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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. जिनवाणी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिनकी आजीविका का साधन जिनवाणी है, वे कभी सत्य नहीं बोल सकते हैं। जरा विचार करो जिनवाणी से चेतन या वेतन, स्वाध्याय या व्यवसाय किसकी बात कर रहे हो? जिन ग्रन्थों को पढ़ने से विषय-कषायों का पोषण और आजीविका का साधन हो जाये वह स्वाध्याय नहीं है। जिनवाणी को पढ़ने से ज्ञात होता है कि हमारी आत्मा के ऊपर कितनी धूल है उसे कैसे दूर कर सकते हैं। जिनेन्द्र भगवान के वचन अर्थात् जिनवाणी एक प्रकार की औषधि है जो विषय सुखों को विरेचन करने वाली है तथा जन्म-मरण के रोगों को दूर करती है। जिस प्रकार मार्ग में चलने वाले के लिए पाथेय (नाश्ता) आवश्यक होता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में चलने वाले के लिए पाथेय के रहते हुए मोक्षमार्ग के पथिक की यात्रा निरापद हो जाती है। यह जिन-शास्त्र उस मील के पत्थर के समान माने गये है, जो राहगीर को सही-सही गन्तव्य तक भिजवा देते हैं। श्रुत के पाठ, जाप, ज्ञान और ध्यान में काफी अन्तर है। जैसे 'णमो अरिहंताणं' आदि पद का लय के साथ उच्चारण करना पाठ कहलाता है। अरिहंतादि पंच परमेष्ठियों का स्मरण करना जाप कहलाता है। अरिहंत आदि परमेष्ठियों का क्या स्वरूप है? ये पद कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं? यह जानना ज्ञान है और चित्त का उन्हीं के साथ एकीभाव हो जाना ध्यान है। यह सब विशेषताएँ हमें शास्त्रों से ही ज्ञात होती है। जिसने अनेक शास्त्रों को पढ़कर भी स्व को प्राप्त नहीं किया, उसका शास्त्र अध्ययन से संकल्प शक्तिशाली हो जाता है। मात्र जनेऊ पहनने से कोई उच्च नहीं होता किन्तु जिनवाणी की आज्ञा पालन करने वाला स्नत्रय के द्वारा आत्मा को संस्कारित करके उच्चता को प्राप्त करता है। माता-पिता कुछ क्षण के लिए ही काम आते हैं किन्तु पवित्र जिनवाणी माता ये वीतरागी गुरु भव-भव से काम आ रहे हैं। सिद्धान्त कभी भी वक्ता के घर का नहीं चलता। जैसे घर की दुकान हो सकती है, लेकिन नापतौल घर का नहीं हो सकता। जिनवाणी की सेवा तो जिनलिंग धारण करके ही करना सर्वोत्तम है। आज विश्व में वित्त ज्यादा होने से विद यानि ज्ञान का अवमूल्यन होता चला जा रहा है। उसी कारण से आज जिनवाणी का ज्ञान न होने से जिनाणी के प्रति आदर नहीं है, सत्य की पहचान नहीं है, पापों से भय नहीं है और सारी दुनिया भर से भय बढ़ता जा रहा है। यदि सम्यक् ज्ञान की रक्षा चाहते हो तो उस जिनवाणी माँ की रक्षा करो। कर्म सिद्धान्त के ग्रन्थों का सावधानी के साथ अभ्यास कर लेना चाहिए। संक्लेश के साथ नहीं। कर्मकाण्ड आदि सैद्धांतिक ग्रन्थों को बड़े उल्लास के साथ पढ़ना चाहिए। श्रद्धान और विशुद्धि के साथ पढ़ना चाहिए। जिस समय चिड़चिड़ापन हो, मन अच्छा न हो तो कर्म सिद्धान्त नहीं पढ़ना चाहिए। उस समय भावना परक ग्रन्थ जो हैं उनको पढ़ना चाहिए। आगम तो हमारे लिए आंख के समान है जिससे देखकर हम हितकर कार्य में जुट जाते हैं। जिनबिम्ब के दर्शन से, जिनवाणी के श्रवण से जब सर्प भी जहर छोड़ सकता है तब इस आत्मा के अन्दर भरे हुए मोह-मिथ्यात्व के जहर को हम कैसे दूर नहीं कर सकते हैं? दुर्वचन सुनने का प्रयास करना चाहिए हमारे अंदर यह क्षमता है या नहीं यह देख लेना चाहिए। परीक्षण कर लेना चाहिए और यदि जिनवाणी के ऊपर श्रद्धान है तो यह श्रद्धान भी कर लेना चाहिए कि इसके द्वारा मेरी असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा हुई है और मेरा विकास/उन्नति हुई है। यह जिनवाणी नौका के समान है जो इस छोर से उस छोर तक पहुँचाने वाली है। ‘आत्मानं अधि वर्तते इति अध्यात्म।” अर्थात् आत्मा के जो निकट रहता है।
  2. चिन्तन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार चिन्तन आज खो सा गया है, चिन्तन के स्थान पर चिंता होने से बच्चे आज घबड़ा रहे हैं। चिन्तन में गहराई, प्रौढ़ता, गंभीरता आ जाती है। महत्वपूर्ण बिन्दु उसमें आ जाये तो वो कहलाता है चिंतन। अनुप्रेक्षा-इसमें विस्तार नहीं होता और उसका सार सामने आ जाता है। उदाहरण के मध्यम से बहुत दिन बाद भी विषय वस्तु याद रहती है। स्वाध्याय मात्र से कर्म निर्जरा नहीं होती है। इसका फल तो वो है कि कर्मास्त्रव रुके, तब ही कर्म निर्जरा होती है। पढ़ना ही स्वाध्याय है, यह बात ठीक नहीं होती है। तत्व चिन्तन आदि करना भी स्वाध्याय है। आर्त-रौद्र ध्यान नहीं कर रहा है और शांति से बैठा है, तो यह भी सबसे बड़ा स्वाध्याय है। स्वाध्याय तो करो लेकिन कौन करा रहा है ये भी देखो। स्वाध्याय तो कर रहा है, लेकिन आवश्यकों का पालन नहीं कर रहा है, तो वह सही स्वाध्याय नहीं कर रहा है। आवश्यकों का पालन करना तो स्वाध्याय का फल है। दिन भर यदि अपनी प्रशंसा करता है तो प्रतिक्रमण के माध्यम से अपनी निंदा भी अच्छे ढंग से कर लेना चाहिए। प्रतिक्रमण में स्वाध्याय कूट-कूट कर भरा हुआ है। मैं पापी हूँ, मायावी हूँ इसकी तो माला भी फेर लेना चाहिए। इस प्रकार हमारे द्वारा सोचा जाये तो आँखों से आँसू आ जायें पश्चाताप होना चाहिए। अर्थ को समझते हुए प्रतिक्रमण करना ये सबसे बड़ा स्वाध्याय है। एक आचार्य प्रणीत ग्रंथ का स्वाध्याय हमेशा चलना चाहिए क्योंकि इस प्रकार के ग्रन्थों से वैराग्य, संवेग बना रहता है। जो वैराग्यशील होते हैं उनको अच्छे अध्यात्म ग्रन्थों का अध्ययन करा देना चाहिए या कर लेना चाहिए। प्रारम्भ में यदि न्याय ग्रंथ लगा देते हैं तो उसकी तर्कणा बढ़ जाती है। उसकी भाषा समिति भी बिगड़ जाती है। स्वाध्याय का फल कर्मों की निर्जरा करना और अशुभ कर्मों से अपने को सदा बचाये रखना है नहीं तो स्वाध्याय निरर्थक है।
