथक् रखना। सारा काम तो कर लिया पर दोनों बर्तन पृथक् नहीं रखे। परिणाम यह निकला कि प्रात:काल दोनों में दही जम गया। एक में दही जमाने का साधन नहीं था फिर भी जम गया, वह दूसरे के संपर्क में जम गया। जब जड़ पदार्थ दूध में संगति से परिवर्तन आ गया तो क्या चेतन द्रव्य में परिवर्तन नहीं होगा ? परिवर्तन होगा और एक-दूसरे पर प्रभाव भी पड़ेगा। परिवर्तन प्रत्येक समय प्रत्येक द्रव्य में हो रहा है और उसका असर आसपास पड़ रहा है। हम इस रहस्य को समझ नहीं पाते, इसलिए आचार्यों ने कहा कि प्रमादी मत बनो, असावधान मत होओ। बुद्ध कहते हैं कि प्राणियों पर करुणा करो, यीशु कहते हैं कि प्राणियों की रक्षा करो और नानक आदि सभी कहते हैं कि दूसरे की रक्षा करो किन्तु महावीर कहते हैं कि स्वयं बचो। दूसरा अपने आप बच जायेगा। दूसरे को बचाने जाओगे तो वह बचे ही यह अनिवार्य नहीं है लेकिन स्वयं रागद्वेष से बचोगे तो हिंसा संभव ही नहीं है। 'लिव एण्ड लेट लिव'- पहले तुम खुद जियो जो खुद जीना चाहेगा वह दूसरे के लिए जीने में बाधा डाल ही नहीं सकता। हमारे जीवन से दूसरे के लिए तभी तक खतरा है जब तक हम प्रमादी हैं, असावधान हैं। 'अप्रमती भव' प्रमाद मत करो। एक क्षण भी प्रमाद मत करो, अप्रमत्त दशा में लीन रहो। आत्मा में विचरण करना ही अप्रमत्त दशा का प्रतीक है। वहाँ राग नहीं, द्वेष नहीं इसलिए वहाँ पर हिंसा भी नहीं है। बंधन में वही बँधेगा जो राग द्वेष करेगा और अपनी आत्मा से बाहर दूर रहेगा। फिर चाहे वह किसी भी गति का प्राणी क्यों न हो। वह देव भी हो सकता है। वह तिर्यञ्च हो सकता है। वह नारकी हो सकता है। वह मनुष्य भी हो सकता है। मनुष्य में भी गृहस्थ हो सकता है या गृह-त्यागी भी हो सकता है। वह सन्त या ऋषि भी हो सकता है। जिस समय जीव रागद्वेष से युक्त होता है उस समय उससे हिंसा हुए बिना नहीं रहती। देर-सबेर जब भी बढ़े चौबीस घंटे अप्रमत्त अवस्था की ओर बढ़ें अप्रमत रहना प्रारंभ करे तभी कल्याण है। अहिंसा वहीं पल सकती है जहाँ प्रमाद के लिए कोई स्थान नहीं है। प्रमाद यानि आपे में न रहना। सबसे खतरनाक चीज है आपे में न रहना। Out of Control यानि अपने ऊपर नियंत्रण नहीं होना ही प्रमाद है। वैज्ञानिक विकास विदेशों में बहुत हो रहा है। किन्तु व्यक्ति आपे में नहीं है इसलिए आत्म-हत्या की ओर जा रहा है। अपने आत्म-हित के प्रति लापरवाही भी प्रमाद है। चिंता-सरोवर जहाँ वह डूब जाता, सद्ध्यान से स्खलित जो ऋषि कष्ट पाता। तालाब से निकल बाहर मीन आता, होता दुखी, तड़पता मर शीघ्र जाता॥ यह स्वभाव से बाहर आना ही अभिशाप का कारण बनता है। तालाब से मछली बाहर आ जाती है तो तड़पती है, दुखी होती है और मरण को प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार योगी भी क्यों न हो, भोगों की तो बात ही क्या, जिस समय वह सीमा अपनी उल्लंघन कर देता है अर्थात् आत्मस्वभाव को छोड़कर प्रमाद में आ जाता है तो उसे भी कर्मबन्ध का दुख उठाना पड़ता है। बाहर आना ही हिंसा है और अंदर रहना ही अहिंसा है। अहिंसा की इतनी अमूल्य परिभाषा हमें अन्यत्र नहीं मिलती और जहाँ आकर सारे दर्शन रुक जाते हैं वहाँ से महावीर भगवान् की अहिंसा की विजय पताका फहराना प्रारंभ हो जाती है। आत्म-विजय ही वास्तविक विजय है। आज भी अहिंसा का अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग होता है न्यायालय में। वहाँ पर भी भाव-हिंसा का ध्यान रखा जाता है। भावहिंसा के आधार पर ही न्याय करते हैं। एक व्यक्ति ने निशाना लगाकर गोली चलायी, निशाना मात्र सीखने के लिए लगाया था। निशाना चूक गया और गोली जाकर लग गयी एक व्यक्ति को और उसकी मृत्यु हो गयी। गोली मारने वाले व्यक्ति को पुलिस ने पकड़ लिया। उससे पूछा गया कि तुमने गोली चलायी ? उसने कहा चलायी है किन्तु मेरा अभिप्राय मारने का नहीं था। मैं निशाना सीख रहा था, निशाना चूक गया और गोली लग गयी। चूंकि उसका अभिप्राय खराब नहीं था इसलिए उसे छोड़ दिया गया। दूसरा-एक व्यक्ति निशाना लगाकर किसी की हत्या करना चाहता था। वह गोली मारता है, गोली लगती नहीं और वह व्यक्ति बच जाता है और गोली मारने वाले को पुलिस पकड़ लेती है। पुलिस पूछती है कि तुमने गोली मारी, तो वह जवाब देता कि मारी तो है पर उसे गोली लगी कहाँ ? पुलिस उसे जेल में बंद कर देती हैं। ऐसा क्यों ? जीव हिंसा नहीं हुई इसके उपरान्त भी उसे जेल भेज दिया और जिससे जीव हिंसा हो गयी थी, उसे छोड़ दिया। यह इसलिए कि वहाँ पर भावहिंसा को देखा जा रहा है। न्याय में सत्य और असत्य का विश्लेषण भावों के ऊपर आधारित है। हमारी दृष्टि भी भावों की तरफ होनी चाहिए। अपने आप के शरीरादि को ही आत्मा मान लेने से कि मैं शरीर हूँ, और शरीर ही मैं हूँ, हिंसा प्रारम्भ हो जाती है। यह अज्ञान और शरीर के प्रति राग ही हिंसा का कारण बनता है। हम स्वयं जीना सीखें। स्वयं तब जिया जाता है जब सारी बाह्य प्रवृत्ति मिट जाती है। अप्रमत्त दशा आ जाती है। इस प्रकार जो स्वयं जीता है वह दूसरे को भी जीने में सहायक होता है। जिसके द्वारा मन-वचन-काय की चेष्टा नहीं हो रही है वह दूसरे के लिए किसी प्रकार की बाधा नहीं देता। जो विस्फोट ऊपर से होता है वह उतना खतरनाक नहीं होता जितना गहराई में होने वाला विस्फोट होता है। आत्मा की गहराई में जो राग-प्रणाली या द्वेष-प्रणाली उद्भूत हो जाती है वह अंदर से लेकर बाहर तक प्रभाव डालती है। उसका फैलाव सारे जगत में हो जाता है। जैन-दर्शन में एक उदाहरण भाव-हिंसा को लेकर आता है। समुद्र में जहाँ हजारों मछलियाँ रहती हैं उनमें सबसे बड़ी रोहू (राघव) मछली होती है जो मुँह खोल कर सो जाती है तो उसके मुँह में अनेक छोटी-मछलियाँ आती-जाती रहती हैं। जब कभी उसे भोजन की इच्छा होती है तो वह मुख बंद कर लेती है और भीतर अनेक मछलियाँ उसका भोजन बन जाती हैं। इस दृश्य को देखकर एक छोटी मछली जिसे तन्दुल मत्स्य बोलते हैं जो आकार में तन्दुल अर्थात चावल जितनी छोटी है वह सोचती है कि यह रोहू मच्छ कितना पागल है। इसे इतना भी नहीं दिखता कि मुख में इतनी मछलियाँ आ-जा रही हैं तो मुख बंद कर लेना चाहिए। यदि इसके स्थान पर मैं होता तो लगातार मुख खोलता और बंद कर लेता, सभी को खा लेता। देखिये स्थिति इतनी गम्भीर है। छोटे से मत्स्य की हिंसा की वृत्ति कितनी है, चरम सीमा तक, वह अनन्त जीवों को खाने की लिप्सा रखता है। एक भी नहीं खा पाता क्योंकि उतनी शक्ति नहीं है लेकिन भावों के माध्यम से खा रहा है निरंतर। बाहर से खाना, भले ही नहीं दिखता लेकिन अभिप्राय कर लिया, संकल्प कर लिया, तो मन विकृत हो गया। वही हिंसा है। रोहू मच्छ जितनी आवश्यकता है उतना ही खाता है, शेष से कोई मतलब नहीं, कोई लिप्सा नहीं लेकिन तंदुल मच्छ एक भी मछली को नहीं खा पाता पर लिप्सा पूरी है। इसलिए वह सीधा नरक चला जाता है। सीधा सप्तम नरक । यह है भाव-हिंसा का प्रभाव। आप भी इसे समझे कि मात्र अपने जीवन को द्रव्यहिंसा से ही निवृत्त करना पर्याप्त नहीं है। यदि आप अपने में नहीं हैं अर्थात आपके मन, वचन और आपकी चेष्टाएँ अपने में नहीं है तो आपके द्वारा दूसरे को धक्का लगे बिना नहीं रह सकता। एक व्यक्ति कोई गलती करता है तो वह एकांत रूप से अपने आप ही नहीं करता उसमें दूसरे का भी हाथ रहता है। भावों का प्रभाव पड़ता है। दूसरे के मन को देखकर ईष्र्या अथवा स्पर्धा करने में भी हिंसा का भाव उद्भूत होता है। जो राग द्वेष करता है वह स्वयं दुखी होता है और दूसरे को भी दुख का कारण बनता है। लेकिन जो वीतरागी है वह स्वयं सुखी रहता है और दूसरे को सुखी बनाने में कारण सिद्ध होता है। आपका जीवन हिंसा से दूर हो और अहिंसामय बन जाये इसके लिए मेरा यही कहना है कि भाव-हिंसा से बचना चाहिए। मेरा कहना तभी सार्थक होगा जब आप स्वयं अहिंसा की ओर बढ़ने के लिए उत्साहित हों, रुचि लें। किसी भी क्षेत्र में उन्नति तभी संभव है जब उसमें अभिरुचि जागृत हो। आपके जीवन पर आपका अधिकार है पर अधिकार होते हुए भी कुछ प्रेरणा बाहर से ली जा सकती है। बाहर से तो सभी अहिंसा की प्राप्ति के लिए आतुर दिखते हैं किन्तु अंदर से भी स्वीकृति होना चाहिए। एक व्यक्ति जो अपने जीवन को सच्चाई पर आरूढ़ कर लेता है तो वह तो सुखी बन ही जाता है, साथ ही दूसरे के लिए भी सुखी बनने में सहायक बन जाता है। आप चाहें तो वह आसानी से कर सकते हैं। अहिंसा मात्र प्रचार की वस्तु नहीं है और लेन-देन की चीज भी नहीं है, वह तो अनुभव की वस्तु है। कस्तूरी का प्रचार प्रसार करने की आवश्यकता नहीं होती, जो व्यक्ति चाहता है वह उसे सहज ही पहचान लेता है। महावीर भगवान् ने अहिंसा की सत्यता को स्वयं जाना और अपने भीतर उसे प्रकट किया तभी वे भगवान् बने। उन्होंने प्राणी मात्र को कभी छोटा नहीं समझा, उन्होंने सभी को पूर्ण देखा है, जाना है और पूर्ण समझा है। संदेश दिया है कि प्रत्येक आत्मा में भगवान् है किन्तु एकमात्र हिंसा के प्रतिफल स्वरूप स्वयं भगवान् के समान होकर भी हम भगवता का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। जब तक रागद्वेष रूप हिंसा का भाव विद्यमान रहेगा तब तक सच्चे सुख की प्राप्ति संभव नहीं है। अपने भावों में अहिंसा के माध्यम से दूसरे का कल्याण हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता किन्तु आत्मा का कल्याण अवश्य होता है। परोक्ष रूप से जो अहिंसक है वह दूसरे को पीड़ा नहीं पहुँचाता, यही दूसरे के कल्याण में उसका योगदान है। आचार्यों की वाणी है कि आदहिर्द कादव्वं, जदि सक्कड़ परहिद व कादव्वं। आदहिद परहिदादो, आदहिदं सुट्टु कादव्वं॥ आत्म-हित सर्वप्रथम करना चाहिए। जितना बन सके उतना परहित भी करना चाहिए। लेकिन दोनों में अच्छा आत्म-हित ही है। जो आत्महित में लगा है उसके द्वारा कभी दूसरे का अहित हो नहीं सकता। इस प्रकार 'स्व' और 'पर' का कल्याण अहिंसा पर ही आधारित है। अध्यात्म का रहस्य इतना ही है कि अपने को जानो, अपने को पहचानो, अपनी सुरक्षा करो, अपने में ही सब कुछ समाया है। पहले विश्व को भूलो और अपने को जानो, जब आत्मा को जान जाओगे तो विश्व स्वयं सामने प्रकट हो जाएगा। अहिंसा-धर्म के माध्यम से स्व-पर का कल्याण तभी संभव है जब हम इसे आचरण में लायें। अहिंसा के पथ पर चलना ही अहिंसा-धर्म का सच्चा प्रचार-प्रसार है। आज इसी की आवश्यकता है।
  6. योग्यता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार योग्य बनने के लिए पुरुषार्थ, प्रबंध करना चाहिए। स्वार्थ की दुनिया में योग्य/अयोग्य का मूल्यांकन भी नहीं होता। योग्यता के अभाव में परिणाम ठीक नहीं निकलेगा। जमीन अच्छी नहीं होती तो उसमें डाला गया बीज फलता नहीं और उसका महत्व भी घट जाता है। मुक्ति को पाना तभी संभव है जब हम उस योग्य हो जायें। उपकार उसी पर किया जा सकता है जो उपकार का पात्र हो | उस पर उपकार करो जो कम से कम कृतज्ञता तो ज्ञापित करे। प्रत्येक पर्याय कठिनाइयों के ढेर होती है, इसका उपयोग करना बहुत कठिन होता है। इस मनुष्य पर्याय में आँखें खुल जावें तो खुल जावें वरना पता नहीं आगे क्या होगा? हमारे पास योग्यता होते हुए भी यदि हम उसका उपयोग नहीं करते तो पश्चाताप ही हाथ लगता है। अपनी योग्यता न समझने पर अच्छे-अच्छे भी अवसर चूक जाते हैं। स्वाभिमान की ओर देखो तो अपने आप शक्ति जागृत हो जाती है। सभी के प्रति मैत्री रखें लेकिन गुणियों के प्रति प्रमोद भाव रखें। किसी में एक छोटा-सा भी गुण दिखता है तो उसके प्रति प्रमोद भाव होना चाहिए। करने योग्य कार्य परिस्थितियों को देखकर करें। जो जैसी योग्यता रखता है उसकी योग्यतानुसार प्रबंध होने लगता है। व्यक्ति के गुणों को देखकर ही उसका गौरव, उसकी योग्यता ज्ञात होती है। जो शुद्ध होने की योग्यता रखता है उसे ही शुद्ध बनाया जा सकता है। योग्यता जब तक उद्भूत नहीं होती तब तक उस रूप मानना एक अविवेक है। प्रतिभा के साथ-साथ प्रशिक्षण की भी आवश्यकता होती है क्योंकि प्रशिक्षण व्यवहारिक ज्ञान से ओतप्रोत हुआ करता है। समय की पाबंदी सभी को अनिवार्य है, इसलिए समय की कीमत करना सीखो। समय पलटने पर हीरे भी काले कोयले बन जाते हैं।
  7. आज हम एक पवित्र आत्मा की स्मृति के उपलक्ष्य में एकत्रित हुए हैं। भिन्न-भिन्न लोगों ने इस महान् आत्मा का मूल्यांकन भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से किया है। लेकिन सभी अतीत में झांक रहे हैं। महावीर भगवान् अतीत की स्मृति मात्र से हमारे हृदय में नहीं आयेंगे। वास्तव में देखा जाये तो महावीर भगवान् एक चैतन्य पिंड हैं, वे कहीं गये नहीं हैं वे, प्रतिक्षण विद्यमान हैं किन्तु सामान्य ऑखें उन्हें देख नहीं पातीं। देश के उत्थान के लिए, सामाजिक विकास के लिए और जितनी भी समस्याएँ हैं उन सभी के समाधान के लिए आज अनुशासन को परम आवश्यक माना जा रहा है। लेकिन भगवान् महावीर ने अनुशासन की अपेक्षा आत्मानुशासन को श्रेष्ठ माना है। अनुशासन चलाने के भाव में मैं बड़ा और दूसरा छोटा इस प्रकार का कषाय भाव विद्यमान है लेकिन आत्मानुशासन में अपनी ही कषायों पर नियंत्रण की आवश्यकता है। आत्मानुशासन में छोटे- बड़े की कल्पना नहीं है। सभी के प्रति समता भाव है। अनादिकाल से इस जीव ने कर्तृत्व-बुद्धि के माध्यम से विश्व के ऊपर अनुशासन चलाने का दम्भ किया है, उसी के परिणाम-स्वरूप यह जीव चारों गतियों में भटक रहा है। चारों गतियों में सुख नहीं है, शान्ति नहीं है, आनंद नहीं है, फिर भी यह इन्हीं गतियों में सुख-शान्ति और आनंद की गवेषणा कर रहा है। वह भूल गया है कि दिव्य घोषणा है संतों की, कि सुख-शान्ति का मूल स्रोत आत्मा है। वहीं इसे खोजा और पाया जा सकता है। यदि दुख का, अशान्ति और आकुलता का कोई केन्द्र बिन्दु है तो वह भी स्वयं की विकृत दशा को प्राप्त आत्मा ही है। विकृतआत्मा स्वयं अपने ऊपर अनुशासन चलाना नहीं चाहता, इसी कारण विश्व में सब ओर अशान्ति फैली हुई है। भगवान् महावीर की छवि का दर्शन करने के लिए भौतिक आँखें काम नहीं कर सकेंगी, उनकी दिव्य ध्वनि सुनने, समझने के लिये ये कर्ण पर्याप्त नहीं हैं। ज्ञानचक्षु के माध्यम से ही हम महावीर भगवान् की दिव्य छवि का दर्शन कर सकते हैं। उनकी वाणी को समझ सकते हैं। भगवान् महावीर का शासन रागमय शासन नहीं रहा, वह वीतरागमय शासन है। वीतरागता बाहर से नहीं आती, उसे तो अपने अन्दर जागृत किया जा सकता है, यह वीतरागता ही आत्म-धर्म है। यदि हम अपने ऊपर शासन करना सीख जायें, आत्मानुशासित हो जाएँ तो यही वीतराग आत्म-धर्म, विश्व धर्म बन सकता है। भगवान पार्श्वनाथ के समय ब्रह्मचर्य की अपेक्षा अपरिग्रह को मुख्य रखा गया था। सारी भोग-सामग्री परिग्रह में आ जाती है। इसलिए अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया गया। वह अपरिग्रह आज भी प्रासंगिक है। भगवान् महावीर ने उसे अपने जीवन के विकास में बाधक माना है। आत्मा के दुख का मूल स्रोत माना है। किन्तु आप लोग परिग्रह के प्रति बहुत आस्था रखते हैं। परिग्रह छोड़ने को कोई तैयार नहीं है। उसे कोई बुरा नहीं मानता। जब व्यक्ति बुराई को अच्छाई के रूप में और अच्छाई को बुराई के रूप में स्वीकार कर लेता है तब उस व्यक्ति का सुधार, उस व्यक्ति का विकास असम्भव हो जाता है। आज दिशाबोध परमावश्यक है। परिग्रह के प्रति आसक्ति कम किये बिना वस्तुस्थिति ठीक प्रतिबिम्बित नहीं हो सकती। “सम्यग्दर्शन-ज्ञान–चारित्राणि मोक्षमार्गः' की घोषणा सैद्धान्तिक भले ही हो किन्तु प्रत्येक कार्य के लिए यह तीनों बातें प्रकारान्तर से अन्य शब्दों के माध्यम से हमारे जीवन में सहायक सिद्ध होती है। आप देखते हैं कि कोई भी, सहज ही किसी को कह देता है या माँ अपने बेटे को कह देती है कि बेटा, देखभाल कर चलना। देख' यह दर्शन का प्रतीक है, 'भाल'- विवेक का प्रतीक है अर्थात् सम्यग्ज्ञान का प्रतीक है और "चलना' यह सम्यक् चारित्र का प्रतीक है। इस तरह यह तीनों बातें सहज ही प्रत्येक कार्य के लिए आवश्यक है। आप संसार के विकास के लिए चलते हैं तो उसी ओर देखते हैं, उसी को जानते हैं। महावीर भगवान् आत्म-विकास की बात करते हैं। उसी ओर देखते, उसी को जानते हैं और उसी की प्राप्ति के लिए चलते हैं। इसलिए महावीर भगवान् का दर्शन ज्ञेय पदार्थों को महत्व नहीं देता अपितु ज्ञान को महत्व देता है। ज्ञेय पदार्थों से प्रभावित होने वाला वर्तमान भौतिकवाद भले ही अध्यात्म की चर्चा कर ले किन्तु अध्यात्म को प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञेय तत्व का मूल्यांकन आप कर रहे हैं और सारा संसार ज्ञेय बन सकता है किन्तु मूल्यांकन करने वाला किस जगह बैठा है उसे भी देखने की बहुत आवश्यकता है। अध्यात्म का प्रारंभ उसी से होगा। आपकी घड़ी की कीमत है, आपकी खरीदी हुई प्रत्येक वस्तु की कीमत है किन्तु कीमत करने वाले की कीमत क्या है ? अभी यह जानना शेष है। जिसने इसको जान लिया उसने महावीर भगवान् को जान लिया। अपनी आत्मा को जान लेना ही सारे विश्व को जान लेना है। भगवान् महावीर के दिव्य ज्ञान में सारा विश्व प्रतिबिंबित है। उन्होंने अपनी आत्मा को जान लिया है। अपने शुद्ध आत्म-तत्व को प्राप्त कर लिया है। अपने आप को जान लेना ही हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यही अध्यात्म की उपलब्धि है। जहाँ आत्मा जीवित है वहीं ज्ञेय-पदार्थों का मूल्यांकन भी संभव है। शुद्ध आत्मतत्व का निरीक्षण करने वाला व्यक्ति महान् और पवित्र होता है। उसके कदम बहुत ही धीमे-धीमे उठते हैं किन्तु ठोस उठते हैं, उनमें बल होता है, उनमें गांभीर्य होता है, उसके साथ विवेक जुड़ा हुआ रहता है। विषय-कषाय उससे बहुत पीछे छूट जाते हैं। जो व्यक्ति वर्तमान में ज्ञानानुभूति में लीन है वह व्यक्ति आगे बहुत कुछ कर सकता है। किन्तु आज, व्यक्ति अतीत की स्मृति में उसी की सुरक्षा में लगा है या फिर भविष्य के बारे में चिंतित है कि आगे क्या होगा? इस प्रकार वह स्वयं वर्तमान पुरुषार्थ को खोता जा रहा है। वह भूल रहा है कि वर्तमान में से ही भूत और भविष्य निकलने वाले हैं। अनागत भी इसी में से आयेगा और अतीत भी इसी में ढलकर निकल चुका है। जो कुछ कार्य होता है वह वर्तमान में होता है और विवेकशील व्यक्ति ही उसका संपादन कर सकता है। भविष्य की ओर दृष्टि रखने वाला आकांक्षा और आशा में जीता है। अतीत में जीना भी बासी खाना है। वर्तमान में जीना ही वास्तविक जीना है। अतीत भूत के रूप में व्यक्ति को भयभीत करता है और भविष्य की आशा, 'तृष्णा' बनकर नागिन की तरह खड़ी रहती है जिससे व्यक्ति निश्चित