मोक्षमार्गी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- कहीं के, न होना ही मोक्षमार्गी होना है किसी से भी बंधकर न रहना। बंधकर रहना हो तो देव,शास्त्र व गुरु से यही मोक्षमार्ग है।
- जिसने मोह को छोड़ दिया, उसे कभी भी धोखा नहीं हो सकता।
- मोह पर प्रहार भेदविज्ञानी ही कर सकता है और मोह छोड़ते समय वह खुश होगा।
- मोक्षमार्ग में अंतर्मुहुर्त में प्रयोग में गया बस स्वयं प्रमाण बन गया। प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं। शोध वही है जो किसी के प्रमाण सिद्धि की आवश्यकता नहीं रखता।
- स्वानुभूति में जगत् से सम्पर्क तोड़ना पड़ता है।
- मोक्षमार्ग में राह के अनुसार चाह चलेगी, अपने मन की चाह नहीं चलेगी।
- संकल्प जिस ओर जाने का है उसी लक्ष्य की ओर जाना, बीच में कितने भी प्रलोभन आवे मन को वहाँ रोकना नहीं, डिगाना नहीं।
- जैसे रोगी को थोड़ी-सी अनुकूलता देनी पड़ती है ताकि उल्टी न हो जावे लेकिन रोगी के अनुसार नहीं चला जाता। मन ही सर्वप्रथम रोग का घर है।
- कभी कठोर चर्या से कभी मृदु चर्या से मन को बाँधा जाता है।
- मन ही ऐसा है जो आपकी सारी कमजोरियाँ जानता है और आपको (आत्मा को) दबाता जाता है। मन को दबाने वाला ही मोक्षमार्गी हो सकता है।
- जब तक साधना पूर्ण न हो जावे तब तक मन पर विश्वस्त मत होईये। जैसे इमली का पेड़ भले बूढ़ा हो जावे पर इमली की खटाई कम नहीं होती, वैसे ही शरीर भले बूढ़ा हो जावे पर मन कभी बूढ़ा नहीं होता।
- गाल पुचक जाते हैं बुढ़ापे में पर मन और मोटा होता जाता है। मन औरों को समझाता है पर स्वयं समझने तैयार नहीं होता। तप करो पर मन के अनुरूप नहीं।
- आत्मा को स्वच्छ, स्वतंत्र बनाना चाहते हो तो मन पर लगाम लगाओ।
- मोक्षमार्ग में परीक्षाओं पर परीक्षायें हैं।
- जैसे मिलेट्री में कौन साथ जाता है कोई नहीं ? बंदूक। नौ-नौ दिन तक पानी नहीं मिलता, नींद नहीं, खांस भी नहीं सकते। भोजन का भी ठिकाना नहीं रहता। वतन की रक्षा के लिए ऐसा ही करना होता है, तन को गौण करना होता है, ऐसा ही मोक्षमार्ग में धर्म की रक्षा के लिए करना होता है।
- विद्यारथ पर आरूढ़ होकर मनोवेग को रोककर जिनधर्म के मार्ग पर चलना यही निश्चय प्रभावना है। इस प्रभावना का स्रोत भीतर है। इसी स्रोत के बारे में सोचिये, इसी से कुछ मिलने वाला है।
- मोक्षमार्गी को ऐसे साधन सामग्री नहीं रखना चाहिए जो उपयोगी न हों।
- पास की वस्तु (आत्मा) के बारे में ही सोचिये पर की ओर मत जाईये।
- प्रशंसा, निन्दा दोनों में समता रखना; मोक्षमार्ग में एक ही कोर्स है।
- सही-सही श्रद्धान आचरण के बाद बनता है।
- ऐसी साधना करो जो भविष्य को निश्चित कर दे, जो भविष्य के बारे में संदेह पैदा कर दे वैसी साधना मत करो। वर्तमान की गोद में ही भविष्य को आना है। ज्ञानी का (मोक्षमार्गी का) स्वरूप यही है कि जो विषयों के बीच में रहकर भी कीचड़पन को ग्रहण नहीं करता।
- तत्व का परायण करने के लिए स्वाध्याय का नियम लें। स्वाध्याय कहाँ से प्रारम्भ होता है? स्व से, मैं कौन हूँ?
