महाव्रत विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- अहिंसा महाव्रत सभी व्रतों का मूल है, इसलिए अहिंसा को परम धर्म कहा है। इस भव में ही इसका पालन हो सकता है।
- महाव्रतियों की शोभा अपनी काय से ममत्व हटाकर छहकाय के जीवों की रक्षा करने में है।
- व्रत, समिति, तपादि अहिंसा महाव्रत की वृद्धि (रक्षा) के लिए ही होते हैं।
- जिस प्रकार गाड़ी एक बार खरीदी जाती है, लेकिन उसमें पेट्रोल बार-बार डाला जाता है। ठीक उसी प्रकार महाव्रत एक बार लिए जाते हैं पर उनकी पाँच-पाँच भावनाओं को बारबार चिन्तन में लाना पड़ता है।
- संकल्पपूर्वक महाव्रत लेने वाले की उपयोग प्रणाली बहुत शुद्ध हुआ करती है।
- महाव्रत निवृत्ति रूप है, पाँच पाप की निवृत्ति का नाम महाव्रत है।
- तीन गुप्ति, पाँच समिति ये आठ मातायें महाव्रती रूप बालक का पालन करती हैं।
- व्रती को भावों के माध्यम से मन से भी विदेश नहीं जाना चाहिए।
- दिग्व्रत के माध्यम से निष्प्रयोजन पाप से बच जाते हैं।
- दिशाओं की सीमा बाँध लेने पर उसके बाहर के पाप से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है।
- मोह को काटने का अमोघ शस्त्र है व्रत-संकल्प।
- संकल्प लेने से पूर्व में बंधे कर्म भी हिलने लगते हैं।
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