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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन पारिजात 6 - मोक्ष तत्त्व

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    कल चतुर्दशी थी और प्रतिक्रमण का दिन था। वह प्रतिक्रमण आवश्यक उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि सामायिक आवश्यक है। प्रत्येक आवश्यक में कुछ अलग विषय रखे गये हैं। प्रतिक्रमण आवश्यक में बात बहुत गहरी है। संसारी प्राणी अनादिकाल से आक्रमण करने की आदत को लिए हुए जीवन जी रहा है। परंतु मोक्षपथ का पथिक आक्रमण को हेय समझकर प्रतिक्रमण को, जीवन जीने का एक सफल उपाय मानता है।


    आक्रमण का अर्थ है बाहर की ओर यात्रा और प्रतिक्रमण का अर्थ है अंदर की ओर यात्रा, अपने आप की उपलब्धि। इस तरह आक्रमण संसार है तो प्रतिक्रमण मुक्ति है। 'कृत दोष-निराकरण प्रतिक्रमण' किये हुए दोषों का मन-वचन काय से, कृत-कारित-अनुमोदना से विमोचन करना, यह प्रतिक्रमण का शब्दार्थ है। इस ओर चलता है वही पथिक, जो मुक्ति की वास्तविक इच्छा रखता है। अपने आत्मा की उपलब्धि ही मुक्ति है और प्रतिक्रमण का अर्थ भी है, अपने आप में मुक्ति। दोषों से मुक्ति। संसारी प्राणी दोष करता है किन्तु दोषी नहीं है यह सिद्ध करने के लिए निरन्तर आक्रमण करता जाता है दूसरों के ऊपर। एक असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिए हजार असत्यों का आलंबन ले लेता है यही उसे मुक्ति में बाधक बन जाता है।


    मुक्ति का अर्थ तो यह है कि दोषों से अपनी आत्मा को मुक्त बनाना। मुञ्च विमोचने त्यागे वा। ‘मुच्च' धातु से बना है यह मोक्ष शब्द। मुञ्च धातु विमोचन के अर्थ में आयी है। कोई ग्रन्थ लिखे, उस ग्रन्थ का आप विमोचन कर लेते हैं या किसी से करवा लेते हैं परंतु अपने दोषों का विमोचन करने का कोई प्रयास नहीं करता। विमोचन वही करता है जो मुक्ति चाहता है और यह ‘मुच्च' शब्द छोड़ने के अर्थ में आया है, छूटने के अर्थ में नहीं, छूटता है तो धर्म छूट जाता है और छोड़ा जाता है पाप। अनादिकाल से धर्म छूटा है, अब छोड़ना होगा पाप।


    प्रत्येक संसारी प्राणी अपने दोषों को मंजूर नहीं करता और न ही उन दोषों का निवारण करने का प्रयास करता है। किन्तु मोक्षमार्ग का पथिक वही है इस संसार में जो अपने दोषों को छोड़ने के लिए और स्वयं अपने हाथों दंड लेने के लिए हर क्षण तैयार है। संसार में मुनि ही ऐसा है जो अपने आप प्रतिक्रमण करता है। मन से, वचन से और काय से जो कोई भी ज्ञात-अज्ञात में प्रमाद के वशीभूत होकर दोष हो गये हों या दोष-युक्त भावना हो गयी हो तो उसके लिए दंड के रूप में स्वीकार करता है वह मुनि। ऐसा कहें कि कल पनिशमेंट डे था, दंड लेने का दिन था, प्रतिक्रमण का दिवस था ।


    संसारी प्राणी प्राय: दूसरे को दंड देना चाहता है पर अपने आप दंडित नहीं होना चाहता। मुनिराज संसारी प्राणी होते हुए भी दूसरे को दंड देना नहीं चाहते बल्कि खुद प्रत्येक प्राणी के प्रति चाहे वह सुनें या ना सुनें, अपनी पुकार पहुँचा देते हैं। ‘एक इन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने भी जीव हैं उनके प्रति क्षमा धारण करता हूँ, मेरे द्वारा मन से, वचन से, काय से, कृत से कारित से और अनुमोदना से किसी भी प्रकार से, दूसरे के प्रति दुष्परिणाम हो गये हों तो मैं उसके लिए क्षमा चाहता हूँ और क्षमा करता हूँ। ये भाव प्रतिक्रमण के भाव हैं।


    आज हम सब आक्रामक बने हैं और आक्रामक जो भी है वह क्रोधी होता है, मानी होता है, मायावी होता है, लोभी होता है, रागी और द्वेषी भी होता है। लेकिन जो प्रतिक्रमण करता है वह इससे विलोम होता है। वह रागी-द्वेषी नहीं होता, वह तो वीतरागी होता है। वह मान के ऊपर भी मान करता है। मान का भी अपमान करने वाला अर्थात् मान को अपने से निकाल देने वाला यदि कोई है तो वह वीतरागी मुनि है। लोभ को भी प्रलोभन देने वाला यदि कोई है तो वह मुनि है। क्रोध को भी गुस्सा दिलाने वाला यदि है तो वह मुनि है। अर्थात् यदि क्रोध उदय में आ जाये तो भी मुनि खुद शान्त बना रहता है और क्रोध शान्त हो जाता है। क्रोध हार मान लेता है।