  3. गाय और किसान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार किसान के पास गौधाम है और बनिया के पास गोदाम है। किसान के खेत से कोई कुछ ले लेता है तो उसे क्रोध नहीं उदारता रहती है, स्वयं बुलाकर खिलाता है, वह क्योंकि उत्पादक वह स्वयं है जबकि बनिया की दुकान में उसने एक-एक पैसा संचय करके सामान खरीदा है वह बिना पैसे के कुछ नहीं देगा। ताला-कुंजी नाप-तौल की ओर रखेगा। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि के विभाजन के कारण परिणामों में कमी है। क्षत्रिय उपसर्गों, परीषहों को झेलेगा, बनिया उपसर्गों, परीषहों से हटेगा। गाय घास-पूस खाकर मीठा दूध देती है दूध कभी कड़वा नहीं होता मनुष्य खाते तो मीठा और शब्द कड़वे उगलते हैं ऐसी ये कौन-सी फैक्टरी है। आपके बारे में वे क्या-क्या सोचते हैं, ये नहीं समझते, वे (पशु, गाय) रात दिन भी लाभ की भावना भाते हैं। नगाड़े की आवाज, वंशी की आवाज तो आप सुनते नहीं लेकिन मोबाइल की आवाज सुनते हैं। पशु घास खाता है और मनुष्य ग्रास खाता है। तिर्थंकरों के समय वर्ण व्यवस्था की गई, उसमें वैश्य, वणिक व्यापारी वस्तुओं का आदान प्रदान करता था ज्यादा संग्रह की नहीं। आवश्यकताओं की पूर्ति थी आज संग्रहणी की बीमारी की तरह द्रव्य का संग्रह हो रहा है। १८वीं सदी में एक एकड़ में ५६ क्विटल अनाज पैदा होता था देशी खाद से उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ती थी। आज एक एकड़ में ३६ क्विटल यूरिया खाद से निकाल रहे हैं, जिससे जमीन की उत्पादन क्षमता समाप्त हो रही है और बीज भी सुरक्षित नहीं, बुद्धि चलाओ तो समय बचाकर कुछ कर सकते हो। आज आप घर में यदि भोजन तैयार नहीं करोगे तो एक दिन वह आयेगा कि बैठ के माला फेरोगे । आज हम स्वयं मजदूर बनना नहीं चाहते मजदूरों से काम कराना चाहते हैं।
  4. गाय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मनुष्य हमेशा से पशुओं का पालन करता आया है लेकिन यह बात ध्यान रखना कि पशुओं के माध्यम से मनुष्य की अपनी आजीविका चलती है। आप उन्हें पाल नहीं रहे बल्कि उनके माध्यम से आपका जीवन पल रहा है। वैश्य वही है जो कृषक होता है। कृषक जो खेती के माध्यम से गौ का पालन करता है। उससे वणिक्रवृत्ति अर्थात् व्यापार लेन-देन करता है। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कहते थे-उसका भाग्य खुल गया जिसके यहाँ प्रात:काल ऑगन में गाय रंभाती है। पहले के लोग गर्व का अनुभव करते थे क्यों? क्योंकि गौ रव अर्थात् गायों की रंभाने की आवाज तथा बैलों की रव यानि आवाज/ध्वनि को सुनते थे अत: गौरव गौरव का अनुभव करते थे पूर्व के लोग। रंभा और श्री है यह गाय। श्री यानि लक्ष्मी, सरस्वती की माँग नहीं करते वह तो रहेगी ही। हम जब छोटे थे आचार्यश्री जी तो चौखट पर शुभ-लाभ लिखा मिलता था। इसका क्या अर्थ हैं? तो शुभ अर्थात् बुद्धि अच्छी हो तो लाभ यानि लक्ष्मी भी अच्छी होगी। दया धर्म का पालन करोगे तो सरस्वती और लक्ष्मी दोनों को प्राप्त करोगे। गाय-बछड़ा जहाँ पलते हैं वहीं बुद्धि अच्छी मिलती है। वत्स से वात्सल्य शब्द की उत्पत्ति हुई है। किसी मनुष्य के समान वात्सल्य की बात नहीं कही गौ वत्स सम कहा है। वह गौ अपनी जीभ के द्वारा वत्स को चाटती है तो वह निरोग और निर्भीक हो जाता है। उसका मन और तन उसके द्वारा पलते हैं, आपके द्वारा नहीं पलते हैं। आज अल्कोहल का ही उपयोग औषध बनाने में ज्यादा होता है जबकि औषध की गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए दूसरे प्रयोग भी हो सकते हैं। अहिंसा धर्म की सुरक्षा, रक्षा के लिए ही भारतीय चिकित्सा में गौ-मूत्र का महत्व है। विदेशों में भी गौमूत्र का उपयोग हो रहा है।
  5. गुरुमन्त्र विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार गुरु के द्वारा दिए हुए सूत्र मन्त्र हैं। ये सूत्र शास्त्र से भी ज्यादा आनंद देने वाले हैं। शार्ट रास्ते से मंजिल दिलाने वाले हैं। मुझे गुरु के वचन शास्त्र से ज्यादा याद आते हैं। स्वाध्याय करने से इतना कुछ नहीं होता जितना कि गुरु संकेत कहाँ से कहाँ पहुँचा देते हैं। शुरूआत की भूमिका में गुरु और शिष्य में इतनी निकटता नहीं होती बाद-बाद में अधिक निकटता आती जाती है। जो बोला है, संकेत दिया है, गुरु ने उसमें सम्मोहन आकर्षण बनाओ तो इससे उसका और महत्व बढ़ जाता है। इसलिए नए सूत्र की अपेक्षा पुराने सूत्र का अधिक महत्व होता है जैसे नए ग्रन्थ नए भगवान की अपेक्षा पुराने ग्रन्थ पुराने भगवान में ज्यादा महत्व होता है क्योंकि इनके आगे कितने संतों ने कायोत्सर्ग किये विशुद्धि बढ़ाई इसलिए पुराने में आस्था रखो। गुरु की कृपा से बुद्ध भी बुद्धिमान् बन जाता है। गुरु के वचन उसी के लिए सार्थक होते हैं जिसका लिंग निर्दोष होता है इसलिए लिंग को सुरक्षित रखो। आचार्यों के ऋण को चुकाना चाहते हो तो उनकी चर्या के अनुसार चलो। गुरु अपने अनुभव से शिष्य को भी अनुभवी (स्वानुभवी) बना देते हैं। गुरु को यदि मानते हो तो गुरु वचन को भी मानो। सूत्र के लिए तो खूब कहते हो कि हमें सूत्र दो स्वाध्याय भी बहुत करते हो पर गुरुवचन को नहीं मानते। राह एक ही है तो दो राह क्यों बनाते हो? गुरु ने ऐसा-ऐसा कहा वही होना चाहिए। गुरु में यह ही विशेषता रहती है कि वे जीवनपर्यन्त के अनुभव के साथ सार-सार निकाल करके देते हैं। आचार्य ज्ञानसागर महाराजजी ने मंत्र दिया था-हम प्रचारक प्रसारक नहीं साधक हैं। गुरु भक्ति करते करते जिसका हृदय शुद्ध हो गया है आस्था मजबूत हो गई है उसे ही गुरु अध्यात्म का रहस्य उद्धाटित करते हैं।
  6. गुरु विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार हमें गुरु बनना है, अपने आपको गुरु समझना नहीं है। गुरु प्रत्यक्ष में हो या न हो पर गुरु के प्रति विनय होनी चाहिए। गुरु के प्रति आत्म समर्पण करने पर ही (विद्या) फल की प्राप्ति होगी। जब भोगों का अन्त होता है, तभी योग के चिह्न प्रादुभूत होते हैं। वीतरागी मुनि जहाँ भी जाते हैं, तो समझ लो उस जगह के जीवों का उद्धार होने वाला है। महाराज के द्वारा परमार्थ की कमाई होगी, अर्थ की कमाई नहीं। जिस प्रकार दीपक, रात भर अंधकार से जूझता रहता है इसी प्रकार पंचमकाल के अंतिम समय तक सम्यग्दृष्टि से लेकर भावलिंगी सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि महाराज भी संवर तत्व के माध्यम से लड़ते रहेंगे। मैं अर्थात् अहंकार को मिटाने का यदि कोई सीधा उपाय है तो गुरु के चरण-शरण। आज कोई भी पिता अपने लड़के के लिए कुछ दे देता है तो बदले में कुछ चाहता भी लेकिन गुरु की गरिमा देखो कि तीन लोक की निधि दे दी और बदले में किसी चीज की आकांक्षा नहीं है। जैसे वर्षा होने से कठोर भूमि भी द्रवीभूत हो जाती है उसी प्रकार गुरु की कृपा होते ही भीतरी सारी की सारी कठोरता समाप्त हो जाती है और नम्रता आ जाती है। गुरुदेव की कृपा से अनंतकालीन विषाक्तता निकलती चली जाती है। हम स्वस्थ हो जाते हैं। आत्मस्थ हो जाते हैं, यही गुरु की महिमा है। मरुभूमि को हरा-भरा बनाने के समान जीवन को भी हरा-भरा बनाने का श्रेय गुरुदेव को है। गुरु उसी को बोलते हैं जो कठोर को भी नम्र बना दे। गुरु का हाथ और साथ जब तक नहीं मिलता तब तक कोई ऊपर नहीं उठ सकता। युगों-युगों से पतित प्राणी के लिए यदि दिशाबोध और सहारा मिलता है तो वह गुरु के माध्यम से ही मिलता है। गुरु हमारे जीवन का सृष्टा होता है, गुरु हमारे जीवन का प्रकाश होता है, गुरु की प्राप्ति से हमारी अपूर्णता पूर्ण हो जाती है। अत: गुरु की प्राप्ति ही गुरुपूर्णिमा है। गुरु वही होता है जो सबका होता है। गुरु कृपा से सब कुछ मिलता है अत: गुरु सेवा, गुरु आज्ञा कभी नहीं भूलना।
