जिनवाणी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जिनकी आजीविका का साधन जिनवाणी है, वे कभी सत्य नहीं बोल सकते हैं।
- जरा विचार करो जिनवाणी से चेतन या वेतन, स्वाध्याय या व्यवसाय किसकी बात कर रहे हो?
- जिन ग्रन्थों को पढ़ने से विषय-कषायों का पोषण और आजीविका का साधन हो जाये वह स्वाध्याय नहीं है।
- जिनवाणी को पढ़ने से ज्ञात होता है कि हमारी आत्मा के ऊपर कितनी धूल है उसे कैसे दूर कर सकते हैं।
- जिनेन्द्र भगवान के वचन अर्थात् जिनवाणी एक प्रकार की औषधि है जो विषय सुखों को विरेचन करने वाली है तथा जन्म-मरण के रोगों को दूर करती है।
- जिस प्रकार मार्ग में चलने वाले के लिए पाथेय (नाश्ता) आवश्यक होता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में चलने वाले के लिए पाथेय के रहते हुए मोक्षमार्ग के पथिक की यात्रा निरापद हो जाती है।
- यह जिन-शास्त्र उस मील के पत्थर के समान माने गये है, जो राहगीर को सही-सही गन्तव्य तक भिजवा देते हैं।
- श्रुत के पाठ, जाप, ज्ञान और ध्यान में काफी अन्तर है। जैसे 'णमो अरिहंताणं' आदि पद का लय के साथ उच्चारण करना पाठ कहलाता है। अरिहंतादि पंच परमेष्ठियों का स्मरण करना जाप कहलाता है। अरिहंत आदि परमेष्ठियों का क्या स्वरूप है? ये पद कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं? यह जानना ज्ञान है और चित्त का उन्हीं के साथ एकीभाव हो जाना ध्यान है। यह सब विशेषताएँ हमें शास्त्रों से ही ज्ञात होती है।
- जिसने अनेक शास्त्रों को पढ़कर भी स्व को प्राप्त नहीं किया, उसका शास्त्र अध्ययन से संकल्प शक्तिशाली हो जाता है।
- मात्र जनेऊ पहनने से कोई उच्च नहीं होता किन्तु जिनवाणी की आज्ञा पालन करने वाला स्नत्रय के द्वारा आत्मा को संस्कारित करके उच्चता को प्राप्त करता है।
- माता-पिता कुछ क्षण के लिए ही काम आते हैं किन्तु पवित्र जिनवाणी माता ये वीतरागी गुरु भव-भव से काम आ रहे हैं।
- सिद्धान्त कभी भी वक्ता के घर का नहीं चलता। जैसे घर की दुकान हो सकती है, लेकिन नापतौल घर का नहीं हो सकता।
- जिनवाणी की सेवा तो जिनलिंग धारण करके ही करना सर्वोत्तम है।
- आज विश्व में वित्त ज्यादा होने से विद यानि ज्ञान का अवमूल्यन होता चला जा रहा है। उसी कारण से आज जिनवाणी का ज्ञान न होने से जिनाणी के प्रति आदर नहीं है, सत्य की पहचान नहीं है, पापों से भय नहीं है और सारी दुनिया भर से भय बढ़ता जा रहा है।
- यदि सम्यक् ज्ञान की रक्षा चाहते हो तो उस जिनवाणी माँ की रक्षा करो।
- कर्म सिद्धान्त के ग्रन्थों का सावधानी के साथ अभ्यास कर लेना चाहिए। संक्लेश के साथ नहीं।
- कर्मकाण्ड आदि सैद्धांतिक ग्रन्थों को बड़े उल्लास के साथ पढ़ना चाहिए। श्रद्धान और विशुद्धि के साथ पढ़ना चाहिए।
- जिस समय चिड़चिड़ापन हो, मन अच्छा न हो तो कर्म सिद्धान्त नहीं पढ़ना चाहिए। उस समय भावना परक ग्रन्थ जो हैं उनको पढ़ना चाहिए।
- आगम तो हमारे लिए आंख के समान है जिससे देखकर हम हितकर कार्य में जुट जाते हैं।
- जिनबिम्ब के दर्शन से, जिनवाणी के श्रवण से जब सर्प भी जहर छोड़ सकता है तब इस आत्मा के अन्दर भरे हुए मोह-मिथ्यात्व के जहर को हम कैसे दूर नहीं कर सकते हैं?
- दुर्वचन सुनने का प्रयास करना चाहिए हमारे अंदर यह क्षमता है या नहीं यह देख लेना चाहिए। परीक्षण कर लेना चाहिए और यदि जिनवाणी के ऊपर श्रद्धान है तो यह श्रद्धान भी कर लेना चाहिए कि इसके द्वारा मेरी असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा हुई है और मेरा विकास/उन्नति हुई है।
- यह जिनवाणी नौका के समान है जो इस छोर से उस छोर तक पहुँचाने वाली है।
- ‘आत्मानं अधि वर्तते इति अध्यात्म।” अर्थात् आत्मा के जो निकट रहता है।