महावीर भगवान के निर्वाण के उपरान्त भरत क्षेत्र में तीर्थकरों का अभाव हुआ। वह इस भरत क्षेत्र के प्राणियों का एक प्रकार से अभाग्य ही कहना चाहिए। भगवान् के साक्षात् दर्शन और उनकी दिव्यध्वनि को सुनने का सौभाग्य जब प्राप्त होता है तो संसार की असारता के बारे में सहज ही ज्ञान और विश्वास हो जाता है। आज जो आचार्य-परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है और जो महान् पूर्वाचार्य हमारे लिए प्रेरणादायक हैं उनके माध्यम से यदि हम चाहें तो जिस और भगवान् जा चुके हैं, पहुँच चुके हैं, उस ओर जाने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
आचार्यों ने, जो संसार से ऊपर उठने की इच्छा रखते हैं उन्हें दिग्दर्शन कराया है, दिशाबोध दिया है, उसका लाभ लेना हमारे ऊपर निर्भर है। उन्होंने जीवन पर चिन्तन, मनन और मन्थन करके नवनीत के रूप में हमें जो ज्ञान दिया है उसमें अवगाहन करना और आत्म तत्व को पहचानना, विषय-कषाय से युक्त संसारी प्राणी के लिए टेढ़ी खीर है। आसान नहीं है। पर फिर भी कुछ बातें आपके सामने रख रहा हूँ।
आचार्यों के साहित्य में अध्यात्म की ऐसी धारा बही है कि कोई भी ग्रन्थ उठायें, कोई भी प्रसंग ले लें, हर गाथा, हर पद पर्याप्त है। उसमें वही रस, वही संवेदन और वही अनुभूति आज भी प्राप्त हो सकती है जो उन आचार्यों को प्राप्त हुई थी। पर उसे प्राप्त करने वाले विरले ही जीव हैं। उसे प्राप्त तो किया जा सकता है पर सभी प्राप्त कर लेंगे, यह नहीं कहा जा सकता। मात्र अहिंसा का सूत्र ले लें। महावीर भगवान् ने अहिंसा की उपासना की, उनके पूर्व तेईस तीर्थकरों ने भी और उनके पूर्व भी इस अहिंसा की उपासना की जाती रही। अहिंसा के अभाव में आत्मोपलब्धि संभव नहीं है।
विश्व का प्रत्येक व्यक्ति शान्ति चाहता है। जीवन जीना चाहता है। सुख की इच्छा रखता है और दुख से भयभीत है। दुख निवृत्ति के उपाय में अहर्निश प्रयत्नवान है लेकिन वास्तविक सुख क्या है इसकी जानकारी नहीं होने से तात्कालिक सुख, भौतिक सुख को पाने में लगा हुआ है। इसी में अनंतकाल खो चुका है। महावीर भगवान् ने जो अहिंसा का उपदेश दिया है वह अनंत सुख की इच्छा रखने वाले हम सभी के लिए दिया है। उस अहिंसा का दर्शन करना उसके, स्वरूप को समझना भी आज के व्यस्त जीवन में आसान नहीं है। यहाँ हजारों व्यक्ति विद्यमान हैं और सभी धर्म श्रवण कर रहे हैं। वास्तव में श्रवण तो वही है, जो जीवन को परिवर्तित कर दे।
प्रवचन सुनने के साथ-साथ आप के मन में ख्याल बना रहता है कि प्रवचन समाप्त हो और चलें। यह जो आकुलता है, यह जो अशान्ति है, यह अशांति ही आपको अहिंसा से दूर रखती है। आकुलता होना ही हिंसा है। दूसरों को पीड़ा देना भी हिंसा है लेकिन यह अधूरी परिभाषा है। इस हिंसा के त्याग से जो अहिंसा आती है वह भी अधूरी है। वास्तव में जब तक आत्मा से रागद्वेष परिणाम समाप्त नहीं होते तब तक अहिंसा प्रकट नहीं होती।