  7. काल विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार काल से कार्य नहीं होते, किन्तु काल में कार्य होते हैं। अत: कार्य करते चले जाओ काल की ओर मत देखो। काल ही काल की चर्चा में आत्मा को लपेटों नहीं, कुछ काल निकालकर आत्मा की भी अर्चा करो। काल को वही पहचान सकता है जो शरीर को गौण कर देता है। नहीं तो काल के गाल में कवलित हो जाता है। आठ साल की उम्र के बाद अच्छे कार्य करने के लिए जीवन भर मुहूर्त है, पर आज अस्सी साल तक के भी हो जाने पर यही कहते हैं कि मुहूर्त नहीं आया। आठ साल के उपरांत बच्चा उस काम को भी कर सकता है, जिसको दादाजी भी नहीं कर सकते हैं। अन्य द्रव्यों पर तो आपका कुछ अधिकार हो सकता है, पर काल द्रव्य पर अधिकार नहीं हो सकता। काल बंधा नहीं रहता है। काल आप लोगों की प्रतीक्षा नहीं करेगा। अत: जब तक काल है, अपने की मांजने की आवश्यकता है। बाहरी, पदार्थों व कार्यों के लिए मुहूर्त की जरूरत है। त्याग के लिए, आत्मा के उद्धार के लिए मुहूर्त की जरूरत नहीं है। काल को मुहूर्त का बाधक समझो और बहुत जल्दी समता को धारण करो। स्वल्प जीवन को स्वल्प काल में ही उपयोगी बनाने की चेष्टा करो। काल जब कार्य के लिए छोटा पड़ता है समझ लेना मन लगा हुआ है। काल को काटना नहीं काल आयु प्राण है, उसको बचाये रखो। हम अहिंसा के पुजारी हैं, इसलिए आयु कर्म को सुरक्षित रखते हुए उसकी निर्जरा न करते हुए शेष सात कर्मों की निर्जरा हमें करनी है। सबसे कीमती, समय है, और इसे धन संग्रह नहीं प्रभु की भक्ति आराधना और परोपकार में गुजारना चाहिए। एक-एक समय का मूल्यांकन करना चाहिए बहुत कीमती समय है। धर्मध्यान के बिना काल की एक कणिका भी नहीं निकलना चाहिए। वर्णी जी के बारे में उनकी पुण्यतिथि पर विद्वानों के लिए आचार्यश्री जी का उद्बोधन, वर्णीजी की परम्परा और वर्णीजी की संस्थाओं की परम्परा आप लोग दोनों को एक मान रहे हैं और मैं दो मान रहा हूँ। वर्णीजी की संस्था चले यह तो आप लोग चाहेंगे लेकिन मैं तो यही चाहूँगा कि संस्था तो ठीक है यदि वर्णी परम्परा चले तो सब ठीक-ठाक हो जायेगा। वर्णी का अर्थ क्या होता है, मालूम है आप लोगों को, कोई सेठ साहूकार नहीं होता। वर्णी का अर्थ पंडित भी नहीं होता है। जब मैं (ब्रह्मचारी अवस्था में) नाममाला पढ़ता था उस समय मुनियों के नाम वर्णी शब्द आया था। तो वर्णी का अर्थ साधु होता है/अनगार होता है। वर्णी जी गृहस्थ नहीं थे वे पिच्छीधारक क्षुल्लक जी थे। यह बात अलग थी कि उनकी काया की क्षमता अधिक न होने से मुनि नहीं बन पायें किन्तु मुनि बनने की उनकी तीव्र भावना अवश्य थी। उनका त्याग था, तपस्या थी, उनका समर्पण था, समाज के लिए समर्पण नहीं, किन्तु वीतरागी मार्ग के लिए समर्पण था। यदि आप वर्णी परम्परा, उनका नाम कायम रखना चाहते हैं तो, दूसरे वर्णी की आवश्यकता है। है कोई यहाँ पर इस सभा में (विद्वानों की ओर संकेत करते हुए) दमदार व्यक्ति जो वर्णी जैसे बनने के लिए तैयार हो। आप लोगों का जीवन अल्प बचा है, कम से कम इस अल्प समय में तो वर्णी जैसे जीवन की एक झलक आनी चाहिए। आप लोगों की यह ज्ञान आराधना तभी सार्थक होगी जब आपके कदम चारित्र की ओर बढ़ जायेंगे। वर्णी संस्थाओं का नहीं, वर्णी का निर्माण होना चाहिए क्योंकि जो सैकड़ों संस्थायें काम नहीं कर सकती हैं, वह एक त्यागी, व्रती, संयमी कर सकता है और एक वर्णी के तैयार होने से हजारों वणी तैयार हो जायेंगे। वर्णी जैसे साधक व्यक्तियों के तैयार होने से उनकी संस्थाएँ अपने आप चलने लगेंगी।
  8. कषाय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार खूब कषाय के ऊपर कषाय करना सीखो। कषाय के कारण कोई भी व्रत, व्रत नहीं होते। गुस्सा करके आप उपवास करो तो वह उपवास नहीं लंघन माना जाता है। किसी का गुस्सा किसी पर लादो यह ठीक नहीं। तुम्हें गुस्सा करना है तो अच्छे ढंग से करो, लेकिन भोजन त्याग मत करो क्योंकि भोजन का समय है अत: पहले अच्छे ढंग से भोजन करो फिर बाद में गुस्सा करो, गुस्सा ही तो उतारना है तो अच्छे ही ढंग से उतारो न हट्टे कट्टे बन जाओ फिर उतारो। कषाय के ऊपर कषाय करना चाहो तो कमर कसो कौन हारता है देखेंगे। कषाय बहुत जल्दी हारेगी, आप कमर तो कसो। कषाय को पी जाना अपने आप में बहुत बड़ा संयम माना जाता है। किसी ने कुछ कह दिया कषाय आ गई तो एक घूंट गुटक लो। ये ध्यान रखना इसे गुटकने से कभी अजीर्ण नहीं होगा। मान आने की माया होने की लोभ होने की संभावना हो तो एक घूंट ले लो गुटक लो लोभ को नीचे उतार लो किसी को मालूम न पड़े कि इनमें क्या गुटक लिया। मान के मान को भंग कर देना ये मात्र महापुरुष ही कर सकते हैं। भूलना आत्मा का स्वभाव है। भूलो तो सभी भूल जाओ, लेकिन मतलब की बातें याद रखो। अच्छे कार्यों को भूल जाओ जिससे मान, अभिमान कम होगा। मुनि बनकर मान को जीतना ये उसका श्रृंगार है। श्रमण बनने के उपरांत अनिवार्य प्रश्न को हल करने में हम फेल हो जाते हैं। कषाय के द्वारा मुख कैसे दिखा सकते हो किसी को? कौन से रास्ते से कषाय आती है सभी दरवाजे बंद रखो बस एक दरवाजा खुला रखो और एक चाटा देकर उसे भगा दो। कषाय करके माफी माँगने की अपेक्षा कषाय करना छोड़ दो तो ज्यादा अच्छा। मानना, सम्यक दर्शन का प्रतीक है। जानना, सम्यग्ज्ञान का प्रतीक है और तानना, कषाय का प्रतीक है। मानी को मान से नहीं मृदुता द्वारा शान्त करो। क्रोधी को क्रोध से नहीं क्षमा के द्वारा शांत करो। आप ईधन का काम मत करो जल रखो पास में सब शांत हो जायेगा। धर्म और धर्मी दोनों अपमानित हो जायें इस प्रकार का मद/मान नहीं करना चाहिए। मान का नाम घमण्ड है। राग-द्वेष से जीवन में जितना हो सके दूर रहना चाहिए। पूरे जीवन से इसको दूर कर पाना मुश्किल है, पर इसे सिर पर बैठाना नुकसान देय है। जितना हो सके