काल विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- काल से कार्य नहीं होते, किन्तु काल में कार्य होते हैं। अत: कार्य करते चले जाओ काल की ओर मत देखो।
- काल ही काल की चर्चा में आत्मा को लपेटों नहीं, कुछ काल निकालकर आत्मा की भी अर्चा करो।
- काल को वही पहचान सकता है जो शरीर को गौण कर देता है। नहीं तो काल के गाल में कवलित हो जाता है।
- आठ साल की उम्र के बाद अच्छे कार्य करने के लिए जीवन भर मुहूर्त है, पर आज अस्सी साल तक के भी हो जाने पर यही कहते हैं कि मुहूर्त नहीं आया।
- आठ साल के उपरांत बच्चा उस काम को भी कर सकता है, जिसको दादाजी भी नहीं कर सकते हैं।
- अन्य द्रव्यों पर तो आपका कुछ अधिकार हो सकता है, पर काल द्रव्य पर अधिकार नहीं हो सकता।
- काल बंधा नहीं रहता है। काल आप लोगों की प्रतीक्षा नहीं करेगा। अत: जब तक काल है, अपने की मांजने की आवश्यकता है।
- बाहरी, पदार्थों व कार्यों के लिए मुहूर्त की जरूरत है। त्याग के लिए, आत्मा के उद्धार के लिए मुहूर्त की जरूरत नहीं है। काल को मुहूर्त का बाधक समझो और बहुत जल्दी समता को धारण करो।
- स्वल्प जीवन को स्वल्प काल में ही उपयोगी बनाने की चेष्टा करो।
- काल जब कार्य के लिए छोटा पड़ता है समझ लेना मन लगा हुआ है।
- काल को काटना नहीं काल आयु प्राण है, उसको बचाये रखो।
- हम अहिंसा के पुजारी हैं, इसलिए आयु कर्म को सुरक्षित रखते हुए उसकी निर्जरा न करते हुए शेष सात कर्मों की निर्जरा हमें करनी है।
- सबसे कीमती, समय है, और इसे धन संग्रह नहीं प्रभु की भक्ति आराधना और परोपकार में गुजारना चाहिए।
- एक-एक समय का मूल्यांकन करना चाहिए बहुत कीमती समय है। धर्मध्यान के बिना काल की एक कणिका भी नहीं निकलना चाहिए।
- वर्णी जी के बारे में उनकी पुण्यतिथि पर विद्वानों के लिए आचार्यश्री जी का उद्बोधन, वर्णीजी की परम्परा और वर्णीजी की संस्थाओं की परम्परा आप लोग दोनों को एक मान रहे हैं और मैं दो मान रहा हूँ। वर्णीजी की संस्था चले यह तो आप लोग चाहेंगे लेकिन मैं तो यही चाहूँगा कि संस्था तो ठीक है यदि वर्णी परम्परा चले तो सब ठीक-ठाक हो जायेगा।
- वर्णी का अर्थ क्या होता है, मालूम है आप लोगों को, कोई सेठ साहूकार नहीं होता। वर्णी का अर्थ पंडित भी नहीं होता है। जब मैं (ब्रह्मचारी अवस्था में) नाममाला पढ़ता था उस समय मुनियों के नाम वर्णी शब्द आया था। तो वर्णी का अर्थ साधु होता है/अनगार होता है।
- वर्णी जी गृहस्थ नहीं थे वे पिच्छीधारक क्षुल्लक जी थे। यह बात अलग थी कि उनकी काया की क्षमता अधिक न होने से मुनि नहीं बन पायें किन्तु मुनि बनने की उनकी तीव्र भावना अवश्य थी।
- उनका त्याग था, तपस्या थी, उनका समर्पण था, समाज के लिए समर्पण नहीं, किन्तु वीतरागी मार्ग के लिए समर्पण था।
- यदि आप वर्णी परम्परा, उनका नाम कायम रखना चाहते हैं तो, दूसरे वर्णी की आवश्यकता है। है कोई यहाँ पर इस सभा में (विद्वानों की ओर संकेत करते हुए) दमदार व्यक्ति जो वर्णी जैसे बनने के लिए तैयार हो।
- आप लोगों का जीवन अल्प बचा है, कम से कम इस अल्प समय में तो वर्णी जैसे जीवन की एक झलक आनी चाहिए।
- आप लोगों की यह ज्ञान आराधना तभी सार्थक होगी जब आपके कदम चारित्र की ओर बढ़ जायेंगे।
- वर्णी संस्थाओं का नहीं, वर्णी का निर्माण होना चाहिए क्योंकि जो सैकड़ों संस्थायें काम नहीं कर सकती हैं, वह एक त्यागी, व्रती, संयमी कर सकता है और एक वर्णी के तैयार होने से हजारों वणी तैयार हो जायेंगे। वर्णी जैसे साधक व्यक्तियों के तैयार होने से उनकी संस्थाएँ अपने आप चलने लगेंगी।