अहिंसा की परिभाषा के रूप में महावीर भगवान् ने संदेश दिया है कि ‘जियो और जीने दो।' 'जियो' पहले रखा और 'जीने दो' बाद में रखा है। जो ठीक से जियेगा वही जीने देगा। जीना प्रथम है तो किस तरह जीना है यह भी सोचना होगा। वास्तविक जीना तो रागद्वेष से मुक्त होकर जीना है। यही अहिंसा की सर्वोत्तम उपलब्धि है। सुना है विदेशों में भारत की तुलना में हत्याएँ कम होती हैं लेकिन आत्म-हत्याएँ अधिक हुआ करती हैं। जो अधिक खतरनाक चीज है। स्वयं अपना जीना ही जिसे पसंद नहीं है, जो स्वयं के जीने को पसंद नहीं करता, जो स्वयं के जीवन के लिए सुरक्षा नहीं देता वह सबसे अधिक खतरनाक साबित होता है। उससे क्रूर और निर्दयी और कोई नहीं है। वह दुनिया में शान्ति देखना पसंद नहीं करेगा।
शान्ति के अनुभव के साथ जो जीवन है उसका महत्व नहीं जानना ही हिंसा का पोषण है। आकुल, व्याकुल हो जाना ही हिंसा है। रात-दिन बेचैनी का अनुभव करना, यही हिंसा है। तब ऐसी स्थिति में जो भी मन, वचन काय की चेष्टाएँ होंगी उनका प्रभाव दूसरे पर भी पड़ेगा और फलस्वरूप द्रव्य-हिंसा बाह्य में घटित होगी। द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा, ये दो प्रकार की हिंसा हैं। द्रव्य हिंसा में दूसरे की हिंसा हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है किन्तु भाव-हिंसा के माध्यम से अपनी आत्मा का विनाश अवश्य होता है और उसका प्रभाव भी पूरे विश्व पर पड़ता है। स्वयं को पीड़ा में डालने वाला यह न सोचे कि उसने मात्र अपना घात किया है, उसने आसपास सारे विश्व को भी दूषित किया है। प्रत्येक धर्म में अहिंसा की उपासना पर जोर दिया गया है। किन्तु महावीर भगवान् का संदेश अहिंसा को लेकर बहुत गहरा है। वे कहते हैं कि प्राण दूसरे के ही नहीं अपने भी हैं। हिंसा के द्वारा दूसरे के प्राणों का घात हो ही, ऐसा नहीं है पर अपने प्राणों का विघटन अवश्य होता है। दूसरे के प्राणों का विघटन बाद में होगा, पर हिंसा के भाव मात्र से अपने प्राणों का विघटन पहले होगा। अपने प्राणों का विघटन होना ही वस्तुत: हिंसा है। जो हिंसा का ऐसा सत्य-स्वरूप जानेगा वही अहिंसा को प्राप्त कर सकेगा।
"बिन जाने तै दोष गुणन को कैसे तजिये गहिये"- गुण और दोष का सही-सही निर्णय जब तक हम नहीं कर पायेंगे तब तक गुणों का ग्रहण और दोषों का निवारण नहीं हो सकेगा। आज तक हम लोगों ने अहिंसा को चाहा तो है लेकिन वास्तव में आत्मा की सुरक्षा नहीं की है। आत्मा की सुरक्षा तब हो सकती है जब भावहिंसा से हमारा जीवन बिल्कुल निवृत्त हो जाये। भाव-हिंसा के हटते ही जो अहिंसा हमारे भीतर आयेगी उसकी महक, उसकी खुशबू-बाहर भीतर सब और बिखरने लगेगी।
जो व्यक्ति राग करता है या द्वेष करता है और अपनी आत्मा में आकुलता उत्पन्न कर लेता है वह व्यक्ति संसार के बंधन में बंध जाता है और निरंतर दुख पाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति स्वयं बंधन को प्राप्त करेगा और बंधन में पड़कर दुखी होगा, उसका प्रतिबिंब दूसरे पर पड़े बिना नहीं रहेगा, वह वातावरण को भी दुखमय बनायेगा। एक मछली कुएँ में मर जाये तो उस सारे जल को गंदा बना देती है। जल को जीवन माना है तो एक प्रकार से जीने के लिए जो तत्व था जीवन था वही विकृत हो गया।
एक व्यक्ति रोता है तो वह दूसरे को भी रुलाता है। एक व्यक्ति हँसता है तो दूसरा भी हँसने लगता है। फूल को देखकर बच्चा बहुत देर तक रो नहीं सकता। फूल हाथ में आते ही वह रोतारोता भी खिल जायेगा, हँसने लगेगा और सभी को हँसा देगा। हँसाये ही यह नियम नहीं है किन्तु प्रभावित असर करेगा। आप कह सकते हैं कि कोई अकेला रो रहा हो तो किसी दूसरे को क्या दिक्कत हो सकती है? किन्तु 'आचार्य उमास्वामी' कहते हैं कि शोक करना, आलस्य करना, दीनता अभिव्यक्त करना, सामने वाले व्यक्ति पर प्रभाव डाले बिना नहीं रहते।
आप बैठकर शांति से दत्तचित्त होकर भोजन कर रहे हैं। किसी प्रकार का विकारी भाव आपके मन में नहीं है। ऐसे समय में यदि आपके सामने कोई बहुत भूखा व्यक्ति रोटी मांगने गिड़गिड़ाता हुआ आ जाता है तो आप में परिवर्तन आये बिना नहीं रहेगा। उसका रोना आपके ऊपर प्रभाव डालता है। आप भी दुखी हो जाते हैं और यह असातावेदनीय कर्म के बंध के लिए कारण बन सकता है। इसलिए ऐसा मत समझिये कि हम राग कर रहे हैं, द्वेष कर रहे हैं तो अपने आप में तड़प रहे हैं, दूसरे के लिए क्या कर रहे हैं ? हमारे भावों का दूसरे पर भी प्रभाव पड़ता है। हिंसा का संपादन कर्ता हमारा रागद्वेष परिणाम है। शारीरिक गुणों का घात करना द्रव्यहिंसा है और आध्यात्मिक गुणों का घात करना, उसमें व्यवधान डालना भावहिंसा है। भावहिंसा, ‘स्व' 'पर' दोनों की हो सकती है।
गृहस्थाश्रम की बात है। माँ ने कहा अंगीठी के ऊपर दूध है भगौनी में। उसे नीचे उतार कर दो बर्तनों में निकाल लेना। एक बर्तन में दही जमाना है और एक मैं दूध ही रखना है। जो छोटा बर्तन है उसे आधा रखना उसमें दही जमाने के लिए सामग्री पड़ी है और दूसरे बर्तन में जितना दूध शेष रहे, रख देना। दोनों को पृथक्-पृथक् रखना। सारा काम तो कर लिया पर दोनों बर्तन पृथक् नहीं रखे। परिणाम यह निकला कि प्रात:काल दोनों में दही जम गया। एक में दही जमाने का साधन नहीं था फिर भी जम गया, वह दूसरे के संपर्क में जम गया।
जब जड़ पदार्थ दूध में संगति से परिवर्तन आ गया तो क्या चेतन द्रव्य में परिवर्तन नहीं होगा ? परिवर्तन होगा और एक-दूसरे पर प्रभाव भी पड़ेगा। परिवर्तन प्रत्येक समय प्रत्येक द्रव्य में हो रहा है और उसका असर आसपास पड़ रहा है। हम इस रहस्य को समझ नहीं पाते, इसलिए आचार्यों ने कहा कि प्रमादी मत बनो, असावधान मत होओ। बुद्ध कहते हैं कि प्राणियों पर करुणा करो, यीशु कहते हैं कि प्राणियों की रक्षा करो और नानक आदि सभी कहते हैं कि दूसरे की रक्षा करो किन्तु महावीर कहते हैं कि स्वयं बचो। दूसरा अपने आप बच जायेगा। दूसरे को बचाने जाओगे तो वह बचे ही यह अनिवार्य नहीं है लेकिन स्वयं रागद्वेष से बचोगे तो हिंसा संभव ही नहीं है। 'लिव एण्ड लेट लिव'- पहले तुम खुद जियो जो खुद जीना चाहेगा वह दूसरे के लिए जीने में बाधा डाल ही नहीं सकता।
हमारे जीवन से दूसरे के लिए तभी तक खतरा है जब तक हम प्रमादी हैं, असावधान हैं। 'अप्रमती भव' प्रमाद मत करो। एक क्षण भी प्रमाद मत करो, अप्रमत्त दशा में लीन रहो। आत्मा में विचरण करना ही अप्रमत्त दशा का प्रतीक है। वहाँ राग नहीं, द्वेष नहीं इसलिए वहाँ पर हिंसा भी नहीं है। बंधन में वही बँधेगा जो राग द्वेष करेगा और अपनी आत्मा से बाहर दूर रहेगा। फिर चाहे वह किसी भी गति का प्राणी क्यों न हो। वह देव भी हो सकता है। वह तिर्यञ्च हो सकता है। वह नारकी हो सकता है। वह मनुष्य भी हो सकता है। मनुष्य में भी गृहस्थ हो सकता है या गृह-त्यागी भी हो सकता है। वह सन्त या ऋषि भी हो सकता है। जिस समय जीव रागद्वेष से युक्त होता है उस समय उससे हिंसा हुए बिना नहीं रहती।
देर-सबेर जब भी बढ़े चौबीस घंटे अप्रमत्त अवस्था की ओर बढ़ें अप्रमत रहना प्रारंभ करे तभी कल्याण है। अहिंसा वहीं पल सकती है जहाँ प्रमाद के लिए कोई स्थान नहीं है। प्रमाद यानि आपे में न रहना। सबसे खतरनाक चीज है आपे में न रहना। Out of Control यानि अपने ऊपर नियंत्रण नहीं होना ही प्रमाद है। वैज्ञानिक विकास विदेशों में बहुत हो रहा है। किन्तु व्यक्ति आपे में नहीं है इसलिए आत्म-हत्या की ओर जा रहा है। अपने आत्म-हित के प्रति लापरवाही भी प्रमाद है।
चिंता-सरोवर जहाँ वह डूब जाता, सद्ध्यान से स्खलित जो ऋषि कष्ट पाता।
तालाब से निकल बाहर मीन आता, होता दुखी, तड़पता मर शीघ्र जाता॥
यह स्वभाव से बाहर आना ही अभिशाप का कारण बनता है। तालाब से मछली बाहर आ जाती है तो तड़पती है, दुखी होती है और मरण को प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार योगी भी क्यों न हो, भोगों की तो बात ही क्या, जिस समय वह सीमा अपनी उल्लंघन कर देता है अर्थात् आत्मस्वभाव को छोड़कर प्रमाद में आ जाता है तो उसे भी कर्मबन्ध का दुख उठाना पड़ता है। बाहर आना ही हिंसा है और अंदर रहना ही अहिंसा है। अहिंसा की इतनी अमूल्य परिभाषा हमें अन्यत्र नहीं मिलती और जहाँ आकर सारे दर्शन रुक जाते हैं वहाँ से महावीर भगवान् की अहिंसा की विजय पताका फहराना प्रारंभ हो जाती है। आत्म-विजय ही वास्तविक विजय है।
आज भी अहिंसा का अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग होता है न्यायालय में। वहाँ पर भी भाव-हिंसा का ध्यान रखा जाता है। भावहिंसा के आधार पर ही न्याय करते हैं। एक व्यक्ति ने निशाना लगाकर गोली चलायी, निशाना मात्र सीखने के लिए लगाया था। निशाना चूक गया और गोली जाकर लग गयी एक व्यक्ति को और उसकी मृत्यु हो गयी। गोली मारने वाले व्यक्ति को पुलिस ने पकड़ लिया। उससे पूछा गया कि तुमने गोली चलायी ? उसने कहा चलायी है किन्तु मेरा अभिप्राय मारने का नहीं था। मैं निशाना सीख रहा था, निशाना चूक गया और गोली लग गयी। चूंकि उसका अभिप्राय खराब नहीं था इसलिए उसे छोड़ दिया गया।