इससे दूरी बनाना अच्छा है। क्रोध करना कायरता का प्रतीक है। अपनी शक्ति को कम होती देखकर क्रोध करना, ये अपनी कायरता को क्रोध के माध्यम से वो व्यक्त करता है। आप क्रोध और मान से टकरा जाते हैं, माया को अपनाते हैं, लोभ करते हैं और रोते ही यह तो बड़ी बीमारी है, यह मानसिकता बीमारी है शारीरिक बीमारी तो है ही नहीं। क्रोध, मान, काया, लोभ आत्मा का स्वभाव नहीं है। जब यह स्वभाव नहीं है तो स्वभाव को छोड़ करके अपने को बाहर क्यों जाना? क्रोध को जानना तो हमारा स्वभाव है मान को जानना हमारा स्वभाव है किन्तु मान-सम्मान मिल जाये तो बहुत अच्छा यह भाव क्यों आया? किन्तु क्रोध को करना हमारा स्वभाव नहीं है। मान करो नहीं, मान को जानना हो तो जानो। आप कहीं भी कितने भी छल कर लो लेकिन आप माया को छल के द्वारा जीत नहीं सकते। उसके द्वारा आप ही छले जाओगे। क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों कषाय भाई हैं। कैसे? एक एक रुपया आता है। नहीं समझे, यह एक आयेगा लेकिन बंधेगे चारों के चारों। ये भाई ऐसे हैं, ये गजब के हैं। ये उदय में तो एक आता है लेकिन सपोट में एक ही उदीरणा समाप्त हुई नहीं कि दूसरा तैयार हो जाता है। कभी भी अंतराल नहीं होता, नौंवे गुणस्थान तक लगातार चलते रहते हैं। इनको नीचे गिराना खेल नहीं है। एक का उदय समाप्त होते हुए भी चारों का बंध करें और वह जितने समय तक रहा उसने असंख्यात समय तक कितना बंध कर लिया भगवान् जाने। यह कषाय की ऐसी दुकान है जिसको देख करके हमें रोना आता है। इसलिए कषायों को जानी लेकिन करो नहीं। इसी से कर्म निर्जरा होती है। रोष उस पर करो जो दु:ख देता है। क्रोध को जान लो उस पर रोष करो क्योंकि वह दु:ख देता है। सम्यक दर्शन का गला घोंटना हो तो मद करो। सम्यक दर्शन को यदि जीवित रखना चाहते हो तो मद को निकालना होगा। राग-द्वेष को यदि हमने कम किया है तो सबसे अधिक आवश्यकों का पालन हमने किया है। कषाय की गली में नोकषाय अप्रशस्त प्रकृतियाँ अपना प्रभाव डालतीं हैं। जैसे कुत्ता भी अपनी गली में शेर होता है। कषाय की घुटन में जीना, जीना (उन्नति) नहीं है। यदि आप तीव्र कषाय से अवशिष्ट हो जायेंगे तो दूसरे को क्या स्वयं को भी समाप्त कर दोगे आप | कषाय के द्वारा स्वयं अपनी आत्मा ही समाप्त हो जाती है। दूसरा समाप्त हो या न हो लेकिन कषायों के द्वारा ईर्ष्या, मान, आदि के द्वारा अपनी आत्मा का ही हनन हो जाता है। संसारी प्राणी द्वेष से तो बचता है लेकिन राग से नहीं बच पाता। और राग से जो बच जाता है वही वीतरागी बन जाता है। विद्वेषी होना तो बहुत आसानी से हो जाता है। आँखें फेर दो तो विद्वेषी हो जाये। जो राग से चिपकन रहता है, ये खतरनाक होता है। दूसरों के द्वारा दुख नहीं होता है, विषय कषायों के द्वारा दु:ख होता है तो विषय कषायों को छोडो। संसार को हेय, कषायों को विद्रोही जानकर इनसे बचो। कषाय के कारण आंख बंद करके भी ऐसे भाव कर जाते हैं कि जिसके फलोदय में अपनी आँखों में से पानी आ जाता है। जिस व्यक्ति के मन में कषाय जितनी मात्रा में है, वह व्यक्ति आगम के अनुसार स्व की उतनी हिंसा करता जा रहा है। कषायों के कारण अनर्थ बंध हो रहे हैं, उससे हम बचना चाहें तो बच सकते हैं। कषायों के कारण हमारी दुकान में मंदी आयेगी और दुकान धीरे धीरे उठ जायेगी। क्रोध करना ही है तो अपने राग पर क्रोध करो, अपने द्वेष पर क्रोध करो, अपनी कषायों पर क्रोध करो और भस्मसात कर दो इन बुराइयों को। फिर देखो एक ऐसा अलौकिक दृश्य प्रस्तुत होगा जिसे आज तक नहीं देखा। राग-द्वेष होते नहीं, किये जाते हैं। याद रखें, मोहनीय कर्म तो उदासीन है। मोहनीय कर्म की स्थिति ठीक पानी की तरह है जो मछली से यह नहीं कहता, तुम तैरो। किन्तु यदि वह मछली तैरना चाहेगी, तो वह पानी उसकी सहायता कर देगा। विषय-कषाय हेय हैं, उनका सर्वथा त्याग कर दो। उपादेय हैं अपने में रमण और उपाय हैं भगवान् के चरण। पीठ दे दो विषय कषायों को सदा सर्वदा के लिए किन्तु भगवान् को पीठ मत दो। उनको आदर्श के समान अपने आगे रखो। आप लोग पूजन में ऊपर से द्रव्य को चढ़ाते हो लेकिन उसके साथ अपने भीतर का राग भी चढ़ाया करो। दुनिया में राग ही राग नजर आता है। जिनबिम्ब में ही एक मात्र वीतरागता दिखती है। वही लक्ष्य है/मंजिल है/प्राप्तव्य है। जिस प्रकार कचरे को व्यर्थ मानकर फेंक देते हैं उसी प्रकार पंचेन्द्रिय के विषयों को व्यर्थ मानकर उनका त्याग करना होगा। स्वभाव की पहचान करने के लिए विभावरूप विषय कषायों को गौण करना अनिवार्य है। जैसे हाथी के ऊपर बंदरिया का बैठना, शोभा नहीं देता, ऐसे ही हमारी आत्मा पर मान का बैठना शोभा नहीं देता। जल में कोई चीज डालो तो सीधी नहीं जाती, यहाँ-वहाँ होकर नीचे जाती है। ऐसे ही संसार में जब तक जीव राग-द्वेष मोह के साथ है तब तक वह चलेगा भी तो जल में डाली गई वस्तु के समान ही टेढ़ा चलेगा, सीधा नहीं चलेगा। मोह विलीन हुआ समझो दु:ख विलीन हुआ। क्रोध को जीतने का प्रयास करना चाहिए हो तो वह बहुत आसान है-उस ओर देखिये मत। देखने से काम बिगड़ जायेगा। आप क्रोध से मत डरिए क्रोध करने से डरिए। कषाय को पालना ही ज्ञान को पागल बनाना है। कषाय का फल रोते हुए भोगना पड़ता है। यदि संहनन दीर्घ नहीं है तो कोई बात नहीं लेकिन संहनन के अनुकूल तो कषायों को जीतने का प्रयास कर लें। जो शिखर पर बैठ करके तपस्या कर रहे हैं उनका गुणगान तो कम से कम छाया में बैठ कर कर लो। कषाय को जीतने में काय की क्षमता चाहिए लेकिन आज वह भी नहीं हो पाता है। जो कषायों को जीतने का उपाय करता है उसकी बहुत कर्म निर्जरा हो जाती है। कषायों को ही अपना शत्रु मानो। कषायों को जीतने का प्रयास जितना होता है उतना तो करो। यदि यह भी नहीं होता है तो क्या होता है? आखिर कोर्स में क्या आएगा? कषाय की तीव्रता ज्यादा रहेगी तो निश्चितरूप से जो शरीर है वह क्षीण हो जायेगा, सारा का सारा खून पतला होकर के सब पानी बन जायेगा। दरिद्रता रखो तो कषायों के प्रति रखो।