- मोक्षमार्ग में प्रलोभन बहुत मिलते हैं, प्रलोभन में नहीं आना चाहिए |
- श्रद्धान के विषयों पर चल पड़ो मंजिल पा जाओगे, बीच में सुख सुविधाओं की ओर चले जाओगे तो भटक जाओगे।
- बहुत दूर तक न चलो थोडा ही चलो, पर सीधा तो चलो, युक्ति से चलो गुप्ति से चलो।
- मोक्षमार्ग में इतना आनंद है तो मोक्ष में कितना आनंद होगा अनुमान लगाओ।
- आज का सुख कम नहीं बस दुनिया से अवकाश लें।
- मोक्षमार्ग में सुख-सुविधा ढूँढना एक अविवेक माना जावेगा।
- बिना पढ़े लिखे भी मोक्षमार्ग पर आरुढ़ होते हैं, बस विनय और लगन चाहिए।
- संसार की लोभ-लिप्सा के लिए नहीं बल्कि आत्मोपलब्धि के लिए साधना करनी चाहिए। कौन-सी वस्तु है संसार में जो साधना से प्राप्त नहीं की जा सकती? लेकिन सच्ची साधना होनी चाहिए।
- जब साधना करने से अनंत काल की दरिद्रता मिट जाती है तब संसार का सारा वैभव उसके सामने फीका लगने लगता है।
- सही रास्ता मिलने पर, सहारा मिलने पर भी यदि आप उसका दुरुपयोग करेंगे तो कल्याण नहीं होने वाला। अपना पुरुषार्थ मात्र आत्मोपलब्धि में होना चाहिए। प्रत्येक श्वांस में आत्मा की बात करते जाओ फिर अंत में मात्र आत्मा ही रह जाती है सब छूट जाता है। इन क्षणों को दुनिया के कार्यों में नहीं लगाना।
- दुनिया में रहकर दुनिया का नहीं बल्कि अपने उत्थान का विकल्प होना चाहिए। आत्म ध्यान के लिए दुनिया के दंद-फंद छोड़ देना चाहिए।
- तनाव, पर पदार्थ को पाने में होता है, आत्म तत्व को पाने में तनाव गायब हो जाता है। एक बार ऐसा भोजन करो कि अनादि की भूख मिट जावे।
- शरीर, वचन, स्पर्श के बिना अपना परिचय ज्ञात करना है, वह एकान्त में बैठकर ज्ञात होता है। वह अलग ही लोक है, जिसे हमने स्वयं बनाया है।
- ऐसी चीज उपलब्ध करो फिर दुबारा अन्य कोई चीज उपलब्ध न करना पडे।
- जिसे अपनाया हो तो उससे सुख-दु:ख होगा, अपरिचित चला जाता है तो आपमें कोई परिवर्तन नहीं आता। अनुभव स्व का ही होता है पर का अनुभव तब होता है जब हम उससे सम्बन्ध जोड़ लेते हैं।
- यदि भीतरी साधना जीवित है तो अभिशाप वरदान बन जाता है।
- इस शरीर से भी साधना नहीं हुई तो यह वरदान अभिशाप सिद्ध हो जाता है।
- ज्ञान साधना में यश, ख्याति, विषयों की बात नहीं आती मात्र आत्मा की बात आती है।
- मैं कितना चल चुका हूँ। यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि किस दिशा में चल रहा हूँ। यह देखना महत्वपूर्ण है।
- दूसरों को मोक्षमार्ग पर चलाने के भाव रखते हो तो पहले स्वयं को निर्दोष होना/चलना चाहिए।
- जो मोक्षमार्ग पर आरुढ़ होता है, उसे नरक, तिर्यच और मनुष्यायु का बंध नहीं होता।
- इस मार्ग में कोई शर्त नहीं अपना मन बस अपने में रहे, अपना बना रहे। दुनिया का सपना उसमें न रहे। फिर सोलह स्वप्न देखने वालों के यहाँ जन्म हो जावेगा।
- मोक्षमार्ग प्रत्यक्ष नहीं होता, उसे दिखाया नहीं जा सकता। आत्म-संतुष्टि तभी होगी जब हम आत्मा की बात करेंगे।
- मोक्षमार्ग में शारीरिक विज्ञान महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि भेदविज्ञान, आत्मज्ञान महत्वपूर्ण है।
- कितने चल गये यह नहीं देखना बल्कि कितना और चलना है यह याद रखिये। इसमें दीर्घकालीन साहस की आवश्यकता है, बीच में साहस नहीं खोना।
- स्वयं को, आत्म तत्व को सुरक्षित रखना है और कर्मों को जलाना है यही मोक्षमार्ग है। उद्देश्य मात्र कषायों का शमन करना है। दृष्टि लक्ष्य की ओर होना चाहिए अन्य सब गौण होना चाहिए।
- इस मार्ग में आरती ही नहीं आक्रोश परिषह भी सहन करना होता है उसे भी फूलमाला के समान स्वीकारना चाहिए तभी मोक्षमार्ग चलता है।
- साधना के मार्ग में साधन जुटाना मार्ग को कठिन बनाना है।
- मोक्षमार्ग में उनसे मोह रखो जो गुणों में श्रेष्ठ हैं।
- मोक्षमार्ग में बाहर से कुछ प्राप्त नहीं होता, भीतर से उद्धाटित करना होता है।