उपदेश विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जो विषय कषायों में लिप्त हैं उनका उपदेश सुनने की कृपा न करें।
- अच्छे से अपने-अपने योग्य कार्य करते चलो अपने आप बिना उपदेश के ही समाज को व्रतों का वातावरण मिलता चला जाता है।उपदेश देना आवश्यक नहीं है।
- उपदेश को भी आदेश मान लेना चाहिए। आदेश का महत्व ज्यादा रहता है। जो व्यक्ति उपदेश को मानकर चलता है उसे आदेश की आवश्यकता नहीं रहती।
- उपदेश स्वाध्याय का अंग मानकर करते हैं तो ठीक है इसमें दीनता भी नहीं, अभिमान भी नहीं। कर्तव्य जहाँ पर है वहाँ पर ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है।
- सांसारिक लोभ लिप्सा से रहित होकर उपदेश देना चाहिए तभी उत्तम माना जावेगा। मोक्षमार्ग में जो भी प्रवचन करते हैं वे परमार्थ के लिए करें अपने (स्वार्थ के) लिए नहीं।
- टिमटिमाते दीपक में यदि थोड़ा सा तेल डाल देते हैं तो दीपक पुन: जलने लगता है, उसी प्रकार यह धर्मोपदेश भी उस तेल की भाँति है जो बुझे हुए उत्साह को पुन: उत्साहित कर देता है।
- जिस किसी को भी उपदेश नहीं दिया जाता। जैसे-रसोई घर में ऐसे बच्चों को प्रवेश देना चाहिए जिन्हें अच्छी भूख लगी हो।
- प्रज्ञावान को उपदेश देना। प्रज्ञावान का अर्थ विद्वान् नहीं है वरन् प्रज्ञा के द्वारा जो धारण करे या प्रज्ञा के द्वारा जो भिन्न-भिन्न जाने।
- जिसके द्वारा धर्म की प्रभावना हो उस बात का उपदेश देना चाहिए।
- दूसरों को उपदेश न देकर उपदेश का पालन स्वयं करना प्रारम्भ कर दें तो वह उपदेश अपने आप प्रचार को प्राप्त हो जायेगा। जिससे श्रावक अपनी चर्या वैसी बना लेता है उसका नाम उपदेश है।
- जिसके राग नहीं उसका उपदेश पर के हित के लिए ही है ऐसा सिद्ध होता है।
- संतों की वाणी से ही आत्मोन्नति का प्रारम्भ हुआ करता है।
- धर्मोपदेश विषयों में रुचि जगाने के लिए नहीं है। आत्मा की रुचि जगाने के लिए धर्मोपदेश है।
- गुरुओं का उपदेश हमारे शरीर के अंदर के विषाक्त तत्व को दूर करने के लिए औषध का काम करता है। राग, द्वेष, मोह रूपी रोग को हटाती है गुरुवाणी।
- बुराई से बचाकर अच्छाई की ओर ले जाता है जिनोपदेश।