  9. कर्म निर्जरा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार साधन के साथ साध्य अत्यंत जरूरी है। साधन में कर्म नहीं होने पर वह व्यर्थ है। साधन यानी साबुन होने पर बिना कर्म किए अर्थात् जल का उपयोग कर उसे धोए बिना कुछ नहीं किया जा सकता साधन के साथ श्रेष्ठ साध्य कर्म किया जाना ही मानव धर्म है। धर्म के साथ श्रेष्ठ कर्म करना मनुष्य का वास्तविक धर्म है। हमें कर्म के उदय से बचना नहीं किन्तु कर्म के उदय में जो भाव होते है उससे बचना है। कर्म को कभी पसीना नहीं आता। उसका सीना ही नहीं होता और पसीना भी नहीं आता। तुमसे मेरे कर्म कटे, मुझसे तुम्हें क्या मिला? बिल्कुल झकझोरता है। कर्म निर्जरा करने वाला व्यक्ति इसी आस्था के बल पर कर्म निर्जरा कर सकता है कटु सत्य है यह। कर्म का उदय मेरे है, आपके माध्यम से मैंने निर्जरा कर ली लेकिन आपका उपयोग मुझे देखकर क्या हुआ निकाचित बंध हो गया और हमारा निकाचित कट गया। दूसरे की स्तुति परख शब्द सुनने में हमारी कर्म निर्जरा और अधिक होती है। अपनी स्तुति करने में वो निर्जरा नहीं होती है। पर्वत की चोटी पर बैठकर तप करने में वो निर्जरा नहीं होती है जो निर्जरा किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा अपनी निंदा परख स्तुति के शब्दों को सुनने से होती है। अरिहंत भगवान का जय-जयकार करने से भी असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती है। किये हुए अनर्थों का चिंतन करना चाहिए इससे निद्रा विजय होती है और कर्म निर्जरा भी होती है। कम समय में ज्यादा निर्जरा के उपाय यही है कि पक्षपात से ऊपर उठो कर्तव्य की ओर ध्यान दो। साता का उदय बना रहे ताकि अच्छे से कर्म निर्जरा कर सकें ऐसा सोचते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। इससे विपरीत यदि असाता की उदीरणा हो तो ज्यादा निर्जरा हो सकती है तथा असाता का उदय मात्र रहे तो भी कर सकते हैं। असाता की उदीरणा को रोकने की अपेक्षा साता का वातावरण अनुकूलता उसी में बनाने का पुरुषार्थ कर सकते हैं। ये मूल है। उस समय तत्वज्ञान प्रयोग में ला सकते हैं।
  10. कर्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अप्रमत्त अवस्था में आयु कर्म की उदीरणा रुकती है और इसलिए मुनि महाराज प्रमाद से बचते हैं। दूसरी प्रतिमा से ही हमें सावधान होना पड़ता है अपने एक-एक क्षण के प्रति कि हमारा एक क्षण भी व्यर्थ न जाये। आगे बढ़ने की भावना हो लेकिन टेंशन नहीं होना चाहिए, जितना मिला उतने में सन्तोष रखना ये सबसे बड़ा धन है। जैसे चींटियों की लाइन रहती है सब एक-दूसरे से प्रेरणा लेते हुए आगे बढ़ती जाती हैं। कर्म के उदय में स्वयं अपने लिए पुरुषार्थ करते जाओ, नहीं समझे कर्म के उदय में अन्य के लिए क्या कर पाते हैं बताओ बाहर से सहानुभूति बस दे सकते हैं। कर्मों की ओर देखने से भी कर्म की उदीरणा तेज होती है। कर्म की खोज न करो व्यक्तित्व की खोज करो। हम कर्म की ओर तो देखते हैं लेकिन कर्तृत्व और व्यक्तित्व की ओर नहीं। व्यक्ति को पकड़ो अपने आप व्यक्तित्व मिलेगा। अपने द्वारा किये गये पापों का पश्चाताप, प्रायश्चित करो इससे असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होगी और पुण्य का बंध होगा। संवेग, निर्वेग सशक्त होना चाहिए उससे कर्म निर्जरा होती है। अनगार ज्ञान-ध्यान के द्वारा शोभा पाता है और सागार दान-पूजा के द्वारा शोभा पाता है। दोनों का लक्ष्य कर्म की निर्जरा होना चाहिए। जो आवश्यकों में निष्ठा, विकास लाता है वह कर्म की निर्जरा करता है। इससे लब्धिस्थान भी बढ़ते हैं। किसी भी मनुष्य के लिए सबसे श्रेष्ठ कर्म दूसरे को सुख और मुस्कान देना है। आपके अशुभ कर्म खुद रोते हैं और दूसरों को भी रुलाते हैं, वहीं श्रेष्ठ कर्म स्वयं के साथ संसार को भी सुखी कर हँसा सकते हैं। विष की शीशी को जानकर कि ये विष है तो फेंका जा सकता है उससे आप बच सकते हैं, लेकिन विष मुख में चला गया तो थूका नहीं जा सकता यानि थूक भी दो तो भी, जो जहर मुख में चला गया उसका तो प्रभाव पड़ेगा ही। ऐसे ही कर्म बंधे तो उसके पूर्व सम्हल जाओ तो ठीक अन्यथा कोई उपाय नहीं उससे बचने का। कर्म के उदय में समता रखना यही कर्म को सही मानना है। नोकर्म की मात्रा न देखो कर्म के अनुभाग की शक्ति को देखो। शरीर मिला बस उसी समय से पाप क्रिया कर्मचालू। जैसे-गाड़ी खरीदी कि रोड टैक्स चालू हो गया। चाहे गाड़ी चलाओ अथवा न चलाओ। नियम पालन कर रहे हैं तो पढ़े-लिखे न होने पर भी कर्म निर्जरा हो रही है। नियम पालन कर रहे है तो पढ़े लिखे न होने पर भी कर्म निर्जरा हो रही है। नियम पल रहे हैं तो उससे निर्जरा अबाधित रूप से चलती है। कथनी व करनी में सभ्यता होनी चाहिए। दूसरे की गलती ये है ही नहीं, अपना ही कर्म का उदय है ऐसा हर समय विचार करना चाहिए। हम कर्मोंदय से नहीं बच सकते लेकिन कर्मोंदय में राग-द्वेष से बच सकते हैं, क्योंकि रागद्वेष अपने ही परिणाम हैं। जो कर्म बंध से बचना चाहता है वह पंचेन्द्रिय विषयों को छोड़ेगा, किसी के भय से नहीं। कर्म आपके पीछे वैसे ही लगा है जैसे आपकी काया शरीर की छाया । जो भी कार्य हो रहे हैं वे सभी कर्मों के अनुरूप ही हो रहे हैं। कर्म फूल है, फूल के बिना फल नहीं। कर्म ऐसा है जो कठोर ओर न्यायवान होता है। कर्म को केन्द्र में बनाकर चलो तो सारी व्यवस्था होती चली जायेगी जिसके पास जैसे कर्म का उदय है वैसी व्यवस्था हो जायेगी। धार्मिक क्रियाएँ बिना विवेक की नहीं करनी चाहिए। जो भी धार्मिक क्रियाएँ करो उनको विवेकपूर्वक करो ताकि आवागमन मिट सके। कर्मबंधन, कर्म की बेड़ियाँ ढीली हो सकें ओर हमारा भविष्य उज्ज्वल बन सके। अपने किये गये कर्म का फल तिल का ताड़ सरसों का पहाड़ बनकर आता है। कर्म किसी पर पसीजता नहीं तो यद्वा तद्वा किसी को पीसता भी नहीं। किसी कार्य के सम्पन्न करने के लिए यथायोग्य विधि आवश्यक है उसी प्रकार कर्म काटने के लिए भी विधि है। यदि कर्म काटने की विधि ज्ञात है तो कट सकते हैं अन्यथा नहीं। सुख-दु:ख कर्म की देन है जब तक ऐसा नहीं जान लेते तब तक समता नहीं आती है। जैसी करनी वैसी भरनी यह भारतीय नीति ही नहीं सिद्धान्त भी है। योग्यता का परिचय प्रमाण पत्र से नहीं, कार्य से प्राप्त होता है। आणविक शक्तियों से बढ़कर भी काम करने वाली शक्तियाँ हैं, जिन्हें कर्म कहते हैं। जो वीतराग सम्यक दृष्टि होता है वह विचार करता है कि जब मेरा कर्म ही मेरा साथ नहीं दे रहा है तो ये मेरे साधर्मी मेरा साथ कैसे दे सकते हैं। कर्म के उदय से सब कुछ होने वाला है ये श्रद्धान अटूट होना चाहिए तब कहीं जा करके अपने व्रत, संकल्प, विश्वास, श्रद्धान मजबूत रह सकते हैं, अन्यथा नहीं। कर्मों की निर्जरा करना कोई खेल नहीं है। सावधानी के साथ परिणामों में, संकल्पों में जाग्रति रखने वाला व्यक्ति ही कर्म निर्जरा कर सकता है। संयम के माध्यम से कर्म निर्जरा की गति नहर की भाँति होती है। नहर में हमेशा-हमेशा रफ्तार से पानी निकलता रहता है। बैठे-बैठे शांति रखो, आकुलता नहीं करो, परिणामों को जितना शांत बना सको कर्म निर्जरा उतनी ही ज्यादा बढ़ेगी। कर्म एक ऐसा निष्पक्ष न्यायकर्ता है, जिससे कोई यदि छिपाना चाहे भी तो छिप नहीं सकता। हम उस कर्म के ऊपर चिंतन कर लें कि ये हमारा ही है तो हम उसे हजम कर सकते हैं। कर्मों के उदय से बंध नहीं होता। कर्मों के उदय में जो उथल-पुथल होती है उससे बंध होता है और यदि धैर्य रख लिया तो निर्जरा। यदि हमें पाँच इन्द्रियों की विषमता और विषयों की विषमता में किसी प्रकार की कोई भी प्रतिकूलता का अनुभवन नहीं होता है तो हमारे कर्मों की असंख्यातगुणी निर्जरा होती रहती है।