    वास्तविक क्रोधी तो मुनि हैं जो क्रोध के ऊपर भी क्रोध करते हैं, वास्तविक मानी भी मुनि हैं जो मान का अपमान कर लेते हैं और उसे दूर भगा देते हैं। वास्तविक मायावी वही है जो माया को अपना प्रभाव नहीं दिखाने देता। लोभ को प्रलोभन में डालकर उन पर विजय पा लेते हैं। इस प्रकार वह प्रतिक्रमण करने वाला यदि देखा जाये तो बड़ा काम करता है। प्रतिक्रमण चुपचाप होता है लेकिन कषायों को शान्त करने की भावना अहर्निश चलती रहती है। अब मुक्ति के बारे में कहने की आवश्यकता ही क्या है ? आप में से कौन-कौन प्रतिक्रमण के लिए तैयार होते हैं? आत्मा को निर्दोष बनाने की इच्छा किसकी है ? जितना-जितना आत्मा को निर्दोष बना लेंगे उतनी-उतनी ही तो है मुक्ति।


    माँ परोस रही थी एक थाली में विभिन्न-विभिन्न व्यंजन रखे और लाड़ला लड़का बैठा-बैठा खा रहा था। खाते-खाते जब वह बीच में रुक जाता है तो माँ पूछती है कि बेटा! क्या बात हो गयी? घी और चाहिए क्या? एक बात पूछना चाहता हूँ माँ! वह लड़का कहता है। आप रसोई बनाना छोड़ दें। मेरे अनुमान से आपकी नेत्र ज्योति कुछ कमजोर हो गयी है। बात असल में यह है कि खातेखाते अचानक कुछ कट्ट से टूटने की आवाज आ गयी है, लगता है कंकर है भोजन में। सारा का सारा जब बाहर निकालता है भोजन, वह लड़का, तो कंकर कहीं नहीं दिखता। माँ समझ जाती है कि बात क्या है! वह कह देती है कि बेटा यह कंकर नहीं है यह मूंग ही ऐसी है। उसका नाम है ठर्रा मूंग। इसकी पहचान वैसे नहीं होती। खाते समय ही होती है। यह दिखता मूंग के समान हराहरा है लेकिन यह सीझता (पकता) नहीं है। इसे कितना भी पकाओ यह कभी नहीं पकता, इसी प्रकार ऐसे भी जीव होते हैं जो खुद कभी नहीं सीझते अर्थात् मुक्ति को प्राप्त नहीं हो पाते और कभी-कभी दूसरे की मुक्ति में बाधक हो जाते हैं। बंधुओ! हमारा जीवन मुक्ति मंजिल की ओर बढ़े ऐसा प्रयास करना चाहिए। साथ ही हमारा जीवन दूसरे के लिए, जो मुक्ति पाने के लिए आगे बढ़ रहे हैं, उनके लिए साधक तो कम से कम बनें ही, बाधक नहीं।


    यह संसार अनादि अनंत है। इसमें भटकते-भटकते हम आ रहे हैं। तात्कालिक पर्याय के प्रति हमारी जो आसक्ति है उसे छोड़ना होगा और त्रैकालिक जो है उस पर्याय को धारण करने वाला द्रव्य अर्थात् मैं स्वयं आत्मा कौन हूँ, इसके बारे में चिंतन करना चाहिए। हमारे आचार्यों ने पर्याय को क्षणिक कहा है और उस पर्याय की क्षणभंगुरता और निस्सारता के बारे में उल्लेख किया है। यद्यपि सिद्ध-पर्याय, शुद्ध-पर्याय हेय नहीं है किन्तु संसारी प्राणी को मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए पर्याय की हेयता बताना अति आवश्यक है। इसके बिना उसकी दृष्टि पर्याय से हटकर वैकालिक जो द्रव्य है उस ओर नहीं जा पाती और जब तक दृष्टि अजर-अमर द्रव्य की ओर नहीं जायेगी, तब तक ध्यान रखिएगा, संसार में रचना-पचना छूटेगा नहीं।


    एक बार महाराज जी, (आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी महाराज) के सामने चर्चा की थी कि महाराज! जिसने यहाँ मुनि दीक्षा धारण की और वर्षों तक तप किया और सम्यग्दर्शन के साथ स्वर्ग में सम्यग्दृष्टि देव बन गये तो पुन: वापिस आकर यहाँ संबोधन वगैरह क्यों नहीं देते ? तो महाराज जी बोले सुनो-संसारी प्राणी की स्थिति ऐसी है कि क्षेत्र का प्रभाव उसके ऊपर ऐसा पड़ जाता है कि अतीत के अच्छे कार्य को वह भूल जाता है और जिस पर्याय में पहुँचता है वहीं रच-पच जाता है। वहीं के भोगों में व्यस्त हो जाता है। अन्य गतियों की यही स्थिति है किन्तु मनुष्य गति एक ऐसी गति है जिसमें व्यस्तता से बचा जा सकता है। विवेक जागृत किया जा सकता है।


