आज हम एक पवित्र आत्मा की स्मृति के उपलक्ष्य में एकत्रित हुए हैं। भिन्न-भिन्न लोगों ने इस महान् आत्मा का मूल्यांकन भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से किया है। लेकिन सभी अतीत में झांक रहे हैं। महावीर भगवान् अतीत की स्मृति मात्र से हमारे हृदय में नहीं आयेंगे। वास्तव में देखा जाये तो महावीर भगवान् एक चैतन्य पिंड हैं, वे कहीं गये नहीं हैं वे, प्रतिक्षण विद्यमान हैं किन्तु सामान्य ऑखें उन्हें देख नहीं पातीं।
देश के उत्थान के लिए, सामाजिक विकास के लिए और जितनी भी समस्याएँ हैं उन सभी के समाधान के लिए आज अनुशासन को परम आवश्यक माना जा रहा है। लेकिन भगवान् महावीर ने अनुशासन की अपेक्षा आत्मानुशासन को श्रेष्ठ माना है। अनुशासन चलाने के भाव में मैं बड़ा और दूसरा छोटा इस प्रकार का कषाय भाव विद्यमान है लेकिन आत्मानुशासन में अपनी ही कषायों पर नियंत्रण की आवश्यकता है। आत्मानुशासन में छोटे- बड़े की कल्पना नहीं है। सभी के प्रति समता भाव है।
अनादिकाल से इस जीव ने कर्तृत्व-बुद्धि के माध्यम से विश्व के ऊपर अनुशासन चलाने का दम्भ किया है, उसी के परिणाम-स्वरूप यह जीव चारों गतियों में भटक रहा है। चारों गतियों में सुख नहीं है, शान्ति नहीं है, आनंद नहीं है, फिर भी यह इन्हीं गतियों में सुख-शान्ति और आनंद की गवेषणा कर रहा है। वह भूल गया है कि दिव्य घोषणा है संतों की, कि सुख-शान्ति का मूल स्रोत आत्मा है। वहीं इसे खोजा और पाया जा सकता है। यदि दुख का, अशान्ति और आकुलता का कोई केन्द्र बिन्दु है तो वह भी स्वयं की विकृत दशा को प्राप्त आत्मा ही है। विकृतआत्मा स्वयं अपने ऊपर अनुशासन चलाना नहीं चाहता, इसी कारण विश्व में सब ओर अशान्ति फैली हुई है।
भगवान् महावीर की छवि का दर्शन करने के लिए भौतिक आँखें काम नहीं कर सकेंगी, उनकी दिव्य ध्वनि सुनने, समझने के लिये ये कर्ण पर्याप्त नहीं हैं। ज्ञानचक्षु के माध्यम से ही हम महावीर भगवान् की दिव्य छवि का दर्शन कर सकते हैं। उनकी वाणी को समझ सकते हैं। भगवान् महावीर का शासन रागमय शासन नहीं रहा, वह वीतरागमय शासन है। वीतरागता बाहर से नहीं आती, उसे तो अपने अन्दर जागृत किया जा सकता है, यह वीतरागता ही आत्म-धर्म है। यदि हम अपने ऊपर शासन करना सीख जायें, आत्मानुशासित हो जाएँ तो यही वीतराग आत्म-धर्म, विश्व धर्म बन सकता है।
भगवान पार्श्वनाथ के समय ब्रह्मचर्य की अपेक्षा अपरिग्रह को मुख्य रखा गया था। सारी भोग-सामग्री परिग्रह में आ जाती है। इसलिए अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया गया। वह अपरिग्रह आज भी प्रासंगिक है। भगवान् महावीर ने उसे अपने जीवन के विकास में बाधक माना है। आत्मा के दुख का मूल स्रोत माना है। किन्तु आप लोग परिग्रह के प्रति बहुत आस्था रखते हैं। परिग्रह छोड़ने को कोई तैयार नहीं है। उसे कोई बुरा नहीं मानता। जब व्यक्ति बुराई को अच्छाई के रूप में और अच्छाई को बुराई के रूप में स्वीकार कर लेता है तब उस व्यक्ति का सुधार, उस व्यक्ति का विकास असम्भव हो जाता है। आज दिशाबोध परमावश्यक है। परिग्रह के प्रति आसक्ति कम किये बिना वस्तुस्थिति ठीक प्रतिबिम्बित नहीं हो सकती।