  11. कर्तव्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भगवान भी आ जायें तो भी हम अपने कर्तव्य को भूलें ना। कर्तव्य का पालन करो उसके बाद कुछ भी मत सोचो। उसके बाद सोचने का अर्थ यह है कि आप दूसरे की सोच को गौण कर रहे हो। कर्तव्य में कोई दुख नहीं, संघर्ष नहीं किन्तु जहाँ से कर्तव्य प्रारम्भ हो जाता है वहाँ पर संघर्ष के अलावा कुछ भी नहीं रहता है। कषाय के कारण कर्तव्य की भूमिका में ही जो जीता रहता है तो कर्तव्य उसके सामने आता ही नहीं है और यदि आता भी है तो औपचारिक रूप में आता है। जिसने इस संसार में मौत की अनिवार्यता समझ ली है फिर वह संसार की क्षण भंगुरता में रचता-पचता नहीं है। उसे सदा ही अपने कर्तव्य का ध्यान बना रहता है। जो व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठ होते हैं वे स्वयं तो प्रकाशित होते ही हैं दूसरों को भी प्रकाशित कर जाते हैं। आज हम कर्तव्य से स्खलित होते हुए विरुद्ध दिशा में दौड़ रहे हैं। कर्तृत्व अभिमान का तथा कर्तव्य सम्मान का प्रतीक है। राम कर्तव्य के तथा रावण कर्तृत्व के प्रतीक थे। कर्तृत्व भाव न रखें, कर्तव्य करते-करते बढ़ते जायें। इसके बिना महासत्ता में प्रवेश संभव ही नहीं। भावों की विरलता/महत्व को देखते हुए लगता है कि हमारे हाथ में कुछ नहीं। कर्तव्यनिष्ठा का पालन करते हुए राग-द्वेष को कम कर सकते हैं। जो जीवन हमें मिला है, उससे दूसरों का हित करना श्रेष्ठ मानव का कर्तव्य है। पुरुषार्थ करें संयमित जीवन जीयें अपव्यय और अन्याय से बचें यही विवेक है। गुरु के चरण और आ-चरण उनका है वे तो अविरल चलते हैं उनके पीछे अनुचर चलते हैं और यही कदम उन्हें धर्मपथ पर ले जाते हैं। जो किसी राजपथ के समान हैं। शिष्य को चाहिए गुरु के पथ का आचरण करे और जो संकेत मिलें, उसे अपना कर्तव्य मानें। आज तक सूर्य का कर्तव्य छूटा नहीं, हम भी अपने कर्तव्य का पालन सूर्य नारायण की तरह करना सीख लें। यदि शक्ति कम हो जाये तो रात्रि में विश्राम समय पर करेंगे तो प्रात: नयी स्फूर्ति नयी ताजगी आ जायेगी। कर्तव्य समझ करके सब कार्य करना चाहिए। कर्तव्य करना पड़ रहा है ऐसी मानसिकता से कार्य नहीं करना चाहिए। कर्तव्य करें, कर्तृत्व बुद्धि न रखें, इसमें बहुत शान्ति है। कर्तव्य के प्रति भाव भक्ति पूर्वक समर्पित होना चाहिए। देश प्रेम की भावना से कर्तव्यों का पालन करें। धर्म संस्कृति की रक्षा में अपना उत्तरदायित्व सही अर्थों में निभायें। वर्तमान में राष्ट्र के प्रति औपचारिकता बरतते हैं, यह ठीक नहीं। हम जहाँ रहे वहाँ कर्तव्य शील एवं न्याय नीतिज्ञ बनकर कार्य करें। सभी यदि अपने कर्तव्य में अडिग रहें तो कोई कारण नहीं कि सभी कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न न हों। सम्यग्ज्ञान की शोभा कर्तव्य पालन से है। हमें ऐसे समीचीन कर्तव्य का पालन करना चाहिए जिससे तन और मन दोनों प्रकार की गर्मी मिट जाये। मनुष्य ब्यूटी (सुंदरता) से परिचित होने की लालसा में ड्यूटी (कर्तव्य) से विमुख हो रहे हैं। जब तक प्राण हैं तब तक कर्तव्य के प्रति जागरूकता रखना चाहिए। आजादी की अर्ध शताब्दी से अधिक अवधि बीत जाने पर भी क्या दशा है? सेवा, कृतज्ञता, कर्तव्य परायणता के चिह्न कम और स्वार्थ परायणता के चिह्न बढ़ रहे हैं। हमें किसी की प्रतीक्षा की नहीं, निरीक्षण की आवश्यकता है। आप अपनी आत्मा का अपने कार्य का निरीक्षण करें। अपने कर्तव्य का पालन करें। जो करने योग्य कार्य को जानता है और अपना कर्तव्य समझकर करता है वहीं कृतकृत्य होता है। इसी कर्तव्य के पालन से हमारे भगवान कृतकृत्य हुए हैं। जीवन को सफल बनाने के लिए अपना कर्तव्य करना चाहिए। कर्तव्य में कोई भी संघर्ष नहीं होता, जबरदस्ती नहीं हुआ करती, कोई शर्त भी नहीं हुआ करती लेकिन कर्तव्य कथचित् जब वहाँ पर आ जाता है तब संघर्ष शुरू हो जाता है। कर्तृत्व के साथ स्वामित्व लग जाता है और कर्तव्य के साथ फर्ज (ड्यूटी) होता है। कर्तृत्व जहाँ पर आ जाता है वहाँ पर अंधकार छा जाता है। अन्याय, अत्याचार से बचकर अपना कर्तव्य यदि कर रहा है, तो वहाँ पर भी पर्व मनाया जा रहा है उसका प्रवाह उसकी सुगंधी चारों ओर फैलती चली जायेगी। आप ब्यूटीफुल (सुंदर) तो होना चाह रहे हैं लेकिन ड्यूटीफुल कर्तृत्व से मुक्त होना नहीं चाहते। ड्यूटी का अर्थ धर्मध्यान या कर्तव्यपरायणता है। कर्तव्य को छोड़कर आप यदि धर्मध्यान करना चाहते हैं तो वह धर्मध्यान नहीं माना जाता है और उसके द्वारा ज्ञान की शोभा नहीं होती। कर्तव्य धर्मध्यान का चिह्न है। कर्तव्य के प्रति कभी निराश नहीं होना उसके प्रति यदि निराश होंगे तो कार्य नहीं होगा। निराश वह होता जो स्वप्न देखता है और वह पूर्ण नहीं होता है। स्वप्न सात्विक हो तो उसे साकार करने का सोच सकते हैं। अपनी साधना को बढ़ाते हुए आनंद से सब लोग अपने-अपने कर्तव्यों को हमेशा-हमेशा करते रहें कर्तव्य विमुख न हों। कर्तव्य करने से विध्न भी दूर हो जाते हैं। कर्तव्य को मैं सब कुछ मानता हूँ। कर्तव्य जीवन में नहीं है तो उसे मैं गंधहीन फूल की तरह जीवन मानता हूँ। अपना जीवन हमेशा-हमेशा सुगंधित रहे बस यहीं भावना है। गुरुजी आचार्य ज्ञानसागर महाराज कर्तृत्व को हमेशा भूलने को कहते थे कि कर्तव्य को मुख्यता देते थे। अपनी गलती को स्वयं हम देखते रहें और कर्तव्य करते रहें सावधानी से। कर्तव्य करने वाला कभी अपनी गलती से अनभिज्ञ नहीं रहता है। अपनी गल्तियों का हिसाब-किताब एक दुकानदार की तरह प्रतिदिन करते रहें। हमें नाम से नहीं काम से प्रयोजन हो। हम जो भी कर रहे हैं वह अपने लिए कर रहे हैं। पर के लिए नहीं। हम फल की कामना करते हैं। हमें कर्तव्य करना चाहिए फल की इच्छा नहीं रखना चाहिए।