    विवेक छोटे से बच्चे में भी जागृत हो सकता है। तभी तो उस बच्चे ने अपनी माँ से पूछ लिया था कि यह मूंग ऐसा क्यों है? क्या कुछ ऐसे ही मूंग बोये जाते हैं, जो ठर्रा होते हैं? तब माँ कहती है कि नहीं बेटे बोये तो अच्छे ही जाते हैं। एक बीज के माध्यम से एक बाल आ जाती है जिसमें कई मूंग होते हैं जिनमें एकाध ठर्रा मूंग भी हो सकता है। अनेक मूंग के साथ एक मूंग ऐसा भी हो जाता है जो सीझता नहीं है, उस पर द्रव्य, क्षेत्र, काल का प्रभाव नहीं पडता उसका स्वभाव ही ऐसा है। कैसा विचित्र स्वभाव पड़ गया है उसका जो न आज तक सीझा है और न आगे कभी सीझेगा। हम सब उसमें से तो नहीं हैं यह विश्वास है, क्योंकि हमारा हृदय इतना कठोर नहीं है। हम सीझ सकते हैं। अपना विवेक जागृत कर सकते हैं।


    एक बात और भी है कि ठर्रा नहीं होकर भी कुछ ऐसे मूंग हैं जो अग्नि का संयोग नहीं पाते, जल का संयोग नहीं पाते इसलिए ठर्रा मूंग के समान ही रह जाते हैं। वह भी नहीं सीझ पाते, उनको दूरानुदूर भव्य की उपमा दी गयी है जो ठर्रा मूंग है वे तो अभव्य के समान हैं। जो मूंग बोरी में रखे हैं और वैसे ही अनंत काल तक रखे रहेंगे वो भी नहीं सीझेगे, वे दूरानुदूर भव्य हैं। इसका अर्थ यह है कि घर में रहते-रहते मुक्ति नहीं मिलेगी। आप चाहो कि घर भी न छूटे और वह मुक्ति भी मिल जाये, हम सीझ जायें तो यह 'भूतो न भविष्यति' वाली बात है। योग्यता होने के बाद भी उस योग्यता का परिस्फुटन अग्नि आदि के संयोग के बिना होने वाला नहीं है। योग्यता है लेकिन व्यक्त नहीं होगी। संयोग मिलाना होगा, पुरुषार्थ करना होगा।


    अभव्य से दूरानुदूर-भव्य ज्यादा निकट है और दूरानुदूर भव्य से आसन्न-भव्य ज्यादा निकट है उस मुक्ति के लेकिन भव्य होकर भी यदि अभी तक हमारा अपना नम्बर नहीं आया, इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि आसन्न-भव्य तो हम अपने आप को कह नहीं सकेंगे। भव्य होकर भी हमने संयोग नहीं मिलाया अभी तक। दूरानुदूर भव्य के लिए योग नहीं मिलेगा सच्चे देव-गुरुशास्त्र का ऐसा नहीं है, वह मिलायेगा ही नहीं। अर्थात् तदनुरूप उसकी वृत्ति जल्दी नहीं होगी। देखो, परिणामों की विचित्रता कैसी है कि सीझने की योग्यता होते हुए भी नहीं सीझता। इसलिए जिस समय आत्म-तत्व के प्रति रुचि जागृत हो, 'शुभस्य शीघ्र' उसी समय उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना प्रारम्भ कर देना चाहिए।


    पूज्यपाद स्वामी ने भव्य के बारे में कहा है 'स्वहितम्। उपलिप्सु' अपने हित की इच्छा रखने वाला 'प्रत्यासन्ननिष्ठ कश्चिद् भव्यः'- कोई निकट भव्य था। जिस प्रकार भूखा व्यक्ति 'अन्न' ऐसा सुनते ही मुख खोल लेता है उसी प्रकार निकट भव्य की स्थिति होती है। मैं अपने अनुभव की बात बताता हूँ उसी से आप कम्पेयर कर लेना, बाद में। जब हाई स्कूल जाते थे हम, चार मील पैदल चलना पड़ता था और कीचड़ का रास्ता था। तो स्कूल से छूटने के उपरान्त आते-आते तक तो बस बिल्कुल समझो पेट में कबड़ी का खेल प्रारम्भ हो जाता था। तेज भूख लगती थी। वहाँ से आते ही खाना परोस दो, ऐसा कह देते थे। और मालूम पड़ता था कि अभी रसोई तो बनी नहीं है, बन रही है। तो कोई बात नहीं, जो रोटी रखी हैं वही लाओ। बिना साग-सब्जी के भी चल जायेगा। कभीकभी तो साग आ नहीं पाती थी और जो रोटी पूड़ी आदि परोसी जाती थी उसे थोड़ा-थोड़ा खातेखाते पूरी खत्म कर देते थे। बाद में अकेली साग खा लेते थे।