“सम्यग्दर्शन-ज्ञान–चारित्राणि मोक्षमार्गः' की घोषणा सैद्धान्तिक भले ही हो किन्तु प्रत्येक कार्य के लिए यह तीनों बातें प्रकारान्तर से अन्य शब्दों के माध्यम से हमारे जीवन में सहायक सिद्ध होती है। आप देखते हैं कि कोई भी, सहज ही किसी को कह देता है या माँ अपने बेटे को कह देती है कि बेटा, देखभाल कर चलना। देख' यह दर्शन का प्रतीक है, 'भाल'- विवेक का प्रतीक है अर्थात् सम्यग्ज्ञान का प्रतीक है और "चलना' यह सम्यक् चारित्र का प्रतीक है। इस तरह यह तीनों बातें सहज ही प्रत्येक कार्य के लिए आवश्यक है।
आप संसार के विकास के लिए चलते हैं तो उसी ओर देखते हैं, उसी को जानते हैं। महावीर भगवान् आत्म-विकास की बात करते हैं। उसी ओर देखते, उसी को जानते हैं और उसी की प्राप्ति के लिए चलते हैं। इसलिए महावीर भगवान् का दर्शन ज्ञेय पदार्थों को महत्व नहीं देता अपितु ज्ञान को महत्व देता है। ज्ञेय पदार्थों से प्रभावित होने वाला वर्तमान भौतिकवाद भले ही अध्यात्म की चर्चा कर ले किन्तु अध्यात्म को प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञेय तत्व का मूल्यांकन आप कर रहे हैं और सारा संसार ज्ञेय बन सकता है किन्तु मूल्यांकन करने वाला किस जगह बैठा है उसे भी देखने की बहुत आवश्यकता है। अध्यात्म का प्रारंभ उसी से होगा।
आपकी घड़ी की कीमत है, आपकी खरीदी हुई प्रत्येक वस्तु की कीमत है किन्तु कीमत करने वाले की कीमत क्या है ? अभी यह जानना शेष है। जिसने इसको जान लिया उसने महावीर भगवान् को जान लिया। अपनी आत्मा को जान लेना ही सारे विश्व को जान लेना है। भगवान् महावीर के दिव्य ज्ञान में सारा विश्व प्रतिबिंबित है। उन्होंने अपनी आत्मा को जान लिया है। अपने शुद्ध आत्म-तत्व को प्राप्त कर लिया है। अपने आप को जान लेना ही हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यही अध्यात्म की उपलब्धि है। जहाँ आत्मा जीवित है वहीं ज्ञेय-पदार्थों का मूल्यांकन भी संभव है।
शुद्ध आत्मतत्व का निरीक्षण करने वाला व्यक्ति महान् और पवित्र होता है। उसके कदम बहुत ही धीमे-धीमे उठते हैं किन्तु ठोस उठते हैं, उनमें बल होता है, उनमें गांभीर्य होता है, उसके साथ विवेक जुड़ा हुआ रहता है। विषय-कषाय उससे बहुत पीछे छूट जाते हैं।
जो व्यक्ति वर्तमान में ज्ञानानुभूति में लीन है वह व्यक्ति आगे बहुत कुछ कर सकता है। किन्तु आज, व्यक्ति अतीत की स्मृति में उसी की सुरक्षा में लगा है या फिर भविष्य के बारे में चिंतित है कि आगे क्या होगा? इस प्रकार वह स्वयं वर्तमान पुरुषार्थ को खोता जा रहा है। वह भूल रहा है कि वर्तमान में से ही भूत और भविष्य निकलने वाले हैं। अनागत भी इसी में से आयेगा और अतीत भी इसी में ढलकर निकल चुका है। जो कुछ कार्य होता है वह वर्तमान में होता है और विवेकशील व्यक्ति ही उसका संपादन कर सकता है। भविष्य की ओर दृष्टि रखने वाला आकांक्षा और आशा में जीता है। अतीत में जीना भी बासी खाना है। वर्तमान में जीना ही वास्तविक जीना है।
अतीत भूत के रूप में व्यक्ति को भयभीत करता है और भविष्य की आशा, 'तृष्णा' बनकर नागिन की तरह खड़ी रहती है जिससे व्यक्ति निश्चित नहीं हो पाता। जो वर्तमान में जीता है वह निशिंचत होता है, वह निडर और निभांक होता है। साधारण सी बात है कि जिस व्यक्ति के वर्तमान में अच्छे कदम नहीं उठ रहे उसका भविष्य अंधकारमय होगा ही। कोई चोरी करता रहे और पूछे कि मेरा भविष्य क्या है? तो भैया वर्तमान में चोरी करने वालों का भविष्य क्या जेल में व्यतीत नहीं होगा, यह एक छोटा सा बच्चा भी जानता है। यदि हम उज्ज्वल भविष्य चाहते हैं तो वर्तमान में रागद्वेष रूपी अपराध को छोड़ने का संकल्प लेना होगा।