नहीं हो पाता। जो वर्तमान में जीता है वह निशिंचत होता है, वह निडर और निभांक होता है। साधारण सी बात है कि जिस व्यक्ति के वर्तमान में अच्छे कदम नहीं उठ रहे उसका भविष्य अंधकारमय होगा ही। कोई चोरी करता रहे और पूछे कि मेरा भविष्य क्या है? तो भैया वर्तमान में चोरी करने वालों का भविष्य क्या जेल में व्यतीत नहीं होगा, यह एक छोटा सा बच्चा भी जानता है। यदि हम उज्ज्वल भविष्य चाहते हैं तो वर्तमान में रागद्वेष रूपी अपराध को छोड़ने का संकल्प लेना होगा। अतीत में अपराध हो गया कोई बात नहीं। स्वीकार कर लिया। दंड भी ले लिया। अब आगे प्रायश्चित करके भविष्य के लिए अपराध नहीं करने का जो संकल्प ले लेता है वह ईमानदार कहलाता है। वह अपराध अतीत का है, वर्तमान का नहीं। वर्तमान यदि अपराध-मुक्त है तो भविष्य भी उज्ज्वल हो सकता है। यह वर्तमान पुरुषार्थ का परिणाम है। भगवान् महावीर यह कहते हैं कि डरो मत! तुम्हारा अतीत पापमय रहा है किन्तु यदि वर्तमान सच्चाई लिए हुए है तो भविष्य अवश्य उज्ज्वल रहेगा। भविष्य में जो व्यक्ति आनन्दपूर्वक, शान्तिपूर्वक जीना चाहता है उसे वर्तमान के प्रति सजग रहना होगा। पाप केवल दूसरों की अपेक्षा से ही नहीं होता। आप अपनी आत्मा को बाहरी अपराध से सांसारिक भय के कारण भले ही दूर रख सकते हैं किन्तु भावों से होने वाला पाप, हिंसा, झूठ, चोरी आदि हटाये बिना आप पाप से मुक्त नहीं हो सकते। भगवान् महावीर का जोर भावों की निर्मलता पर है, जो स्वाश्रित है। आत्मा में जो भाव होगा वही तो बाहर कार्य करेगा। अंदर जो गंदगी फैलेगी वह अपने आप बाहर आयेगी। बाहर फैलने वाली अपवित्रता के स्रोत की ओर देखना आवश्यक है। यही आत्मानुशासन है जो विश्व में शांति और आनंद फैला सकता है। जो व्यक्ति कषाय के वशीभूत होकर स्वयं शासित हुए बिना विश्व के ऊपर शासन करना चाहता है, वह कभी सफलता नहीं पा सकता। आज प्रत्येक प्राणी राग, द्वेष, विषय-कषाय और मोह-मत्सर को संवरित करने के लिए संसार की अनावश्यक वस्तुओं का सहारा ले रहा है। यथार्थत: देखा जाये तो इन सभी को जीतने के लिए आवश्यक पदार्थ एक मात्र अपनी आत्मा को छोड़कर और दूसरा है ही नहीं। आत्म-तत्व का आलंबन ही एकमात्र आवश्यक पदार्थ है। क्योंकि आत्मा ही परमात्मा के रूप में ढलने की योग्यता रखता है। इस रहस्य को समझना होगा कि विश्व को संचालित करने वाला कोई एक शासन कर्ता नहीं है और न ही हम उस शासक के नौकर-चाकर हैं। भगवान् महावीर कहते हैं कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है। परमात्मा की उपासना करके अनंत आत्माएँ स्वयं परमात्मा बन चुकी हैं और आगे भी बनती रहेगी। हमारे अंदर जो शक्ति राग द्वेष और मोह रूपी विकारी भावों के कारण तिरोहित हो चुकी है उस शक्ति को उद्घघाटित करने के लिए और आत्मानुशासित होने के लिए समता भाव की अत्यन्त आवश्यकता है। वर्तमान में समता का अनुसरण न करते हुए हम उसका विलोम परिणमन कर रहे हैं। समता का विलोम है तामस। जिस व्यक्ति का जीवन वर्तमान में तामसिक तथा राजसिक है, सात्विक नहीं है, वह व्यक्ति भले ही बुद्धिमान हो, वेदपाठी हो तो भी तामसिक प्रवृत्ति के कारण कुपथ की ओर ही बढ़ता रहेगा। यदि हम अपनी आत्मा को जो राग, द्वेष, मोह, मद, मत्सर से कलंकित हो चुकी है, विकृत हो चुकी है उसका संशोधन करने के लिए महावीर भगवान् की जयन्ती मनाते हैं तो यह उपलब्धि होगी। केवल लंबी-चौड़ी भीड़ के समक्ष भाषण आदि के माध्यम से प्रभावना होने वाली नहीं है। प्रभावना उसके द्वारा होती है जो अपने मन के ऊपर नियन्त्रण करता है और सम्यग्ज्ञान रूपी रथ पर आरूढ़ होकर मोक्षपथ पर यात्रा करता है। आज इस पथ पर आरूढ़ होने की तैयारी होनी चाहिए। चेहरे पर चेहरे हैं बहुत-बहुत गहरे हैं खेद की बात तो यही है, वीतरागता के क्षेत्र में अंधे और बहरे हैं आज मात्र वीतरागता के नारे लगाने की आवश्यकता नहीं है। जो परिग्रह का विमोचन करके वीतराग पथ पर आरूढ़ हो चुका है या होने के लिए उत्सुक है वही भगवान् महावीर का सच्चा उपासक है। मेरी दृष्टि में राग का अभाव दो प्रकार से पाया जाता है, अराग अर्थात् जिसमें रागभाव संभव ही नहीं है ऐसा जड़ पदार्थ और दूसरा वीतराग अर्थात् जिसने राग को जीत लिया है जो रागद्वेष से ऊपर उठ गया है। सांसारिक पदार्थों के प्रति मूछ रूप परिग्रह को छोड़कर जो अपने आत्म स्वरूप में लीन हो गया है। पहले राग था अब उस राग को जिसने समाप्त कर दिया है जो समता भाव में आरूढ़ हो गया है, वही वीतराग है। राग की उपासना करना अर्थात् राग की ओर बढ़ना एक प्रकार से महावीर भगवान् के विपरीत जाना है। यदि महावीर भगवान् की ओर, वीतरागता की ओर बढ़ना हो तो धीरे-धीरे राग कम करना होगा। जितनी मात्रा में राग आप छोड़ते हैं, जितनी मात्रा में स्वरूप पर दृष्टिपात आप करते हैं, समझिये उतनी मात्रा में आप आज भी महावीर भगवान के समीप हैं, उनके उपासक हैं। जिस व्यक्ति ने वीतराग पथ का आलंबन लिया है उस व्यक्ति ने ही वास्तव में भगवान् महावीर के पास जाने का प्रयास किया है। वही व्यक्ति आत्म-कल्याण के साथ-साथ विश्व कल्याण कर सकता है। आप आज ही यह संकल्प कर लें कि हम अनावश्यक पदार्थों को, जो जीवन में किसी प्रकार से सहयोगी नहीं है, त्याग कर देंगे। जो आवश्यक हैं उनको भी कम करते जायेंगे। आवश्यक भी आवश्यकता से अधिक नहीं रखेंगे। भगवान् महावीर का हमारे लिए यही दिव्य संदेश है कि जितना बने, उतना अवश्य करना चाहिए। यथाशक्ति त्याग की बात है। जितनी अपनी शक्ति है, जितनी ऊर्जा और बल है उतना तो कम से कम वीतरागता की ओर कदम बढ़ाइये। सर्वाधिक श्रेष्ठ यह मनुष्य पर्याय है। जब इसके माध्यम से आप संसार की ओर बढ़ने का इतना प्रयास कर रहे हैं तो यदि चाहें तो अध्यात्म की ओर बढ़ सकते हैं। शक्ति नहीं है, ऐसा कहना ठीक नहीं है। संसार सकल त्रस्त है, पीड़ित व्याकुल विकल इसमें है एक कारण हृदय से नहीं हटाया विषय राग को हृदय में नहीं बिठाया वीतराग को जो शरण, तारण-तरण दूसरे पर अनुशासन करने के लिए तो बहुत परिश्रम उठाना पड़ता है पर आत्मा पर शासन करने के लिए किसी परिश्रम की आवश्यकता नहीं है। एक मात्र संकल्प की आवश्यकता है। संकल्प के माध्यम से मैं समझता हूँ आज का यह हमारा जीवन जो कि पतन की ओर है वह उत्थान की ओर, पावन बनने की ओर जा सकता है। स्वयं को सोचना चाहिए कि अपनी दिव्य शक्ति का हम कितना दुरुपयोग कर रहे हैं। आत्मानुशासन से मात्र अपनी आत्मा का ही उत्थान नहीं होता अपितु बाहर जो भी चैतन्य है, उन सभी का उत्थान भी होता है। आज भगवान् का जन्म नहीं हुआ था, बल्कि राजकुमार वर्धमान का जन्म हुआ था। जब उन्होंने वीतरागता धारण कर ली, वीतराग-पथ पर आरूढ़ हुए और आत्मा को स्वयं जीता, तब महावीर भगवान् बने। आज मात्र भौतिक शरीर का जन्म हुआ था। आत्मा तो अजन्मा है। वह तो जन्म-मरण से परे है। आत्मा निरन्तर परिणमनशील शाश्वत द्रव्य है। भगवान् महावीर जो पूर्णता में ढल चुके हैं उन पवित्र दिव्य आत्मा को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोर। हरी भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर।
  8. याचना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार गुफायें ही साधु के घर हैं, फिर घर आदि की याचना क्या करना ? प्रभु से प्रार्थना, याचना करो बोधि, समाधि की किसी और से नहीं। जो व्यक्ति माँगता है, याचना करता है, वह परमाणु से भी छोटा होता है और जो नहीं माँगता है, वह आकाश से भी बड़ा हो जाता है, इसलिए स्वाभिमानी ही बड़ा माना जाता है। महास्कंध तीन लोक माना जाता है, लेकिन उससे बड़ा महास्कंध वह है जो कभी याचना नहीं करता। याचना करने वाले का गौरव दाता के पास चला जाता है। आहारचर्या में मान की परीक्षा अच्छी तरह से हो जाती है, आहार लेने वाले को संकोच अपने आप आ ही जाता है। तराजू के पलड़े यह संदेश देते हैं कि जो कोई लेता है वह नीचे की ओर जाता है और जो कुछ नहीं लेता वह अपने आप ऊपर की ओर जाता है। धन थोड़ा है, उससे सभी की इच्छा पूर्ति नहीं हो सकती, इसलिए उसकी आशा रखने की अपेक्षा दरिद्र रहना ही ठीक है। संतोष धारण करना ही एक मात्र उपाय है, इसी से तृप्ति मिलेगी। स्वाभिमान एक ऐसा धन है जो कभी लुट नहीं सकता, लेकिन याचना करने से स्वाभिमान भी नहीं रहता। जिस वस्तु की आशा है उस वस्तु को पहले छोड़ दो, तभी आपके पास अयाचकपना बना रह सकता है। आत्म वैभव को छोड़कर जड़ वैभव की याचना करना अज्ञान का प्रतीक है। दान देकर बदले में कोई भी कामना नहीं रखनी चाहिए। अनशन का अर्थ है इच्छा के बिना ही आहार ग्रहण करना, यह अध्यात्म की अनोखी कला है। इस जीव को अपनी आत्मशक्ति और वैभव का गौरव नहीं है, इसलिए यह याचक वृत्ति नहीं छूटती। व्रत पालन करने वालों को कुछ याचना करने की आवश्यकता नहीं होती, उन्हें सब कुछ अपने आप उपलब्ध हो जाता है। निर्धनता ही जिनका धन है, वे साधु परमेष्ठीधन्य हैं, ऐसे धनी के चरणों में तीन लोक का वैभव आने को मचलता है। हे आत्मन्! थोड़ी प्रतीक्षा कर लो, इस भव में तप कर लो, फिर स्वर्ग में तो भोग मिलना ही हैं।संसार में सुख तो पानी की भाँति हैं और मोक्ष सुख भोजन है, भोजन की प्रतीक्षा करो, पानी मत पीओ वरन् भोजन नहीं मिलेगा। दीनता और अभिमान से ऊपर उठने वाली लहर का आनंद अलग ही हुआ करता है। भारत देश से संस्कारों का निर्यात तो करो लेकिन विदेशी संस्कारों का आयात मत करो, इसी से देश में संतोष और शांति आयेगी। काली मिट्टी से तो हाथ धो सकते हैं लेकिन पीली मिट्टी से (सोना) तो मन तक मैला हो जाता है। चाहने वालों को ही धन का महत्व है, न चाहने वालों को तो वह मिट्टी है। तृष्णा की खाई आज तक नहीं भर सकी और न कभी भर सकती है, वह तो मात्र स्वाभिमान के द्वारा ही भरी जा सकती है क्योंकि स्वाभिमानी कभी आशा नहीं रखता है, वह तो स्वाभिमान को ही अपना धन मानता है। यहाँ आशीर्वाद से ही लोग संतुष्ट हो जाते हैं और घर में कभी भी आप लोग धन से संतुष्टि का अनुभव नहीं करते। इससे सिद्ध होता है कि संतुष्टि धन से नहीं धर्म से ही प्राप्त हो सकती है।
  9. मौन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मौन वालों को वचन शुद्धि एवं वचन सिद्धि प्राप्त होती है। वचन शुद्धि करने से वचन सिद्धि होती है। मौन पूर्वक ही भोजन करें वरन् हाजमा में गड़बड़ी होगी। नहीं बोलते हुए भी जो मन से बोलते रहते हैं, वे अज्ञानी माने जाते हैं और जो बोलते हुए भी आत्मतत्व में स्थिर रहते हैं, वे ज्ञानी कहलाते हैं।
  10. मोक्षमार्गी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार कहीं के, न होना ही मोक्षमार्गी होना है किसी से भी बंधकर न रहना। बंधकर रहना हो तो देव,शास्त्र व गुरु से यही मोक्षमार्ग है। जिसने मोह को छोड़ दिया, उसे कभी भी धोखा नहीं हो सकता। मोह पर प्रहार भेदविज्ञानी ही कर सकता है और मोह छोड़ते समय वह खुश होगा। मोक्षमार्ग में अंतर्मुहुर्त में प्रयोग में गया बस स्वयं प्रमाण बन गया। प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं। शोध वही है जो किसी के प्रमाण सिद्धि की आवश्यकता नहीं रखता। स्वानुभूति में जगत् से सम्पर्क तोड़ना पड़ता है। मोक्षमार्ग में राह के अनुसार चाह चलेगी, अपने मन की चाह नहीं चलेगी। संकल्प जिस ओर जाने का है उसी लक्ष्य की ओर जाना, बीच में कितने भी प्रलोभन आवे मन को वहाँ रोकना नहीं, डिगाना नहीं। जैसे रोगी को थोड़ी-सी अनुकूलता देनी पड़ती है ताकि उल्टी न हो जावे लेकिन रोगी के अनुसार नहीं चला जाता। मन ही सर्वप्रथम रोग का घर है। कभी कठोर चर्या से कभी मृदु चर्या से मन को बाँधा जाता है। मन ही ऐसा है जो आपकी सारी कमजोरियाँ जानता है और आपको (आत्मा को) दबाता जाता है। मन को दबाने वाला ही मोक्षमार्गी हो सकता है। जब तक साधना पूर्ण न हो जावे तब तक मन पर विश्वस्त मत होईये। जैसे इमली का पेड़ भले बूढ़ा हो जावे पर इमली की खटाई कम नहीं होती, वैसे ही शरीर भले बूढ़ा हो जावे पर मन कभी बूढ़ा नहीं होता। गाल पुचक जाते हैं बुढ़ापे में पर मन और मोटा होता जाता है। मन औरों को समझाता है पर स्वयं समझने तैयार नहीं होता। तप करो पर मन के अनुरूप नहीं। आत्मा को स्वच्छ, स्वतंत्र बनाना चाहते हो तो मन पर लगाम लगाओ। मोक्षमार्ग में परीक्षाओं पर परीक्षायें हैं। जैसे मिलेट्री में कौन साथ जाता है कोई नहीं ? बंदूक। नौ-नौ दिन तक पानी नहीं मिलता, नींद नहीं, खांस भी नहीं सकते। भोजन का भी ठिकाना नहीं रहता। वतन की रक्षा के लिए ऐसा ही करना होता है, तन को गौण करना होता है, ऐसा ही मोक्षमार्ग में धर्म की रक्षा के लिए करना होता है। विद्यारथ पर आरूढ़ होकर मनोवेग को रोककर जिनधर्म के मार्ग पर चलना यही निश्चय प्रभावना है। इस प्रभावना का स्रोत भीतर है। इसी स्रोत के बारे में सोचिये, इसी से कुछ मिलने वाला है। मोक्षमार्गी को ऐसे साधन सामग्री नहीं रखना चाहिए जो उपयोगी न हों। पास की वस्तु (आत्मा) के बारे में ही सोचिये पर की ओर मत जाईये। प्रशंसा, निन्दा दोनों में समता रखना; मोक्षमार्ग में एक ही कोर्स है। सही-सही श्रद्धान आचरण के बाद बनता है। ऐसी साधना करो जो भविष्य को निश्चित कर दे, जो भविष्य के बारे में संदेह पैदा कर दे वैसी साधना मत करो। वर्तमान की गोद में ही भविष्य को आना है। ज्ञानी का (मोक्षमार्गी का) स्वरूप यही है कि जो विषयों के बीच में रहकर भी कीचड़पन को ग्रहण नहीं करता। तत्व का परायण करने के लिए स्वाध्याय का नियम लें। स्वाध्याय कहाँ से प्रारम्भ होता है? स्व से, मैं कौन हूँ? मोक्षमार्ग में प्रलोभन बहुत मिलते हैं, प्रलोभन में नहीं आना चाहिए | श्रद्धान के विषयों पर चल पड़ो मंजिल पा जाओगे, बीच में सुख सुविधाओं की ओर चले जाओगे तो भटक जाओगे। बहुत दूर तक न चलो थोडा ही चलो, पर सीधा तो चलो, युक्ति से चलो गुप्ति से चलो। मोक्षमार्ग में इतना आनंद है तो मोक्ष में कितना आनंद होगा अनुमान लगाओ। आज का सुख कम नहीं बस दुनिया से अवकाश लें। मोक्षमार्ग में सुख-सुविधा ढूँढना एक अविवेक माना जावेगा। बिना पढ़े लिखे भी मोक्षमार्ग पर आरुढ़ होते हैं, बस विनय और लगन चाहिए। संसार की लोभ-लिप्सा के लिए नहीं बल्कि आत्मोपलब्धि के लिए साधना करनी चाहिए। कौन-सी वस्तु है संसार में जो साधना से प्राप्त नहीं की जा सकती? लेकिन सच्ची साधना होनी चाहिए। जब साधना करने से अनंत काल की दरिद्रता मिट जाती है तब संसार का सारा वैभव उसके सामने फीका लगने लगता है। सही रास्ता मिलने पर, सहारा मिलने पर भी यदि आप उसका दुरुपयोग करेंगे तो कल्याण नहीं होने वाला। अपना पुरुषार्थ मात्र आत्मोपलब्धि में होना चाहिए। प्रत्येक श्वांस में आत्मा की बात करते जाओ फिर अंत में मात्र आत्मा ही रह जाती है सब छूट जाता है। इन क्षणों को दुनिया के कार्यों में नहीं लगाना। दुनिया में रहकर दुनिया का नहीं बल्कि अपने उत्थान का विकल्प होना चाहिए। आत्म ध्यान के लिए दुनिया के दंद-फंद छोड़ देना चाहिए। तनाव, पर पदार्थ को पाने में होता है, आत्म तत्व को पाने में तनाव गायब हो जाता है। एक बार ऐसा भोजन करो कि अनादि की भूख मिट जावे। शरीर, वचन, स्पर्श के बिना अपना परिचय ज्ञात करना है, वह एकान्त में बैठकर ज्ञात होता है। वह अलग ही लोक है, जिसे हमने स्वयं बनाया है। ऐसी चीज उपलब्ध करो फिर दुबारा अन्य कोई चीज उपलब्ध न करना पडे। जिसे अपनाया हो तो उससे सुख-दु:ख होगा, अपरिचित चला जाता है तो आपमें कोई परिवर्तन नहीं आता। अनुभव स्व का ही होता है पर का अनुभव तब होता है जब हम उससे सम्बन्ध जोड़ लेते हैं। यदि भीतरी साधना जीवित है तो अभिशाप वरदान बन जाता है। इस शरीर से भी साधना नहीं हुई तो यह वरदान अभिशाप सिद्ध हो जाता है। ज्ञान साधना में यश, ख्याति, विषयों की बात नहीं आती मात्र आत्मा की बात आती है। मैं कितना चल चुका हूँ। यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि किस दिशा में चल रहा हूँ। यह देखना महत्वपूर्ण है। दूसरों को मोक्षमार्ग पर चलाने के भाव रखते हो तो पहले स्वयं को निर्दोष होना/चलना चाहिए। जो मोक्षमार्ग पर आरुढ़ होता है, उसे नरक, तिर्यच और मनुष्यायु का बंध नहीं होता। इस मार्ग में कोई शर्त नहीं अपना मन बस अपने में रहे, अपना बना रहे। दुनिया का सपना उसमें न रहे। फिर सोलह स्वप्न देखने वालों के यहाँ जन्म हो जावेगा। मोक्षमार्ग प्रत्यक्ष नहीं होता, उसे दिखाया नहीं जा सकता। आत्म-संतुष्टि तभी होगी जब हम आत्मा की बात करेंगे। मोक्षमार्ग में शारीरिक विज्ञान महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि भेदविज्ञान, आत्मज्ञान महत्वपूर्ण है। कितने चल गये यह नहीं देखना बल्कि कितना और चलना है यह याद रखिये। इसमें दीर्घकालीन साहस की आवश्यकता है, बीच में साहस नहीं खोना। स्वयं को, आत्म तत्व को सुरक्षित रखना है और कर्मों को जलाना है यही मोक्षमार्ग है। उद्देश्य मात्र कषायों का शमन करना है। दृष्टि लक्ष्य की ओर होना चाहिए अन्य सब गौण होना चाहिए। इस मार्ग में आरती ही नहीं आक्रोश परिषह भी सहन करना होता है उसे भी फूलमाला के समान स्वीकारना चाहिए तभी मोक्षमार्ग चलता है। साधना के मार्ग में साधन जुटाना मार्ग को कठिन बनाना है। मोक्षमार्ग में उनसे मोह रखो जो गुणों में श्रेष्ठ हैं। मोक्षमार्ग में बाहर से कुछ प्राप्त नहीं होता, भीतर से उद्धाटित करना होता है।