  12. एकता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार केवल एक के नहीं, एक-दूसरे के पूरक होने पर ही संघ चलेगा। एकता से घनिष्ठता रखना किसी एक से नहीं। संघ में सर्वप्रथम एकता होनी चाहिए। एकता हो गई तो विनय वात्सल्य भाव अपने आप आता है। एकता के अभाव में अहंकार पनपता है। एकता के अभाव में एक की तरफ झुकाव होता है। सभी को एकता के साथ रहना चाहिए। एकता से बड़े-बड़े काम हो जाते हैं। एकता हो तो बिगड़ा हुआ काम भी बन जाता है और यदि एकता न हो तो बनता काम भी बिगड़ जाता है। इसी का नाम शक्ति है। एकध्वनि होना चाहिए, एक स्वर होना चाहिए। यदि हजार लोग भी हों और एक ध्वनि हो तो लाखों लोग सुनकर प्रभावित हो जाते हैं। एकता से वात्सल्य आ ही जाता है। एकता ही सबसे बड़ा नियम है। संकीर्णता को मिटाकर एकता, वात्सल्य को अपनाना चाहिए। बंधी मुट्ठी में रहस्य होता है। जिस समाज में सभी लोग संगठित होकर रहते हैं वह प्रशंसनीय समाज होती है। संगठन के बिना समाज का क्या अस्तित्व? अत: सभी लोग संगठित होकर कार्य करें और अपनी समाज की शोभा बढ़ायें। सामूहिक कार्य की सफलता के लिए सामूहिक सद्भावनाओं की आवश्यकता होती है। बँद-बूंद के मिलने से सागर बनता है। जल बिन्दुओं के समूह का नाम सागर होता है। सागर बाद में बूंद पहले है। अकेले शून्य का महत्व नहीं होता संख्या का होना आवश्यक है। अहिंसा को हम संख्या के रूप में रखें तो आगे कार्य सानंद सम्पन्न होते चले जायेंगे। हमारे पास विचारों में एकता और विशाल दृष्टिकोण हो तो आज भी वह राम राज्य आ सकता है। सामूहिक कार्यक्रम के कारण सभी की सावधानी सजगता बनी रहती है वह आगे बढ़ने से रुक नहीं सकता। समूह में रहते हुए एक दूसरे के पूरक बने रहते हैं। समूह में व्रतों के प्रति आनंद आता है। एक-दूसरे के पूरक बनते हैं। मैं किसी का कर्ता नहीं हूँ वस्तु का ही परिणमन देखने में आता है। एक कार्य यदि एक हजार व्यक्ति मिलकर करते हैं तो कितना अनुपात बढ़ गया।
  13. उपसर्ग परीषह, कर्म निर्जरा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार उपसर्ग की अवधि में निश्चितरूप से असंख्यात गुणी निर्जरा होती है उस निर्जरा से बचना नहीं चाहिए। जो बाईस परीषह हैं उन बाईस परीषहों का सिर्फ आना कहा है ये आयेंगे और उपसर्ग आ जाते हैं तो उपसर्गों में विशेषरूप से समय दे देना चाहिए। अंडरड्यूटी जो होती है उसको पूर्ण करने के बाद ओवरड्यूटी से असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। उस मुनि की बहुत निर्जरा होती है जो दूसरे के द्वारा किए गये अपमान को सहन करता है। मुनि के लिए उपसर्ग परीषह सहन करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। जैसे मिलिट्री युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहती है। परीषह तथा उपसर्ग पूर्वकृत पाप का फल है।इनको समता पूर्वक सहन करने से कर्म निर्जरा होती है। परीषहों और उपसर्गों के आने पर जो मुनि ऐसा मानता है कि मैं पूर्व के ऋण को चुका रहा हूँ उस मुनि की बहुत निर्जरा होती है। मान कर्म का उदय चल रहा है, उदीरणा चल रही है, यदि मैं इसमें समता रख लेता हूँ तो मेरी असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा हो गई और यदि मैं मान-सम्मान के लिए प्रयासरत हो जाऊँगा तो जितना कर्म निकला उससे लाख गुना और कर्मबंध हो गया ये ध्यान रखना। परीषह उपसर्ग जब तक नहीं तब तक मोक्षमार्ग की पृष्ठ भूमि प्रारम्भ नहीं होती। केन्द्र में उद्देश्य क्या है इसके माध्यम से ही कर्मों की निर्जरा होती है। वीतरागता या सरागता क्या केन्द्र बनाया है उसके अनुसार निर्जरा होगी। कर्मों का उदय आदि एक नाटक मंच की तरह अपना-अपना फल देकर चले जाते हैं। जो निर्विकल्प रहता है कोई विकल्प नहीं रखता इस कारण से कर्म की निर्जरा होती है, हो रही है ना कि श्रुतज्ञान के माध्यम से हो रही है। निर्विकल्प होने के लिए विकल्पों को तोड़ो यह कहा है, विकल्प तोड़ने से मोह कम हो जाता है समाप्त हो जाता है और क्षीणमोह हो जाता है।
  14. उपसर्ग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भेद विज्ञान के माध्यम से ही परीषहों पर विजय प्राप्त की जा सकती है इसलिए हमें भेद विज्ञान हमेशा हमेशा बना रहना चाहिए। उपसर्ग जिस समय आता है उस समय हमें दीन-हीन नहीं होना चाहिए। और रोना आदि नहीं चाहिए। साहस एवं धैर्य का परिचय देना चाहिए। शक्ति होते हुए प्रतिकार नहीं करना यह वीरता का प्रतीक है। उपसर्ग आदि कभी भी निमंत्रण देकर नहीं आते हैं, कभी भी आ सकते हैं इसलिए हमें सैनिकों की तरह सजग रहना चाहिए। उपसर्ग सहन करने के लिए हमें पत्थर के समान नहीं हीरे के समान कठोर बनना चाहिए। यदि वज्र भी गिर जाये तो उसका कुछ नहीं होता है।
  15. उपदेश विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जो विषय कषायों में लिप्त हैं उनका उपदेश सुनने की कृपा न करें। अच्छे से अपने-अपने योग्य कार्य करते चलो अपने आप बिना उपदेश के ही समाज को व्रतों का वातावरण मिलता चला जाता है।उपदेश देना आवश्यक नहीं है। उपदेश को भी आदेश मान लेना चाहिए। आदेश का महत्व ज्यादा रहता है। जो व्यक्ति उपदेश को मानकर चलता है उसे आदेश की आवश्यकता नहीं रहती। उपदेश स्वाध्याय का अंग मानकर करते हैं तो ठीक है इसमें दीनता भी नहीं, अभिमान भी नहीं। कर्तव्य जहाँ पर है वहाँ पर ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है। सांसारिक लोभ लिप्सा से रहित होकर उपदेश देना चाहिए तभी उत्तम माना जावेगा। मोक्षमार्ग में जो भी प्रवचन करते हैं वे परमार्थ के लिए करें अपने (स्वार्थ के) लिए नहीं। टिमटिमाते दीपक में यदि थोड़ा सा तेल डाल देते हैं तो दीपक पुन: जलने लगता है, उसी प्रकार यह धर्मोपदेश भी उस तेल की भाँति है जो बुझे हुए उत्साह को पुन: उत्साहित कर देता है। जिस किसी को भी उपदेश नहीं दिया जाता। जैसे-रसोई घर में ऐसे बच्चों को प्रवेश देना चाहिए जिन्हें अच्छी भूख लगी हो। प्रज्ञावान को उपदेश देना। प्रज्ञावान का अर्थ विद्वान् नहीं है वरन् प्रज्ञा के द्वारा जो धारण करे या प्रज्ञा के द्वारा जो भिन्न-भिन्न जाने। जिसके द्वारा धर्म की प्रभावना हो उस बात का उपदेश देना चाहिए। दूसरों को उपदेश न देकर उपदेश का पालन स्वयं करना प्रारम्भ कर दें तो वह उपदेश अपने आप प्रचार को प्राप्त हो जायेगा। जिससे श्रावक अपनी चर्या वैसी बना लेता है उसका नाम उपदेश है। जिसके राग नहीं उसका उपदेश पर के हित के लिए ही है ऐसा सिद्ध होता है। संतों की वाणी से ही आत्मोन्नति का प्रारम्भ हुआ करता है। धर्मोपदेश विषयों में रुचि जगाने के लिए नहीं है। आत्मा की रुचि जगाने के लिए धर्मोपदेश है। गुरुओं का उपदेश हमारे शरीर के अंदर के विषाक्त तत्व को दूर करने के लिए औषध का काम करता है। राग, द्वेष, मोह रूपी रोग को हटाती है गुरुवाणी। बुराई से बचाकर अच्छाई की ओर ले जाता है जिनोपदेश।