अतीत में अपराध हो गया कोई बात नहीं। स्वीकार कर लिया। दंड भी ले लिया। अब आगे प्रायश्चित करके भविष्य के लिए अपराध नहीं करने का जो संकल्प ले लेता है वह ईमानदार कहलाता है। वह अपराध अतीत का है, वर्तमान का नहीं। वर्तमान यदि अपराध-मुक्त है तो भविष्य भी उज्ज्वल हो सकता है। यह वर्तमान पुरुषार्थ का परिणाम है। भगवान् महावीर यह कहते हैं कि डरो मत! तुम्हारा अतीत पापमय रहा है किन्तु यदि वर्तमान सच्चाई लिए हुए है तो भविष्य अवश्य उज्ज्वल रहेगा। भविष्य में जो व्यक्ति आनन्दपूर्वक, शान्तिपूर्वक जीना चाहता है उसे वर्तमान के प्रति सजग रहना होगा।
पाप केवल दूसरों की अपेक्षा से ही नहीं होता। आप अपनी आत्मा को बाहरी अपराध से सांसारिक भय के कारण भले ही दूर रख सकते हैं किन्तु भावों से होने वाला पाप, हिंसा, झूठ, चोरी आदि हटाये बिना आप पाप से मुक्त नहीं हो सकते। भगवान् महावीर का जोर भावों की निर्मलता पर है, जो स्वाश्रित है। आत्मा में जो भाव होगा वही तो बाहर कार्य करेगा। अंदर जो गंदगी फैलेगी वह अपने आप बाहर आयेगी। बाहर फैलने वाली अपवित्रता के स्रोत की ओर देखना आवश्यक है। यही आत्मानुशासन है जो विश्व में शांति और आनंद फैला सकता है।
जो व्यक्ति कषाय के वशीभूत होकर स्वयं शासित हुए बिना विश्व के ऊपर शासन करना चाहता है, वह कभी सफलता नहीं पा सकता। आज प्रत्येक प्राणी राग, द्वेष, विषय-कषाय और मोह-मत्सर को संवरित करने के लिए संसार की अनावश्यक वस्तुओं का सहारा ले रहा है। यथार्थत: देखा जाये तो इन सभी को जीतने के लिए आवश्यक पदार्थ एक मात्र अपनी आत्मा को छोड़कर और दूसरा है ही नहीं। आत्म-तत्व का आलंबन ही एकमात्र आवश्यक पदार्थ है। क्योंकि आत्मा ही परमात्मा के रूप में ढलने की योग्यता रखता है।
इस रहस्य को समझना होगा कि विश्व को संचालित करने वाला कोई एक शासन कर्ता नहीं है और न ही हम उस शासक के नौकर-चाकर हैं। भगवान् महावीर कहते हैं कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है। परमात्मा की उपासना करके अनंत आत्माएँ स्वयं परमात्मा बन चुकी हैं और आगे भी बनती रहेगी। हमारे अंदर जो शक्ति राग द्वेष और मोह रूपी विकारी भावों के कारण तिरोहित हो चुकी है उस शक्ति को उद्घघाटित करने के लिए और आत्मानुशासित होने के लिए समता भाव की अत्यन्त आवश्यकता है।
वर्तमान में समता का अनुसरण न करते हुए हम उसका विलोम परिणमन कर रहे हैं। समता का विलोम है तामस। जिस व्यक्ति का जीवन वर्तमान में तामसिक तथा राजसिक है, सात्विक नहीं है, वह व्यक्ति भले ही बुद्धिमान हो, वेदपाठी हो तो भी तामसिक प्रवृत्ति के कारण कुपथ की ओर ही बढ़ता रहेगा। यदि हम अपनी आत्मा को जो राग, द्वेष, मोह, मद, मत्सर से कलंकित हो चुकी है, विकृत हो चुकी है उसका संशोधन करने के लिए महावीर भगवान् की जयन्ती मनाते हैं तो यह उपलब्धि होगी। केवल लंबी-चौड़ी भीड़ के समक्ष भाषण आदि के माध्यम से प्रभावना होने वाली नहीं है। प्रभावना उसके द्वारा होती है जो अपने मन के ऊपर नियन्त्रण करता है और सम्यग्ज्ञान रूपी रथ पर आरूढ़ होकर मोक्षपथ पर यात्रा करता है। आज इस पथ पर आरूढ़ होने की तैयारी होनी चाहिए।
चेहरे पर चेहरे हैं
बहुत-बहुत गहरे हैं
खेद की बात तो यही है,