  11. पूज्य गुरुदेव (स्व. आचार्य ज्ञानसागर जी) के सान्निध्य में मेरा 'दर्शन' (फिलॉसफी) का अध्ययन चल रहा था। उस समय के विचार या भाव आज भी मेरे मानस में पूर्ववत् तरंगायित हैं। मैंने पूछा- महाराज जी ! आपने कहा था कि मुझे न्याय-दर्शन का विषय कठिनाई से हस्तगत होगा, इसका क्या कारण है ? वे बोले- देखो! प्रथमानुयोग- पौराणिक कथाओं और त्रेसठ शलाकापुरुषों का वर्णन करने वाला है वह सहज ग्राह्य है। करणानुयोग-भूगोल का ज्ञान कराता है, दूरवर्ती होने के कारण उस पर भी विश्वास किया जा सकता है। चरणानुयोग में आचरण की प्रधानता है, अहिंसा को धर्म माना है। किसी को पीड़ा दो- यह किसी भी धर्म में नहीं कहा गया इसलिए यह भी सर्वमान्य है। किन्तु द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत आगम और अध्यात्म ये दो प्ररूपणायें चलती है। प्रत्येक आत्मार्थी, अध्यात्म को चाहता है अत: जहाँ पर इसका कथन मिलता है वहाँ तो साम्य हो जाता है परन्तु 'आगम' में साम्य नहीं हो पाता। 'ध्यान' के विषय में भी सब एकमत हैं। ध्यान करना चाहिए- मुक्ति के लिए यह अनिवार्य है किन्तु ध्यान किसका करना? उसके लिए ज्ञान कहाँ से कैसे प्राप्त करें? यह सब 'आगम' का विषय है। आगम के भी दो भेद हैं कर्म सिद्धान्त और दर्शन। कर्म सिद्धान्त को सारी दुनिया स्वीकार करती है अपने-अपने ढंग से, दृष्टियाँ अलग-अलग हैं लेकिन कर्म को सबने स्वीकृत किया है। अब रहा दर्शन। दर्शन के क्षेत्र में तत्व चिन्तक अपने-अपने ज्ञान के अनुरूप विचार प्रस्तुत करते हैं। ऐसी स्थिति में छद्मस्थ (अल्पज्ञ) होने के कारण वैचारिक संघर्ष संभव है। इतना सब सुनने के उपरान्त मैंने सहज ही पूछ लिया कि महाराज जी! इस सबसे आपका क्या आशय है? वे बोले- 'देखो! षड्दर्शन के अन्तर्गत वास्तव में जैन-दर्शन कोई अलग दर्शन नहीं है। वह इन छह दर्शनों का सम्मिलित करने वाला दर्शन है। जो छह दर्शनों को लेकर अलग-अलग भाग रहे हैं उन सभी को एकत्र करके समझने और समझाने वाला यह जैन दर्शन है।” मैंने कहातब तो इसके लिए सभी के साथ मिलन की और समता-भाव की बड़ी आवश्यकता पड़ेगी। महाराज जी हँसने लगे और बोले कि इसीलिए तो मुनि बनाया है। मुनि बनने के उपरान्त समता होनी चाहिए, तभी अनेकान्त का हार्द विश्व के सामने रख सकोगे। यदि समता नहीं रखोगे तो सम्यग्दर्शन को भी नहीं समझ सकोगे। बंधुओ! जैन दर्शन को समझने के लिए पूज्य गुरुदेव द्वारा निर्दिष्ट यह सूत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जैन-दर्शन किसी की वकालत नहीं करता अपितु जो वकालत करने के लिए विविध तकों से लैस (सुसज्जित) होकर संघर्ष की मुद्रा में आता है उसे साम्यभाव से सुनकर सही-सही जजमेंट (न्याय) लेता है, निष्पक्ष होकर निर्णय करता है। आज हम लोगों के सामने ३६३ मतों की कोई समस्या नहीं उठ सकती, उन्हें समझा और समझाया जा सकता है, बशर्त कि हम सबकी बात सुनें और समझे। किसी की बात को काटना नहीं है क्योंकि जिसका अस्तित्व है उसका विनाश संभव नहीं है। विनाश की प्रवृत्ति संघर्ष को जन्म देती है। हमें जानना चाहिए कि अनेकान्त का हृदय है समता। सामने वाला जो कहता है उसे सहर्ष स्वीकार करो क्योंकि दुनिया में ऐसा कोई भी मत नहीं है जो भगवान् की देशना (उपदेश) से सर्वथा असम्बद्ध हो। हम दूसरे की बात समतापूर्वक सुनें और समझे। कभी-कभी ऐसा होता है कि बुद्धि का विकास होते हुए भी समता के अभाव में दूसरे के विचारों का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझ पाने से जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता। विविध प्रकार के ३६३ मतों का उद्गम कहाँ से हुआ। जरा विचार करें, तो ज्ञात होगा कि इनका उद्गम तीर्थकर की अनुभय-भाषा में खिरने वाली वाणी का सही-सही अर्थ नहीं समझ पाने से हुआ। केवलज्ञान होने के उपरान्त तीर्थकर की दिव्यध्वनि खिरती है। यह दिव्यध्वनि अनक्षरी होती है। इनमें वचन अनुभय रूप होते हैं। सभी प्राणी जिसे सुनकर अपनी-अपनी योग्यता के अनुरूप अर्थ लगा लेते हैं। जिसका होनहार अच्छा होता है, जो पुरुषार्थ करता है वह दिव्यध्वनि के माध्यम से सन्मार्ग पर अग्रसर हो जाता है और जिसे अभी संसार ही रुचता है वह वस्तु-स्थिति को नहीं समझता हुआ विभिन्न मतों में उलझ जाता है। विविध ३६३ मतों के माध्यम से आने वाली किसी भी समस्या को जैनदर्शन का अनुयायी सहज ही झेल जाता है। कोई समस्या ही नहीं है स्याद्वादी के सामने। निष्पक्ष होकर निर्णय लेने वाले जज को कभी परेशानी नहीं होती। वकील लोग भले ही इधर की उधर या उधर की इधर बात करते रहें लेकिन जज के मुख पर कोई क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं होती। वह दोनों पक्षों को सुनता है, समझता है। दोनों पक्ष एकांगी होते हैं इसीलिए झगड़ा होता है यह बात जज जानता है। वह एक तरफा दलीलें सुनकर न्याय नहीं करता। एकांगी होकर न्याय हो भी नहीं सकता। न्याय तो अनेकान्त से ही संभव है। स्याद्वादी ही सही निर्णय लेने में सक्षम है। यदि कोई व्यक्ति भगवान् से कहता है कि आप अज्ञानी है। तो वे समता भाव से कह देंगे कि हाँ, यह भी ठीक है। आप लोग तो सुनते ही लड़ने को तैयार हो जायेंगे कि हमारे भगवान् अज्ञानी नहीं हो सकते। आपके भीतर जिज्ञासा बलवती होगी। आप सोच में पड़ गये होंगे कि क्या ऐसा भी संभव है। तो भइया! कथंचित् यह संभव है। केवलज्ञानी भी कथचित् अज्ञानी साबित हो जायेंगे। यदि आप इन्द्रिय-ज्ञान की अपेक्षा देखें तो इन्द्रिय-ज्ञान केवली भगवान् को नहीं होता, इस अपेक्षा से वे अज्ञानी हो गये। आपके पास पाँच में से चार ज्ञान हो सकते हैं मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान। लेकिन भगवान् के पास तो एक ही ज्ञान है। ऐसी स्थिति में वे अज्ञानी हो गये (श्रोताओं में हँसी)। यही है सापेक्ष दृष्टि। इसी को कहते हैं अनेकान्त दर्शन। एक नैयायिक मत है जो 'ज्ञानादिविशेष-गुणाभाव: मुक्तिः'- ज्ञानादि विशेषगुणों के अभाव को मुक्ति मानता है। भगवान् कहते हैं कि हाँ, कथचित् आपकी बात भी ठीक है। ‘ठीक है'- ऐसा कहने से उसका स्वागत हो जाता है। मित्रता बन जाती है, वह आकर समीप बैठ जाता है। सम्यग्दर्शन कोई मोम का थोड़े ही है कि पिघल जाये। आप सोचते हैं कि ऐसा करने से कहीं मेरा सम्यग्दर्शन न टूट जाये। सम्यग्दर्शन में सर्वाधिक दृढ़ता होती है। वज्र टूट सकता है लेकिन सम्यग्दर्शन ऐसा खण्डित नहीं होता। अत: पहले सामने वाले की बात स्वीकार करो फिर अनेकान्त के माध्यम से समझाओ कि देखो! चार ज्ञान का तो अभाव, केवलज्ञान होने पर हम भी मानते हैं। केवलज्ञान विशेष नहीं सामान्य है, शक्ति की अपेक्षा वह तो हमेशा बना रहता है। केवल अर्थात् Nothing else, only knowledge कुछ भी नहीं मात्र ज्ञान | ज्ञानादि विशेष गुणों का अभाव हो जाता है, तो विशेष को जैन-दर्शन में पर्याय माना है और पर्याय का अभाव तो होता ही है। गुण का अभाव कभी नहीं होता। गुण त्रकालिक होता है यह बात भी माननी चाहिए। इस प्रकार मित्रता के माहौल में सारी बात हो तो धीरे-धीरे अनेकान्त के माध्यम से आँख खुल सकती है। संसार में जो विचार वैषम्य है उसका कारण है दृष्टि की संकीर्णता। आचार्य कहते हैं कि विचार-वैषम्य को यदि मिटाना चाहते हो तो दृष्टि को व्यापक बनाना होगा। सभी के विचार सुनकर अनेकान्त के आलोक में पदार्थ का निर्णय करना ही समझदारी है। अनेकान्त की प्ररूपणा के लिए सहायक है नयवाद। भगवान् ने केवलज्ञान के माध्यम से जो भी जाना उसकी प्ररूपणा की नयवाद के माध्यम से। यद्यपि केवली भगवान् 'अपगत श्रुत' माने जाते हैं फिर भी उनको द्रव्यश्रुत का आलंबन लेना पड़ता है। वे वचन योग के माध्यम से उसे लेकर द्वादशांग वाणी के स्रोत बन जाते हैं इसलिए मूलकर्ता वही हैं। उन्होंने सारी बात जानकर यही कहा है कि किसी की बात काटो मत, सबकी सुनो, समझो और जहाँ भी थोड़ी गल्ती हो रही है उसे सुधारने का प्रयास करो। तभी वस्तु के बारे में ठीक-ठीक ज्ञान होगा। नय, एक-एक धर्म के विश्लेषक हैं और धर्म एक ही वस्तु में अनन्त माने गये हैं।'अनेकान्तात्मक वस्तु" या 'अनन्तधर्मात्मकं वस्तु"। वस्तु अनेक धर्मों को लिए हुए है। अनेके: अन्ता: धर्मा: यस्मिन् विद्यन्ते इति अनेकान्त:- अर्थात् अनेक धर्म जिसमें समाविष्ट हैं ऐसी अनेकान्तात्मक वस्तु है। उसे जानने के लिए छद्मस्थ का ज्ञान सक्षम नहीं है। इसलिए उस ज्ञान से प्रत्येक धर्म का आंशिक ज्ञान तो हो सकता है किन्तु सम्पूर्ण ज्ञान नहीं होता। अत: वस्तु नित्य है, अनित्य है, ध्रुव है, अध्रुव है इस प्रकार एक-एक धर्म की प्ररूपणा करते हैं। भगवान् ने केवलज्ञान के द्वारा जो कुछ देखा-जाना वह सब प्ररूपित नहीं है, वह तो अनन्त है। श्रुत को अनन्त नहीं माना, अनन्त का कारण अवश्य माना है। जितने शब्द-भेद हैं, जितने विकल्प हैं, उतने ही श्रुत हैं। श्रुत अनन्त नहीं, असंख्यात हैं। यदि हम विकल्पों में ही उलझे रहे तो केवलज्ञान प्राप्त नहीं होगा। इसलिए वाद-विवाद से परे निर्विवाद होने के लिए, केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए अनेकान्त का अवलंबन लिया गया है। वास्तव में अनेकान्त कोई वाद नहीं है। अनेकान्तात्मक वस्तु है और उसका प्ररूपण करने वाला वाद है स्याद्वाद। वस्तु में जो अनेक धर्म हैं उनका प्ररूपण करने वाला जो श्रुत है वह एक अंश को पकड़ने वाला, एक धर्म को पकड़ने वाला है। यही स्याद्वाद है। स्याद्वाद का अर्थ ही कथंचित्वाद या नयवाद है। यह बहुत गूढ़ है, इसे चक्र की उपमा दी गयी है। नयचक्र कहा गया है। मैं इस ओर आपका ध्यान ले जाना चाहता हूँ। जब कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध हो रहा था, द्रोणाचार्य कौरवों की ओर हो गए। चक्रव्यूह की रचना की गयी। पांडवों की ओर से अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु जिसे 'वीर' की उपाधि दी गयी थी, कौरवों द्वारा निर्मित चक्रव्यूह में विजय-प्राप्ति की अभिलाषा से प्रवेश कर गया। वह प्रवेश तो कर गया क्योंकि प्रविष्ट होने का ज्ञान तो उसे था पर निकलने का नहीं था। ठीक ऐसा ही आज हो रहा है। अनेकान्त का, स्याद्वाद का सहारा ले तो लेते हैं लेकिन ठीक-ठीक समझ नहीं पाने से उसी में उलझकर रह जाते हैं। अनेकान्त का सहारा लेकर स्याद्वाद के माध्यम से प्ररूपणा करने वाला व्यक्ति बहुत ही धीरे-धीरे गम्भीर होता है, समीचीन दृष्टि वाला होता है। वह निर्भीक होता है लेकिन ध्यान रखना, निर्दयी कदापि नहीं होता। निर्दयी होना और निभाँक होना- एक बात नहीं है। कभी-कभी हम कोई बात जोर से कहते हैं। तो आपको लगता होगा कि महाराज! बहुत जोर से बोलते हैं इसलिए कषाय तो होती होगी। तो भइया! आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि कषाय के साथ संक्लेश परिणामों का अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है। 'ण कासायउड्ढी असादबंधकारण तक्काले सादस्प्स वि बंधुवलंभा' अर्थात् कषाय की वृद्धि असाता वेदनीय के बंध का कारण नहीं है, वहाँ सातवेदनीय कर्म का भी बंध होता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप लोग कषाय करना प्रारम्भ कर दें, नहीं, ऐसा मत करना। यहाँ आशय इतना ही है कि सही बात जोर से भी कही जाये, एक बार ही नहीं बार-बार कही जाये, तो इसमें सत्य का समर्थन है, उसे बल मिलता है। जैसे आप लोग मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि दो तीन बार तक कहते हैं और जोर-जोर से कहते हैं। ऐसा कहते हुए भी होश नहीं खोते। वहाँ जोश अवश्य होता है पर रोष नहीं होता। ‘वादार्थों विचराम्यहं नरपते! शार्दूल विक्रीडितम्' - आचार्य समन्तभद्र स्वामी की बात बड़े मार्क की है। वे कहते हैं कि मैं सिंह के समान सत्य को कहने के लिए विचरण करता हूँ। यह निभाँकता की बात है। यहाँ संक्लेश नहीं है। सिंह के स्वभाव के बारे में भी आपको जानकारी होनी चाहिए। सिंह मनुष्य की तुलना में अधिक दयावान है। कर्म सिद्धान्त कहता है कि सिंह यदि कषाय भी करे तो उसके फलस्वरूप पंचम नरक तक जा सकता है परन्तु मनुष्य की कषाय इतनी तीव्र होती है कि सप्तम नरक का भी उद्घाटन कर सकता है। अनेकान्त के रहस्य को पहचानना चाहिए। दूसरे का विरोध करने की आदत ठीक नहीं है। कोई कुछ कहे उसे सर्वप्रथम स्वीकार करना चाहिए। कहना चाहिए कि हाँ भाई, आपका कहना भी कथचित् ठीक है।' भी' का अर्थ अनेकान्त और 'ही' का अर्थ है एकान्त।' भी' में कथचित् स्वागत है और 'ही' में आग्रह है, दूसरे को नकारना है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये चार गुण सम्यग्दर्शन के लक्षण हैं। प्रत्येक द्रव्य के पास जो अस्तित्व है उसे नकारा नहीं जाना चाहिए। जो उसे नकार देता है तो सोचिये उसके पास सम्यग्दर्शन रह कैसे सकता है। द्रव्य पर श्रद्धान रखने वाला मात्र अपने आत्मा पर ही श्रद्धान नहीं रखता, इसलिए आत्मद्रव्य की भाँति जो अन्य द्रव्य हैं उन पर भी श्रद्धान आवश्यक है। वस्तु को प्रत्येक पहलू से देखना, समझना और निराग्रही होकर स्वीकार करना, यही अनेकान्त के रहस्य को समझना है। स्याद्वाद को समझने के लिए नयों की व्यवस्था की गयी है। नयों के बिना हम ठीक-ठीक समझ नहीं सकते। ‘नय' शब्द ‘नी' धातु से बना है जिसका अर्थ है जो ले जाता है वह नय है। 'नयति इति नय:।' कहाँ ले जाता है? तो कहना होगा कि अनेकान्तात्मक वस्तु की ओर ले जाता है। इतना ही नहीं, यह भी समझना होगा कि एक ही नय इसके लिए सक्षम नहीं है। नय का एक अर्थ ऐसा भी है कि 'नय एव नयनं' नय ही नयन अर्थात् आँख है। आँख सभी के पास है। लेकिन कितनी हैं। सभी कह देंगे कि दो हैं। तो ऐसे ही नय भी कम से कम दो हैं। दोनों आँखों से देखकर ही सही निर्णय लिया जा सकता है। जब दोनों आँखें आपस में लड़ती हैं तब आत्मा को दुख हो जाता है। समझने के लिए यदि दाहिनी आँख दायीं ओर पड़ी वस्तु देख रही है और बायीं आँख बायीं ओर पड़ी वस्तु देख रही है और आप दोनों आँखों के बीच नाक पर एक दीवार खींचकर पार्टीशन बना ले फिर देखें तो ज्ञात होगा कि उस समय दूसरी बायीं आँख किसी अन्य वस्तु को अपना विषय नहीं बनाती बल्कि सहयोगी बनती है। यदि आप जबरदस्ती दोनों आँखों से दो अलग चीजों को विषय बनाना चाहेंगे तो माथे में दर्द होने लग जाएगा। देख लेना, आप इसे स्वयं करके। एक बात और कि आँखों के द्वारा वस्तु को देखना है तो एक आँख को गौण करना होता है। बंद करना होता है। अभी तीन-चार दिन पूर्व ही पण्डित जी की आँख की जांच चल रही थी आँगन में, तो डाक्टर (आई-स्पेशलिस्ट) ने कहा था- पण्डित जी! एक आँख हाथ से बंद कर लीजिये। पण्डित जी ने एक आँख पर हाथ रख लिया थोडी देर बाद उसने कहा-अब इसे खोल लीजिए और दूसरी आँख बन्द कर लीजिए। यह सब क्या है? सोचिये, पण्डित जी को दोनों आँखों से देखना चाहिए, अच्छा देखने में आयेगा। लेकिन ऐसा नहीं है। डाक्टर का निर्णय ही सही है। एक आँख दूसरे की सहयोगी बनती है और मुख्य गौण रूप से काम करती है। जब दूरबीन आदि से दूरवर्ती वस्तु को या सूक्ष्मदर्शी के द्वारा सूक्ष्म वस्तु को आप देखते हैं तो भी एक आँख बंद कर ली जाती है। वह गौण हो जाती है। यही बात नय के विषय में है। नय जो है उसके माध्यम से समग्र वस्तु का ग्रहण नहीं हो पाता इसलिए मुख्य रूप से दो नयों की व्यवस्था है और वे हैं व्यवहार नय और निश्चय नय। दोनों नय उपयोगी हैं। अमृतचंद्र आचार्य ने 'समयसार कलश' में लिखा है कि देखो! जो व्यवहार नय को नहीं मानोगे तो आत्मा का कल्याण नहीं हो सकेगा। एक प्रकार से कहा जाए तो व्यवहार नय का अर्थ है विश्व-कल्याण और निश्चय नय का अर्थ है आत्म-कल्याण। लेकिन ध्यान रखना मात्र निश्चय नय से आत्मकल्याण तो कर ही नहीं सकते, विश्व-कल्याण भी नहीं कर सकते। जिसको आत्मा का कल्याण करना है उसे चाहिए कि दुनिया के सारे गोरखधंधे छोड़कर मुनिव्रत धारण कर लें। समताभाव पूर्वक दोनों नयों को आलम्बन लेना होगा। भगवान ने निश्चय नय से अपनी आत्मा को अपनी आत्मा में रहकर बिना किसी सहारे के जाना है। निश्चय नय से वह आत्मज्ञ है। साथ ही व्यवहार नय से वे सर्वज्ञ भी है। इसलिए उन्होंने दोनों नयों का कथन करके व्यवहार नय को "पर" के लिए रखा और निश्चय नय को “स्व” के लिए। अत: स्व-पर के भेदविज्ञान के माध्यम से ही 'प्रमाण' की ओर बढ़ा जाता है। एक नदी के तट पर मैं एक बार गया था। बहुत सुहावना दृश्य था। नदी बह रही है निर्बाध गति से, लहरें नहीं हैं, नदी शान्त है। जब नदी की ओर देखना बंद करके तट की ओर दृष्टिपात किया तो विचार आया ओहो! नदी कोई अलग चीज और तट कोई अलग चीज है। मूल के बीच अर्थात् तटों के बीच बहने वाली नदी है। एक ओर का कूल (तट) दूसरे ओर के कूल (तट) के लिए तो प्रतिकूल ही है। एक की दिशा दक्षिण है तो दूसरे की उत्तर की ओर है। एक पूर्व की ओर है तो दूसरे की पश्चिम की ओर। दोनों पृथक् -पृथक् हैं। कभी मिलेंगे भी नहीं, मिल भी नहीं सकते। जैसे रेखागणित में बताया कि समानान्तर रेखाएँ कभी मिलती नहीं हैं, ऐसा ही यहाँ है। नदी के दोनों तट एक-दूसरे के प्रतिकूल हैं। परन्तु बंधुओं! एक कूल दूसरे के लिए प्रतिकूल होकर भी नदी के लिए तो अनुकूल ही है। इसी तरह व्यवहार नय, निश्चय नय के लिए और निश्चय नय-व्यवहार नय के लिये अनुकूल न होकर भी 'प्रमाण' के लिए अनुकूल हैं और प्रमाण ---प्रमाण तो नदी है। जिनेन्द्र भगवान् की दिव्य ध्वनि हम लोगों के लिए प्रमाण है, नदी के समान निर्मल है। जो लोग निश्चय नय या व्यवहार नय को लेकर लड़ रहे हैं वे नदी को ही समाप्त कर रहे हैं। अभी साढ़े अठारह हजार वर्ष शेष हैं अभी पानी बहुत पीना है। अभी ऐसे लोग भी आयेंगे जो दोनों तटों को सुदृढ़ बनायेंगे, इतना मजबूत बनायेंगे कि नदी अबाध रूप से, अनाहत गति से बहती चली जाए। महावीर भगवान् की दिव्यध्वनि एक निरन्तर प्रवाहमान निझर के समान है। आप उस शीतल वाणी रूपी जल को पी कर तृप्त होएँ। तट कुछ भी नहीं है परन्तु तट के बिना सुस्वादु पानी भी प्राप्त नहीं होगा। एक भी तट विच्छिन्न हो जाता है तो नदी का पानी छिन्न-भिन्न होकर समाप्त हो जाता है । इसलिए दोनों तटों को रखिये और उस प्रमाण रूपी नदी में अवगाहन कीजिये जिसमें आत्मानुभूति सम्भाव्य है। नयों को ठीक-ठीक नहीं समझने के कारण यह संसारी प्राणी विभिन्न मत-मतान्तरों में उलझ जाता है। मात्र तट की ही सेवा करने वाला कभी पानी नहीं पी सकेगा। हम तो कहते हैं कि कोई अनादिकालीन प्यासा व्यक्ति होगा तो वह सीधा डुबकी लगाये बिना नहीं रहेगा। डुबकी तट में नहीं लगायी जाती, हाँ इतना अवश्य है कि तट के माध्यम से डुबकी लगायी जायेगी। जो इस ओर से आयेगा वह इस तट की प्रशंसा करेगा, उधर से आने वाला उस तट की प्रशंसा करेगा लेकिन तट पर ठहरेगा नहीं, डुबकी लगायेगा तभी गहराई मिलेगी, जहाँ बस आनन्द ही आनन्द है। मैं डुबकी लगा रहा हूँ तो मुझे आनन्द हो रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि इधर-उधर तट की ओर मत देखो, शीघ्र ही अपनी प्यास बुझा ली। अमृतचंद्र आचार्य ने एक स्थान पर पुण्य-पाप अधिकार में यह उल्लेख किया है कि नय दो हैं मुख्य रूप से -निश्चय और व्यवहार। जो व्यक्ति एकमात्र व्यवहार नय के माध्यम से क्रियाकाण्ड में फैंस जाते हैं वे आत्मानुभूति से वंचित रह जाते हैं और जो निश्चय नय का महत्व क्या है यह नहीं समझते और मात्र निश्चय, निश्चय रटते चले जाते हैं वे भी डूब जाते हैं। उन्होंने कहा है - ‘ज्ञाननथैषिण:' अर्थात् जो ज्ञान को भी एकान्त रूप से मानकर चले जाते हैं वे भी डूब जाते हैं। दोनों नयों को जानकर भी जो असंयमी रह जाते हैं वे भी डूब जाते हैं। जो संयमी हैं, अप्रमत्त है वे ही तैर पाते हैं। "ज्ञान बिना रट निश्चय-निश्चय, निश्चय-वादी भी डूबे। क्रियाकलापी भी ये डूबे, डूबे संयम से ऊबे। प्रमत्त बनकर कर्म न करते अकम्प निश्चल शैल रहे। आत्मध्यान में लीन, किन्तु मुनि तीन लोक पर तैर रहे।" यहाँ पर आचार्य द्वारा प्रयुक्त ‘प्रमत' शब्द समझने योग्य है। प्रमाद के ही फलस्वरूप यह जीव संसार में भटकता रहा है। प्रमाद एक ऐसा प्रत्यय है जो बाहर भटकता है। आत्मा के लिए आत्मा की ओर जाने में एक प्रकार का व्यवधान उपस्थित कर देता है। प्रमाद अर्थात् ‘कुशलेषु अनादरः प्रमादः।।' भीतर जो आत्म-तत्त्व के प्रति तनिक-सा भी आलस्य आ जाता है उसका नाम प्रमाद है। जिसमें हमारा हित निहित है उसके प्रति किसी भी प्रकार की आलस्य-प्रवृत्ति ही प्रमाद है। अनादिकाल का यह प्रमाद, हम लोगों का हटा नहीं है। स्व जीविते कामसुखे च तृष्णाया, दिवा श्रमात निशि शेरते प्रजाः । त्वमार्य नक्तंदिवमप्रमत्तवान्, नजागरे वात्म विशुद्धवत्र्मनि ॥ हे भगवन्! आपने बड़ा अद्भुत काम किया। क्या किया? देखो दिन रात यह संसारी प्राणी कहाँ फैंसा हुआ है? कहाँ अटका हुआ है? इन्द्रियों के सुख की तृष्णा से पीड़ित होकर दिन में तो नाना प्रकार से परिश्रम करके थक जाता है और रात्रि होने पर बिस्तर पर ऐसा गिर जाता है जैसा कि मुहावरे में कहा है कि घोड़े बेचकर सोता है। उसे होश भी नहीं रहता किन्तु रात भर सोकर जब पेट पुनः खाली हो जाता है तो फिर उठता है और वही क्रम शुरू हो जाता है ऐसा करते-करते अनन्तकाल व्यतीत हो गया। लेकिन हे भगवन्! आप आत्मा को शुद्ध करने वाले मोक्षमार्ग में जागते ही रहे दिन रात। यही अप्रमत्त दशा आपकी श्रेयस्कर है। मैं यही कहना चाहूँगा कि वस्तु अनेकान्तात्मक है। अनेकान्त कोई ‘वाद' नहीं है। वस्तु का समीचीन कथन करने वाला स्याद्वाद अवश्य है, जो सब वादों को खुश कर देता है। जो कोई भी एकान्त को पकड़े हुए है उसे स्याद्वाद के माध्यम से जो कुछ देने योग्य है, दे देना चाहिए। जैसे एक व्यक्ति विजय पाने युद्ध क्षेत्र में जा रहा है और मात्र तलवार लेकर खड़ा है तो आप क्या कहेंगे उसे, ‘कि तू गलत है, रणांगण में जाने की तुझे कोई बुद्धि नहीं है, विवेक नहीं है, तुझे विजय प्राप्त नहीं हो सकती।" नहीं, ऐसा कहना ठीक नहीं है। उससे कहना होगा कि भइया ! आपने तलवार तो ले ली, यह बहुत अच्छा किया, दूसरे पर प्रहार किया जा सकता है लेकिन आत्म-रक्षा तो नहीं की जा सकती। अत: एक ढाल भी ले लेना चाहिए। निश्चय नय ढाल की तरह है, आत्मा की सुरक्षा करता है और व्यवहार नय तलवार के समान है जो 'पर' के ऊपर वार करने के काम आता है। इस आत्म-सुरक्षा के लिए 'निश्चय' रखो और दूसरे के लिए- उसे समझाने के लिए 'व्यवहार' को अपनाओ। तलवार और ढाल के बीच एक समन्वय है, दोनों का जोड़ा (युग्म) है। दोनों से सज्जित सैनिक ही अपने बाहुबल से विजय प्राप्त कर सकता है। करता भी है। जिसके पास निश्चय रूपी ढाल है वह आत्मा के स्वभाव की ओर ध्यान रखेगा उसकी सुरक्षा करेगा और विषय कषायों को जिनको तोड़ना है, जिनको छोड़ना है उन्हें तलवार रूपी व्यवहार के माध्यम से हटाता चलेगा। व्यवहार नय को छोडो मत, उसे निश्चय के साथ रखी। व्यवहार सापेक्ष निश्चय और निश्चय सापेक्ष व्यवहार ही मोक्ष मार्ग में कार्यकारी है। मात्र व्यवहार नय से तीन काल में भी केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होगा, नहीं होगा, नहीं होगा। साथ ही व्यवहार के माध्यम से समता धारण किये बिना, निश्चय नय का विषय वीतराग-विज्ञान भी नहीं मिलेगा, नहीं मिलेगा, नहीं मिलेगा। अब इसके आगे और क्या कहूँ भइया! आपका समय पूरा हो गया। हम तो यही कहना चाहते हैं कि अपने विवेक को जागृत रखो। यदि षट्दर्शनों का अध्ययन करोगे तो आपको स्वत: ज्ञात हो जाएगा कि अनेकान्तात्मक वस्तु क्या है? जब ‘अष्टसहस्री' और 'प्रमेयकमलमार्तण्ड'इन ग्रन्थों को मैं पढ़ रहा था, महाराज जी, पूज्य आचार्य ज्ञानसागरजी के पास तो वे शंकित हुए कि मैं इसमें सफल हो पाऊँगा या नहीं किन्तु यह मात्र आशंका ही सिद्ध हुई। मैं समझ गया इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस व्यक्ति के समता आ जाएगी, वह सारे के सारे विरोधी प्रश्नों को पचा जायेगा और उनके सही-सही उत्तर देने में सक्षम हो जायेगा। समता के बिना ममता के साथ यदि प्रमत्त दशा में जीवन-यापन करोगे तो विजय-श्री का वरण नहीं कर सकोगे। वह भी एक समय था जब भगवान् महावीर के जमाने में अनेकान्त की प्रशंसा होती थी लेकिन आज अनेकान्त को मानने वाले स्याद्वाद के अभाव में परस्पर विवाद कर रहे हैं। अन्य जैनेतर भाई कहते हैं कि भइया! आपके पास तो स्याद्वाद रूपी एक ऐसा अचूक नुस्खा है कि आप हमारी, अपनी और सभी की समस्या को निपटा सकते हैं लेकिन आज आप स्वयं ही आपस में क्यों झगड़ रहे हैं? उन्हें भी विस्मय होता है। इसलिए बंधुओ! समता धारण करो। यदि कोई व्यक्ति एकान्त पकड़ लेता है तो भी आपका यदि वीतराग समता भाव है तो अवश्य उस पर प्रभाव पड़ सकता है। धीरे-धीरे उसे सत्य समझ में आने लगेगा। स्याद्वाद का अर्थ- ‘मेरा भी सही'- ऐसा है। ‘ही' से ‘भी' की ओर बढ़ना- यह स्याद्वाद का लक्ष्य है। ६ के आगे ३ हों तो ६३ बनता है और ३ के आगे ६ हो तो होंगे। ३६/३६ की स्थिति में तो अनेकान्तात्मक वस्तु मिट जाती है, स्याद्वाद समाप्त हो जाता है। जब ६३हों तो मिलन की स्थिति होती है संवाद होता है। स्याद्वादी पीठ नहीं दिखाता किसी को। पीठ दिखाने का अर्थ है उपेक्षा करना, घृणा करना। एक दूसरे की ओर मुख किये हुए ६ और ३ अर्थात् ६३, यह ६३ शलाका पुरुषों के प्रतीक है। आज त्रेसठ शलाका पुरुष वर्तमान में यहाँ नहीं हैं तो भी उनके द्वारा उपदेशित अनेकान्त दर्शन, सभी दर्शनों और मत-मतान्तरों के बीच समाधान करने वाला है। एकान्त को लिए हुए जो ज्ञान है वह अहितकारी सिद्ध होता है। अनेकान्तात्मक ज्ञान हमारे लिए हितकारी है। अनेकान्त को मानने वाले जैन लोग हैं। एक व्यक्ति ने सुझाया था कि 'जैन' शब्द की अपेक्षा जैनी शब्द ठीक है। अंग्रेजी में JAIN शब्द में एक आई (I) है। आई(Eye) का एक अर्थ आँख भी है। "JAINI" शब्द में दो आई यानि दो आँखें हैं। यह अनेकान्त की प्रतीक है। दो आँखें दो नय के समान हैं। दोनों नयों के माध्यम से हम प्रमाण (ज्ञान)को समीचीन रूप से आत्मसात कर सकते हैं। इसी में हमारा आत्मकल्याण भी निहित है। मेरा आपसे यही कहना है कि सब वादों में जितने भी वाद हैं, विवाद हैं उनके बीच संवाद बनायें। स्याद्वाद के माध्यम से वस्तु-स्थिति को समझें और सत्य को प्राप्त करें। सुख की उपलब्धि का यही मार्ग है।
  12. मोक्षमार्ग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मोक्षमार्ग में कोई बड़ा फावड़ा नहीं चलाना पड़ता मात्र दृष्टि को बदलना होता है। मोक्षमार्ग में अभिमान छोड़कर आत्मध्यान में लगना चाहिए, वह मैनासुंदरी थी जो कहती थी मैं ना सुंदरी हूँ। साधु सदा सुखी रहते हैं क्योंकि उन्हें यह विश्वास रहता है कि मैं जिस मार्ग पर चल रहा हूँ इसके माध्यम से धीरे-धीरे कर्म बंध से छूट रहा हूँ। दुर्बल मन वाले को मोक्षमार्ग में ही संहनन याद आता है, मोह मार्ग में नहीं और मोक्षमार्ग में अभी कम उम्र है ऐसा सोचता है, विषय कषाय में उम्र नहीं देखता। सुख चाहने वाले को विद्या प्राप्त नहीं होती और विद्या प्राप्त करने वाले को सुख प्राप्त नहीं होता, ऐसा ही मोक्षमार्ग में है। मोक्षमार्ग में विषयों से ऊपर उठना प्रथम वर्ष की परीक्षा है और कषायों से ऊपर उठना फाइनल परीक्षा है। शरीर और शरीर से सम्बन्धित लोगों से नाता तोड़ने का नाम ही मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्ग टेड़ा नहीं है बिल्कुल सीधा है, ढाई द्वीप में कहीं से भी देखो बिल्कुल सीधा है। मोक्षमार्ग में मोह, मद व मत्सर के लिए कोई स्थान नहीं है। मोक्षमार्ग की यात्रा में ज्ञान हमारा दर्शक है, लजा/मर्यादा मित्र के समान है, तप-संबल (नास्ता) है, चारित्र पालकी है। २८ मूलगुण वीतरागता रक्षक हैं, समता शीतलता से युक्त हवा है और छाया दया भावना है, स्वर्ग पड़ाव के समान है, बिना बाधा के, बिना दुर्घटना के यह मार्ग सीधा मोक्ष पहुँचता है। देवों का काम यही है कि सही मार्ग पर चलने वालों की व्यवस्था करते जाना। आज इस मार्ग में जुगनू का प्रकाश है, तूफान, हवा-पानी और चारों ओर दलदल है, फिर भी चलना तो है ही। भगवान को याद करते चलो कि हे भगवान! ऐसे रास्ते को आप कैसे पार कर गये। लघुता को प्रकट करते हुए और दूसरों को भी मार्ग प्रशस्त करते हुए चले गये, ऐसी भगवान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए चलो। यदि आप ज्ञेय से नहीं चिपकते हो तो मोक्षमार्ग में आनंद ही आनंद है। मोक्षमार्ग में अवधिज्ञान एवं मन:पर्ययज्ञान अनिवार्य नहीं है इनके बिना भी मुक्ति मिल जाती है। यह श्रमणचर्या तब से है जब से विश्व विद्यमान है। इस मयूर पिच्छिकाधारी श्रमण जहाँ भी जाते हैं, वह भूमि पवित्र हो जाती है। साधुओं का रुकना और विहार होना दोनों श्रावकों की वजह से ही होता है। मुनिमुद्रा के द्वारा कभी किसी को क्षति नहीं पहुँचती। रत्नकरण्डक श्रावकाचार ग्रन्थ में मोक्षमार्ग को ही धर्म कहा गया है। भटककर वापस आने की अपेक्षा चलने से पूर्व ही रास्ते की पहचान कर लो तो अच्छा होगा। मोक्षमार्ग में सम्यक दृष्टि कभी थकता नहीं बल्कि और मजबूती लाता है। जब पाप की क्रिया से बच रहे हैं तब उस समय सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक्र चारित्र भी काम कर रहे हैं, ऐसा समझना चाहिए। मोक्षमार्ग में संसार (स्वर्गादि) का सुख तो नास्ता की तरह है, भोजन तो मोक्ष सुख ही है। नास्ता में ही संतुष्ट नहीं होना चाहिए, क्योंकि जिस कार्य के लिए आये हो थोड़े से प्रलोभन के कारण उसे भूलना नहीं चाहिए। सम्यक दर्शन रूपी टिकिट को अच्छे से सम्भालकर रखना चाहिए, क्योंकि मोक्ष का रास्ता लम्बा है। मोक्षमार्ग में मन के द्वारा पंचेन्द्रिय विषय न आवे यह महत्वपूर्ण साधना मानी जाती है। मोक्षमार्ग में पंचेन्द्रियों का व्यापार रुकना चाहिए। मोक्षमार्ग में कभी-कभी मन भी साथ नहीं देता दूसरे की तो बात ही क्या ? समयसार मोक्षमार्ग में चलने वाले व्यक्ति को पहली किताब है। पहाड़ चढ़ते समय भार कम करना पड़ता है वैसे ही मोक्षमार्ग में (परिग्रह रूपी) भार उतारकर ही चला जा सकता है। जो हमारे रास्ते में बाधक है वह परिग्रह ही है ऐसा मानकर चलो और रास्ते में हल्के/फुल्के होकर चलो तभी आनंद आवेगा। मोक्षमार्ग का प्रतिपादन शब्दों के माध्यम से नहीं हो सकता बल्कि आस्था के माध्यम से देखना चाहो तो दिख सकता है।
  13. मोह विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मोह छोड़ने का नाम है, जोड़ने का नहीं। मोह नहीं तो बंध भी नहीं, फिर मोक्ष भी कहीं दूर नहीं। शोर-सूतक मोह का ही परिणाम है, इसलिए निर्मोंही महापुरुषों को कोई शोर-सूतक का विधान नहीं है। मोह के कारण राज्य पाने की इच्छा से प्राणी कुछ भी कर सकता है, वह मरने एवं मारने से नहीं चूकता। मोह आपके घर में कब से है ? जब से आप हो तब से। मोह कहता है मुझे घर में से कैसे निकाल सकते हो? जब ४० साल तक घर में रहने वाला किरायेदार मालिक जैसा बन जाता है। इसलिए हर क्षण मोह को कम करने का प्रयास करना चाहिए। मोह रूपी अग्नि ज्ञेय रूपी अग्नि (ईधन) के अभाव में भी जलती रहती है। यह शरीर मोह रूपी सर्प का बिल है। शरीर के प्रति जिसे मोह होता है, वही अपना संसार बसाता है। यह मनुष्य पर्याय मोह पर प्रहार करने का एक अनोखा अवसर है। नाता और रिश्ता, पुराना मोह रिसता, बिना मोह में रिसे, संसार का रिश्ता चलता ही नहीं है। दृढ़ श्रद्धान वाले को मोह हटाने में दर्द नहीं होता, इसमें पढ़-अपढ़ दोनों एक हैं। सबसे गहन मोह है, जो व्रतों को छुड़वाकर पुनः विषयों में फँसा देता है। जैसे रावण को मोह के कारण समझाने पर भी समझ में नहीं आया, यह मोह का ही परिणाम है। आश्चर्य यह नहीं है कि प्राणी विष को छोड़कर अमृतपान करता है, बल्कि आश्चर्य यह है कि अमृत को छोड़कर पुनः विषय रूपी विषयों को पीने के लिए तैयार हो जाता है, लेकिन मोही के लिए यह कोई आश्चर्य नहीं है। यह मोह की ही महिमा है कि संसारी प्राणी ज्ञान के माध्यम से बाह्य पदार्थों को ही खोजता रहता है और वस्तु स्वरूप से अनभिज्ञ बना रहता है। जब तक मोह रूपी बीज विद्यमान है, तब तक संसार वृक्ष हरा-भरा बना रहेगा। सम्यक दर्शन और चारित्र के क्षेत्र में जो विपरीत दिखाता है, उसका नाम है मोह। राग-द्वेष से बचना चाहते हो तो किसी से भी, शरीर से भी मोहित नहीं होना चाहिए। आत्मा से बाहर देखने से मोह आकर धमक लेता है, शरीर दिखने लगता है। मोह एक प्रकार का घाव है उसे ठीक करने के लिए त्याग रूपी मलहम पट्टी करना चाहिए और परिग्रह आदि संक्रमण से बचना चाहिए, क्योंकि परिग्रह आदि मोह रूपी घाव को बढ़ाते ही जाते हैं। अनादिकाल से यह मोह का घाव आत्मा में बना हुआ है, इसे ठीक होने में बहुत समय लगेगा! त्याग, तपस्या के बिना यह ठीक नहीं हो सकता। सब कुछ लांघा जा सकता है, पर मरण को लांघा नहीं जा सकता, फिर किसी के मरण पर रोना-धोना अविवेक ही है। शरीर बार-बार नहीं चाहते हो तो शरीर से मोह छोड़ दो। उद्देश्य ठीक न होने से प्रतिस्पर्धा कषाय की ओर ले जाती है। मोह के उदय से कषाय होती है, अत: सबसे पहले मोह को जीतो। यदि मोह शरीर है तो कषाय उसकी छाया है, शरीर नष्ट होगा तो छाया अपने आप नष्ट हो जायेगी, वैसे ही मोह को जीतने पर कषाय भी चली जावेगी। मोह के आवरण में रहने वाला व्यक्ति क्रोध, मान, माया, लोभादि को भी अपनाता है और मरण कर तिर्यञ्च आदि गतियों में चला जाता है। मृग पूँछ के बालों से अधिक मोह रखता है, यदि उसकी पूँछ झाड़ी में फँस जाती है तो वह मोह के कारण बाल टूट न जाये ऐसा सोचकर खड़ा रहता है और शेर आकर उसे अपना शिकार बना लेता है। स्नेह(तेल) के निमित से दीपक प्रकाश देते हुए भी कज्जल पैदा करता है। वैसे ही साधु जीवन दीपक की भाँति है, थोड़ा-सा स्नेह भी बहुत बड़ा दोष माना जाता है, क्योंकि स्नेह का अतिरेक कषाय का रूप धारण कर लेता है। मोह को छोड़े बिना अध्यात्म पर चलना काकस्नान के समान है। मोह गाफिल भाव का नाम है और जो वस्तु अच्छी लगे उसके प्रति आकर्षित होना राग भाव है। मोह को कम करने का उपाय करना ही मोक्षमार्ग माना जाता है। मोह से ज्यादा मत डरो बल्कि मोह के स्वभाव को समझो। असंयम की दशा में भी दर्शनमोहनीय का क्षय हो जाता है। लेकिन संयम के बिना चारित्रमोहनीय का क्षय नहीं होता। (अन्तानुबन्धी को छोड़कर)। मोहनीयकर्म का बंध अनेक कर्मों के बंध का कारण है। मोह का अर्थ विषमता में प्रवेश करना और समता से दूर हटना है। निर्दयता के साथ मोह पर प्रहार किया जाता है। किसी भी पदार्थ से गाफिल होना मोह है। मोह को नष्ट करने का चक्र जब प्राप्त होता है तब दुनियाँ का चक्र छूट जाता है।
  14. कल चतुर्दशी थी और प्रतिक्रमण का दिन था। वह प्रतिक्रमण आवश्यक उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि सामायिक आवश्यक है। प्रत्येक आवश्यक में कुछ अलग विषय रखे गये हैं। प्रतिक्रमण आवश्यक में बात बहुत गहरी है। संसारी प्राणी अनादिकाल से आक्रमण करने की आदत को लिए हुए जीवन जी रहा है। परंतु मोक्षपथ का पथिक आक्रमण को हेय समझकर प्रतिक्रमण को, जीवन जीने का एक सफल उपाय मानता है। आक्रमण का अर्थ है बाहर की ओर यात्रा और प्रतिक्रमण का अर्थ है अंदर की ओर यात्रा, अपने आप की उपलब्धि। इस तरह आक्रमण संसार है तो प्रतिक्रमण मुक्ति है। 'कृत दोष-निराकरण प्रतिक्रमण' किये हुए दोषों का मन-वचन काय से, कृत-कारित-अनुमोदना से विमोचन करना, यह प्रतिक्रमण का शब्दार्थ है। इस ओर चलता है वही पथिक, जो मुक्ति की वास्तविक इच्छा रखता है। अपने आत्मा की उपलब्धि ही मुक्ति है और प्रतिक्रमण का अर्थ भी है, अपने आप में मुक्ति। दोषों से मुक्ति। संसारी प्राणी दोष करता है किन्तु दोषी नहीं है यह सिद्ध करने के लिए निरन्तर आक्रमण करता जाता है दूसरों के ऊपर। एक असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिए हजार असत्यों का आलंबन ले लेता है यही उसे मुक्ति में बाधक बन जाता है। मुक्ति का अर्थ तो यह है कि दोषों से अपनी आत्मा को मुक्त बनाना। मुञ्च विमोचने त्यागे वा। ‘मुच्च' धातु से बना है यह मोक्ष शब्द। मुञ्च धातु विमोचन के अर्थ में आयी है। कोई ग्रन्थ लिखे, उस ग्रन्थ का आप विमोचन कर लेते हैं या किसी से करवा लेते हैं परंतु अपने दोषों का विमोचन करने का कोई प्रयास नहीं करता। विमोचन वही करता है जो मुक्ति चाहता है और यह ‘मुच्च' शब्द छोड़ने के अर्थ में आया है, छूटने के अर्थ में नहीं, छूटता है तो धर्म छूट जाता है और छोड़ा जाता है पाप। अनादिकाल से धर्म छूटा है, अब छोड़ना होगा पाप। प्रत्येक संसारी प्राणी अपने दोषों को मंजूर नहीं करता और न ही उन दोषों का निवारण करने का प्रयास करता है। किन्तु मोक्षमार्ग का पथिक वही है इस संसार में जो अपने दोषों को छोड़ने के लिए और स्वयं अपने हाथों दंड लेने के लिए हर क्षण तैयार है। संसार में मुनि ही ऐसा है जो अपने आप प्रतिक्रमण करता है। मन से, वचन से और काय से जो कोई भी ज्ञात-अज्ञात में प्रमाद के वशीभूत होकर दोष हो गये हों या दोष-युक्त भावना हो गयी हो तो उसके लिए दंड के रूप में स्वीकार करता है वह मुनि। ऐसा कहें कि कल पनिशमेंट डे था, दंड लेने का दिन था, प्रतिक्रमण का दिवस था । संसारी प्राणी प्राय: दूसरे को दंड देना चाहता है पर अपने आप दंडित नहीं होना चाहता। मुनिराज संसारी प्राणी होते हुए भी दूसरे को दंड देना नहीं चाहते बल्कि खुद प्रत्येक प्राणी के प्रति चाहे वह सुनें या ना सुनें, अपनी पुकार पहुँचा देते हैं। ‘एक इन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने भी जीव हैं उनके प्रति क्षमा धारण करता हूँ, मेरे द्वारा मन से, वचन से, काय से, कृत से कारित से और अनुमोदना से किसी भी प्रकार से, दूसरे के प्रति दुष्परिणाम हो गये हों तो मैं उसके लिए क्षमा चाहता हूँ और क्षमा करता हूँ। ये भाव प्रतिक्रमण के भाव हैं। आज हम सब आक्रामक बने हैं और आक्रामक जो भी है वह क्रोधी होता है, मानी होता है, मायावी होता है, लोभी होता है, रागी और द्वेषी भी होता है। लेकिन जो प्रतिक्रमण करता है वह इससे विलोम होता है। वह रागी-द्वेषी नहीं होता, वह तो वीतरागी होता है। वह मान के ऊपर भी मान करता है। मान का भी अपमान करने वाला अर्थात् मान को अपने से निकाल देने वाला यदि कोई है तो वह वीतरागी मुनि है। लोभ को भी प्रलोभन देने वाला यदि