  16. उपवास व्रत विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार साइंस ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि उपवास के दिन ऐसा दरवाजा खुलता है जिससे ऐसा अमृत निकलता है जो शरीर को हर तरह की ऊर्जा शक्ति देता है। उपवास नहीं बनता है तो जिन्होंने अनशन उपवास किया हो या बीमार अंतराय आदि-आदि जो हैं उनकी वैय्यावृत्ति कर लो । जिस दिन से व्रत लिया उसी दिन से कषाय सल्लेखना प्रारम्भ हो जाती है। व्रतों की पाँच पाँच भावनाओं को भाने से व्रतों की वैराग्य की सुरक्षा है, जो भावना हमें अच्छी लगनी चाहिए वही खराब लग रही है इसका मतलब क्या? वैराग्य की कमी से ये सब हो रहा है। जिस प्रकार सोने का मूल्य देश विदेश सब जगह है हर जगह सोना बिक सकता है उसी प्रकार अणुव्रत रूपी निधियाँ होने से सुरलोक अवश्य प्राप्त होगा। अणुव्रतों का क्षेत्र बहुत विस्तृत है महाव्रतों को तो मनुष्य ही धारण कर सकता है लेकिन अणुव्रतों को तो तिर्यच भी धारण कर सकता है। अणुव्रत भी आजीवन ही होता है भले ही चौदस मात्र का त्याग करें लेकिन जीवन पर्यंत चौदस को हिंसा का त्याग होगा। भीतर के भावों की अभिव्यक्ति के लिए बोलना होता है। ज्यादा नहीं बोलना सम्यक्त्ता का प्रतीक माना जाता है। अणु का अर्थ पाँचों ही व्रत होना अनिवार्य हैं ऐसा नहीं। मूल अहिंसा को बताने के लिए ही प्रसिद्धि (चांडाल) का उदाहरण दिया है। देशव्रती के एक के प्रति लगाव हो सकता है लेकिन हम महाव्रती है तो किसी एक तरफ नहीं होना चाहिए सबके होकर रहना चाहिए और सबके हित की बात को सोचना चाहिए। चिंतन, लेखन, मनन अब बहुत हो गया अब कुछ साधना की बात कर लेना चाहिए। जो शक्ति यह संसारी प्राणी अन्य स्थानों पर लगा देता है वो शक्ति यदि संकल्प में लगा देता है तो उसका फल वह सही पा जाता है। संकल्प शक्ति आहार से नहीं बढ़ती है वो तो प्रयोग के माध्यम से बढ़ती है। आज संकल्प शक्ति का प्रयोग नहीं होने से चिंतन का विषय नहीं बन पा रहा है, चिन्तन का विषय बन जाता है।
  17. उपवास विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अकेले उपवास करने से ही सब कुछ नहीं होता प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रसन्नता से सब सहन करते चलो इससे साता का बंध होता है। असाता की निर्जरा होती है भले ही रोज-रोज आहार करके आयें और उपवास करने के बाद भी आर्तध्यान बना रहे तो उपवास की सार्थकता नहीं।उपवास करने के बाद आर्तध्यान न हो तो उपवास की सार्थकता है अन्यथा नहीं। विहार और उपवास से स्वास्थ्य संतुलित रहता है इसलिए इन दोनों का अच्छे से अभ्यास करते रहना चाहिए। तप कर्म निर्जरा के लिए कारणभूत है। गुस्से में उपवास आदि करना तप को शस्त्र बनाना है। इसलिए तप उपवास आदि को धोखा आदि का साधन शस्त्र मत बनाया करो। उपवास का अर्थ है हम आत्मा के पास रहें। जो जल उपवास करता है वह सल्लेखना के लिए बहुत उपयोगी है। वही सल्लेखना में सक्षम हो सकता है। उपवास के बाद ठण्डा रस आदि नहीं लेना चाहिए क्योंकि रस आदि लेने से किडनी पर सीधा प्रभाव पड़ता है, अनुकूल ज्यादा लेने पर प्रतिकूल हो जाता है। मन और इन्द्रियों को अपने पास रखना, भोग की ओर न जाने देने का नाम उपवास है। उपवास का अर्थ है-मन आत्मा के पास आ जाता है यानि कि मन भी आत्मा के अनुरूप कार्य करने लगता है। सम्यकज्ञान कितना दृढ़ है यह उपवास आदि करने से ज्ञात होता है अनुभव भी तभी आता है शरीर और आत्मा का सम्बन्ध कैसा किस रूप में है। उपवास करते हुए भी समता में कमी नहीं आनी चाहिए। कषाय के उपशमन के लिए ही उपवास किये जाते हैं। वैज्ञानिकों ने भी कहा है-उपवास के दिन शरीर में एक विशेष ग्रंथी खुलती है जिससे शरीर में से रोग निष्कासित होते हैं एवं शरीर में ताजगी आती है इसलिए पन्द्रह दिन में एक उपवास करने को कहा है। मदोन्मत्त हाथी को भी उपवास से वश में किया जाता है फिर मन को भी वश में करना है तो उपवास करिये ।
  18. उपकरण मोक्षमार्ग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिनलिंग, गुरुवचन, विनय और सूत्राध्ययन ये सभी उपकरण हैं। इन चारों आगमिक उपकरणों का आनुपूर्वी के साथ पालन करके सुरक्षित रखना चाहिए। शरीर परिग्रह भी बन सकता है और उपकरण भी बन सकता है। उपकरण बनाओ। एक-एक कष्ट सही एकदम आगे बढ़ जाओगे। बुराइयों से बचना और अच्छाइयों में लग जाना यह कोई रागद्वेष नहीं है इसलिए एक ही पदार्थ से ज्यादा चिपकना नहीं चाहिए। अन्न रुका नहीं, कि विष हुआ तो जितना आप चिपकोगे तो वह जहर का काम करेगा अन्यथा अमृत था। इसी प्रकार मोक्षमार्ग में उपकरण से चिपके नहीं, क्रम से उपयोग करते चले जायें। मोक्षमार्ग में पूर्ण ज्ञान की नहीं बल्कि पर्याप्त ज्ञान की आवश्यकता है। संयम लेने के बाद पूर्णज्ञान अपने आप प्राप्त हो जायेगा। मोक्षमार्ग में श्रद्धान मजबूत रखो, निर्दोष चारित्र पालो अक्षर ज्ञान कम भी हो तो भी कल्याण हो जायेगा। आप लोग कहते हैं-हम मोक्षमार्ग पर बढ़ना तो चाहते हैं पर संहनन नहीं हैं तो हम कहते हैं आप लोगों को भोगते समय याद नहीं आता धन कमाते समय संहनन याद नहीं आता। श्रावकों के ऊपर अति विश्वास करना ही गुरु आज्ञा का उल्लंघन है। गुरु की आज्ञा पर तो विश्वास नहीं और श्रावकों के ऊपर अति विश्वास कर लिया ये भी पथ भ्रष्ट होने के लिए कारण हो सकता है यही कारण हुआ था श्वेताम्बर की उत्पति में। मोक्षमार्ग विकास की ओर होना चाहिए विनाश की ओर नहीं। आलोचक तो मोक्षमार्ग में अपना परम मित्र है उनसे कर्म की निर्जरा होती है। मोक्षमार्गी को आलोचकों के प्रति क्रोधित नहीं होना चाहिए बल्कि आलोचना को शांति से सहन करना चाहिए। संसारी प्राणी जितनी हाई क्वालिटी की सोचता है उतना ही हाय हाय करता है और मोक्षमार्गी शांति की सोच के साथ सामान्य रहता है।
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