    तीव्र भूख का प्रतीक है यह। खीर सामने आ जाये और गरम भी क्यों न हो तो भी बच्चे लोग किनारे-किनारे से धीरे-धीरे फ्रैंक-फूंक कर खाना प्रारम्भ कर देते हैं। इसी प्रकार जिस व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया है वह चारित्र लेने के लिए तत्पर रहेगा। अंदर से छटा-पटी लगी रहती है कि कब चारित्र लें। भगवान् की वीतराग छवि को देखकर उसके माध्यम से मुक्ति की ओर बढ़ने का प्रयास करता है। उदाहरण के रूप में कोई मुनि महाराज मिल जायें तो कह देता है कि अब बताने की भी जरूरत नहीं है, हम देख-देखकर कर लेंगे। यही है भव्य जीव का लक्षण। अवाक् विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं मोक्षमार्गम्। 'बिना बोले ही वीतरागी मुद्रा से मोक्षमार्गका निरूपण होता रहता है।


    आप लोग कहते हैं कि महाराज उपदेश दो। अलग से क्या उपदेश दें भइया। दिन-रात उपदेश चल रहा है। क्योंकि मुनि मुद्रा धारण कर लेने के उपरान्त कोई भी ऐसा समय नहीं है जिस समय वीतरागता का दर्शन न होता हो, दया का उपदेश सुनने में न आता हो। बाह्य क्रियाओं के माध्यम से भी उपदेश मिलता है। उपदेश सुनने वाला और समझने वाला होना चाहिए। सम्यग्दृष्टि इस बारे में अवश्य सोचता है। वह प्रत्येक क्रिया में वीतरागता देखता है, मुनि महाराज खड़े होकर एक बार दिन में आहार लेते हैं। खड़े होकर खाओ तो पेट भर आसानी से खाया नहीं जा सकता है। खड़े होकर खाने में अप्रमत रहना होता है। थोड़ा भी यदि आसन हिल गया तो अन्तराय माना गया है।


    दूसरी बात यह है कि आप सोचते होंगे कि हम तो एक ही हाथ से खाते हैं और मुनिराज तो दोनों हाथों से खाते हैं तो ज्यादा खाते होंगे। ऐसा नहीं है। थाली में खाने से तो एक हाथ की स्वतंत्रता रहती है लेकिन दोनों हाथों में लेकर खाने में सावधानी बढ़ जाती है। जरा भी प्रमाद हुआ और यदि हाथ छूट जाये तो अन्तराय माना गया है। ये सारे के सारे विधि-विधान, नियम, संयम वीतरागता के द्योतक हैं। यही निमित्त बन जाते हैं निर्जरा के लिए। इस प्रकार चौबीस घंटे, बैठते समय, उठते समय, बोलते समय, आहार-विहार-निहार के समय या शयन करते समय भी आप चाहें तो मुनियों के माध्यम से वीतरागता की शिक्षा ले सकते हैं। लेने वाला होना चाहिए।


    सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के उपरान्त तो चारित्र धारण करने की भूख तीव्र से तीव्रतम् हो जाती है। कठिन से कठिन चारित्र पालन करने की क्षमता आ जाती है। सम्यग्दृष्टि सोचता है कि मुझे जल्दी-जल्दी मुक्ति मिलना चाहिए, इसलिए चारित्र को जल्दी-जल्दी अंगीकार कर लो। यदि चारित्र लेने की रुचि नहीं हो रही है तो इसका अर्थ यही निकलता है कि या तो ठर्रा मूंग है या अभी दूरानुदूर भव्य है। आसन्न-भव्य की गिनती में तो नहीं आ रहा है। भाई, चारित्र लेने में जल्दी करना चाहिए, पीछे नहीं रहना चाहिए 'शुभस्य शीघ्र।'

     

    मुक्ति का मार्ग है छोड़ने के भाव। जो त्याग करेगा उसे प्राप्त होगी निराकुल दशा। यही कहलाता है वास्तविक मोक्ष, निराकुलता जितनी-जितनी जीवन में आये, आकुलता जितनी-जितनी घटती जाये उतना-उतना मोक्ष आज भी संभव है।


    आपको खाना खाते समय सोचना चाहिए कि पाँच रोटी खाने से आपकी भूख मिटती है तो क्या पाँच रोटी साबुत एक ही साथ मशीन जैसे डाल लेते हैं पेट में? नहीं, एक एक ग्रास करके खाते हैं। एक ग्रास के माध्यम से कुछ भूख मिटती है, दूसरे के माध्यम से कुछ और भूख मिटती है, ऐसा करते-करते पाँच रोटी के अन्त में अन्तिम ग्रास से तृप्ति हो जाती है। कह देते हैं आप कि अब नहीं चाहिए। इसी प्रकार निरन्तर निर्जरा के माध्यम से एक देश मुक्ति मिलती जाती है। पूर्णतः मुक्त होने का यही उपाय है।


    एकदेश आकुलता का अभाव होना, यह प्रतीक है कि सर्वदेश का भी अभाव हो सकता है। रागद्वेष आदि आकुलता के परिणामों को जितना-जितना हम कम करेंगे उतनी-उतनी निर्जरा भी बढ़ेगी और जितने-जितने भाग में निर्जरा बढ़ेगी उतनी-उतनी निराकुल दशा का लाभ होगा। आकुलता को छोड़ने का नाम ही मुक्ति है। आकुलता के जो कार्य हैं आकुलता के जो साधन हैं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव, इन सबको छोड़कर जहाँ निराकुल भाव जागृत हो वह अनुभव ही निर्जरा और मुक्ति है। आपने तो शायद समझ रक्खा है कि कहीं कोई कोठी या भवन बना हुआ है वहाँ जाना है, ऐसा नहीं है, कोई भवन नहीं है भइया। मोक्ष तो यहीं है आत्मा में है।