वीतरागता के क्षेत्र में
अंधे और बहरे हैं
आज मात्र वीतरागता के नारे लगाने की आवश्यकता नहीं है। जो परिग्रह का विमोचन करके वीतराग पथ पर आरूढ़ हो चुका है या होने के लिए उत्सुक है वही भगवान् महावीर का सच्चा उपासक है। मेरी दृष्टि में राग का अभाव दो प्रकार से पाया जाता है, अराग अर्थात् जिसमें रागभाव संभव ही नहीं है ऐसा जड़ पदार्थ और दूसरा वीतराग अर्थात् जिसने राग को जीत लिया है जो रागद्वेष से ऊपर उठ गया है। सांसारिक पदार्थों के प्रति मूछ रूप परिग्रह को छोड़कर जो अपने आत्म स्वरूप में लीन हो गया है। पहले राग था अब उस राग को जिसने समाप्त कर दिया है जो समता भाव में आरूढ़ हो गया है, वही वीतराग है।
राग की उपासना करना अर्थात् राग की ओर बढ़ना एक प्रकार से महावीर भगवान् के विपरीत जाना है। यदि महावीर भगवान् की ओर, वीतरागता की ओर बढ़ना हो तो धीरे-धीरे राग कम करना होगा। जितनी मात्रा में राग आप छोड़ते हैं, जितनी मात्रा में स्वरूप पर दृष्टिपात आप करते हैं, समझिये उतनी मात्रा में आप आज भी महावीर भगवान के समीप हैं, उनके उपासक हैं। जिस व्यक्ति ने वीतराग पथ का आलंबन लिया है उस व्यक्ति ने ही वास्तव में भगवान् महावीर के पास जाने का प्रयास किया है। वही व्यक्ति आत्म-कल्याण के साथ-साथ विश्व कल्याण कर सकता है।
आप आज ही यह संकल्प कर लें कि हम अनावश्यक पदार्थों को, जो जीवन में किसी प्रकार से सहयोगी नहीं है, त्याग कर देंगे। जो आवश्यक हैं उनको भी कम करते जायेंगे। आवश्यक भी आवश्यकता से अधिक नहीं रखेंगे। भगवान् महावीर का हमारे लिए यही दिव्य संदेश है कि जितना बने, उतना अवश्य करना चाहिए। यथाशक्ति त्याग की बात है। जितनी अपनी शक्ति है, जितनी ऊर्जा और बल है उतना तो कम से कम वीतरागता की ओर कदम बढ़ाइये। सर्वाधिक श्रेष्ठ यह मनुष्य पर्याय है। जब इसके माध्यम से आप संसार की ओर बढ़ने का इतना प्रयास कर रहे हैं तो यदि चाहें तो अध्यात्म की ओर बढ़ सकते हैं। शक्ति नहीं है, ऐसा कहना ठीक नहीं है।
संसार सकल त्रस्त है,
पीड़ित व्याकुल विकल
इसमें है एक कारण
हृदय से नहीं हटाया विषय राग को
हृदय में नहीं बिठाया वीतराग को
जो शरण,
तारण-तरण
दूसरे पर अनुशासन करने के लिए तो बहुत परिश्रम उठाना पड़ता है पर आत्मा पर शासन करने के लिए किसी परिश्रम की आवश्यकता नहीं है। एक मात्र संकल्प की आवश्यकता है। संकल्प के माध्यम से मैं समझता हूँ आज का यह हमारा जीवन जो कि पतन की ओर है वह उत्थान की ओर, पावन बनने की ओर जा सकता है। स्वयं को सोचना चाहिए कि अपनी दिव्य शक्ति का हम कितना दुरुपयोग कर रहे हैं।
आत्मानुशासन से मात्र अपनी आत्मा का ही उत्थान नहीं होता अपितु बाहर जो भी चैतन्य है, उन सभी का उत्थान भी होता है। आज भगवान् का जन्म नहीं हुआ था, बल्कि राजकुमार वर्धमान का जन्म हुआ था। जब उन्होंने वीतरागता धारण कर ली, वीतराग-पथ पर आरूढ़ हुए और आत्मा को स्वयं जीता, तब महावीर भगवान् बने। आज मात्र भौतिक शरीर का जन्म हुआ था। आत्मा तो अजन्मा है। वह तो जन्म-मरण से परे है। आत्मा निरन्तर परिणमनशील शाश्वत द्रव्य है। भगवान् महावीर जो पूर्णता में ढल चुके हैं उन पवित्र दिव्य आत्मा को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ।
यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोर।
हरी भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर।