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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन पारिजात 5 - निर्जरा तत्त्व

       (1 review)

    अभी तक जो कर्मों का आगमन हो रहा था उसका संवर करने के उपरान्त एक रास्ता प्रशस्त हो गया। अब अपना कार्य एक ही रहा कि अपने निज घर में, आत्मा में हमारी अज्ञान दशा के कारण हमारी असावधानी के कारण जो कर्मों का आगमन हो चुका है उनको एक-एक करके बाहर निकालना है। 'एक देश कर्म संक्षय लक्षणा निर्जरा'- कर्मों का एकदेश अलग होना निर्जरा है।


    दस दिन से भी यदि किसी व्यक्ति को निद्रा लेने का अवकाश न मिला हो और वह नींद लेना चाहता हो और आपके घर आकर कहे कि मुझे कोई एक कोना दे दीजिये ताकि मैं पर्याप्त नींद संकू, और आप भी उसे कहे कोई बात नहीं, आइये यहा पलंग भी हैं गद्दा भी हैं तकिया भी हैं, सब कुछ है और जब वह सोने लगे तो उस समय आप यह कह दें कि हम पाँच छह दिन से इस कमरे में नहीं गये हैं। और तो कुछ नहीं है एक बड़ा सा सर्प अंदर गया है इसलिए हम लोगों ने उसी दिन से इस कमरे में सोना ही छोड़ दिया।


    अब बताइये, दस दिन से परेशान वह व्यक्ति क्या वहीं नींद लेगा ? नींद लेने की इच्छा होते हुए भी वह कहता है कि मैं कैसे नींद लू, यहाँ नींद लग ही नहीं सकती। जब मालूम पड़ गया कि यहाँ सर्प है तो अब उसे यहाँ से निकाले बिना नहीं सोऊँगा। और वह व्यक्ति सभी प्रयास करके सर्प को निकालकर ही बाद में शयन करता है।


    यह तो सामान्य सी घटना हुई। मैं यह सोचता हूँ कि आप लोग कैसे नींद ले रहे हैं? एक नहीं, दो नहीं, पूरे आठ कर्मों के रूप में एक समय में अनन्तानन्त पुद्गल कार्मण वर्गणाओं के समूह कर्म के रूप में परिणत होकर सर्प की भांति आत्मा के प्रदेशों पर अपनी सत्ता जमाये हुए हैं और आप निश्चिंत होकर सो रहे हैं। इतना ही नहीं, उसके साथ-साथ और शत्रुओं को निमंत्रण देने वाले आत्मगत वैभाविक परिणति रूप शत्रु जो अनादि काल से रह रहे हैं उनके लिए भी आपके द्वारा आश्रय स्थान मिल रहा है। आपकी निद्रा बड़ी विचित्र है।


    यदि उस व्यक्ति को नहीं बताया जाता कि यहाँ सर्प है और वह निर्विघ्न रूप से वहाँ सो जाता और निद्रा लग जाती तो भी कोई बात नहीं, उसे ज्ञात नहीं था ऐसा कह सकते हैं। जो संसारी जीव अज्ञानी हैं उन्हें मालूम नहीं है कि आत्मा के शत्रु कौन हैं, मित्र कौन हैं और वे शत्रु के सामने भी सो रहे हैं तो कोई बात नहीं है। लेकिन आप लोगों को तो यह विदित हो गया है कि आठ कर्म और उन कर्मों में भी जो रागद्वेष हैं, वे अपने शत्रु हैं फिर भी उन आत्मा का अहित करने वाले शत्रुओं को अपनी गोद में सुलाकर आप सो रहे हैं तो आपका ज्ञान कुछ समझ में नहीं आ रहा है।


    'जान बूझकर अंध बने हैं आँखन बाँधी पाटी'- यही बात है। यदि अंधा गिरता है कुए में तो कोई बात नहीं, किन्तु जानते हुए भी जो जानबूझकर अंधा बन रहा है, वास्तव में अंधा तो वही है। जो अंधा है वह तो मात्र बाह्य इन्द्रियों की अपेक्षा अंधा है किन्तु जो व्यक्ति रागद्वेष रूपी मदिरा पीते हुए जा रहे हैं उनके पास आँखें होकर भी अंधे बने हैं। आँखें होते हुए भी जिस समय आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं तो प्राय: करके बच्चे ही यह खेल खेलते हैं। उसको क्या कहते हैआँखमिचौनी। हाँ वही है यह खेल। मैं सोचता हूँ यहाँ सब यही खेल रहे हैं-आँखमिचौनी। यहाँ कोई ऑख वाला दीखता ही नहीं।


    अंधकार में एक व्यक्ति उधर से आ रहा था जो अंधा था और इधर से जा रहा था एक ऑख वाला। दोनों आपस में टकरा गये। आँख वाले के मुख से सर्वप्रथम आवाज आयी कि क्या अंधे हो तुम। जहाँ कहीं इस तरह की घटना होती है तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी गल्ती नहीं स्वीकारता। जो अंधा व्यक्ति था उसने कहा कि हाँ भइया, आप ठीक कह रहे हैं, मैं अंधा हूँ, मेरे नेत्र ज्योति नहीं है। गल्ती तो हो गयी, माफ कर देना। दूसरे दिन वह व्यक्ति उस अंधे से फिर मिल गया लेकिन आज उसने देखा कि अंधे के हाथ में लालटेन थी। उसने पूछ लिया कि अरे! तुमने तो कल कहा था कि तुम्हारे आँख नहीं है, तुम अंधे हो, फिर हाथ में यह लालटेन क्यों ले रखी है? लगता है दिमाग ठीक नहीं है। वह अंधा मुस्कराया और उसने कहा कि यह लालटेन इसलिए ले रखे हूँ कि चूंकि मेरे पास आँख तो नहीं है और मुझे आवश्यकता भी नहीं है लेकिन आप जैसे आँख वाले लोग टकरा न जायें, उनको देखने में आ जाए कि मैं अंधा हूँ। पर इसके उपरान्त भी यदि आप टकराते हैं तो क्या कहा जाये। ऐसा ज्ञान तो मात्र भार रूप है।


    जहाँ कोरा ज्ञान होता है उस ज्ञान के माध्यम से जो कार्य करना चाहिए वह यदि नहीं होता तो ऐसे में ‘ले दीपक कुएँ पड़े” वाली कहावत चरितार्थ होती है। जिन जीवों को ज्ञात नहीं है कि आत्मा का अहित किस में है, उनकी तो कोई बात नहीं। एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय को तो मालूम नहीं है कि हित-अहित क्या है, इसलिए वे भटक रहे हैं, ठीक है। किन्तु जिन्हें मालूम पड़ गया है, यह विदित हो गया है कि आत्मा का अहित किस में है उनकी बात ही निराली है।


    ‘क्रोध, मान, माया, लोभ, रागद्वेष परिणाम। ये ही तेरे शत्रु हैं समझो आतमराम।' हमारा अहित करने वाले हमारे शत्रु अंदर छिपे हैं, उन्हें हम निकाल दें। पड़ोसी की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। बाहर कोई शत्रु है ही नहीं, बाह्य शत्रु और मित्र-ये मात्र नैमितिक हैं। इनमें हमें हर्ष विवाद कराने की सामथ्र्य नहीं हैं। देखो! दीवार पर अगर एक गेंद आपने फेंक दी तो दीवार ने प्रत्युतर में आपको वह गेंद वापिस लौटा दी। वास्तव में दीवार ने नहीं फेंकी किन्तु दीवार के निमित से गेंद का परिणमन ऐसा होता है कि जितनी तेजी से आप फेंकोगे उतनी ही तेजी से वह टकराकर वापिस आयेगी।


    जो आपने फेंका। उसी का प्रतिफल है यह। न तो दीवार के पास ऐसी कोई शक्ति है, न ही गेंद के पास है। अपने आप वह गेंद जाकर नहीं टकराती, गेंद में उस प्रकार की क्रिया हम पैदा कर देते हैं। ठीक उसी प्रकार ये रागद्वेष हमारी ही प्रतिक्रियाएँ हैं, इनको हम ही करते हैं और हम ही बार-बार परेशान होते चले जाते हैं। शत्रु और मित्र हमारे अंदर हैं। किसको हटाना है और किसका पोषण करना है यह समझ में आ जाये, यही ज्ञान का फल है।


    'ज्ञानस्य फल उपेक्षा अज्ञान-हानिर्वा' उपेक्षा का अर्थ है चारित्र अर्थात् रागद्वेष की निवृत्ति और अज्ञान की हानि का अर्थ है जो आज तक अज्ञान हमने पाला है वह सारा नष्ट हो जाये, यही क्रम अच्छा है। चारित्र पहले होता है, स्वाभाविक ज्ञान केवलज्ञान उसके बाद होता है। केवलज्ञान स्वाभाविक ज्ञान है। इसकी प्राप्ति के लिए चारित्र नितान्त आवश्यक है। ऐसा कोई रास्ता नहीं है ऐसी कोई पगडंडी नहीं है जिस पर चलकर बिना चारित्र के हम केवलज्ञान-सूर्य को प्राप्त कर लें। इसलिए जो कोई भी शास्त्र-स्वाध्याय का परिणाम निकलेगा उसमें प्रथम परिणाम तो यही है कि तत्काल उस व्यक्ति को चारित्र की ओर मुड़ना होगा। अपेक्षा अर्थात् रागद्वेष और रागद्वेष का एक विलोम भाव है। उपेक्षा अर्थात् राग द्वेष का अभाव और वास्तविक निर्जरा इसी को कहते हैं।


    आप लोग निर्जरा कर नहीं रहे हैं, आप लोगों की निर्जरा हो रही है। यहाँ मैं करने की बात कह रहा हूँ। होने की बात तो ऐसी है कि वैसे ही समय आने पर कर्मों की निर्जरा होती है लेकिन आस्रव व बंध की धारा भी बहती रहती है इसलिए ऐसी निर्जरा से कभी भी कर्म-शत्रुओं का अभाव नहीं हो सकता। समय पर होने वाली सविपाक निजरा जो संसारी प्राणियों के प्रत्येक समय हो रही है, वह अरहट चक्र की भाँति हो रही है। अरहट चक्र, घटी यंत्र को बोलते हैं जिसे आप लोग रहट भी बोलते हैं। इसमें कई कलश या मटकियाँ बँधी होती हैं और मटकियाँ एक के ऊपर एक इस तरह बँधी होती हैं कि आधी मटकियाँ खाली होती जाती हैं और आधी मटकियाँ भरी हुई ऊपर उठती जाती हैं। यह क्रम चलता रहता है।


    एक माला मटकियों की रहती है और मालूम नहीं पड़ता कि कब खाली होती है और कब ये भरती हैं। भरती भी हैं और खाली भी होती हैं तथापि पानी आना रुकता नहीं है। सविपाक निर्जरा आपके द्वारा इसी तरह हो रही है। उदयागत कर्म निजीर्ण हो रहे हैं पर सत्ता में नये कर्म भी आते जा रहे हैं। बैलेन्स ज्यों का त्यों बना है। यह निर्जरा कार्यकारिणी नहीं है। एक निर्जरा ऐसी भी है जो आत्म-पुरुषार्थ से होती है वह निर्जरा 'तपसा निर्जरा च' वाली निर्जरा है।

    अपने आप कर्म निर्जरा होने से मुक्ति नहीं मिलती। जब कभी भी विगत में जिन्होंने मुक्ति पायी है या आगे मुक्ति पायेंगे या अभी जो मुक्ति पाने वाली आत्माएँ हैं, सभी ने अपने आत्मपुरुषार्थ के बल पर मुक्ति पायी है, पायेंगे और पा रहे हैं, विदेह क्षेत्र से। जब पुरुषार्थ के बल पर बंध किया है तो मुक्ति भी पुरुषार्थ से ही होगी। यदि अपने आप बंध हो गया हो तो अपने आप मुक्ति भी मिल सकती है और यह भी ध्यान रखो यदि अपने आप बंध हो रहा है तो मुक्ति संभव ही नहीं है क्योंकि बंध होता ही चला जायेगा निरन्तर।


    इसलिए अपने आप यह कार्य नहीं होता, आत्मा इसका कर्ता है और वही भोक्ता भी है। इसलिए आचार्यों की दृष्टि में आत्मा ही अपने आप का विधाता है, ब्रह्मा है, विश्व का विधाता नहीं, वह अपने कर्मों का है। कर्म को संस्कृत में विधि भी कहते हैं। विधि कोई लिखता थोड़े ही है, हम जो कर्म करते हैं वे ही विधि के रूप में हमारे साथ चिपक जाते हैं और इस विधि का विधाता आत्मा है, हम स्वयं हैं। आत्मा ब्रह्मा भी है, वह संरक्षक है इसलिए विष्णु भी है और आत्मा चाहे तो उन कर्मों का संहार भी कर सकता है इसलिए महेश भी है। एक ही आत्मा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीनों रूप है।

     

    आत्म-पुरुषार्थ के द्वारा की जाने वाली निर्जरा ही वास्तविक निर्जरा है जो मोक्षमार्ग में कारणभूत है। इसे पाये बिना मोक्ष संभव नहीं है। आप तो कृपण बने हुए हैं कि कमाते तो जा रहे हैं रखते भी जा रहे हैं, पर इसे खर्च नहीं करना चाहते। छोड़ना नहीं चाहते, और कदाचित् छोड़ते भी हैं तो पहले नया ग्रहण कर लेते हैं। ऐसे काम नहीं चलेगा, तप करना होगा। निर्जरा की व्याख्या करते हुए आचार्यों ने बतलाया है कि निर्जरा कहाँ से प्रारम्भ होती है। उन्होंने लिखा है कि जो भगवान् का सच्चा उपासक होता है उसी से वह प्रारम्भ होती है। अर्थात् गृहस्थ आश्रम में भी वह निर्जरा होती है।


    अविपाक निर्जरा तप के माध्यम से, संयम के माध्यम से हुआ करती है। अविरत सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी अनन्तानुबन्धी जन्य असंयम को समाप्त कर देता है तो उसका मार्ग भी प्रशस्त होने लग जाता है। साथ ही दर्शन-मोहनीय जो कि भुलावे में डालने वाला है उसे मिटाने के उपरान्त एक शक्ति आ जाती है। चारित्र-मोहनीय को भी धक्का लग जाता है। चारित्र-मोहनीय की शक्ति कम पड़ने लगती है। इसलिए निर्जरा तत्व वहीं से प्रारंभ हो जाता है। चूँकि यह निर्जरा तत्व पूर्ण बंध को रोक नहीं सकता इसलिए उसे मुख्य रूप से निर्जरा में नहीं गिनते किन्तु गिनती में प्रथम तो वह आ जाता है।


    यहाँ बात चल रही है उस निर्जरा की जो मुख्य है। जो तप के माध्यम से हुआ करती है। निर्जरा का अर्थ है अंदर के सारे के सारे विकारों को निकाल कर बाहर फेंक देना। जब तक अंदर के विकारों को निकाल कर हम बाहर नहीं फेकेंगे तब तक अंदर के आनंद का जो स्रोत है वह स्रोत नहीं फूटेगा और जब तक वह आनंद नहीं आयेगा तब तक हमारा संवेदन दु:संवेदन ही रहेगा, दुख का संवेदन रहेगा।


    निर्जरा करने वाला व्यक्ति बहुत होशियार होना चाहिए। पहले दरवाजा बंद कर लें अर्थात् कर्मों के आगमन का द्वार बंद कर लें फिर अंदर-अंदर टटोलें और एक-एक करके सारे कर्मों को निकाल दें। अंदर से कर्मों को निकालने के लिए जरा सी ज्ञान-ज्योति की आवश्यकता है क्योंकि जहाँ घना अंधकार छाया हुआ होता है वहाँ थोड़ा सा भी प्रकाश पर्याप्त हो जाता है। आँख मीचकर बाहर के सारे पदार्थों को संवर के माध्यम से हटा दिया जाए, फिर अंदर ज्ञान-ज्योति को प्रकाशित कर दें तो उपादेय कौन और हेय कौन है, सब मालूम पड़ जाता है, तभी निर्जरा संभव होती है। जब तक हमारी दृष्टि बाहर लगी रहेगी तब तक निर्जरा की ओर नहीं जायेगी। इसीलिए आचार्यों ने पहले संवर को महत्व दिया कि विकार आने का द्वार ही बंद कर दी। आने वाले सभी मागों का सवर ।


    अजमेर की बात है। एक विद्वान् जो दार्शनिक था वह आया और कहा कि महाराज! आपकी चर्या सारी की सारी बहुत अच्छी लगी, श्लाघनीय है। आपकी साधना भी बहुत अच्छी है लेकिन एक बात है कि समाज के बीच आप रहते हैं और बुरा नहीं माने तो कह दूँ। हमने कहा भैया! बुरा क्या मानूँगा, जब आप कहने के लिए आये हैं तो बुरा मानने की बात ही नहीं है, मैं बहुत अच्छा मानूँगा और यदि मेरी कमी है तो मंजूर भी करूंगा। उन्होंने पुन: कहा कि बुरा नहीं मानें तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि आपको कम से कम लंगोटी तो रखना चाहिए। समाज के बीच आप रहते हैं, उठते-बैठते, आहार-विहार-निहार सब करते हैं और आप तो निर्विकार हैं। लेकिन हम लोग रागी हैं, इसलिए लंगोटी रख लें तो बहुत अच्छा।


    यह चर्चा उस समय की है जब भगवान् महावीर का निर्वाण महोत्सव मनाया जाने वाला था। कई चित्रों के साथ भगवान् महावीर स्वामी का एक चित्र भी रखा था। उस किताब को जब मैंने देखा तो पाया कि हमारे भगवान् महावीर तो इसमें नहीं है। लोगों ने कहा कि इसमें हैं, देखिये अंतिम नम्बर उन्हीं का है। मैंने कहा कि ये तो आप लोगों जैसे दीख रहे हैं। लोग कहने लगे-नहीं ये तो बिल्कुल दिगम्बर हैं। मैंने कहा मुख तो सभी का दिगम्बर है पर इतने से कोई दिगम्बर नहीं होता। आपने वस्त्र भले ही नहीं रखे पर वस्त्र आवरण भी कई प्रकार के हैं। भगवान् के सामने चित्र में वह जो लकड़ी लाई गयी है। वृक्ष दिखाया गया है वह भी वस्त्र का काम कर रही है। इसे हटायेंगे तभी हमारे महावीर भगवान् से साक्षात्कार होगा।


    उस समय यह बात चली थी कि एक लंगोटी तो आप पहन ही लो। हमने कहा, भइया! ऐसा है कि महावीर भगवान् का बाना हमने धारण कर रक्खा है और इसके माध्यम से महावीर भगवान कम से कम ढाई हजार वर्ष पहले कैसे थे, यह भी ज्ञात होना चाहिए। तो वे कहने लगे महाराज! आप तो निर्विकार हैं और सभी की दृष्टि से कहा है। मैंने कहा अच्छा। आप दूसरों की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं, तो ऐसा करें कि लंगोटी में तो ज्यादा कपड़ा लगेगा, और महावीर भगवान् का यह सिद्धान्त है कि जितना कम परिग्रह हो उतना अच्छा है। आप एक छोटी सी पट्टी रख लो और जिस समय कोई दिगंबर साधु सामने आ जाये तो धीरे से आँख पर ढक लें। जो विकारी बनता है उसे स्वयं अपनी आँख पर पट्टी लेनी चाहिए।


    महावीर भगवान् निर्जरा तत्व को अपनाने वाले थे। संवर को अपनाने वाले थे। उन्होंने कहा कि जिस मार्ग से कर्म आ रहे हैं उसे ही बंद कर दिया जाए, बाहरी द्रव्य अपने आप ही बंद हो जायेंगे। अगर अपना दरवाजा बंद कर लो तो सबका आना रुक जाता है। आत्मा के छह दरवाजे हैं, पाँच इन्द्रिय सम्बन्धी झरोखे हैं और छठा दरवाजा है मन। आत्मा का उपयोग इन छहों के माध्यम से बाहरी हेय तत्व को उपादेय की दृष्टि से अपनाता है। बाह्य तत्व आते नहीं हैं, स्थान से स्थानान्तर नहीं होते किन्तु प्रमेयत्व गुण के माध्यम से आत्मा पर अपना प्रभाव डालते हैं। यदि इंद्रिय और मन का द्वार बंद है तो बाहर का Reflection (प्रतिबिंब) अंदर नहीं आयेगा। इसी को कहते हैं संवर तत्व। इससे आत्मा के अंदर की शक्ति अंदर रह जाती है और निर्जरा के लिए बल मिल जाता है।


    अविरत सम्यग्दृष्टि के होने वाली निर्जरा एकान्त रूप से अविपाकी निर्जरा नहीं है क्योंकि वह बंध तत्व के साथ चल रही है। उस निर्जरा को गज स्नानवत् कहा है। जैसे स्नान के समय हाथी करता है कि स्नान तो कर लेता है किन्तु इधर स्नान किया और उधर ढेर सारी धूल अपने सिर पर उडेल ली। भइया! निर्जरा होना अलग बात है और निर्जरा करना बात अलग है। अविरत सम्यग्दृष्टि के निर्जरा हो रही है, लेकिन तप के द्वारा जो निर्जरा की जाती है वह तो संयमी के ही होती है। कई लोगों का ऐसा सोचना है कि जो सम्यग्दृष्टि बन ही गया है तो अब इसके उपरान्त पूजन करना, प्रक्षाल करना, दान आदि देना इससे और ज्यादा निर्जरा तो होने वाली नहीं। शंका बहुत उपयुक्त है लेकिन आप एक ही दृष्टि से देख रहे हैं। पहले मैंने एक बार कहा था कि आप जैनी बन के काम करो। अकेले जैन मत लिखा करो। अंग्रेजी में JAIN शब्द में एक ही आई है अर्थात् आप एक ही दृष्टि से देख रहे हैं। जैनी लिख दो तो दो आई हो जायेंगी JAINI तब ठीक रहेगा, दो आँख हो जायेंगी। दोनों नयों से देखना ही समीचीन दृष्टि है।


    श्रावक के लिए षट् आवश्यक कहे गये हैं। उनमें देव-पूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन सभी को प्रतिदिन करना आवश्यक है। हम तो सोचते हैं-दिने-दिने के स्थान पर पदेपदे या क्षणे क्षणे होना चाहिए। ये छहों कार्य प्रतिपल एक के बाद एक करते रहना चाहिए। इसमें प्रमाद नहीं करना चाहिए। आवश्यक जिस समय में जो है वह ही करना। 'अवश्यमेव भव: आवश्यक:।' ऐसा कहा गया है। हमारे आचार्यों ने जब ग्रन्थ लिखे तो वे यह जानते थे कि जो श्रावक हैं, गृहस्थ हैं, उनके लिए भी कोई आवश्यक बनाने होंगे ताकि विषय-कषाय से बचा जा सके। जो मन में आया वही लिख दिया हो, तो ऐसा नहीं है, पूर्वापर विचार करके, तर्क की कसौटी पर तौलकर और अनुभव से उन्होंने लिखा है।


    पूजा के समय सम्यग्दृष्टि को बंध तो होता है क्योंकि जब वह पूजा करता है तो आरंभ तो होगा ही इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन आचार्यों ने कहा है कि बंध ही अकेला होता हो ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा है कि ये आवश्यक गृहस्थ के लिए तप के समान कार्य करते हैं। जिस समय अविरत सम्यग्दृष्टि गृहस्थ पंचेन्द्रिय के विषयों में लीन हो जाता है अर्थात् विषय सामग्री का सेवन करता है उस समय उसके अनन्तानुबन्धी संबंधी और मिथ्यात्व सम्बन्धी कर्म प्रकृतियों का आस्रव बंध तो नहीं होता लेकिन अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान आदि के द्वारा होने वाला बंध तो अवश्य होता है और उस समय कर्म प्रकृतियों में उच्च स्थिति अनुभाग के साथ बंध होता है। उस समय उसके निर्जरा नहीं हुई किन्तु बंध ही हुआ।


    लेकिन पूजा के समय अविरत सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया] लोभ की हीन स्थिति के साथ बंध करेगा और अनुभाग भी मंद होगा। उस समय पाप प्रकृतियों के अनुभाग और स्थिति में कमी आयेगी, उनमें द्विस्थानीय बंध ही हुआ करता है। जिस समय वह पूजन करेगा उसी समय में वह अप्रत्याख्यान को समाप्त भी कर सकता है क्योंकि उस समय भूमिका इस प्रकार की होती है उसके देशव्रत लेने की भावना जागृत हो सकती है। महाव्रत धारण करने की भावना हो सकती है। क्योंकि वीतराग मुद्रा सामने है, उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता, और अंदर का सम्यग्दर्शन बोलता है कि कमजोरी कहाँ पर है ? क्यों वस्त्रों में अटक रहे हो? इस प्रकार का विचार आते ही संभव है वह जीवन में वीतराग मुद्रा को धारण कर ले। इसलिए भगवान के सामने जाकर उनसे भेंट तो कर लेना चाहिए ताकि उनके अनुरूप बनने के विचार जागृत हो सकें, विषय कषायों के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो सके। जो कि निर्जरा का कारण है।


    पूजन करते समय अप्रत्याख्यान की निर्जरा तो होती ही है साथ ही जिस समय वह सम्यग्दृष्टि भगवान् के सामने पूजन करने लग जाता है और प्रभु पतित पावन बोलने लग जाता है तो उस समय अनन्तानुबन्धी की उदीरणा होकर अकाल में ही वह खिर जाती है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ की जो चौकडी मिथ्यात्व के साथ सम्बन्ध रखने वाली है, वह सारी की सारी अप्रत्याख्यान के रूप में आकर फल देकर चली जाती है किन्तु सम्यक्त्व बाधित नहीं होता। जिसके अनन्तानुबन्धी सत्ता में है उसे सत्ता में से तो निकालना होगा क्योंकि उदय में आ जायेगी तो सम्यग्दर्शन का घात हो जायेगा। यह पूजन इत्यादि षट् आवश्यक सारे के सारे अंदर के कर्मों को निकालने के उपक्रम हैं।


    इसलिए सम्यग्दृष्टि भगवान् के सामने जाकर अगर एक घंटे कम से कम पूजन करता है तो उतने समय के लिए अनन्तानुबन्धी की निर्जरा होती है। जिस व्यक्ति को निर्जरा तत्व के प्रति बहुमान है वह व्यक्ति सम्यग्दृष्टि होकर घर में नहीं बैठेगा और पूजन की बेला को नहीं टालेगा और यदि टालता है तो वह सम्यग्दर्शन का पोषक नहीं है, यही कहना चाहिए। सम्यग्दृष्टि श्रावक अष्ट मंगल द्रव्य लेकर पूजा करने जाता है और मुनियों द्वारा होने वाली पूजन में द्रव्य नहीं रहती, भावों से ही पूजन होती है।


    यदि आप श्रावक चाहें कि द्रव्य न लगे, भाव पूजन हो जाये और निर्जरा भी हो जाये तो संभव नहीं है। आप यदि द्रव्य नहीं लगाना चाहते तो इसका अर्थ है कि आपको द्रव्य के प्रति मोह है और मोह है तो बंध होगा, निर्जरा नहीं होगी। भगवान् के सामने पूजन करने का अर्थ यही है कि विषय सामग्री का विमोचन यानि निर्जरा तत्व का आह्वान। विषय सामग्री चढ़ाई जाती है, भगवान् को दी नहीं जाती। हमारे भगवान् लेते नहीं हैं पर आपके पास जितना है उसे छुड़वा देते हैं। तीर्थस्थल पर आप बैठे हैं तो यहाँ अपने आप छोड़ने के भाव जागृत हो जाते हैं। घर में रहकर यह भाव जागृत नहीं होते।


    घर में जब खाना खाते हैं तो कहते हैं, पाटा बिछा दो, पंखा चला दो, बिजली का नहीं तो हाथ से ही सही, थाली रक्खो, अच्छी चमकती हुई, गिलास रखो, लौटा रखो पानी भर कर सारी सुखसुविधाएँ चाहिए लेकिन यहाँ क्षेत्र पर आप लोग खाना खाते हैं तो यहाँ कोई पाटा नहीं है, थाली नहीं है, यूँ ही एक तरफ बैठे-बैठे कैसे भी करके खा लेते हैं पाँच मिनट में। यही तो त्याग है। तीर्थ पर भगवान् के सामने सभी व्यक्ति प्राय: व्रती बन जाते हैं, त्याग की सीख ले लेते हैं। यहाँ तो प्रत्येक समय त्याग तपस्या की बात है, निर्जरा की बात है। यहाँ निरन्तर चाहें तो मोक्षमार्ग चल रहा है। संसारी और गृहस्थ चौबीस घंटे राग-द्वेष और विषय-कषाय में, धर्म ध्यान को छोड़कर लगे हुए हैं। इन षट-आवश्यकों के माध्यम से वीतराग प्रतिमा के सामने पूजन का सौभाग्य मिल जाता है और ऐसी निर्जरा होती है, अविपाक निर्जरा, जो तप के माध्यम से होती है। इसलिए पूजन-धर्म आवश्यक है।


    जो साधक हैं उन्हें पूजन अपने अनुकूल करना चाहिए। आपको/श्रावक को अष्ट मंगल द्रव्य से पूजन का विधान है और हम लोगों को/मुनिजनों को अष्ट मंगल द्रव्य के अभाव में भावों की निर्मलता में कोई कमी नहीं रखना चाहिए। मुनि लोग जब भी भगवान् की पूजा करते हैं तो उस समय आप से भी असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा कर लेते हैं। केवल आत्म-तत्व के माध्यम से ही निर्जरा होती है, ऐसा एकान्त नहीं है। सामान्य रूप से होने वाली निर्जरा तो मिथ्यात्व के उदय में भी होती है। मिथ्यात्व का उदय बाद में समाप्त होता है। अनन्तानुबन्धी पहले समाप्त हो जाती है। निर्जरा तो वहाँ भी होती है लेकिन यहाँ इस प्रकार की निर्जरा की बात हम नहीं कर रहे हैं। सजग होकर ज्ञान के साथ जो निर्जरा की जाती है, और पूजन आदि षट् आवश्यकों के माध्यम से वह जितनी-जितनी बढ़ती है उतने-उतने अंशों में वह निराकुल बनता चला जाता है। यही षटआवश्यक श्रावक के लिए निराकुलता में कारण बनते हैं। सम्यग्दृष्टि इनके माध्यम से विशेष निर्जरा करता है और आगे बढ़ता जाता है।


    गृहस्थ होकर भी जितना अधिक आपका धार्मिक क्षेत्र में धन खर्च होगा, उतना ही आपकी सत्ता में जो अनन्तानुबन्धी है वह संक्रमित होकर बिना फल दिये ही चली जायेगी। यदि आप सजग हो करके देवगुरु शास्त्र की पूजन, उनकी उपासना, आराधना, उनका चिंतन करते हैं तो उस समय कर्म खिरते चले जाते हैं। मिथ्यात्व भी जो सत्ता में है वह उदयावली में आकर सम्यक्त्व प्रकृति के रूप में फल देकर चला जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्व प्रकृति की निर्जरा हो जाती है और आपके सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में सम्यग्दर्शन ज्यों का त्यों बना रहता है।


    जिस प्रकार आप लोग आठ घंटे की ड्यूटी दे देते हैं उस समय आपको जो वेतन बंधा हुआ है, वह मिल जाता है विश्वस्त होकर काम करो और थोड़ा प्रमाद भी हो जाये तो भी वेतन पूरा मिलता है ऐसे ही सम्यग्दृष्टि भगवान् के सामने जाकर सो भी जायें तो भी वेतन मिलता रहता है। यदि ओवर ड्यूटी कर ले तो फिर कहना ही क्या? एक व्यक्ति पसीना-पसीना हो रहा था। मैंने पूछा कि भइया! ऐसा इतना काम क्यों करते हो, समय पर किया करो। उसने कहा-क्या करें महाराज! घर की बात, बेटी के दहेज के लिए धन तो चाहिए-इसलिए अभी दो-तीन साल के अंदर ओवर ड्यूटी करके कमा रहा हूँ। अब सोची, संसार के कार्यों में इस प्रकार कमा सकते हैं तो तप के माध्यम से, षट् आवश्यकों के माध्यम से मोक्षमार्ग में निर्जरा को भी बढ़ा सकते हैं।


    समय से पहले अकाल में ही इस प्रकार आवश्यकों के माध्यम से निर्जरा हो सकती है और नये बंध से बचा जा सकता है अतः पूजन आदि करना परम आवश्यक है। पूजन के माध्यम से मात्र बंध ही होता हो ऐसा नहीं है क्योंकि बंध की प्रक्रिया न तो पूजन के समय पूर्णत: रुकी है और न ही विषय भोगों के समय रुकी है बल्कि जिस समय पूजन करते हैं उस समय पाप की निर्जरा हो जाती है, उसका बंध रुक जाता है और शुभ-बंध प्रारंभ हो जाता है। पूजन को केवल बंध का कारण कहना-इस तत्व को नहीं समझना है। साथ ही साथ यह पाप का समर्थन करना है क्योंकि वह व्यक्ति पाप से मुक्त होकर मुनि तो बना नहीं है।

    अष्ट द्रव्य से पूजन करना आस्रव का कारण है, ऐसा उपदेश उन व्यक्तियों के सामने सुनाने योग्य है जो मुनि बनने के लिए तैयार हैं। यदि गृहस्थ होकर द्रव्य पूजन नहीं करना चाहते तो गृहस्थ से ऊपर उठ जाओ, फिर भाव पूजन करो, फिर मंदिर जाने की भी आवश्यकता नहीं है। लेकिन मंदिर जाने की आवश्यकता नहीं है तो घर जाने की भी आवश्यकता नहीं है, यह भी बात है, ध्यान रखो। आप चाहें कि मंदिर जाना छूट जाये, घर में बैठे रहें और निर्जरा भी हो जाये तो संभव नहीं है। निर्जरा नहीं मिलेगी, वहाँ तो जरा ही मिलेगी, बुढ़ापा मिलेगा। अत: सभी विवक्षाओं को देखने, सोचने विचारने की बड़ी आवश्यकता है।


    नन्हें-नन्हें बच्चों के सामने यदि पूजा को बंध का कारण बता देंगे तो कभी उनको और न आपको समझ में आयेगा कि वास्तव में आस्त्रव और बंध क्या है और निर्जरा तत्व क्या है, मोक्ष क्या और जीव तत्व क्या है? वह श्रेष्ठ डॉक्टर है जो रोगी को दवाई देता है, निदान ठीक-ठीक करता है, साथ ही अनुपान का भी ध्यान रखता है। एक माह का बच्चा है और बीमार हो जाता है तो डॉक्टर औषधि देगा पर उसे ध्यान रखना होगा कि कौन-सी देना, कितनी मात्रा में देना और किस अनुपान के साथ देना है। यदि पहलवान की तरह मात्रा और अनुपान लेंगे तो प्राण संकट में पड़ जायेंगे।


    इसी प्रकार जो अभी पूजन ही नहीं कर रहा है, धर्म-ध्यान की ओर जिसकी दृष्टि नहीं है उसे, पूजन बंध का कारण है, यह बता दिया जाए तो वह मोक्षमार्ग पर कभी आरूढ़ नहीं हो पायेगा। मोक्षमार्ग से विचलित होकर उन्मार्ग पर बढ़ जायेगा। निचली बात यदि छुड़ाना है तो धीरे-धीरे उस व्यक्ति को ऊपर की बात उपादेय के रूप में बता दो। यदि द्रव्य पूजन से बचना चाहो तो सभी प्रकार के आरम्भ परिग्रह से ऊपर उठ जाओ, निरारम्भ बन जाओ, निष्परिग्रही हो जाओ, ग्यारह प्रतिमाएँ ले लो।


    संसार के तो अनेक पाप कार्य करना और भगवान् की पूजन को बंध का कारण बताना अथवा भोग को निर्जरा का कारण बताना, यह सब जैन सिद्धान्त का अपलाप है। विवक्षा समझनी चाहिए। यह तो मोक्षमार्ग को अप्रशस्त करना है। जो ऊपर उठने वाले हैं उन्हें नीचे गिराना है। सम्यग्दृष्टि का भोग निर्जरा का कारण है लेकिन ध्यान रखना, भोग कभी निर्जरा का कारण नहीं बन सकता ।


    यदि भोग निर्जरा का कारण है तो योग (ध्यान) बंध का कारण होगा। सोचना चाहिए ऐसा कहने वालों को। कौन से शब्दों का अर्थ, कहाँ क्या लिखा है, किस व्यक्ति के लिए लिखा गया है। कुछ भी याद नहीं। आगम का जरा भी भय नहीं। कोई विवेक नहीं और धर्मोपदेश चल रहा है। यह ठीक नहीं है भइया।

     

    सम्यग्दृष्टि का भोग भी निर्जरा का कारण है- ऐसा कथन आया है, सभी जानते हैं, किन्तु किस व्यक्ति के लिए आया है यह भी देखना चाहिए। जो व्यक्ति बिल्कुल निर्विकार वीतराग सम्यग्दृष्टि बन चुका है और दृष्टि जिसकी तत्व तक पहुँच गयी है, इसके सामने वह भोग सामग्री, भोग सामग्री न होकर जड़ पदार्थ मात्र रह गयी है। उस व्यक्ति के लिए कहा है कि तू कहीं भी चला, जाये, तेरे लिए संसार निर्जरा का कारण बन जायेगा।


    भगवान् की मूर्ति, वीतराग प्रभु की मूर्ति निर्जरा के लिए कारण है, संवर के लिए कारण है, लेकिन सिनेमाघर में जाकर कोई चित्र देखे तो क्या वहाँ निर्जरा होगी? संभव नहीं है आपकी। आप स्वयं को भूल जायेंगे। समाधि के स्थान पर समाप्ति हो जायेगी। व्यसनों में पड़कर भगवान् को भूल जाना, साथ ही अपने आप को भूल जाना अलग है और निर्विकल्प ध्यान में लीन होकर अपने को भूल जाना अलग है, दोनों में बड़ा अन्तर है। एक संसार मार्ग है और एक मुक्ति का मार्ग है। महाव्रती होकर यदि निर्विकार दृष्टि से वीतराग सम्यग्दृष्टि भोग सामग्री को देखता है तो भी उसको निर्जरा ही होगी।


    पात्र को देखकर ही कथन करना चाहिए। भोग निर्जरा का कारण सामान्य व्यक्तियों के लिए नहीं है। अभी वह दृष्टि प्राप्त नहीं है जो हर पदार्थ को ज्ञेय बनाये। अभी जब तक दृष्टि इष्ट-अनिष्ट की कल्पना से युक्त है, हेय उपादेय को नहीं पहचानती तब तक वह स्खलित हुए बिना नहीं रहेगी। इसलिए ग्रन्थ का अध्ययन, मनन-चिन्तन तो ठीक ही है लेकिन उसके रहस्य तक पहुँचे बिना कुछ भी कह देना ठीक नहीं है।


    प्रत्येक पदार्थ की कीमत अपने-अपने स्थान पर अपने-अपने क्षेत्र में हुआ करती है। जौहरी की दुकान पर आप चले जायेंगे तो वह आपको बिठा लेगा, आपका मान-सम्मान भी करेगा लेकिन आपको अपने हीरे-जवाहरात जल्दी-जल्दी उतावलेपन में नहीं दिखायेगा, न ही देगा। वह ग्राहक को परखता है, फिर ग्राहक के सामने जवाहरात की जो कीमत है, उसे बताता है। बहुत कीमती है ऐसा कहकर बड़ी सावधानी से एक-एक ट्रेजरी खोलता है तब कहीं जाकर एक छोटी सी संदूक और उस संदूक में भी एक छोटी सी डिबिया और उस डिबिया में भी मखमल और मखमल में भी एक पुड़िया। इस प्रकार वह हीरा तो बहुत अंदर है और उसे भी ऐसे ही हाथ में लेकर नहीं दिखाता, दूर से ही दिखा देता है।


    इसी प्रकार ग्रन्थराज समयसार में इस निर्जरा तत्व की कीमत है। ग्रन्थराज समयसार आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने सभी के हाथ में नहीं दिया। वे ही हाथ लगा सकते हैं जो मुनि हैं या मुनि बनना चाहते हैं। वे ही इसकी सही कीमत कर सकते हैं, वे ही इसका चिन्तन, मनन और पाचन कर सकते हैं। यह कोई सामान्य ग्रन्थ थोड़े ही है। जीवन समर्पित किया जाता है उस समय यह निर्जरा तत्व प्राप्त होता है। विषय भोगों को ठुकरा दिया जाता है तब यह हीरा गले में शोभा पाता है, ऐसे थोड़े ही है भइया! बड़ी कीमती चीज है, इस कीमती चीज को आप किसी के हाथ में यूँ ही दे दो तो उसका मूल्यांकन वह नहीं कर पायेगा। जो भूखा है, प्यासा है वह कहेगा यह कोई चमकीली चीज है, इसको ले लो और मुझे तो मुट्ठी भर चना दे दो और आज यही हो रहा है।


    आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि तुम्हारी दृष्टि में यदि अभी भोग आ रहे हैं तो तुमने पहचाना नहीं है निर्जरा तत्व को। एकमात्र अपने आत्मा में रम जा तू वही निर्जरा तत्व है। तेरी ज्ञानधारा यदि ज्ञेय तत्व में अटकती है तो निर्जरा तत्व टूट जाएगा, वह हार बिखर जायेगा। इस निर्जरा तत्व के उपरान्त और कोई पुरुषार्थ शेष नहीं रह जाता है। मोक्ष तत्व तो निर्जरा का फल है। मोक्ष तो मंजिल है, वह मार्ग नहीं है। मार्ग यदि कोई है तो वह संवर और निर्जरा हैं। मार्ग में यदि स्खलन होता है तो मोक्ष रूपी मंजिल नहीं मिलेगी। हमें मोह से बचकर मोक्ष के प्रति प्रयत्नशील होना चाहिए। निर्जरा तत्त्व को अपनाना चाहिए।


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    आत्म-पुरुषार्थ के द्वारा की जाने वाली निर्जरा ही वास्तविक निर्जरा है जो मोक्षमार्ग में कारणभूत है। इसे पाये बिना मोक्ष संभव नहीं है।

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