    मोक्ष आत्मा से पृथक् तत्व नहीं है। आत्मा का ही एक उज्वल भाव है। वह फल के रूप में है। सभी का उद्देश्य यही है कि अपने को मोक्ष प्राप्त करना ‘जिस समय मोक्ष होने वाला है उस समय हो जायेगा। मुक्ति मिल जायेगी। प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। प्रयास करने से कैसे मिलेगी, प्रयास करना फालतू है'-ऐसा कुछ लोग कह देते हैं। ठीक है भइया, यदि नियत ही आपका जीवन बन जाये तो मैं उस जीवन को सौ-सौ बार नमन करूं । आप प्रत्येक क्षेत्र में नियत अपनाओ, जो पर्याय आने वाली है वह उसी समय आयेगी, अपने को क्या करना' होता स्वयं जगत् परिणाम'- अभी तो जीवन में 'मैं करता जग का सब काम'- सारा काम तो कर रहे हैं आप।

    मुक्ति मिल जायेगी। यदि सारी की सारी पर्यायें नियत हैं तो फिर इधर-उधर भाग क्यों रहे हैं आप। आज आधी सभा जुड़ी है, कल पूरी ठसाठस भरी थी और अगले दिन सब खाली। सब यहाँ-वहाँ चले जायेंगे, यहाँ तो पाश्र्वनाथ भगवान् रह जायेंगे जो मुक्त हैं। यदि सब नियत है तो फिर जाना कहाँ? प्रत्येक समय में प्रत्येक पर्याय होती है और वह पर्याय नियत है। यदि यह श्रद्धान हो जाये तो मुक्ति दूर नहीं परन्तु आपका जहाँ मन आया वहाँ नियतिवाद को अपना लिया और जहाँ इच्छा हुई, नहीं अपनाया। यह ठीक नहीं है।


    मान लो, बारह बजे रोजाना खाना खाते हैं आप, तो बारह बजे बिल्कुल नियत है आपका खाना। बारह बजे बैठ जाओ और अपनी पत्नी और रसोइये को भी कह दो कि बारह बजे तो खाने का नियत समय है, क्यों पसीना-पसीना हो रहे हो, बैठ जाओ आराम से कुसी के ऊपर, तुम्हें भी एक थाली आ जायेगी और मुझे भी आ जायेगी। आयेगी, समय से आयेगी। इसमें क्या जल्दी करना। दृढ़ श्रद्धान के साथ बैठ जाओ आप। लेकिन ऐसा कहाँ करते हैं आप। कह देते हैं कि देर हो जायेगी, जल्दी-जल्दी रसोई बनाओ, बारह बजे खाना है और अभी तक रसोई नहीं बनायी, दस मिनट रह गये, जल्दी करो जल्दी करो, देर हो जायेगी। ऐसा आप समय से पहले ही रसोइये को कहते हैं कि नहीं। समय से पहले ही उतावली करने लगते हैं। क्रोध आने लगता है। ध्यान रखी नियतिवादी को क्रोध नहीं आता। किसी की गल्ती भी नजर नहीं आती। उसके सामने प्रत्येक पर्याय नियत है।


    देखो, जानो, बिगडो मत- यह सूत्र अपनाता है वह। देखता रहेगा, जानता रहेगा लेकिनबिगड़ेगा नहीं और आप लोग बिगड़े बिना नहीं रहते। आप देखते भी हैं, जानते भी हैं और बिगड़ जाते हैं इसलिए नियतिवाद को छोड़ देते हैं। भगवान् ने जो देखा वह नियत देखा, जो भी पर्याय निकली यह सब भगवान् ने देखा था, उसी के अनुसार होगा। तब फिर क्रोध, मान, माया लोभ के लिए कोई स्थान नहीं है। यदि आप क्रोध करते हैं तो अर्थ यह हुआ कि सारी की सारी व्यवस्था पर पानी फेर दिया। नियतिवाद को नकार दिया।


    एक बुढ़िया थी। बहुत संतोषी थी। खाती-पीती और सो जाती। पैसा बहुत था उसके पास। चोरों को मालूम हुआ तो उन्होंने बुढ़िया के घर चोरी की बात सोच ली। चार पाँच चोर गये, देखा बुढ़िया तो सोई हुई थी। उन्होंने सोचा ठीक है, पहले बुढ़िया के घर भोजन कर लें फिर बाद में देखेंगे। उन्होंने भोजन कर लिया, सब कुछ लेकर चलने लगे उसी समय कुछ गिर गया और आवाज होते ही बुढ़िया ने जोर से कहा कि हे भगवान् बचाओ । आवाज सुनकर आसपास जो भी लोग थे, आ गये।