कोई है तो वह मुनि है। क्रोध को भी गुस्सा दिलाने वाला यदि है तो वह मुनि है। अर्थात् यदि क्रोध उदय में आ जाये तो भी मुनि खुद शान्त बना रहता है और क्रोध शान्त हो जाता है। क्रोध हार मान लेता है। वास्तविक क्रोधी तो मुनि हैं जो क्रोध के ऊपर भी क्रोध करते हैं, वास्तविक मानी भी मुनि हैं जो मान का अपमान कर लेते हैं और उसे दूर भगा देते हैं। वास्तविक मायावी वही है जो माया को अपना प्रभाव नहीं दिखाने देता। लोभ को प्रलोभन में डालकर उन पर विजय पा लेते हैं। इस प्रकार वह प्रतिक्रमण करने वाला यदि देखा जाये तो बड़ा काम करता है। प्रतिक्रमण चुपचाप होता है लेकिन कषायों को शान्त करने की भावना अहर्निश चलती रहती है। अब मुक्ति के बारे में कहने की आवश्यकता ही क्या है ? आप में से कौन-कौन प्रतिक्रमण के लिए तैयार होते हैं? आत्मा को निर्दोष बनाने की इच्छा किसकी है ? जितना-जितना आत्मा को निर्दोष बना लेंगे उतनी-उतनी ही तो है मुक्ति। माँ परोस रही थी एक थाली में विभिन्न-विभिन्न व्यंजन रखे और लाड़ला लड़का बैठा-बैठा खा रहा था। खाते-खाते जब वह बीच में रुक जाता है तो माँ पूछती है कि बेटा! क्या बात हो गयी? घी और चाहिए क्या? एक बात पूछना चाहता हूँ माँ! वह लड़का कहता है। आप रसोई बनाना छोड़ दें। मेरे अनुमान से आपकी नेत्र ज्योति कुछ कमजोर हो गयी है। बात असल में यह है कि खातेखाते अचानक कुछ कट्ट से टूटने की आवाज आ गयी है, लगता है कंकर है भोजन में। सारा का सारा जब बाहर निकालता है भोजन, वह लड़का, तो कंकर कहीं नहीं दिखता। माँ समझ जाती है कि बात क्या है! वह कह देती है कि बेटा यह कंकर नहीं है यह मूंग ही ऐसी है। उसका नाम है ठर्रा मूंग। इसकी पहचान वैसे नहीं होती। खाते समय ही होती है। यह दिखता मूंग के समान हराहरा है लेकिन यह सीझता (पकता) नहीं है। इसे कितना भी पकाओ यह कभी नहीं पकता, इसी प्रकार ऐसे भी जीव होते हैं जो खुद कभी नहीं सीझते अर्थात् मुक्ति को प्राप्त नहीं हो पाते और कभी-कभी दूसरे की मुक्ति में बाधक हो जाते हैं। बंधुओ! हमारा जीवन मुक्ति मंजिल की ओर बढ़े ऐसा प्रयास करना चाहिए। साथ ही हमारा जीवन दूसरे के लिए, जो मुक्ति पाने के लिए आगे बढ़ रहे हैं, उनके लिए साधक तो कम से कम बनें ही, बाधक नहीं। यह संसार अनादि अनंत है। इसमें भटकते-भटकते हम आ रहे हैं। तात्कालिक पर्याय के प्रति हमारी जो आसक्ति है उसे छोड़ना होगा और त्रैकालिक जो है उस पर्याय को धारण करने वाला द्रव्य अर्थात् मैं स्वयं आत्मा कौन हूँ, इसके बारे में चिंतन करना चाहिए। हमारे आचार्यों ने पर्याय को क्षणिक कहा है और उस पर्याय की क्षणभंगुरता और निस्सारता के बारे में उल्लेख किया है। यद्यपि सिद्ध-पर्याय, शुद्ध-पर्याय हेय नहीं है किन्तु संसारी प्राणी को मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए पर्याय की हेयता बताना अति आवश्यक है। इसके बिना उसकी दृष्टि पर्याय से हटकर वैकालिक जो द्रव्य है उस ओर नहीं जा पाती और जब तक दृष्टि अजर-अमर द्रव्य की ओर नहीं जायेगी, तब तक ध्यान रखिएगा, संसार में रचना-पचना छूटेगा नहीं। एक बार महाराज जी, (आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी महाराज) के सामने चर्चा की थी कि महाराज! जिसने यहाँ मुनि दीक्षा धारण की और वर्षों तक तप किया और सम्यग्दर्शन के साथ स्वर्ग में सम्यग्दृष्टि देव बन गये तो पुन: वापिस आकर यहाँ संबोधन वगैरह क्यों नहीं देते ? तो महाराज जी बोले सुनो-संसारी प्राणी की स्थिति ऐसी है कि क्षेत्र का प्रभाव उसके ऊपर ऐसा पड़ जाता है कि अतीत के अच्छे कार्य को वह भूल जाता है और जिस पर्याय में पहुँचता है वहीं रच-पच जाता है। वहीं के भोगों में व्यस्त हो जाता है। अन्य गतियों की यही स्थिति है किन्तु मनुष्य गति एक ऐसी गति है जिसमें व्यस्तता से बचा जा सकता है। विवेक जागृत किया जा सकता है। विवेक छोटे से बच्चे में भी जागृत हो सकता है। तभी तो उस बच्चे ने अपनी माँ से पूछ लिया था कि यह मूंग ऐसा क्यों है? क्या कुछ ऐसे ही मूंग बोये जाते हैं, जो ठर्रा होते हैं? तब माँ कहती है कि नहीं बेटे बोये तो अच्छे ही जाते हैं। एक बीज के माध्यम से एक बाल आ जाती है जिसमें कई मूंग होते हैं जिनमें एकाध ठर्रा मूंग भी हो सकता है। अनेक मूंग के साथ एक मूंग ऐसा भी हो जाता है जो सीझता नहीं है, उस पर द्रव्य, क्षेत्र, काल का प्रभाव नहीं पडता उसका स्वभाव ही ऐसा है। कैसा विचित्र स्वभाव पड़ गया है उसका जो न आज तक सीझा है और न आगे कभी सीझेगा। हम सब उसमें से तो नहीं हैं यह विश्वास है, क्योंकि हमारा हृदय इतना कठोर नहीं है। हम सीझ सकते हैं। अपना विवेक जागृत कर सकते हैं। एक बात और भी है कि ठर्रा नहीं होकर भी कुछ ऐसे मूंग हैं जो अग्नि का संयोग नहीं पाते, जल का संयोग नहीं पाते इसलिए ठर्रा मूंग के समान ही रह जाते हैं। वह भी नहीं सीझ पाते, उनको दूरानुदूर भव्य की उपमा दी गयी है जो ठर्रा मूंग है वे तो अभव्य के समान हैं। जो मूंग बोरी में रखे हैं और वैसे ही अनंत काल तक रखे रहेंगे वो भी नहीं सीझेगे, वे दूरानुदूर भव्य हैं। इसका अर्थ यह है कि घर में रहते-रहते मुक्ति नहीं मिलेगी। आप चाहो कि घर भी न छूटे और वह मुक्ति भी मिल जाये, हम सीझ जायें तो यह 'भूतो न भविष्यति' वाली बात है। योग्यता होने के बाद भी उस योग्यता का परिस्फुटन अग्नि आदि के संयोग के बिना होने वाला नहीं है। योग्यता है लेकिन व्यक्त नहीं होगी। संयोग मिलाना होगा, पुरुषार्थ करना होगा। अभव्य से दूरानुदूर-भव्य ज्यादा निकट है और दूरानुदूर भव्य से आसन्न-भव्य ज्यादा निकट है उस मुक्ति के लेकिन भव्य होकर भी यदि अभी तक हमारा अपना नम्बर नहीं आया, इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि आसन्न-भव्य तो हम अपने आप को कह नहीं सकेंगे। भव्य होकर भी हमने संयोग नहीं मिलाया अभी तक। दूरानुदूर भव्य के लिए योग नहीं मिलेगा सच्चे देव-गुरुशास्त्र का ऐसा नहीं है, वह मिलायेगा ही नहीं। अर्थात् तदनुरूप उसकी वृत्ति जल्दी नहीं होगी। देखो, परिणामों की विचित्रता कैसी है कि सीझने की योग्यता होते हुए भी नहीं सीझता। इसलिए जिस समय आत्म-तत्व के प्रति रुचि जागृत हो, 'शुभस्य शीघ्र' उसी समय उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना प्रारम्भ कर देना चाहिए। पूज्यपाद स्वामी ने भव्य के बारे में कहा है 'स्वहितम्। उपलिप्सु' अपने हित की इच्छा रखने वाला 'प्रत्यासन्ननिष्ठ कश्चिद् भव्यः'- कोई निकट भव्य था। जिस प्रकार भूखा व्यक्ति 'अन्न' ऐसा सुनते ही मुख खोल लेता है उसी प्रकार निकट भव्य की स्थिति होती है। मैं अपने अनुभव की बात बताता हूँ उसी से आप कम्पेयर कर लेना, बाद में। जब हाई स्कूल जाते थे हम, चार मील पैदल चलना पड़ता था और कीचड़ का रास्ता था। तो स्कूल से छूटने के उपरान्त आते-आते तक तो बस बिल्कुल समझो पेट में कबड़ी का खेल प्रारम्भ हो जाता था। तेज भूख लगती थी। वहाँ से आते ही खाना परोस दो, ऐसा कह देते थे। और मालूम पड़ता था कि अभी रसोई तो बनी नहीं है, बन रही है। तो कोई बात नहीं, जो रोटी रखी हैं वही लाओ। बिना साग-सब्जी के भी चल जायेगा। कभीकभी तो साग आ नहीं पाती थी और जो रोटी पूड़ी आदि परोसी जाती थी उसे थोड़ा-थोड़ा खातेखाते पूरी खत्म कर देते थे। बाद में अकेली साग खा लेते थे। तीव्र भूख का प्रतीक है यह। खीर सामने आ जाये और गरम भी क्यों न हो तो भी बच्चे लोग किनारे-किनारे से धीरे-धीरे फ्रैंक-फूंक कर खाना प्रारम्भ कर देते हैं। इसी प्रकार जिस व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया है वह चारित्र लेने के लिए तत्पर रहेगा। अंदर से छटा-पटी लगी रहती है कि कब चारित्र लें। भगवान् की वीतराग छवि को देखकर उसके माध्यम से मुक्ति की ओर बढ़ने का प्रयास करता है। उदाहरण के रूप में कोई मुनि महाराज मिल जायें तो कह देता है कि अब बताने की भी जरूरत नहीं है, हम देख-देखकर कर लेंगे। यही है भव्य जीव का लक्षण। अवाक् विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं मोक्षमार्गम्। 'बिना बोले ही वीतरागी मुद्रा से मोक्षमार्गका निरूपण होता रहता है। आप लोग कहते हैं कि महाराज उपदेश दो। अलग से क्या उपदेश दें भइया। दिन-रात उपदेश चल रहा है। क्योंकि मुनि मुद्रा धारण कर लेने के उपरान्त कोई भी ऐसा समय नहीं है जिस समय वीतरागता का दर्शन न होता हो, दया का उपदेश सुनने में न आता हो। बाह्य क्रियाओं के माध्यम से भी उपदेश मिलता है। उपदेश सुनने वाला और समझने वाला होना चाहिए। सम्यग्दृष्टि इस बारे में अवश्य सोचता है। वह प्रत्येक क्रिया में वीतरागता देखता है, मुनि महाराज खड़े होकर एक बार दिन में आहार लेते हैं। खड़े होकर खाओ तो पेट भर आसानी से खाया नहीं जा सकता है। खड़े होकर खाने में अप्रमत रहना होता है। थोड़ा भी यदि आसन हिल गया तो अन्तराय माना गया है। दूसरी बात यह है कि आप सोचते होंगे कि हम तो एक ही हाथ से खाते हैं और मुनिराज तो दोनों हाथों से खाते हैं तो ज्यादा खाते होंगे। ऐसा नहीं है। थाली में खाने से तो एक हाथ की स्वतंत्रता रहती है लेकिन दोनों हाथों में लेकर खाने में सावधानी बढ़ जाती है। जरा भी प्रमाद हुआ और यदि हाथ छूट जाये तो अन्तराय माना गया है। ये सारे के सारे विधि-विधान, नियम, संयम वीतरागता के द्योतक हैं। यही निमित्त बन जाते हैं निर्जरा के लिए। इस प्रकार चौबीस घंटे, बैठते समय, उठते समय, बोलते समय, आहार-विहार-निहार के समय या शयन करते समय भी आप चाहें तो मुनियों के माध्यम से वीतरागता की शिक्षा ले सकते हैं। लेने वाला होना चाहिए। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के उपरान्त तो चारित्र धारण करने की भूख तीव्र से तीव्रतम् हो जाती है। कठिन से कठिन चारित्र पालन करने की क्षमता आ जाती है। सम्यग्दृष्टि सोचता है कि मुझे जल्दी-जल्दी मुक्ति मिलना चाहिए, इसलिए चारित्र को जल्दी-जल्दी अंगीकार कर लो। यदि चारित्र लेने की रुचि नहीं हो रही है तो इसका अर्थ यही निकलता है कि या तो ठर्रा मूंग है या अभी दूरानुदूर भव्य है। आसन्न-भव्य की गिनती में तो नहीं आ रहा है। भाई, चारित्र लेने में जल्दी करना चाहिए, पीछे नहीं रहना चाहिए 'शुभस्य शीघ्र।' मुक्ति का मार्ग है छोड़ने के भाव। जो त्याग करेगा उसे प्राप्त होगी निराकुल दशा। यही कहलाता है वास्तविक मोक्ष, निराकुलता जितनी-जितनी जीवन में आये, आकुलता जितनी-जितनी घटती जाये उतना-उतना मोक्ष आज भी संभव है। आपको खाना खाते समय सोचना चाहिए कि पाँच रोटी खाने से आपकी भूख मिटती है तो क्या पाँच रोटी साबुत एक ही साथ मशीन जैसे डाल लेते हैं पेट में? नहीं, एक एक ग्रास करके खाते हैं। एक ग्रास के माध्यम से कुछ भूख मिटती है, दूसरे के माध्यम से कुछ और भूख मिटती है, ऐसा करते-करते पाँच रोटी के अन्त में अन्तिम ग्रास से तृप्ति हो जाती है। कह देते हैं आप कि अब नहीं चाहिए। इसी प्रकार निरन्तर निर्जरा के माध्यम से एक देश मुक्ति मिलती जाती है। पूर्णतः मुक्त होने का यही उपाय है। एकदेश आकुलता का अभाव होना, यह प्रतीक है कि सर्वदेश का भी अभाव हो सकता है। रागद्वेष आदि आकुलता के परिणामों को जितना-जितना हम कम करेंगे उतनी-उतनी निर्जरा भी बढ़ेगी और जितने-जितने भाग में निर्जरा बढ़ेगी उतनी-उतनी निराकुल दशा का लाभ होगा। आकुलता को छोड़ने का नाम ही मुक्ति है। आकुलता के जो कार्य हैं आकुलता के जो साधन हैं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव, इन सबको छोड़कर जहाँ निराकुल भाव जागृत हो वह अनुभव ही निर्जरा और मुक्ति है। आपने तो शायद समझ रक्खा है कि कहीं कोई कोठी या भवन बना हुआ है वहाँ जाना है, ऐसा नहीं है, कोई भवन नहीं है भइया। मोक्ष तो यहीं है आत्मा में है। मोक्ष आत्मा से पृथक् तत्व नहीं है। आत्मा का ही एक उज्वल भाव है। वह फल के रूप में है। सभी का उद्देश्य यही है कि अपने को मोक्ष प्राप्त करना ‘जिस समय मोक्ष होने वाला है उस समय हो जायेगा। मुक्ति मिल जायेगी। प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। प्रयास करने से कैसे मिलेगी, प्रयास करना फालतू है'-ऐसा कुछ लोग कह देते हैं। ठीक है भइया, यदि नियत ही आपका जीवन बन जाये तो मैं उस जीवन को सौ-सौ बार नमन करूं । आप प्रत्येक क्षेत्र में नियत अपनाओ, जो पर्याय आने वाली है वह उसी समय आयेगी, अपने को क्या करना' होता स्वयं जगत् परिणाम'- अभी तो जीवन में 'मैं करता जग का सब काम'- सारा काम तो कर रहे हैं आप। मुक्ति मिल जायेगी। यदि सारी की सारी पर्यायें नियत हैं तो फिर इधर-उधर भाग क्यों रहे हैं आप। आज आधी सभा जुड़ी है, कल पूरी ठसाठस भरी थी और अगले दिन सब खाली। सब यहाँ-वहाँ चले जायेंगे, यहाँ तो पाश्र्वनाथ भगवान् रह जायेंगे जो मुक्त हैं। यदि सब नियत है तो फिर जाना कहाँ? प्रत्येक समय में प्रत्येक पर्याय होती है और वह पर्याय नियत है। यदि यह श्रद्धान हो जाये तो मुक्ति दूर नहीं परन्तु आपका जहाँ मन आया वहाँ नियतिवाद को अपना लिया और जहाँ इच्छा हुई, नहीं अपनाया। यह ठीक नहीं है। मान लो, बारह बजे रोजाना खाना खाते हैं आप, तो बारह बजे बिल्कुल नियत है आपका खाना। बारह बजे बैठ जाओ और अपनी पत्नी और रसोइये को भी कह दो कि बारह बजे तो खाने का नियत समय है, क्यों पसीना-पसीना हो रहे हो, बैठ जाओ आराम से कुसी के ऊपर, तुम्हें भी एक थाली आ जायेगी और मुझे भी आ जायेगी। आयेगी, समय से आयेगी। इसमें क्या जल्दी करना। दृढ़ श्रद्धान के साथ बैठ जाओ आप। लेकिन ऐसा कहाँ करते हैं आप। कह देते हैं कि देर हो जायेगी, जल्दी-जल्दी रसोई बनाओ, बारह बजे खाना है और अभी तक रसोई नहीं बनायी, दस मिनट रह गये, जल्दी करो जल्दी करो, देर हो जायेगी। ऐसा आप समय से पहले ही रसोइये को कहते हैं कि नहीं। समय से पहले ही उतावली करने लगते हैं। क्रोध आने लगता है। ध्यान रखी नियतिवादी को क्रोध नहीं आता। किसी की गल्ती भी नजर नहीं आती। उसके सामने प्रत्येक पर्याय नियत है। देखो, जानो, बिगडो मत- यह सूत्र अपनाता है वह। देखता रहेगा, जानता रहेगा लेकिनबिगड़ेगा नहीं और आप लोग बिगड़े बिना नहीं रहते। आप देखते भी हैं, जानते भी हैं और बिगड़ जाते हैं इसलिए नियतिवाद को छोड़ देते हैं। भगवान् ने जो देखा वह नियत देखा, जो भी पर्याय निकली यह सब भगवान् ने देखा था, उसी के अनुसार होगा। तब फिर क्रोध, मान, माया लोभ के लिए कोई स्थान नहीं है। यदि आप क्रोध करते हैं तो अर्थ यह हुआ कि सारी की सारी व्यवस्था पर पानी फेर दिया। नियतिवाद को नकार दिया। एक बुढ़िया थी। बहुत संतोषी थी। खाती-पीती और सो जाती। पैसा बहुत था उसके पास। चोरों को मालूम हुआ तो उन्होंने बुढ़िया के घर चोरी की बात सोच ली। चार पाँच चोर गये, देखा बुढ़िया तो सोई हुई थी। उन्होंने सोचा ठीक है, पहले बुढ़िया के घर भोजन कर लें फिर बाद में देखेंगे। उन्होंने भोजन कर लिया, सब कुछ लेकर चलने लगे उसी समय कुछ गिर गया और आवाज होते ही बुढ़िया ने जोर से कहा कि हे भगवान् बचाओ । आवाज सुनकर आसपास जो भी लोग थे, आ गये। अब चोर क्या करें। बाहर तो भाग नहीं सकते इसलिए इधर-उधर छिप गये। पडोसी आकर के पूछते हैं बुढ़िया से कि माँजी क्या बात हो गयी। आपके यहाँ कुछ हो गया क्या ? तब बुढ़िया ने जवाब दिया कि मैं क्या जानूँ सब ऊपर वाला (भगवान्) जाने। लोग समझे कोई ऊपर होना चाहिए। सबने ऊपर देखा तो वहाँ चोर बैठा था। उसने सोचा मैं क्यों फंसू। उसने कहा कि दरवाजे के पीछे छिपा है। दरवाजे के पीछे वाला कहता है वह बोरी के पीछे छिपा है जो, वह जाने। बोरी के पीछे वाला रसोई की तरफ इशारा कर देता है, इस प्रकार सभी चोर पकड़ में आ गये। जब दंड देने वाली बात आती है तब बुढ़िया कह देती है कि हम क्या, वही ऊपर वाला जाने। दंड देने का अधिकार भी हमें नहीं है। जो है सो है, वह भगवान् जाने। यदि ऐसा समता परिणाम आ जाये तो आप को भी कर्म रूपी चोरों से छुटकारा मिल सकता है। नियतिवाद का अर्थ यही है कि अपने आप में बैठ जाना, समता के साथ। कुछ भी हो परिवर्तन परन्तु उसमें किसी भी प्रकार का हर्ष-विषाद नहीं करना। प्रत्येक कार्य के पीछे यह संसारी प्राणी अहं बुद्धि या दीनता का अनुभव करता है। कार्य तो होते रहते हैं लेकिन यह उसमें कर्तृत्व भी रखता है। हमारे भगवान् कर्तृत्व को एक द्रव्य में सिद्ध करके भी बाह्य कारण के बिना उसमें किसी भी कार्य रूप परिणत होने की क्षमता नहीं बताते। कार्य रूप जो द्रव्य परिणत होता है इसमें बाहर का भी कोई हाथ है ऐसा जानकर कोई भी व्यक्ति अभिमान नहीं कर सकेगा। यह नहीं कह सकेगा कि मैंने ही किया। दूसरी बात बाह्य कारण ही सब कुछ करता हो, ऐसा भी नहीं है। कार्य रूप ढलने की योग्यता उपादान में है इसलिए दीनता भी नहीं अपनाना चाहिए। इस प्रकार दीनता और अहं भाव दोनों हट जाते हैं और कार्य निष्पन्न हो जाता है। ‘मैं कर्ता हूँ।' यह भाव निकल जाये। समय पर सब होता है,'मैं' करने वाला कौन- यह भाव आ जाये तो समता आ जायेगी। और सब दूसरे के आश्रित हैं, मैं नहीं कर सकूंगा ऐसा भाव भी समाप्त हो जायेगा। आम पकने वाला है। आम में पकने की शक्ति है। मिठास रूप परिणमन करने की शक्ति है, रस रूपी गुण उसमें है। अब देखो आम कब लगते हैं। जब आम लगते हैं और छोटे-छोटे रहते हैं तब संख्या में बहुत होते हैं। यदि उस समय आप उन्हें तोड़ लो तो क्या होगा। रस नहीं मिलेगा क्योंकि वे अभी पके नहीं हैं। दो महीने बाद पकेंगे। अब यदि कोई सोचे कि ठीक है अभी तोड़ लो, दो महीने बाद तो पकना ही है, पक जायेंगे। भइया! पकेंगे नहीं बेकार हो जायेंगे। यह क्यों हुआ? आम के पास पकने की क्षमता तो है और दो महीने चाहिए। पकने के लिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें अभी तोड़कर दो महीने बाद पका लो। वे तो वहीं डंठल के ऊपर टहनी के ऊपर लगे रहें तभी पकेंगे। बाह्य निमित्त भी आवश्यक है। दो महीने तक उगते रहें, हवा पानी खाते रहें, सूर्य प्रकाश लेते रहें तभी पकेंगे। इतना अवश्य है कि सभी आमों का नम्बर एक साथ नहीं आयेगा इसलिए यदि आप चाहें तो दो महीने से पंद्रह दिन पहले तोड़कर एक साथ पाल में रख दें, पाँच दिन तक, जो बिल्कुल एक साथ पककर आ जायेंगे। दो महीने तक ही डाल पर लगे रहें यह भी नियम नहीं रहा और दो महीने पहले तोड़कर रख लें तो पकेंगे, यह भी नियम नहीं रहा। योग्यता और बाह्य निमित्त दोनों को लेकर ही कार्य होगा। मुक्ति के लिए आचार्यों ने बताया है कि हम ऐसे पकने वाले नहीं हैं। जिस प्रकार आम डाली के ऊपर पक जाते हैं। इस प्रकार संसार में लटकते-लटकते हमें मुक्ति नहीं मिलेगी। ‘पाल विषे माली' ऐसा बारह भावनाओं के चिंतन करते समय निर्जरा भावना में कहा है। जो आसन्न भव्य है वह अपने आत्म पुरुषार्थ के माध्यम से तप के द्वारा आत्मा को तपाकर अविपाक निर्जरा कर लेता है और शीघ्र मुक्ति पा जाता है, यही मोक्ष तत्व का वास्तविक स्वरूप है। एक बात और कहता हूँ अपनी। काम कुछ करना न पड़े और लाभ प्राप्त हो जाये इसलिए हमने एक दूसरे को कह दिया कि तुम आम तोड़ो और तोड़ने के उपरान्त कच्चे ही आधे तुम्हारे और आधे हमारे हैं। हिस्सा कर लिया। अब उन्हें पकाने का ठिकाना भी अलग-अलग कर लिया किन्तु उतावलापन बहुत था। शाम को पकाने पाल में डाले और सुबह उठकर उनको दबा-दबाकर देखा कि पक गये। दो दिन में ही सारे आम मुलायम तो हो गये पर हरापन नहीं गया और मीठापन भी नहीं आया। पकने का अर्थ होता है कि मीठापन और मुलायमपन आना चाहिए। कुछ नहीं मिला सारा काम बिगड़ गया। ध्यान रहे एकाग्रता न होने से कुछ नहीं मिल पाता। एकाग्र होकर साधना करनी चाहिए। निराकुल होकर साधना करनी चाहिए। यहाँ तक कि आप मोक्ष के प्रति भी इच्छा मत करना। इच्छा का अर्थ है संसार और इच्छा का अभाव है मुक्ति। मुक्ति कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे पाने कहीं जाना है, वह मुक्ति तो निराकुल भावों का उद्घाटन करना है अपने अंदर। आज तक राग का बोलबाला रहा है। वास्तव में देखा जाये तो संसारी प्राणी के दुख का कारण है राग। 