दूसरा-एक व्यक्ति निशाना लगाकर किसी की हत्या करना चाहता था। वह गोली मारता है, गोली लगती नहीं और वह व्यक्ति बच जाता है और गोली मारने वाले को पुलिस पकड़ लेती है। पुलिस पूछती है कि तुमने गोली मारी, तो वह जवाब देता कि मारी तो है पर उसे गोली लगी कहाँ ? पुलिस उसे जेल में बंद कर देती हैं। ऐसा क्यों ? जीव हिंसा नहीं हुई इसके उपरान्त भी उसे जेल भेज दिया और जिससे जीव हिंसा हो गयी थी, उसे छोड़ दिया। यह इसलिए कि वहाँ पर भावहिंसा को देखा जा रहा है। न्याय में सत्य और असत्य का विश्लेषण भावों के ऊपर आधारित है।
हमारी दृष्टि भी भावों की तरफ होनी चाहिए। अपने आप के शरीरादि को ही आत्मा मान लेने से कि मैं शरीर हूँ, और शरीर ही मैं हूँ, हिंसा प्रारम्भ हो जाती है। यह अज्ञान और शरीर के प्रति राग ही हिंसा का कारण बनता है। हम स्वयं जीना सीखें। स्वयं तब जिया जाता है जब सारी बाह्य प्रवृत्ति मिट जाती है। अप्रमत्त दशा आ जाती है। इस प्रकार जो स्वयं जीता है वह दूसरे को भी जीने में सहायक होता है। जिसके द्वारा मन-वचन-काय की चेष्टा नहीं हो रही है वह दूसरे के लिए किसी प्रकार की बाधा नहीं देता।
जो विस्फोट ऊपर से होता है वह उतना खतरनाक नहीं होता जितना गहराई में होने वाला विस्फोट होता है। आत्मा की गहराई में जो राग-प्रणाली या द्वेष-प्रणाली उद्भूत हो जाती है वह अंदर से लेकर बाहर तक प्रभाव डालती है। उसका फैलाव सारे जगत में हो जाता है। जैन-दर्शन में एक उदाहरण भाव-हिंसा को लेकर आता है। समुद्र में जहाँ हजारों मछलियाँ रहती हैं उनमें सबसे बड़ी रोहू (राघव) मछली होती है जो मुँह खोल कर सो जाती है तो उसके मुँह में अनेक छोटी-मछलियाँ आती-जाती रहती हैं। जब कभी उसे भोजन की इच्छा होती है तो वह मुख बंद कर लेती है और भीतर अनेक मछलियाँ उसका भोजन बन जाती हैं।
इस दृश्य को देखकर एक छोटी मछली जिसे तन्दुल मत्स्य बोलते हैं जो आकार में तन्दुल अर्थात चावल जितनी छोटी है वह सोचती है कि यह रोहू मच्छ कितना पागल है। इसे इतना भी नहीं दिखता कि मुख में इतनी मछलियाँ आ-जा रही हैं तो मुख बंद कर लेना चाहिए। यदि इसके स्थान पर मैं होता तो लगातार मुख खोलता और बंद कर लेता, सभी को खा लेता। देखिये स्थिति इतनी गम्भीर है। छोटे से मत्स्य की हिंसा की वृत्ति कितनी है, चरम सीमा तक, वह अनन्त जीवों को खाने की लिप्सा रखता है। एक भी नहीं खा पाता क्योंकि उतनी शक्ति नहीं है लेकिन भावों के माध्यम से खा रहा है निरंतर।
बाहर से खाना, भले ही नहीं दिखता लेकिन अभिप्राय कर लिया, संकल्प कर लिया, तो मन विकृत हो गया। वही हिंसा है। रोहू मच्छ जितनी आवश्यकता है उतना ही खाता है, शेष से कोई मतलब नहीं, कोई लिप्सा नहीं लेकिन तंदुल मच्छ एक भी मछली को नहीं खा पाता पर लिप्सा पूरी है। इसलिए वह सीधा नरक चला जाता है। सीधा सप्तम नरक । यह है भाव-हिंसा का प्रभाव।
आप भी इसे समझे कि मात्र अपने जीवन को द्रव्यहिंसा से ही निवृत्त करना पर्याप्त नहीं है। यदि आप अपने में नहीं हैं अर्थात आपके मन, वचन और आपकी चेष्टाएँ अपने में नहीं है तो आपके द्वारा दूसरे को धक्का लगे बिना नहीं रह सकता। एक व्यक्ति कोई गलती करता है तो वह एकांत रूप से अपने आप ही नहीं करता उसमें दूसरे का भी हाथ रहता है। भावों का प्रभाव पड़ता है। दूसरे के मन को देखकर ईष्र्या अथवा स्पर्धा करने में भी हिंसा का भाव उद्भूत होता है। जो राग द्वेष करता है वह स्वयं दुखी होता है और दूसरे को भी दुख का कारण बनता है। लेकिन जो वीतरागी है वह स्वयं सुखी रहता है और दूसरे को सुखी बनाने में कारण सिद्ध होता है।