    अब चोर क्या करें। बाहर तो भाग नहीं सकते इसलिए इधर-उधर छिप गये। पडोसी आकर के पूछते हैं बुढ़िया से कि माँजी क्या बात हो गयी। आपके यहाँ कुछ हो गया क्या ? तब बुढ़िया ने जवाब दिया कि मैं क्या जानूँ सब ऊपर वाला (भगवान्) जाने। लोग समझे कोई ऊपर होना चाहिए। सबने ऊपर देखा तो वहाँ चोर बैठा था। उसने सोचा मैं क्यों फंसू। उसने कहा कि दरवाजे के पीछे छिपा है। दरवाजे के पीछे वाला कहता है वह बोरी के पीछे छिपा है जो, वह जाने। बोरी के पीछे वाला रसोई की तरफ इशारा कर देता है, इस प्रकार सभी चोर पकड़ में आ गये। जब दंड देने वाली बात आती है तब बुढ़िया कह देती है कि हम क्या, वही ऊपर वाला जाने। दंड देने का अधिकार भी हमें नहीं है। जो है सो है, वह भगवान् जाने। यदि ऐसा समता परिणाम आ जाये तो आप को भी कर्म रूपी चोरों से छुटकारा मिल सकता है।


    नियतिवाद का अर्थ यही है कि अपने आप में बैठ जाना, समता के साथ। कुछ भी हो परिवर्तन परन्तु उसमें किसी भी प्रकार का हर्ष-विषाद नहीं करना। प्रत्येक कार्य के पीछे यह संसारी प्राणी अहं बुद्धि या दीनता का अनुभव करता है। कार्य तो होते रहते हैं लेकिन यह उसमें कर्तृत्व भी रखता है। हमारे भगवान् कर्तृत्व को एक द्रव्य में सिद्ध करके भी बाह्य कारण के बिना उसमें किसी भी कार्य रूप परिणत होने की क्षमता नहीं बताते। कार्य रूप जो द्रव्य परिणत होता है इसमें बाहर का भी कोई हाथ है ऐसा जानकर कोई भी व्यक्ति अभिमान नहीं कर सकेगा। यह नहीं कह सकेगा कि मैंने ही किया। दूसरी बात बाह्य कारण ही सब कुछ करता हो, ऐसा भी नहीं है। कार्य रूप ढलने की योग्यता उपादान में है इसलिए दीनता भी नहीं अपनाना चाहिए।


    इस प्रकार दीनता और अहं भाव दोनों हट जाते हैं और कार्य निष्पन्न हो जाता है। ‘मैं कर्ता हूँ।' यह भाव निकल जाये। समय पर सब होता है,'मैं' करने वाला कौन- यह भाव आ जाये तो समता आ जायेगी। और सब दूसरे के आश्रित हैं, मैं नहीं कर सकूंगा ऐसा भाव भी समाप्त हो जायेगा।


    आम पकने वाला है। आम में पकने की शक्ति है। मिठास रूप परिणमन करने की शक्ति है, रस रूपी गुण उसमें है। अब देखो आम कब लगते हैं। जब आम लगते हैं और छोटे-छोटे रहते हैं तब संख्या में बहुत होते हैं। यदि उस समय आप उन्हें तोड़ लो तो क्या होगा। रस नहीं मिलेगा क्योंकि वे अभी पके नहीं हैं। दो महीने बाद पकेंगे। अब यदि कोई सोचे कि ठीक है अभी तोड़ लो, दो महीने बाद तो पकना ही है, पक जायेंगे। भइया! पकेंगे नहीं बेकार हो जायेंगे। यह क्यों हुआ? आम के पास पकने की क्षमता तो है और दो महीने चाहिए। पकने के लिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें अभी तोड़कर दो महीने बाद पका लो। वे तो वहीं डंठल के ऊपर टहनी के ऊपर लगे रहें तभी पकेंगे। बाह्य निमित्त भी आवश्यक है। दो महीने तक उगते रहें, हवा पानी खाते रहें, सूर्य प्रकाश लेते रहें तभी पकेंगे।

    इतना अवश्य है कि सभी आमों का नम्बर एक साथ नहीं आयेगा इसलिए यदि आप चाहें तो दो महीने से पंद्रह दिन पहले तोड़कर एक साथ पाल में रख दें, पाँच दिन तक, जो बिल्कुल एक साथ पककर आ जायेंगे। दो महीने तक ही डाल पर लगे रहें यह भी नियम नहीं रहा और दो महीने पहले तोड़कर रख लें तो पकेंगे, यह भी नियम नहीं रहा। योग्यता और बाह्य निमित्त दोनों को लेकर ही कार्य होगा।


    मुक्ति के लिए आचार्यों ने बताया है कि हम ऐसे पकने वाले नहीं हैं। जिस प्रकार आम डाली के ऊपर पक जाते हैं। इस प्रकार संसार में लटकते-लटकते हमें मुक्ति नहीं मिलेगी। ‘पाल विषे माली' ऐसा बारह भावनाओं के चिंतन करते समय निर्जरा भावना में कहा है। जो आसन्न भव्य है वह अपने आत्म पुरुषार्थ के माध्यम से तप के द्वारा आत्मा को तपाकर अविपाक निर्जरा कर लेता है और शीघ्र मुक्ति पा जाता है, यही मोक्ष तत्व का वास्तविक स्वरूप है।


    एक बात और कहता हूँ अपनी। काम कुछ करना न पड़े और लाभ प्राप्त हो जाये इसलिए हमने एक दूसरे को कह दिया कि तुम आम तोड़ो और तोड़ने के उपरान्त कच्चे ही आधे तुम्हारे और आधे हमारे हैं। हिस्सा कर लिया। अब उन्हें पकाने का ठिकाना भी अलग-अलग कर लिया किन्तु उतावलापन बहुत था। शाम को पकाने पाल में डाले और सुबह उठकर उनको दबा-दबाकर देखा कि पक गये। दो दिन में ही सारे आम मुलायम तो हो गये पर हरापन नहीं गया और मीठापन भी नहीं आया। पकने का अर्थ होता है कि मीठापन और मुलायमपन आना चाहिए।


    कुछ नहीं मिला सारा काम बिगड़ गया। ध्यान रहे एकाग्रता न होने से कुछ नहीं मिल पाता। एकाग्र होकर साधना करनी चाहिए। निराकुल होकर साधना करनी चाहिए। यहाँ तक कि आप मोक्ष के प्रति भी इच्छा मत करना। इच्छा का अर्थ है संसार और इच्छा का अभाव है मुक्ति। मुक्ति कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे पाने कहीं जाना है, वह मुक्ति तो निराकुल भावों का उद्घाटन करना है अपने अंदर।
     

    आज तक राग का बोलबाला रहा है। वास्तव में देखा जाये तो संसारी प्राणी के दुख का कारण है राग। 'संसार सकल त्रस्त है आकुल विकल है और इसका कारण एक ही है कि/ हृदय से नहीं हटाया विषय राग को, हमने हृदय में नहीं बिठाया, वीतराग को, जो है शरण तारण-तरण।' अत: अपने को वीतरागता को अपने हृदय में स्थान देना चाहिए और राग को हटाना चाहिए। राग के हटने पर ही वीतरागता आयेगी। जहाँ राग रहेगा वहाँ वीतराग अवस्था नहीं है, राग में धीरे-धीरे कमी लायें। राग में कमी आते-आते एक अवस्था में राग समाप्त हो जायेगा और पूर्ण वीतराग-भाव प्रकट होंगे। वह प्राणी स्वभावनिष्ठ बनेगा और सारा संसार नतमस्तक हो जायेगा।

    सुख को चाहते हुए भी हम राग को नहीं छोड़ पाते इसलिए दुख को नहीं चाहते हुए भी दुख पाते हैं। राग है दुख का कारण। सुख का कारण है वीतराग। दोनों ही कहीं बाहर से नहीं आते। राग बाहर की अपेक्षा अवश्य रखता है किन्तु आत्मा में ही होता है और वीतराग भाव ‘पर' की अपेक्षा नहीं किन्तु आत्मा की अपेक्षा रखता है। बाह्य की अपेक्षा का अर्थ है संसार और आत्मा की अपेक्षा का अर्थ है मुक्ति। यदि अपेक्षा मात्र आत्मा की रही आये और संसार से उपेक्षा हो जावे तो यह प्राणी मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं।


    मुक्ति पाने का उपक्रम यही है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र-को अपनाकर निग्रन्थता अपनायें। सब ग्रंथियां खोल दें। एकाकी होने का प्रयास करें। कोई व्यक्ति देश से देशान्तर जाता है तो सीमा पर उसकी जांच की जाती है कि कहीं कोई आपत्तिजनक चीज तो लेकर के नहीं जा रहा। इसी प्रकार मुक्ति का मार्ग भी ऐसा ही है कि आप कुछ छिपाकर ले नहीं जा सकते। बाह्य और अंतरंग सभी प्रकार के संग को छोड़कर जब तक आप अकेले नहीं होओगे तब तक मुक्ति का पथ नहीं खुलेगा।


    सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ये वीतरागता के प्रतीक हैं। इन तीनों के साथ कोई बाह्य आडम्बर नहीं रह सकेगा, सांसारिक परिग्रह नहीं रहेगा। एक मात्र शरीर शेष रह जाता है और उसे भी परिग्रह तब माना जाता है जब शरीर के प्रति मोह हो । शरीर को मात्र मोक्षमार्ग में साधक मानकर जो व्यक्ति चलता है वह व्यक्ति निस्पृह है और वही मुक्ति का भाजक बन सकता है। एक द्रव्य-मुक्ति होती है और दूसरी भाव मुक्ति। द्रव्य-मुक्ति, भाव-मुक्तिपूर्वक ही होती है। अर्थात् भाव-मुक्ति हुए बिना द्रव्य-मुक्ति नहीं होती। द्रव्य-मुक्ति का अर्थ है नोकर्म अर्थात् शरीर और आठ कर्मों का छूटना। और भाव-मुक्ति का अर्थ है मोह-भाव का हट जाना। दो व्यक्ति हैं और दोनों के पास एक-एक तोला सोना है। मान लो, उसमें एक बेचने वाला है, दूसरा बेचने वाला नहीं है। तो जो बेचने वाला नहीं है वह भावों की तरफ ‘सोने के' भाव की तरफ नहीं दौड़ेगा किन्तु जो बेचने वाला है वह भावों की ओर भाग रहा है, उसे सोने का अभाव है नींद नहीं आती ठीक से। तो सोने के लिए अर्थात् नींद लेने के लिए सोने के भाव की तरफ मत देखो, सोना तब भी ज्यों का त्यों रहेगा।