'संसार सकल त्रस्त है आकुल विकल है और इसका कारण एक ही है कि/ हृदय से नहीं हटाया विषय राग को, हमने हृदय में नहीं बिठाया, वीतराग को, जो है शरण तारण-तरण।' अत: अपने को वीतरागता को अपने हृदय में स्थान देना चाहिए और राग को हटाना चाहिए। राग के हटने पर ही वीतरागता आयेगी। जहाँ राग रहेगा वहाँ वीतराग अवस्था नहीं है, राग में धीरे-धीरे कमी लायें। राग में कमी आते-आते एक अवस्था में राग समाप्त हो जायेगा और पूर्ण वीतराग-भाव प्रकट होंगे। वह प्राणी स्वभावनिष्ठ बनेगा और सारा संसार नतमस्तक हो जायेगा। सुख को चाहते हुए भी हम राग को नहीं छोड़ पाते इसलिए दुख को नहीं चाहते हुए भी दुख पाते हैं। राग है दुख का कारण। सुख का कारण है वीतराग। दोनों ही कहीं बाहर से नहीं आते। राग बाहर की अपेक्षा अवश्य रखता है किन्तु आत्मा में ही होता है और वीतराग भाव ‘पर' की अपेक्षा नहीं किन्तु आत्मा की अपेक्षा रखता है। बाह्य की अपेक्षा का अर्थ है संसार और आत्मा की अपेक्षा का अर्थ है मुक्ति। यदि अपेक्षा मात्र आत्मा की रही आये और संसार से उपेक्षा हो जावे तो यह प्राणी मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। मुक्ति पाने का उपक्रम यही है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र-को अपनाकर निग्रन्थता अपनायें। सब ग्रंथियां खोल दें। एकाकी होने का प्रयास करें। कोई व्यक्ति देश से देशान्तर जाता है तो सीमा पर उसकी जांच की जाती है कि कहीं कोई आपत्तिजनक चीज तो लेकर के नहीं जा रहा। इसी प्रकार मुक्ति का मार्ग भी ऐसा ही है कि आप कुछ छिपाकर ले नहीं जा सकते। बाह्य और अंतरंग सभी प्रकार के संग को छोड़कर जब तक आप अकेले नहीं होओगे तब तक मुक्ति का पथ नहीं खुलेगा। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ये वीतरागता के प्रतीक हैं। इन तीनों के साथ कोई बाह्य आडम्बर नहीं रह सकेगा, सांसारिक परिग्रह नहीं रहेगा। एक मात्र शरीर शेष रह जाता है और उसे भी परिग्रह तब माना जाता है जब शरीर के प्रति मोह हो । शरीर को मात्र मोक्षमार्ग में साधक मानकर जो व्यक्ति चलता है वह व्यक्ति निस्पृह है और वही मुक्ति का भाजक बन सकता है। एक द्रव्य-मुक्ति होती है और दूसरी भाव मुक्ति। द्रव्य-मुक्ति, भाव-मुक्तिपूर्वक ही होती है। अर्थात् भाव-मुक्ति हुए बिना द्रव्य-मुक्ति नहीं होती। द्रव्य-मुक्ति का अर्थ है नोकर्म अर्थात् शरीर और आठ कर्मों का छूटना। और भाव-मुक्ति का अर्थ है मोह-भाव का हट जाना। दो व्यक्ति हैं और दोनों के पास एक-एक तोला सोना है। मान लो, उसमें एक बेचने वाला है, दूसरा बेचने वाला नहीं है। तो जो बेचने वाला नहीं है वह भावों की तरफ ‘सोने के' भाव की तरफ नहीं दौड़ेगा किन्तु जो बेचने वाला है वह भावों की ओर भाग रहा है, उसे सोने का अभाव है नींद नहीं आती ठीक से। तो सोने के लिए अर्थात् नींद लेने के लिए सोने के भाव की तरफ मत देखो, सोना तब भी ज्यों का त्यों रहेगा। मोहभाव का हट जाना ही मुक्ति है। जो भी दृश्य देखने में आ रहे हैं उन सभी के प्रति मोह हटना चाहिए। जिन-जिन वस्तुओं के प्रति आपका मोह है वही तो संसार है, और जिन-जिन पदार्थों के प्रति मोह नहीं है उन-उन पदार्थों की अपेक्षा आप मुक्त हैं। पड़ोसी के पास जो धन-पैसा है उससे आपका कोई सरोकार नहीं है लेकिन आपने अपने पास जी रख रक्खा है उसमें आपने अपना स्वामित्व माना है, उस अपेक्षा से आप बंधे हैं मुक्त नहीं हैं। मोह का अभाव हो जाये तो आज भी मुक्ति है, उसका अनुभव आप कर सकते हैं। आज भी रत्नत्रय के आराधक, रत्नत्रय के माध्यम से अपनी आत्मा को शुद्ध बनाने वाले साधक, ऐसे मुनि महाराज हैं। जो आत्म-ध्यान के बल पर स्वर्ग चले जाते हैं और वहाँ इन्द्र या लौकान्तिक देव होते हैं और फिर मनुष्य होकर मुनि बनकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। मुक्ति आज भी है और ऐसी मुक्ति कि जैसे कोई यहाँ से देहली जा रहा है, एकदम एक्सप्रेस से लेकिन वह एक्सप्रेस गाडी बीच में रुक कर के जाती है, पटरी नहीं बदलती, उसी पटरी पर चलती है लेकिन कुछ विश्राम लेती है डायरेक्ट (सीधे) नहीं जाती। आज डायरेक्ट मुक्ति तो नहीं है बीच में इन्द्र रूप या लौकान्तिक रूप स्टेशन पर रुकना पड़ता है। यह रुकना, रुकना नहीं कहलाता क्योंकि वह उस मोक्ष पथ से च्युत नहीं हुआ अर्थात् सम्यग्दर्शन छूटता नहीं है, इसलिए रत्नत्रय की जो भावना यहाँ भायी है वह रुकने के उपरान्त भी बनी रहती है। भावना रहती है कि कब रत्नत्रय मिले। इस प्रकार एक-एक समय बीतता है और श्रुत की आराधना करते हुए इन्द्र या लौकान्तिक आदि देव अपना समय व्यतीत करते हैं। बंधुओ! मुक्ति का मार्ग है तो मुक्ति अवश्य है। आज भी हम चाहें तो रागद्वेष का अभाव कर सकते हैं। संसारिक पदार्थों की अपेक्षा जो किसी से रागद्वेष नहीं है वही तो मुक्ति की भूमिका है। यह जीवन आज बन सकता है। सिद्ध परमेष्ठी के समान आप भी बन सकते हैं। अभी आपकी रुचियाँ अलग हो सकती हैं | धारणा अलग हो सकती हैं | विशवास अलग हो सकता हैं | किन्तु यदि व्यक्ति चूक जाता है तो अन्त में पश्चाताप ही हाथ लगता है। यह स्वर्ण जैसा अवसर है। यह जीवन बार-बार नहीं मिलता इसकी सुरक्षा, इसका विकास, इसकी उन्नति को ध्यान में रखकर इसका मूल्यांकन करना चाहिए। जो व्यक्ति इसको मूल्यवान समझता है वह साधना-पथ पर कितने ही उपसर्ग और कितने ही परीषहों को सहर्ष अपनाता है। महावीर भगवान् ने जो रास्ता बताया, बताया ही नहीं बल्कि उसी रास्ते से गये हैं वह रास्ता उपसर्ग और परीषहों में से होकर गुजरता है। मुनिराज इसी रास्ते पर चलते हैं। यह रास्ता वातानुकूल हो सारी की सारी सुविधाएँ हों ऐसा नहीं है। मोक्षमार्ग तो यही है जो परीषह-जय और उपसर्गों से प्राप्त होता है। उत्साह के साथ, खुशी के साथ अपना तन-मन-धन सब कुछ लगाकर मुक्ति का मार्ग अपनाना चाहिए। इस बार निश्चय करें कि हे भगवान् अपने को किस प्रकार मुक्ति मिले। मुक्ति तो अविपाक निर्जरा का फल है और अविपाक निर्जरा तप के माध्यम से होती है तो हम तप करें। भगवान से प्रार्थना करें और निरन्तर भावना करें कि हमारे मोहजन्य भाव पलट जायें और मोक्षजन्य भाव जो हैं, जो निर्विकार भाव हैं, वे जागृत हों।
  15. मुनि विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संकल्प पूर्वक महाव्रत लेने वाले की उपयोग प्रणाली बहुत शुद्ध हुआ करती है, थोड़ा दोष लगता है तो तत्काल धुल जाता है। मुनिराजों की चर्या देखकर आलोचकों की बुद्धि ठिकाने आ जाती है, श्रद्धान जागृत हो जाता है। स्वप्न में भी इस दिगम्बर रूप का इस ‘मुनि मुद्रा' का दर्शन हो जाये तो महान् सौभाग्य समझना। मुनि के दर्शन होते ही हमें अपना स्वभाव ज्ञात हो जाता है। सभी को इसी रास्ते पर आना होगा यदि शाश्वत सुख चाहते हो तो। बहुत बड़ा पुण्य है जो इस अवसर्पिणी काल में भी धर्म करने का भाव हो रहा है और जो मुनि बने हैं, उनके पुण्य का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। जिन्होंने हेयोपादेय को जान लिया, पाप क्रियाओं से रहित हो गये हैं, आत्महित में लीन हो गये हैं, इन्द्रिय व्यापार से रहित हो गये हैं, स्व-पर हित जिसमें निहित हो तभी बोलते हैं, संकल्प विकल्प से रहित है, वे ऐसे मुनि ही मुक्ति के पात्र हैं। संसार के समस्त पदार्थों से राग भाव छोड़ दो तो ज्ञानी, मुमुक्षुपना नाम सार्थक होगा, वरन् बुभुक्षुपना ही बना रहेगा। छोटी उम्र में जो दीक्षा ले लेते हैं, उन्हें भी मनोज्ञ साधु कहा जाता है। सुख-दु:ख का वेदन करते हुए भी जो हर्ष-विषाद नहीं करते, वे मुनिराज अलौकिक सुख का अनुभव करते हैं, इसे अतीन्द्रिय सुख कहते हैं।
  16. मिथ्यात्व विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मिथ्यात्व मोक्षमार्ग में आतंकवादी की भाँति है, वह सभी कषायों को अपनी ओर कर लेता है। ध्यान रखना यह आतंकवादी अपने आत्म घर में घुसने न पाये। मिथ्यात्व छूटने से सम्यक दर्शन प्राप्त होता है, अविरति छूटने से व्रत होता है, फिर दक्षता से प्रमाद छूटता है, फिर कषायों के नाश से योग निरोध होता है, आस्रव रुकता है, तभी यह जीवन बंधन मुक्त होता है। जिसमें मिथ्यात्व रूपी अंधकार विद्यमान है और क्रोधादि सर्प जिसमें निवास करते हो, ऐसे माया रूपी महान् गड्डे से सदा बचना चाहिए। मिथ्याज्ञान, राग-द्वेष के कारण जन्म-मरण रूपी फल प्राप्त होता है और सम्यक ज्ञान के द्वारा वैराग्य के द्वारा अजर-अमर पद प्राप्त होता है। मिथ्यात्व के उदय में ही ज्ञान मिथ्या होता है, ऐसा नहीं बल्कि अनन्तानुबन्धी की उदीरणा होने पर भी ज्ञान मिथ्या हो जाता है। इसलिए आत्म-हितैषी को जैसे मिथ्यात्व से बचना चाहिए, वैसे ही अनन्तानुबन्धी कषाय से भी बचना चाहिए।
  17. माया, मायाचारी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मायाचारी करने वालों को दु:ख ही दु:ख मिलता है, ऐसा जानकर मायाचारी का पूर्णत: त्याग कर देना चाहिए। मायाचारी अनुमान के माध्यम से प्रमाणित हो जाती है, इसलिए ये मत समझो कि मेरी मायाचारी कोई नहीं जान सकता। जैसे चन्द्रमा को पूर्ण निगलते ही ज्ञात हो जाता है कि राहु आ गया है, राहु छिप नहीं सकता। मायाचारी प्रत्यक्ष देखने में नहीं आती, अन्य कषाय, क्रोध, मानादि तो देखने में भी आ जाते हैं। तिर्यञ्चगति के जीव तीन लोक में सभी जगह रहते हैं, यह माया की ही महिमा है। व्रती माया, मिथ्या और निदान इन तीनों शल्यों से रहित होता है। माया की पोशाक पहनकर ही झूठ, चोरी की जाती है। मायाचारी करने से यश समाप्त हो जाता है, जैसे मारीचि मायाचारी से मृग बनकर आया तो उसका यश समाप्त हो गया।
  18. महाव्रत विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अहिंसा महाव्रत सभी व्रतों का मूल है, इसलिए अहिंसा को परम धर्म कहा है। इस भव में ही इसका पालन हो सकता है। महाव्रतियों की शोभा अपनी काय से ममत्व हटाकर छहकाय के जीवों की रक्षा करने में है। व्रत, समिति, तपादि अहिंसा महाव्रत की वृद्धि (रक्षा) के लिए ही होते हैं। जिस प्रकार गाड़ी एक बार खरीदी जाती है, लेकिन उसमें पेट्रोल बार-बार डाला जाता है। ठीक उसी प्रकार महाव्रत एक बार लिए जाते हैं पर उनकी पाँच-पाँच भावनाओं को बारबार चिन्तन में लाना पड़ता है। संकल्पपूर्वक महाव्रत लेने वाले की उपयोग प्रणाली बहुत शुद्ध हुआ करती है। महाव्रत निवृत्ति रूप है, पाँच पाप की निवृत्ति का नाम महाव्रत है। तीन गुप्ति, पाँच समिति ये आठ मातायें महाव्रती रूप बालक का पालन करती हैं। व्रती को भावों के माध्यम से मन से भी विदेश नहीं जाना चाहिए। दिग्व्रत के माध्यम से निष्प्रयोजन पाप से बच जाते हैं। दिशाओं की सीमा बाँध लेने पर उसके बाहर के पाप से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है। मोह को काटने का अमोघ शस्त्र है व्रत-संकल्प। संकल्प लेने से पूर्व में बंधे कर्म भी हिलने लगते हैं।
  19. अभी तक जो कर्मों का आगमन हो रहा था उसका संवर करने के उपरान्त एक रास्ता प्रशस्त हो गया। अब अपना कार्य एक ही रहा कि अपने निज घर में, आत्मा में हमारी अज्ञान दशा के कारण हमारी असावधानी के कारण जो कर्मों का आगमन हो चुका है उनको एक-एक करके बाहर निकालना है। 'एक देश कर्म संक्षय लक्षणा निर्जरा'- कर्मों का एकदेश अलग होना निर्जरा है। दस दिन से भी यदि किसी व्यक्ति को निद्रा लेने का अवकाश न मिला हो और वह नींद लेना चाहता हो और आपके घर आकर कहे कि मुझे कोई एक कोना दे दीजिये ताकि मैं पर्याप्त नींद संकू, और आप भी उसे कहे कोई बात नहीं, आइये यहा पलंग भी हैं गद्दा भी हैं तकिया भी हैं, सब कुछ है और जब वह सोने लगे तो उस समय आप यह कह दें कि हम पाँच छह दिन से इस कमरे में नहीं गये हैं। और तो कुछ नहीं है एक बड़ा सा सर्प अंदर गया है इसलिए हम लोगों ने उसी दिन से इस कमरे में सोना ही छोड़ दिया। अब बताइये, दस दिन से परेशान वह व्यक्ति क्या वहीं नींद लेगा ? नींद लेने की इच्छा होते हुए भी वह कहता है कि मैं कैसे नींद लू, यहाँ नींद लग ही नहीं सकती। जब मालूम पड़ गया कि यहाँ सर्प है तो अब उसे यहाँ से निकाले बिना नहीं सोऊँगा। और वह व्यक्ति सभी प्रयास करके सर्प को निकालकर ही बाद में शयन करता है। यह तो सामान्य सी घटना हुई। मैं यह सोचता हूँ कि आप लोग कैसे नींद ले रहे हैं? एक नहीं, दो नहीं, पूरे आठ कर्मों के रूप में एक समय में अनन्तानन्त पुद्गल कार्मण वर्गणाओं के समूह कर्म के रूप में परिणत होकर सर्प की भांति आत्मा के प्रदेशों पर अपनी सत्ता जमाये हुए हैं और आप निश्चिंत होकर सो रहे हैं। इतना ही नहीं, उसके साथ-साथ और शत्रुओं को निमंत्रण देने वाले आत्मगत वैभाविक परिणति रूप शत्रु जो अनादि काल से रह रहे हैं उनके लिए भी आपके द्वारा आश्रय स्थान मिल रहा है। आपकी निद्रा बड़ी विचित्र है। यदि उस व्यक्ति को नहीं बताया जाता कि यहाँ सर्प है और वह निर्विघ्न रूप से वहाँ सो जाता और निद्रा लग जाती तो भी कोई बात नहीं, उसे ज्ञात नहीं था ऐसा कह सकते हैं। जो संसारी जीव अज्ञानी हैं उन्हें मालूम नहीं है कि आत्मा के शत्रु कौन हैं, मित्र कौन हैं और वे शत्रु के सामने भी सो रहे हैं तो कोई बात नहीं है। लेकिन आप लोगों को तो यह विदित हो गया है कि आठ कर्म और उन कर्मों में भी जो रागद्वेष हैं, वे अपने शत्रु हैं फिर भी उन आत्मा का अहित करने वाले शत्रुओं को अपनी गोद में सुलाकर आप सो रहे हैं तो आपका ज्ञान कुछ समझ में नहीं आ रहा है। 'जान बूझकर अंध बने हैं आँखन बाँधी पाटी'- यही बात है। यदि अंधा गिरता है कुए में तो कोई बात नहीं, किन्तु जानते हुए भी जो जानबूझकर अंधा बन रहा है, वास्तव में अंधा तो वही है। जो अंधा है वह तो मात्र बाह्य इन्द्रियों की अपेक्षा अंधा है किन्तु जो व्यक्ति रागद्वेष रूपी मदिरा पीते हुए जा रहे हैं उनके पास आँखें होकर भी अंधे बने हैं। आँखें होते हुए भी जिस समय आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं तो प्राय: करके बच्चे ही यह खेल खेलते हैं। उसको क्या कहते हैआँखमिचौनी। हाँ वही है यह खेल। मैं सोचता हूँ यहाँ सब यही खेल रहे हैं-आँखमिचौनी। यहाँ कोई ऑख वाला दीखता ही नहीं। अंधकार में एक व्यक्ति उधर से आ रहा था जो अंधा था और इधर से जा रहा था एक ऑख वाला। दोनों आपस में टकरा गये। आँख वाले के मुख से सर्वप्रथम आवाज आयी कि क्या अंधे हो तुम। जहाँ कहीं इस तरह की घटना होती है तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी गल्ती नहीं स्वीकारता। जो अंधा व्यक्ति था उसने कहा कि हाँ भइया, आप ठीक कह रहे हैं, मैं अंधा हूँ, मेरे नेत्र ज्योति नहीं है। गल्ती तो हो गयी, माफ कर देना। दूसरे दिन वह व्यक्ति उस अंधे से फिर मिल गया लेकिन आज उसने देखा कि अंधे के हाथ में लालटेन थी। उसने पूछ लिया कि अरे! तुमने तो कल कहा था कि तुम्हारे आँख नहीं है, तुम अंधे हो, फिर हाथ में यह लालटेन क्यों ले रखी है? लगता है दिमाग ठीक नहीं है। वह अंधा मुस्कराया और उसने कहा कि यह लालटेन इसलिए ले रखे हूँ कि चूंकि मेरे पास आँख तो नहीं है और मुझे आवश्यकता भी नहीं है लेकिन आप जैसे आँख वाले लोग टकरा न जायें, उनको देखने में आ जाए कि मैं अंधा हूँ। पर इसके उपरान्त भी यदि आप टकराते हैं तो क्या कहा जाये। ऐसा ज्ञान तो मात्र भार रूप है। जहाँ कोरा ज्ञान होता है उस ज्ञान के माध्यम से जो कार्य करना चाहिए वह यदि नहीं होता तो ऐसे में ‘ले दीपक कुएँ पड़े” वाली कहावत चरितार्थ होती है। जिन जीवों को ज्ञात नहीं है कि आत्मा का अहित किस में है, उनकी तो कोई बात नहीं। एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय को तो मालूम नहीं है कि हित-अहित क्या है, इसलिए वे भटक रहे हैं, ठीक है। किन्तु जिन्हें मालूम पड़ गया है, यह विदित हो गया है कि आत्मा का अहित किस में है उनकी बात ही निराली है। ‘क्रोध, मान, माया, लोभ, रागद्वेष परिणाम। ये ही तेरे शत्रु हैं समझो आतमराम।' हमारा अहित करने वाले हमारे शत्रु अंदर छिपे हैं, उन्हें हम निकाल दें। पड़ोसी की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। बाहर कोई शत्रु है ही नहीं, बाह्य शत्रु और मित्र-ये मात्र नैमितिक हैं। इनमें हमें हर्ष विवाद कराने की सामथ्र्य नहीं हैं। देखो! दीवार पर अगर एक गेंद आपने फेंक दी तो दीवार ने प्रत्युतर में आपको वह गेंद वापिस लौटा दी। वास्तव में दीवार ने नहीं फेंकी किन्तु दीवार के निमित से गेंद का परिणमन ऐसा होता है कि जितनी तेजी से आप फेंकोगे उतनी ही तेजी से वह टकराकर वापिस आयेगी। जो आपने फेंका। उसी का प्रतिफल है यह। न तो दीवार के पास ऐसी कोई शक्ति है, न ही गेंद के पास है। अपने आप वह गेंद जाकर नहीं टकराती, गेंद में उस प्रकार की क्रिया हम पैदा कर देते हैं। ठीक उसी प्रकार ये रागद्वेष हमारी ही प्रतिक्रियाएँ हैं, इनको हम ही करते हैं और हम ही बार-बार परेशान होते चले जाते हैं। शत्रु और मित्र हमारे अंदर हैं। किसको हटाना है और किसका पोषण करना है यह समझ में आ जाये, यही ज्ञान का फल है। 'ज्ञानस्य फल उपेक्षा अज्ञान-हानिर्वा' उपेक्षा का अर्थ है चारित्र अर्थात् रागद्वेष की निवृत्ति और अज्ञान की हानि का अर्थ है जो आज तक अज्ञान हमने पाला है वह सारा नष्ट हो जाये, यही क्रम अच्छा है। चारित्र पहले होता है, स्वाभाविक ज्ञान केवलज्ञान उसके बाद होता है। केवलज्ञान स्वाभाविक ज्ञान है। इसकी प्राप्ति के लिए चारित्र नितान्त आवश्यक है। ऐसा कोई रास्ता नहीं है ऐसी कोई पगडंडी नहीं है जिस पर चलकर बिना चारित्र के हम केवलज्ञान-सूर्य को प्राप्त कर लें। इसलिए जो कोई भी शास्त्र-स्वाध्याय का परिणाम निकलेगा उसमें प्रथम परिणाम तो यही है कि तत्काल उस व्यक्ति को चारित्र की ओर मुड़ना होगा। अपेक्षा अर्थात् रागद्वेष और रागद्वेष का एक विलोम भाव है। उपेक्षा अर्थात् राग द्वेष का अभाव और वास्तविक निर्जरा इसी को कहते हैं। आप लोग निर्जरा कर नहीं रहे हैं, आप लोगों की निर्जरा हो रही है। यहाँ मैं करने की बात कह रहा हूँ। होने की बात तो ऐसी है कि वैसे ही समय आने पर कर्मों की निर्जरा होती है लेकिन आस्रव व बंध की धारा भी बहती रहती है इसलिए ऐसी निर्जरा से कभी भी कर्म-शत्रुओं का अभाव नहीं हो सकता। समय पर होने वाली सविपाक निजरा जो संसारी प्राणियों के प्रत्येक समय हो रही है, वह अरहट चक्र की भाँति हो रही है। अरहट चक्र, घटी यंत्र को बोलते हैं जिसे आप लोग रहट भी बोलते हैं। इसमें कई कलश या मटकियाँ बँधी होती हैं और मटकियाँ एक के ऊपर एक इस तरह बँधी होती हैं कि आधी मटकियाँ खाली होती जाती हैं और आधी मटकियाँ भरी हुई ऊपर उठती जाती हैं। यह क्रम चलता रहता है। एक माला मटकियों की रहती है और मालूम नहीं पड़ता कि कब खाली होती है और कब ये भरती हैं। भरती भी हैं और खाली भी होती हैं तथापि पानी आना रुकता नहीं है। सविपाक निर्जरा आपके द्वारा इसी तरह हो रही है। उदयागत कर्म निजीर्ण हो रहे हैं पर सत्ता में नये कर्म भी आते जा रहे हैं। बैलेन्स ज्यों का त्यों बना है। यह निर्जरा कार्यकारिणी नहीं है। एक निर्जरा ऐसी भी है जो आत्म-पुरुषार्थ से होती है वह निर्जरा 'तपसा निर्जरा च' वाली निर्जरा है। अपने आप कर्म निर्जरा होने से मुक्ति नहीं मिलती। जब कभी भी विगत में जिन्होंने मुक्ति पायी है या आगे मुक्ति पायेंगे या अभी जो मुक्ति पाने वाली आत्माएँ हैं, सभी ने अपने आत्मपुरुषार्थ के बल पर मुक्ति पायी है, पायेंगे और पा रहे हैं, विदेह क्षेत्र से। जब पुरुषार्थ के बल पर बंध किया है तो मुक्ति भी पुरुषार्थ से ही होगी। यदि अपने आप बंध हो गया हो तो अपने आप मुक्ति भी मिल सकती है और यह भी ध्यान रखो यदि अपने आप बंध हो रहा है तो मुक्ति संभव ही नहीं है क्योंकि बंध होता ही चला जायेगा निरन्तर। इसलिए अपने आप यह कार्य नहीं होता, आत्मा इसका कर्ता है और वही भोक्ता भी है। इसलिए आचार्यों की दृष्टि में आत्मा ही अपने आप का विधाता है, ब्रह्मा है, विश्व का विधाता नहीं, वह अपने कर्मों का है। कर्म को संस्कृत में विधि भी कहते हैं। विधि कोई लिखता थोड़े ही है, हम जो कर्म करते हैं वे ही विधि के रूप में हमारे साथ चिपक जाते हैं और इस विधि का विधाता आत्मा है, हम स्वयं हैं। आत्मा ब्रह्मा भी है, वह संरक्षक है इसलिए विष्णु भी है और आत्मा चाहे तो उन कर्मों का संहार भी कर सकता है इसलिए महेश भी है। एक ही आत्मा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीनों रूप है। आत्म-पुरुषार्थ के द्वारा की जाने वाली निर्जरा ही वास्तविक निर्जरा है जो मोक्षमार्ग में कारणभूत है। इसे पाये बिना मोक्ष संभव नहीं है। आप तो कृपण बने हुए हैं कि कमाते तो जा रहे हैं रखते भी जा रहे हैं, पर इसे खर्च नहीं करना चाहते। छोड़ना नहीं चाहते, और कदाचित् छोड़ते भी हैं तो पहले नया ग्रहण कर लेते हैं। ऐसे काम नहीं चलेगा, तप करना होगा। निर्जरा की व्याख्या करते हुए आचार्यों ने बतलाया है कि निर्जरा कहाँ से प्रारम्भ होती है। उन्होंने लिखा है कि जो भगवान् का सच्चा उपासक होता है उसी से वह प्रारम्भ होती है। अर्थात् गृहस्थ आश्रम में भी वह निर्जरा होती है। अविपाक निर्जरा तप के माध्यम से, संयम के माध्यम से हुआ करती है। अविरत सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी अनन्तानुबन्धी जन्य असंयम को समाप्त कर देता है तो उसका मार्ग भी प्रशस्त होने लग जाता है। साथ ही दर्शन-मोहनीय जो कि भुलावे में डालने वाला है उसे मिटाने के उपरान्त एक शक्ति आ जाती है। चारित्र-मोहनीय को भी धक्का लग जाता है। चारित्र-मोहनीय की शक्ति कम पड़ने लगती है। इसलिए निर्जरा तत्व वहीं से प्रारंभ हो जाता है। चूँकि यह निर्जरा तत्व पूर्ण बंध को रोक नहीं सकता इसलिए उसे मुख्य रूप से निर्जरा में नहीं गिनते किन्तु गिनती में प्रथम तो वह आ जाता है। यहाँ बात चल रही है उस निर्जरा की जो मुख्य है। जो तप के माध्यम से हुआ करती है। निर्जरा का अर्थ है अंदर के सारे के सारे विकारों को निकाल कर बाहर फेंक देना। जब तक अंदर के विकारों को निकाल कर हम बाहर नहीं फेकेंगे तब तक अंदर के आनंद का जो स्रोत है वह स्रोत नहीं फूटेगा और जब तक वह आनंद नहीं आयेगा तब तक हमारा संवेदन दु:संवेदन ही रहेगा, दुख का संवेदन रहेगा। निर्जरा करने वाला व्यक्ति बहुत होशियार होना चाहिए। पहले दरवाजा बंद कर लें अर्थात् कर्मों के आगमन का द्वार बंद कर लें फिर अंदर-अंदर टटोलें और एक-एक करके सारे कर्मों को निकाल दें। अंदर से कर्मों को निकालने के लिए जरा सी ज्ञान-ज्योति की आवश्यकता है क्योंकि जहाँ घना अंधकार छाया हुआ होता है वहाँ थोड़ा सा भी प्रकाश पर्याप्त हो जाता है। आँख मीचकर बाहर के सारे पदार्थों को संवर के माध्यम से हटा दिया जाए, फिर अंदर ज्ञान-ज्योति को प्रकाशित कर दें तो उपादेय कौन और हेय कौन है, सब मालूम पड़ जाता है, तभी निर्जरा संभव होती है। जब तक हमारी दृष्टि बाहर लगी रहेगी तब तक निर्जरा की ओर नहीं जायेगी। इसीलिए आचार्यों ने पहले संवर को महत्व दिया कि विकार आने का द्वार ही बंद कर दी। आने वाले सभी मागों का सवर । अजमेर की बात है। एक विद्वान् जो दार्शनिक था वह आया और कहा कि महाराज! आपकी चर्या सारी की सारी बहुत अच्छी लगी, श्लाघनीय है। आपकी साधना भी बहुत अच्छी है लेकिन एक बात है कि समाज के बीच आप रहते हैं और बुरा नहीं माने तो कह दूँ। हमने कहा भैया! बुरा क्या मानूँगा, जब आप कहने के लिए आये हैं तो बुरा मानने की बात ही नहीं है, मैं बहुत अच्छा मानूँगा और यदि मेरी कमी है तो मंजूर भी करूंगा। उन्होंने पुन: कहा कि बुरा नहीं मानें तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि आपको कम से कम लंगोटी तो रखना चाहिए। समाज के बीच आप रहते हैं, उठते-बैठते, आहार-विहार-निहार सब करते हैं और आप तो निर्विकार हैं। लेकिन हम लोग रागी हैं, इसलिए लंगोटी रख लें तो बहुत अच्छा। यह चर्चा उस समय की है जब भगवान् महावीर का निर्वाण महोत्सव मनाया जाने वाला था। कई चित्रों के साथ भगवान् महावीर स्वामी का एक चित्र भी रखा था। उस किताब को जब मैंने देखा तो पाया कि हमारे भगवान् महावीर तो इसमें नहीं है। लोगों ने कहा कि इसमें हैं, देखिये अंतिम नम्बर उन्हीं का है। मैंने कहा कि ये तो आप लोगों जैसे दीख रहे हैं। लोग कहने लगे-नहीं ये तो बिल्कुल दिगम्बर हैं। मैंने कहा मुख तो सभी का दिगम्बर है पर इतने से कोई दिगम्बर नहीं होता। आपने वस्त्र भले ही नहीं रखे पर वस्त्र आवरण भी कई प्रकार के हैं। भगवान् के सामने चित्र में वह जो लकड़ी लाई गयी है। वृक्ष दिखाया गया है वह भी वस्त्र का काम कर रही है। इसे हटायेंगे तभी हमारे महावीर भगवान् से साक्षात्कार होगा। उस समय यह बात चली थी कि एक लंगोटी तो आप पहन ही लो। हमने कहा, भइया! ऐसा है कि महावीर भगवान् का बाना हमने धारण कर रक्खा है और इसके माध्यम से महावीर भगवान कम से कम ढाई हजार वर्ष पहले कैसे थे, यह भी ज्ञात होना चाहिए। तो वे कहने लगे महाराज! आप तो निर्विकार हैं और सभी की दृष्टि से कहा है। मैंने कहा अच्छा। आप दूसरों की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं, तो ऐसा करें कि लंगोटी में तो ज्यादा कपड़ा लगेगा, और महावीर भगवान् का यह सिद्धान्त है कि जितना कम परिग्रह हो उतना अच्छा है। आप एक छोटी सी पट्टी रख लो और जिस समय कोई दिगंबर साधु सामने आ जाये तो धीरे से आँख पर ढक लें। जो विकारी बनता है उसे स्वयं अपनी आँख पर पट्टी लेनी चाहिए। महावीर भगवान् निर्जरा तत्व को अपनाने वाले थे। संवर को अपनाने वाले थे। उन्होंने कहा कि जिस मार्ग से कर्म आ रहे हैं उसे ही बंद कर दिया जाए, बाहरी द्रव्य अपने आप ही बंद हो जायेंगे। अगर अपना दरवाजा बंद कर लो तो सबका आना रुक जाता है। आत्मा के छह दरवाजे हैं, पाँच इन्द्रिय सम्बन्धी झरोखे हैं और छठा दरवाजा है मन। आत्मा का उपयोग इन छहों के माध्यम से बाहरी हेय तत्व को उपादेय की दृष्टि से अपनाता है। बाह्य तत्व आते नहीं हैं, स्थान से स्थानान्तर नहीं होते किन्तु प्रमेयत्व गुण के माध्यम से आत्मा पर अपना प्रभाव डालते हैं। यदि इंद्रिय और मन का द्वार बंद है तो बाहर का Reflection (प्रतिबिंब) अंदर नहीं आयेगा। इसी को कहते हैं संवर तत्व। इससे आत्मा के अंदर की शक्ति अंदर रह जाती है और निर्जरा के लिए बल मिल जाता है। अविरत सम्यग्दृष्टि के होने वाली निर्जरा एकान्त रूप से अविपाकी निर्जरा नहीं है क्योंकि वह बंध तत्व के साथ चल रही है। उस निर्जरा को गज स्नानवत् कहा है। जैसे स्नान के समय हाथी करता है कि स्नान तो कर लेता है किन्तु इधर स्नान किया और उधर ढेर सारी धूल अपने सिर पर उडेल ली। भइया! निर्जरा होना अलग बात है और निर्जरा करना बात अलग है। अविरत सम्यग्दृष्टि के निर्जरा हो रही है, लेकिन तप के द्वारा जो निर्जरा की जाती है वह तो संयमी के ही होती है। कई लोगों का ऐसा सोचना है कि जो सम्यग्दृष्टि बन ही गया है तो अब इसके उपरान्त पूजन करना, प्रक्षाल करना, दान आदि देना इससे और ज्यादा निर्जरा तो होने वाली नहीं। शंका बहुत उपयुक्त है लेकिन आप एक ही दृष्टि से देख रहे हैं। पहले मैंने एक बार कहा था कि आप जैनी बन के काम करो। अकेले जैन मत लिखा करो। अंग्रेजी में JAIN शब्द में एक ही आई है अर्थात् आप एक ही दृष्टि से देख रहे हैं। जैनी लिख दो तो दो आई हो जायेंगी JAINI तब ठीक रहेगा, दो आँख हो जायेंगी। दोनों नयों से देखना ही समीचीन दृष्टि है। श्रावक के लिए षट् आवश्यक कहे गये हैं। उनमें देव-पूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन सभी को प्रतिदिन करना आवश्यक है। हम तो सोचते हैं-दिने-दिने के स्थान पर पदेपदे या क्षणे क्षणे होना चाहिए। ये छहों कार्य प्रतिपल एक के बाद एक करते रहना चाहिए। इसमें प्रमाद नहीं करना चाहिए। आवश्यक जिस समय में जो है वह ही करना। 'अवश्यमेव भव: आवश्यक:।' ऐसा कहा गया है। हमारे आचार्यों ने जब ग्रन्थ लिखे तो वे यह जानते थे कि जो श्रावक हैं, गृहस्थ हैं, उनके लिए भी कोई आवश्यक बनाने होंगे ताकि विषय-कषाय से बचा जा सके। जो मन में आया वही लिख दिया हो, तो ऐसा नहीं है, पूर्वापर विचार करके, तर्क की कसौटी पर तौलकर और अनुभव से उन्होंने लिखा है। पूजा के समय सम्यग्दृष्टि को बंध तो होता है क्योंकि जब वह पूजा करता है तो आरंभ तो होगा ही इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन आचार्यों ने कहा है कि बंध ही अकेला होता हो ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा है कि ये आवश्यक गृहस्थ के लिए तप के समान कार्य करते हैं। जिस समय अविरत सम्यग्दृष्टि गृहस्थ पंचेन्द्रिय के विषयों में लीन हो जाता है अर्थात् विषय सामग्री का सेवन करता है उस समय उसके अनन्तानुबन्धी संबंधी और मिथ्यात्व सम्बन्धी कर्म प्रकृतियों का आस्रव बंध तो नहीं होता लेकिन अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान आदि के द्वारा होने वाला बंध तो अवश्य होता है और उस समय कर्म प्रकृतियों में उच्च स्थिति अनुभाग के साथ बंध होता है। उस समय उसके निर्जरा नहीं हुई किन्तु बंध ही हुआ। लेकिन पूजा के समय अविरत सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया] लोभ की हीन स्थिति के साथ बंध करेगा और अनुभाग भी मंद होगा। उस समय पाप प्रकृतियों के अनुभाग और स्थिति में कमी आयेगी, उनमें द्विस्थानीय बंध ही हुआ करता है। जिस समय वह पूजन करेगा उसी समय में वह अप्रत्याख्यान को समाप्त भी कर सकता है क्योंकि उस समय भूमिका इस प्रकार की होती है उसके देशव्रत लेने की भावना जागृत हो सकती है। महाव्रत धारण करने की भावना हो सकती है। क्योंकि वीतराग मुद्रा सामने है, उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता, और अंदर का सम्यग्दर्शन बोलता है कि कमजोरी कहाँ पर है ? क्यों वस्त्रों में अटक रहे हो? इस प्रकार का विचार आते ही संभव है वह जीवन में वीतराग मुद्रा को धारण कर ले। इसलिए भगवान के सामने जाकर उनसे भेंट तो कर लेना चाहिए ताकि उनके अनुरूप बनने के विचार जागृत हो सकें, विषय कषायों के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो सके। जो कि निर्जरा का कारण है। पूजन करते समय अप्रत्याख्यान की निर्जरा तो होती ही है साथ ही जिस समय वह सम्यग्दृष्टि भगवान् के सामने पूजन करने लग जाता है और प्रभु पतित पावन बोलने लग जाता है तो उस समय अनन्तानुबन्धी की उदीरणा होकर अकाल में ही वह खिर जाती है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ की जो चौकडी मिथ्यात्व के साथ सम्बन्ध रखने वाली है, वह सारी की सारी अप्रत्याख्यान के रूप में आकर फल देकर चली जाती है किन्तु सम्यक्त्व बाधित नहीं होता। जिसके अनन्तानुबन्धी सत्ता में है उसे सत्ता में से तो निकालना होगा क्योंकि उदय में आ जायेगी तो सम्यग्दर्शन का घात हो जायेगा। यह पूजन इत्यादि षट् आवश्यक सारे के सारे अंदर के कर्मों को निकालने के उपक्रम हैं। इसलिए सम्यग्दृष्टि भगवान् के सामने जाकर अगर एक घंटे कम से कम पूजन करता है तो उतने समय के लिए अनन्तानुबन्धी की निर्जरा होती है। जिस व्यक्ति को निर्जरा तत्व के प्रति बहुमान है वह व्यक्ति सम्यग्दृष्टि होकर घर में नहीं बैठेगा और पूजन की बेला को नहीं टालेगा और यदि टालता है तो वह सम्यग्दर्शन का पोषक नहीं है, यही कहना चाहिए। सम्यग्दृष्टि श्रावक अष्ट मंगल द्रव्य लेकर पूजा करने जाता है और मुनियों द्वारा होने वाली पूजन में द्रव्य नहीं रहती, भावों से ही पूजन होती है। यदि आप श्रावक चाहें कि द्रव्य न लगे, भाव पूजन हो जाये और निर्जरा भी हो जाये तो संभव नहीं है। आप यदि द्रव्य नहीं लगाना चाहते तो इसका अर्थ है कि आपको द्रव्य के प्रति मोह है और मोह है तो बंध होगा, निर्जरा नहीं होगी। भगवान् के सामने पूजन करने का अर्थ यही है कि विषय सामग्री का विमोचन यानि निर्जरा तत्व का आह्वान। विषय सामग्री चढ़ाई जाती है, भगवान् को दी नहीं जाती। हमारे भगवान् लेते नहीं हैं पर आपके पास जितना है उसे छुड़वा देते हैं। तीर्थस्थल पर आप बैठे हैं तो यहाँ अपने आप छोड़ने के भाव जागृत हो जाते हैं। घर में रहकर यह भाव जागृत नहीं होते। घर में जब खाना खाते हैं तो कहते हैं, पाटा बिछा दो, पंखा चला दो, बिजली का नहीं तो हाथ से ही सही, थाली रक्खो, अच्छी चमकती हुई, गिलास रखो, लौटा रखो पानी भर कर सारी सुखसुविधाएँ चाहिए लेकिन यहाँ क्षेत्र पर आप लोग खाना खाते हैं तो यहाँ कोई पाटा नहीं है, थाली नहीं है, यूँ ही एक तरफ बैठे-बैठे कैसे भी करके खा लेते हैं पाँच मिनट में। यही तो त्याग है। तीर्थ पर भगवान् के सामने सभी व्यक्ति प्राय: व्रती बन जाते हैं, त्याग की सीख ले लेते हैं। यहाँ तो प्रत्येक समय त्याग तपस्या की बात है, निर्जरा की बात है। यहाँ निरन्तर चाहें तो मोक्षमार्ग चल रहा है। संसारी और गृहस्थ चौबीस घंटे राग-द्वेष और विषय-कषाय में, धर्म ध्यान को छोड़कर लगे हुए हैं। इन षट-आवश्यकों के माध्यम से वीतराग प्रतिमा के सामने पूजन का सौभाग्य मिल जाता है और ऐसी निर्जरा होती है, अविपाक निर्जरा, जो तप के माध्यम से होती है। इसलिए पूजन-धर्म आवश्यक है। जो साधक हैं उन्हें पूजन अपने अनुकूल करना चाहिए। आपको/श्रावक को अष्ट मंगल द्रव्य से पूजन का विधान है और हम लोगों को/मुनिजनों को अष्ट मंगल द्रव्य के अभाव में भावों की निर्मलता में कोई कमी नहीं रखना चाहिए। मुनि लोग जब भी भगवान् की पूजा करते हैं तो उस समय आप से भी असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा कर लेते हैं। केवल आत्म-तत्व के माध्यम से ही निर्जरा होती है, ऐसा एकान्त नहीं है। सामान्य रूप से होने वाली निर्जरा तो मिथ्यात्व के उदय में भी होती है। मिथ्यात्व का उदय बाद में समाप्त होता है। अनन्तानुबन्धी पहले समाप्त हो जाती है। निर्जरा तो वहाँ भी होती है लेकिन यहाँ इस प्रकार की निर्जरा की बात हम नहीं कर रहे हैं। सजग होकर ज्ञान के साथ जो निर्जरा की जाती है, और पूजन आदि षट् आवश्यकों के माध्यम से वह जितनी-जितनी बढ़ती है उतने-उतने अंशों में वह निराकुल बनता चला जाता है। यही षटआवश्यक श्रावक के लिए निराकुलता में कारण बनते हैं। सम्यग्दृष्टि इनके माध्यम से विशेष निर्जरा करता है और आगे बढ़ता जाता है। गृहस्थ होकर भी जितना अधिक आपका धार्मिक क्षेत्र में धन खर्च होगा, उतना ही आपकी सत्ता में जो अनन्तानुबन्धी है वह संक्रमित होकर बिना फल दिये ही चली जायेगी। यदि आप सजग हो करके देवगुरु शास्त्र की पूजन, उनकी उपासना, आराधना, उनका चिंतन करते हैं तो उस समय कर्म खिरते चले जाते हैं। मिथ्यात्व भी जो सत्ता में है वह उदयावली में आकर सम्यक्त्व प्रकृति के रूप में फल देकर चला जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्व प्रकृति की निर्जरा हो जाती है और आपके सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में सम्यग्दर्शन ज्यों का त्यों बना रहता है। जिस प्रकार आप लोग आठ घंटे की ड्यूटी दे देते हैं उस समय आपको जो वेतन बंधा हुआ है, वह मिल जाता है विश्वस्त होकर काम करो और थोड़ा प्रमाद भी हो जाये तो भी वेतन पूरा मिलता है ऐसे ही सम्यग्दृष्टि भगवान् के सामने जाकर सो भी जायें तो भी वेतन मिलता रहता है। यदि ओवर ड्यूटी कर ले तो फिर कहना ही क्या? एक व्यक्ति पसीना-पसीना हो रहा था। मैंने पूछा कि भइया! ऐसा इतना काम क्यों करते हो, समय पर किया करो। उसने कहा-क्या करें महाराज! घर की बात, बेटी के दहेज के लिए धन तो चाहिए-इसलिए अभी दो-तीन साल के अंदर ओवर ड्यूटी करके कमा रहा हूँ। अब सोची, संसार के कार्यों में