आपका जीवन हिंसा से दूर हो और अहिंसामय बन जाये इसके लिए मेरा यही कहना है कि भाव-हिंसा से बचना चाहिए। मेरा कहना तभी सार्थक होगा जब आप स्वयं अहिंसा की ओर बढ़ने के लिए उत्साहित हों, रुचि लें। किसी भी क्षेत्र में उन्नति तभी संभव है जब उसमें अभिरुचि जागृत हो। आपके जीवन पर आपका अधिकार है पर अधिकार होते हुए भी कुछ प्रेरणा बाहर से ली जा सकती है। बाहर से तो सभी अहिंसा की प्राप्ति के लिए आतुर दिखते हैं किन्तु अंदर से भी स्वीकृति होना चाहिए। एक व्यक्ति जो अपने जीवन को सच्चाई पर आरूढ़ कर लेता है तो वह तो सुखी बन ही जाता है, साथ ही दूसरे के लिए भी सुखी बनने में सहायक बन जाता है। आप चाहें तो वह आसानी से कर सकते हैं।
अहिंसा मात्र प्रचार की वस्तु नहीं है और लेन-देन की चीज भी नहीं है, वह तो अनुभव की वस्तु है। कस्तूरी का प्रचार प्रसार करने की आवश्यकता नहीं होती, जो व्यक्ति चाहता है वह उसे सहज ही पहचान लेता है। महावीर भगवान् ने अहिंसा की सत्यता को स्वयं जाना और अपने भीतर उसे प्रकट किया तभी वे भगवान् बने। उन्होंने प्राणी मात्र को कभी छोटा नहीं समझा, उन्होंने सभी को पूर्ण देखा है, जाना है और पूर्ण समझा है। संदेश दिया है कि प्रत्येक आत्मा में भगवान् है किन्तु एकमात्र हिंसा के प्रतिफल स्वरूप स्वयं भगवान् के समान होकर भी हम भगवता का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। जब तक रागद्वेष रूप हिंसा का भाव विद्यमान रहेगा तब तक सच्चे सुख की प्राप्ति संभव नहीं है। अपने भावों में अहिंसा के माध्यम से दूसरे का कल्याण हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता किन्तु आत्मा का कल्याण अवश्य होता है। परोक्ष रूप से जो अहिंसक है वह दूसरे को पीड़ा नहीं पहुँचाता, यही दूसरे के कल्याण में उसका योगदान है। आचार्यों की वाणी है कि
आदहिर्द कादव्वं, जदि सक्कड़ परहिद व कादव्वं।
आदहिद परहिदादो, आदहिदं सुट्टु कादव्वं॥
आत्म-हित सर्वप्रथम करना चाहिए। जितना बन सके उतना परहित भी करना चाहिए। लेकिन दोनों में अच्छा आत्म-हित ही है। जो आत्महित में लगा है उसके द्वारा कभी दूसरे का अहित हो नहीं सकता। इस प्रकार 'स्व' और 'पर' का कल्याण अहिंसा पर ही आधारित है। अध्यात्म का रहस्य इतना ही है कि अपने को जानो, अपने को पहचानो, अपनी सुरक्षा करो, अपने में ही सब कुछ समाया है। पहले विश्व को भूलो और अपने को जानो, जब आत्मा को जान जाओगे तो विश्व स्वयं सामने प्रकट हो जाएगा। अहिंसा-धर्म के माध्यम से स्व-पर का कल्याण तभी संभव है जब हम इसे आचरण में लायें। अहिंसा के पथ पर चलना ही अहिंसा-धर्म का सच्चा प्रचार-प्रसार है। आज इसी की आवश्यकता है।