    मोहभाव का हट जाना ही मुक्ति है। जो भी दृश्य देखने में आ रहे हैं उन सभी के प्रति मोह हटना चाहिए। जिन-जिन वस्तुओं के प्रति आपका मोह है वही तो संसार है, और जिन-जिन पदार्थों के प्रति मोह नहीं है उन-उन पदार्थों की अपेक्षा आप मुक्त हैं। पड़ोसी के पास जो धन-पैसा है उससे आपका कोई सरोकार नहीं है लेकिन आपने अपने पास जी रख रक्खा है उसमें आपने अपना स्वामित्व माना है, उस अपेक्षा से आप बंधे हैं मुक्त नहीं हैं। मोह का अभाव हो जाये तो आज भी मुक्ति है, उसका अनुभव आप कर सकते हैं।

    आज भी रत्नत्रय के आराधक, रत्नत्रय के माध्यम से अपनी आत्मा को शुद्ध बनाने वाले साधक, ऐसे मुनि महाराज हैं। जो आत्म-ध्यान के बल पर स्वर्ग चले जाते हैं और वहाँ इन्द्र या लौकान्तिक देव होते हैं और फिर मनुष्य होकर मुनि बनकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। मुक्ति आज भी है और ऐसी मुक्ति कि जैसे कोई यहाँ से देहली जा रहा है, एकदम एक्सप्रेस से लेकिन वह एक्सप्रेस गाडी बीच में रुक कर के जाती है, पटरी नहीं बदलती, उसी पटरी पर चलती है लेकिन कुछ विश्राम लेती है डायरेक्ट (सीधे) नहीं जाती। आज डायरेक्ट मुक्ति तो नहीं है बीच में इन्द्र रूप या लौकान्तिक रूप स्टेशन पर रुकना पड़ता है। यह रुकना, रुकना नहीं कहलाता क्योंकि वह उस मोक्ष पथ से च्युत नहीं हुआ अर्थात् सम्यग्दर्शन छूटता नहीं है, इसलिए रत्नत्रय की जो भावना यहाँ भायी है वह रुकने के उपरान्त भी बनी रहती है। भावना रहती है कि कब रत्नत्रय मिले। इस प्रकार एक-एक समय बीतता है और श्रुत की आराधना करते हुए इन्द्र या लौकान्तिक आदि देव अपना समय व्यतीत करते हैं।


    बंधुओ! मुक्ति का मार्ग है तो मुक्ति अवश्य है। आज भी हम चाहें तो रागद्वेष का अभाव कर सकते हैं। संसारिक पदार्थों की अपेक्षा जो किसी से रागद्वेष नहीं है वही तो मुक्ति की भूमिका है। यह जीवन आज बन सकता है। सिद्ध परमेष्ठी के समान आप भी बन सकते हैं। अभी आपकी रुचियाँ अलग हो सकती हैं | धारणा अलग हो सकती हैं | विशवास अलग हो सकता हैं | किन्तु यदि व्यक्ति चूक जाता है तो अन्त में पश्चाताप ही हाथ लगता है। यह स्वर्ण जैसा अवसर है। यह जीवन बार-बार नहीं मिलता इसकी सुरक्षा, इसका विकास, इसकी उन्नति को ध्यान में रखकर इसका मूल्यांकन करना चाहिए।


    जो व्यक्ति इसको मूल्यवान समझता है वह साधना-पथ पर कितने ही उपसर्ग और कितने ही परीषहों को सहर्ष अपनाता है। महावीर भगवान् ने जो रास्ता बताया, बताया ही नहीं बल्कि उसी रास्ते से गये हैं वह रास्ता उपसर्ग और परीषहों में से होकर गुजरता है। मुनिराज इसी रास्ते पर चलते हैं। यह रास्ता वातानुकूल हो सारी की सारी सुविधाएँ हों ऐसा नहीं है। मोक्षमार्ग तो यही है जो परीषह-जय और उपसर्गों से प्राप्त होता है।


    उत्साह के साथ, खुशी के साथ अपना तन-मन-धन सब कुछ लगाकर मुक्ति का मार्ग अपनाना चाहिए। इस बार निश्चय करें कि हे भगवान् अपने को किस प्रकार मुक्ति मिले। मुक्ति तो अविपाक निर्जरा का फल है और अविपाक निर्जरा तप के माध्यम से होती है तो हम तप करें। भगवान से प्रार्थना करें और निरन्तर भावना करें कि हमारे मोहजन्य भाव पलट जायें और मोक्षजन्य भाव जो हैं, जो निर्विकार भाव हैं, वे जागृत हों।
     


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    प्रत्येक संसारी प्राणी अपने दोषों को मंजूर नहीं करता और न ही उन दोषों का निवारण करने का प्रयास करता है। किन्तु मोक्षमार्ग का पथिक वही है इस संसार में जो अपने दोषों को छोड़ने के लिए और स्वयं अपने हाथों दंड लेने के लिए हर क्षण तैयार हो।

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