इस प्रकार कमा सकते हैं तो तप के माध्यम से, षट् आवश्यकों के माध्यम से मोक्षमार्ग में निर्जरा को भी बढ़ा सकते हैं। समय से पहले अकाल में ही इस प्रकार आवश्यकों के माध्यम से निर्जरा हो सकती है और नये बंध से बचा जा सकता है अतः पूजन आदि करना परम आवश्यक है। पूजन के माध्यम से मात्र बंध ही होता हो ऐसा नहीं है क्योंकि बंध की प्रक्रिया न तो पूजन के समय पूर्णत: रुकी है और न ही विषय भोगों के समय रुकी है बल्कि जिस समय पूजन करते हैं उस समय पाप की निर्जरा हो जाती है, उसका बंध रुक जाता है और शुभ-बंध प्रारंभ हो जाता है। पूजन को केवल बंध का कारण कहना-इस तत्व को नहीं समझना है। साथ ही साथ यह पाप का समर्थन करना है क्योंकि वह व्यक्ति पाप से मुक्त होकर मुनि तो बना नहीं है। अष्ट द्रव्य से पूजन करना आस्रव का कारण है, ऐसा उपदेश उन व्यक्तियों के सामने सुनाने योग्य है जो मुनि बनने के लिए तैयार हैं। यदि गृहस्थ होकर द्रव्य पूजन नहीं करना चाहते तो गृहस्थ से ऊपर उठ जाओ, फिर भाव पूजन करो, फिर मंदिर जाने की भी आवश्यकता नहीं है। लेकिन मंदिर जाने की आवश्यकता नहीं है तो घर जाने की भी आवश्यकता नहीं है, यह भी बात है, ध्यान रखो। आप चाहें कि मंदिर जाना छूट जाये, घर में बैठे रहें और निर्जरा भी हो जाये तो संभव नहीं है। निर्जरा नहीं मिलेगी, वहाँ तो जरा ही मिलेगी, बुढ़ापा मिलेगा। अत: सभी विवक्षाओं को देखने, सोचने विचारने की बड़ी आवश्यकता है। नन्हें-नन्हें बच्चों के सामने यदि पूजा को बंध का कारण बता देंगे तो कभी उनको और न आपको समझ में आयेगा कि वास्तव में आस्त्रव और बंध क्या है और निर्जरा तत्व क्या है, मोक्ष क्या और जीव तत्व क्या है? वह श्रेष्ठ डॉक्टर है जो रोगी को दवाई देता है, निदान ठीक-ठीक करता है, साथ ही अनुपान का भी ध्यान रखता है। एक माह का बच्चा है और बीमार हो जाता है तो डॉक्टर औषधि देगा पर उसे ध्यान रखना होगा कि कौन-सी देना, कितनी मात्रा में देना और किस अनुपान के साथ देना है। यदि पहलवान की तरह मात्रा और अनुपान लेंगे तो प्राण संकट में पड़ जायेंगे। इसी प्रकार जो अभी पूजन ही नहीं कर रहा है, धर्म-ध्यान की ओर जिसकी दृष्टि नहीं है उसे, पूजन बंध का कारण है, यह बता दिया जाए तो वह मोक्षमार्ग पर कभी आरूढ़ नहीं हो पायेगा। मोक्षमार्ग से विचलित होकर उन्मार्ग पर बढ़ जायेगा। निचली बात यदि छुड़ाना है तो धीरे-धीरे उस व्यक्ति को ऊपर की बात उपादेय के रूप में बता दो। यदि द्रव्य पूजन से बचना चाहो तो सभी प्रकार के आरम्भ परिग्रह से ऊपर उठ जाओ, निरारम्भ बन जाओ, निष्परिग्रही हो जाओ, ग्यारह प्रतिमाएँ ले लो। संसार के तो अनेक पाप कार्य करना और भगवान् की पूजन को बंध का कारण बताना अथवा भोग को निर्जरा का कारण बताना, यह सब जैन सिद्धान्त का अपलाप है। विवक्षा समझनी चाहिए। यह तो मोक्षमार्ग को अप्रशस्त करना है। जो ऊपर उठने वाले हैं उन्हें नीचे गिराना है। सम्यग्दृष्टि का भोग निर्जरा का कारण है लेकिन ध्यान रखना, भोग कभी निर्जरा का कारण नहीं बन सकता । यदि भोग निर्जरा का कारण है तो योग (ध्यान) बंध का कारण होगा। सोचना चाहिए ऐसा कहने वालों को। कौन से शब्दों का अर्थ, कहाँ क्या लिखा है, किस व्यक्ति के लिए लिखा गया है। कुछ भी याद नहीं। आगम का जरा भी भय नहीं। कोई विवेक नहीं और धर्मोपदेश चल रहा है। यह ठीक नहीं है भइया। सम्यग्दृष्टि का भोग भी निर्जरा का कारण है- ऐसा कथन आया है, सभी जानते हैं, किन्तु किस व्यक्ति के लिए आया है यह भी देखना चाहिए। जो व्यक्ति बिल्कुल निर्विकार वीतराग सम्यग्दृष्टि बन चुका है और दृष्टि जिसकी तत्व तक पहुँच गयी है, इसके सामने वह भोग सामग्री, भोग सामग्री न होकर जड़ पदार्थ मात्र रह गयी है। उस व्यक्ति के लिए कहा है कि तू कहीं भी चला, जाये, तेरे लिए संसार निर्जरा का कारण बन जायेगा। भगवान् की मूर्ति, वीतराग प्रभु की मूर्ति निर्जरा के लिए कारण है, संवर के लिए कारण है, लेकिन सिनेमाघर में जाकर कोई चित्र देखे तो क्या वहाँ निर्जरा होगी? संभव नहीं है आपकी। आप स्वयं को भूल जायेंगे। समाधि के स्थान पर समाप्ति हो जायेगी। व्यसनों में पड़कर भगवान् को भूल जाना, साथ ही अपने आप को भूल जाना अलग है और निर्विकल्प ध्यान में लीन होकर अपने को भूल जाना अलग है, दोनों में बड़ा अन्तर है। एक संसार मार्ग है और एक मुक्ति का मार्ग है। महाव्रती होकर यदि निर्विकार दृष्टि से वीतराग सम्यग्दृष्टि भोग सामग्री को देखता है तो भी उसको निर्जरा ही होगी। पात्र को देखकर ही कथन करना चाहिए। भोग निर्जरा का कारण सामान्य व्यक्तियों के लिए नहीं है। अभी वह दृष्टि प्राप्त नहीं है जो हर पदार्थ को ज्ञेय बनाये। अभी जब तक दृष्टि इष्ट-अनिष्ट की कल्पना से युक्त है, हेय उपादेय को नहीं पहचानती तब तक वह स्खलित हुए बिना नहीं रहेगी। इसलिए ग्रन्थ का अध्ययन, मनन-चिन्तन तो ठीक ही है लेकिन उसके रहस्य तक पहुँचे बिना कुछ भी कह देना ठीक नहीं है। प्रत्येक पदार्थ की कीमत अपने-अपने स्थान पर अपने-अपने क्षेत्र में हुआ करती है। जौहरी की दुकान पर आप चले जायेंगे तो वह आपको बिठा लेगा, आपका मान-सम्मान भी करेगा लेकिन आपको अपने हीरे-जवाहरात जल्दी-जल्दी उतावलेपन में नहीं दिखायेगा, न ही देगा। वह ग्राहक को परखता है, फिर ग्राहक के सामने जवाहरात की जो कीमत है, उसे बताता है। बहुत कीमती है ऐसा कहकर बड़ी सावधानी से एक-एक ट्रेजरी खोलता है तब कहीं जाकर एक छोटी सी संदूक और उस संदूक में भी एक छोटी सी डिबिया और उस डिबिया में भी मखमल और मखमल में भी एक पुड़िया। इस प्रकार वह हीरा तो बहुत अंदर है और उसे भी ऐसे ही हाथ में लेकर नहीं दिखाता, दूर से ही दिखा देता है। इसी प्रकार ग्रन्थराज समयसार में इस निर्जरा तत्व की कीमत है। ग्रन्थराज समयसार आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने सभी के हाथ में नहीं दिया। वे ही हाथ लगा सकते हैं जो मुनि हैं या मुनि बनना चाहते हैं। वे ही इसकी सही कीमत कर सकते हैं, वे ही इसका चिन्तन, मनन और पाचन कर सकते हैं। यह कोई सामान्य ग्रन्थ थोड़े ही है। जीवन समर्पित किया जाता है उस समय यह निर्जरा तत्व प्राप्त होता है। विषय भोगों को ठुकरा दिया जाता है तब यह हीरा गले में शोभा पाता है, ऐसे थोड़े ही है भइया! बड़ी कीमती चीज है, इस कीमती चीज को आप किसी के हाथ में यूँ ही दे दो तो उसका मूल्यांकन वह नहीं कर पायेगा। जो भूखा है, प्यासा है वह कहेगा यह कोई चमकीली चीज है, इसको ले लो और मुझे तो मुट्ठी भर चना दे दो और आज यही हो रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि तुम्हारी दृष्टि में यदि अभी भोग आ रहे हैं तो तुमने पहचाना नहीं है निर्जरा तत्व को। एकमात्र अपने आत्मा में रम जा तू वही निर्जरा तत्व है। तेरी ज्ञानधारा यदि ज्ञेय तत्व में अटकती है तो निर्जरा तत्व टूट जाएगा, वह हार बिखर जायेगा। इस निर्जरा तत्व के उपरान्त और कोई पुरुषार्थ शेष नहीं रह जाता है। मोक्ष तत्व तो निर्जरा का फल है। मोक्ष तो मंजिल है, वह मार्ग नहीं है। मार्ग यदि कोई है तो वह संवर और निर्जरा हैं। मार्ग में यदि स्खलन होता है तो मोक्ष रूपी मंजिल नहीं मिलेगी। हमें मोह से बचकर मोक्ष के प्रति प्रयत्नशील होना चाहिए। निर्जरा तत्त्व को अपनाना चाहिए।
  20. मनुष्यभव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मनुष्यभव बुखार का डाऊन (सामान्य) होना है, इसी में आत्मा का इलाज संभव है। मनुष्य जीवन का एक पल और तीन लोक की सारी सम्पदा दोनों की एक-सी कीमत है, इसलिए इसका सदुपयोग करो। मनुष्य जीवन दुर्लभता से प्राप्त होता है, प्रयोजनहीन कार्य करने से पुन: प्राप्त नहीं होता।
  21. मन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार हमें अपने बाहरी चित्र की सुरक्षा नहीं करना बल्कि भीतरी चित्त की सुरक्षा करना है। चित्र को नहीं चित्त को मांजना है। मन के बिना पंचेन्द्रिय का निरोध नहीं होता है। मन, वचन, काय की शुद्धि होने से आत्मा की विशुद्धि और बढ़ जाती है। जो हमारे मन में संकल्प-विकल्प का कल्पतरु है, उसका कल्प कर दो। हम मन में जिस प्रकार की धारणा बना लेते हैं, वैसे चित्र दिखाई देने लगते हैं। मन को प्रशस्त रखने के लिए पर में इष्टानिष्ट कल्पना नहीं रखना चाहिए। आत्मा बिना मन के रह सकता है, पर मन बिना आत्मा के नहीं रह सकता। ज्ञान की एक विशेष परिणति का नाम मन है और आत्मा ज्ञानमय है। बड़ी-बड़ी नदियों को बाँधना सरल है किन्तु मन को बाँधना कठिन है, लेकिन मन की चाल को जानने वाले को इसे बाँधना कठिन नहीं है। अपना मन अपना होकर अपने बारे में क्यों नहीं सोचता ? मन हमेशा अतृप्त ही रहता है, जो मन के इस स्वभाव को जानते हैं, वे मन के अनुसार नहीं चलते। मन को वश में करने का अच्छा तरीका है, उसे दुर्लभ चीज की ओर ले जाओ। जिसके मन में निरीहता आ जाती है वह निरक्षर होकर भी सम्यक ज्ञानी और वह शीघ्र ही आत्म कल्याण कर लेता है। साधना के क्षेत्र में ज्ञेय पदार्थों से नहीं बचना होता है बल्कि जो मन ज्ञेय पदार्थों की ओर जाता है, उसे रोकना पड़ता है। मन में बहुत कुछ व्यर्थ का भर लेने से ही पागलपन छा जाता है, इसलिए मन को खाली रखना चाहिए। मन की धारणा के कारण ही मोक्षमार्ग चलता है। मन को नियंत्रण में रखने से जीवन सफलीभूत हो जायेगा। कम समय में साधना ज्यादा करना चाहते हो तो मन को साधो। ख्याति, लाभ, पूजा के लिए तप, उपवास करना यानि समझना मन अभी सधा नहीं है। मन रूपी मृग यदि स्थिर है तो उसे काम रूपी भील मार नहीं सकता। मन की विकृति को आधि माना जाता है, तनाव भी एक प्रकार की आधि (मानसिक रोग) ही है, क्योंकि वह मनोगत विकार है। मन को वश में रखने वाला व्यक्ति जीवन में कभी पराजित नहीं हो सकता, कहा भी गया है कि एक गूंगा १०० को हराता है। समता के साथ कटु वचन सुनो, उन्हें अपने मन का बोझ मत बनाओ। स्वस्थ मन वही माना जाता है, जिसे कभी भी तनाव नहीं छूता। बार-बार विशेष तप करने से मन नियंत्रण में रहता है। गलत दिशा में जाना मन का स्वभाव बन गया है, यदि इसमें संयम रूपी लगाम नहीं लगायी तो यह अनर्थ कर जायेगा। मन रूपी बंदर को श्रुत-स्कंध पर चढ़ाये रखो वरन् वह अनर्थ कर जायेगा। मन रहित जीव श्रुतज्ञान के माध्यम से अपने हिताहित का निर्णय कर लेते हैं, लेकिन मन के बिना वे हेयोपादेय का ज्ञान नहीं कर सकते शिक्षित नहीं हो सकते, सम्बोधन को नहीं सुन सकते। तनाव के कारण निद्रा भाग जाती है, मन को ठेस पहुँचने पर भी निद्रा भाग जाती है। मन से कहो ऐसा सोचो जिसमें कारण बंध न हो, निर्ममत्व को अपनाओ मात्र ज्ञाता-द्रष्टा बने रहो । मन की चाल को समझना बहुत कठिन है, लेकिन उसे जो समझ ले वह ज्ञानी है। राजा और महाराजा कभी अपने मन पर विश्वास नहीं करते, क्योंकि वे इस बात को जानते हैं कि मन धर्म से नहीं कर्म से प्रेरित होता है। नीति से काम लिया जायेगा तो मन सही काम कर सकता है, वरन् वह उछल-कूद करता ही रहेगा। मन बाह्य पदार्थों में जाता है तो अनर्थ के लिए ही जाता है। जब मन विषय कषायों से ऊपर उठ जाता है तब स्थिर हो जाता है। जिसका मन सिद्ध है उसे मंत्र सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं है, और जिसका मन सिद्ध नहीं है और मंत्र सिद्ध करता है तो वह स्वयं को घातक सिद्ध होता है। मनोबल जो प्राण है, उसे भी बचाओ। ज्यादा मत सोचो, क्योंकि मन के माध्यम से ज्यादा सोचने से, तनाव रखने से मन रूपी प्राण का घात होता है। ध्यान करने वाला भी मन है और ध्यान में विध्न डालने वाला भी मन है। मन की अव्यवस्था के कारण सभी व्यवस्थायें होने पर भी उनका फायदा नहीं उठा सकते। मन की अशुद्धि के कारण आहार अशुद्ध हो जाता है। एक साथ स्वाहा बोलते हैं तो मनुष्य के मन की शांति से देवता भी आनंद बरसाने लगते हैं। उस आनंद को आप मन की शुद्धिपूर्वक बोलते हुए लीजिए। अंदर के स्वभाव के अनुरूप बाह्य स्वरूप दिखाई देने लगता है। जब तक मन की कलुषता, कटुता, ईर्ष्या का भंजन (मंजन) नहीं करोगे तब तक कल्याण नहीं होगा। मन शुद्ध करने वालों को भजन करने की आवश्यकता नहीं है। मनकृत् प्रयोजन यदि शुद्ध नहीं होता तो सभी अशुद्ध है। शुद्धि से आहार की उदीरणा हो जाती है। यदि आहार के पूर्व आपका उपयोग शुद्ध नहीं हो तो वह आहार विष बन जावेगा। मन को नियंत्रण में रखने से सारी विराधनाएँ, आराधनाएँ बन जाती हैं। नियंत्रण दूसरे पर नहीं अपने मन पर रखो यह संयम है। यह अपने कोर्स की बात मानी जाती है। दूसरे पर नियंत्रण रखना परिग्रह है। दूसरे को नियंत्रण में रखना कमजोरी है। मन को सुला दो फिर आत्मा अपना काम कर जाती है। मन को सुलाने वाला ए-वन होगा। मन को विश्राम देना साधक का मुख्य कार्य है। कर्तृत्व, भोत्त्कृत्व और स्वामित्व इन तीनों से मन को खाली कर दो क्योंकि ये ही संसार में संघर्ष की जड़ है। मन की खुराक का नाम पसंदगी है। वह इसी पसंदगी पर जीना चाहता है। पाप की मजबूत गठरी मन के बिना नहीं बंधती है। मन के खेल के सामने सारी आराधनायें फैल हो जाती हैं और मन को नियंत्रित करने से सारी विराधना आराधना बन जाती है। मन को मंत्रित नहीं करना बल्कि नियंत्रित करना है। संसारी प्राणी अपने चित्र की चिन्ता तो करता है लेकिन चित्त की चिन्ता नहीं करता। प्रशस्त मन वाले को दवाई की आवश्यकता नहीं होती। मोह, क्षोभ से रहित आत्मा की शक्ति का नाम मन है। विक्षिप्त मन भ्राँति है, विक्षिप्त मन तत्व निर्णय नहीं कर सकता। भ्राँति ही कष्ट है। मन बहुत पुण्य के बाद प्राप्त होता है। उसे अविक्षिप्त बनाना और कठिन है। मन बूढ़ा नहीं होता। जुबान बंद हो गयी पर मन जवान ही बना रहता है। जो मन से अस्वस्थ है वह तन से भी अस्वस्थ हो जाता है। जब मन रूपी सरोवर तरंग रहित होता है, तभी भगवान आप से प्रसन्न होते हैं। माना मन है लेकिन मनमाना नहीं करना चाहिए, मन को मनाना चाहिए फिर वह महामना बन जावेगा। सम्यक दर्शन मन वाले को ही होता है। (संज्ञी होना अनिवार्य है सम्यक दर्शन के लिए) मनोहर मन के हरण बिना विध्नहर (प्रभु) का दर्शन सम्भव नहीं है। मन के द्वारा माँग मत करो, मन का संघर्ष ही संसार में भटका रहा है। मनुष्य मनु की संतान है, इसलिए हे मानव! तू मन का गुलाम नहीं बन। बल्कि मन को शिष्य, गुलाम बनाओ, क्योंकि मन का दास वासना का दास होता है। प्रभु के पास हम मन के साथ न जावें मन को नियंत्रण में रखकर जावे और प्रभु के चरणों में समर्पित कर दें। मन के द्वारा हम सही मूल्यांकन नहीं कर पाते। मन की खुराक अहंकार होती है। मन उपयोग की धारा है जिसमें अभिमान की धारा बहती रहती है। जो मन उपासना की पद्धति के अनुसार चलता है वह हल्का हो जाता है। भगवान की पहचान आँख से नहीं मन के द्वारा होती है। मनोरम नहीं मनोहर चाहिए, राम को चाहिए रमन को नहीं। भगवान के सामने मन गायब हो जाना चाहिए, समर्पित हो जाना चाहिए। संसार का सार व बड़प्पन इसी में (समर्पण में) है। मन आपकी निधि चुराने वाला है, वह भगवान के चरणों में समर्पित कर दो। हे प्रभु यह आपके चरणों में आज समर्पित करता हूँ इसी के कारण आज तक आपकी पहचान नहीं कर पाया हूँ। प्रभु आचरण की धरती पर खड़े हैं। तीन लोक में कहीं मत झुको पर त्रिलोकीनाथ के सामने तो झुको। मन, रूपी पदार्थों को चाहता है पर उन्हें देख नहीं सकता। आँखें देखती हैं मन तो वासा ही खाता है। मन का हरण जिस दिन हो जावेगा वह सौभाग्य का दिन माना जावेगा। उस दिन से आप भगवान की उपासना के लायक हो जाओगे। शांति की आवश्यकता आत्मा को है, मन को नहीं। मन की रुचि की ओर जाना एकमात्र पागलपन है। न मन: इति नमनः। जब मन नहीं रहता तो सिर झुक जाता है, नहीं तो मनमाना करने लगता है। धर्म को पालने में कोई शर्त नहीं बस मन वश में रहे, अपना बना रहे, दुनियाँ के सपने में न रमे । मन जवाब देने लगता है पर ध्यान रखना मन कमजोर प्राणी है, वैसे तो अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है।
  22. भेदविज्ञान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार इस शरीर का क्या स्वरूप है ? यह जानना ही भेद-विज्ञान है। चतुर्थ गुणस्थान वाला भेदविज्ञान श्रद्धात्मक होता है और सप्तम गुणस्थान वाला भेदविज्ञान अनुभूति परक होता है। जैसे एक स्कूल में है और एक प्रयोगशाला में है। मैं काया में अवश्य हूँ लेकिन काया के बिना भी रह सकता हूँ यह श्रद्धान ही भेदविज्ञान कहलाता है। भेदविज्ञान की शुरुआत ही सही जीवन की शुरुआत है, यह केवलज्ञान तक ले जाने वाला है, जो कभी अंत को प्राप्त नहीं होता है। अनेक बार शरीर को पाया पर यह बोध नहीं आया कि मैं कौन हूँ? मैं एक आत्म तत्व हूँ और शरीर से पृथक् हूँ, इस प्रकार का ज्ञान भेदविज्ञान माना जाता है। शरीर की वेदना को पड़ोसी की वेदना समझना सम्यक ज्ञान है, भेदविज्ञान है। भेदविज्ञानियों के पास जाकर सतचित में आनंद की प्राप्ति का प्रयास करो, फिर स्वयं सच्चिदानंद बन जाओगे। भेदविज्ञान का परिणाम है फूल सा मुस्कराना। शरीर अलग है, आत्मा अलग है, इस प्रकार का ज्ञान होना भेदविज्ञान कहलाता है। भेदविज्ञान से ध्यान की भूमिका बन जाती है। हम रात-दिन निमित्त को दोष देते रहते हैं, यह सब भेदविज्ञान के अभाव के कारण होता है। भेद-भाव से व्यक्ति राग-द्वेष करता रहता है और भेदविज्ञान प्राप्त कर ले तो राग-द्वेष समाप्त हो जाता है। भेदविज्ञान के बल पर ही धर्म में लीन हुआ जाता है। आत्मा में रमण करने के लिए पोथी का ज्ञान आवश्यक नहीं, मात्र भेदविज्ञान की आवश्यकता है।
  23. भाग्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पुरुषार्थ पर घमण्ड नहीं करना चाहिए, भाग्य को भी मानना चाहिए। क्योंकि पूर्वकृत् कर्म तीव्रता से उदय में आ जाते हैं तो किया हुआ पुरुषार्थ भी कार्यकारी नहीं होता। सम्यक्त्व और संयम के लिए जिस समय दरवाजे खुल जाते हैं, वह समय सबसे भाग्यशाली माना जाता है। प्रमादी का भाग्य कभी नहीं फलता। भाग्य भरोसे बैठने वालों को वही वस्तु मिलती है जो पुरुषार्थी लोग छोड़ जाते हैं। प्रबल भाग्य वाले को ही रत्नत्रय की उपलब्धि होती है। गुरु का समागम भाग्यशाली को ही प्राप्त होता है। भाग्यशाली उसे मत मानो जिसके पुण्य का उदय है, बल्कि उसे मानो जो पुण्य के कार्यों में लगा हुआ है और पाप से बचा हुआ है।
  24. ध्वनि न करो, गति(मती) धीमी हो,निजी, और ओंरों की | हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। सके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
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