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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • कर्म

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    कर्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. अप्रमत्त अवस्था में आयु कर्म की उदीरणा रुकती है और इसलिए मुनि महाराज प्रमाद से बचते हैं।
    2. दूसरी प्रतिमा से ही हमें सावधान होना पड़ता है अपने एक-एक क्षण के प्रति कि हमारा एक क्षण भी व्यर्थ न जाये।
    3. आगे बढ़ने की भावना हो लेकिन टेंशन नहीं होना चाहिए, जितना मिला उतने में सन्तोष रखना ये सबसे बड़ा धन है। जैसे चींटियों की लाइन रहती है सब एक-दूसरे से प्रेरणा लेते हुए आगे बढ़ती जाती हैं।
    4. कर्म के उदय में स्वयं अपने लिए पुरुषार्थ करते जाओ, नहीं समझे कर्म के उदय में अन्य के लिए क्या कर पाते हैं बताओ बाहर से सहानुभूति बस दे सकते हैं।
    5. कर्मों की ओर देखने से भी कर्म की उदीरणा तेज होती है।
    6. कर्म की खोज न करो व्यक्तित्व की खोज करो।
    7. हम कर्म की ओर तो देखते हैं लेकिन कर्तृत्व और व्यक्तित्व की ओर नहीं। व्यक्ति को पकड़ो अपने आप व्यक्तित्व मिलेगा।
    8. अपने द्वारा किये गये पापों का पश्चाताप, प्रायश्चित करो इससे असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होगी और पुण्य का बंध होगा।
    9. संवेग, निर्वेग सशक्त होना चाहिए उससे कर्म निर्जरा होती है।
    10. अनगार ज्ञान-ध्यान के द्वारा शोभा पाता है और सागार दान-पूजा के द्वारा शोभा पाता है। दोनों का लक्ष्य कर्म की निर्जरा होना चाहिए।
    11. जो आवश्यकों में निष्ठा, विकास लाता है वह कर्म की निर्जरा करता है। इससे लब्धिस्थान भी बढ़ते हैं।
    12. किसी भी मनुष्य के लिए सबसे श्रेष्ठ कर्म दूसरे को सुख और मुस्कान देना है।
    13. आपके अशुभ कर्म खुद रोते हैं और दूसरों को भी रुलाते हैं, वहीं श्रेष्ठ कर्म स्वयं के साथ संसार को भी सुखी कर हँसा सकते हैं।
    14. विष की शीशी को जानकर कि ये विष है तो फेंका जा सकता है उससे आप बच सकते हैं, लेकिन विष मुख में चला गया तो थूका नहीं जा सकता यानि थूक भी दो तो भी, जो जहर मुख में चला गया उसका तो प्रभाव पड़ेगा ही। ऐसे ही कर्म बंधे तो उसके पूर्व सम्हल जाओ तो ठीक अन्यथा कोई उपाय नहीं उससे बचने का।
    15. कर्म के उदय में समता रखना यही कर्म को सही मानना है।
    16. नोकर्म की मात्रा न देखो कर्म के अनुभाग की शक्ति को देखो।
    17. शरीर मिला बस उसी समय से पाप क्रिया कर्मचालू। जैसे-गाड़ी खरीदी कि रोड टैक्स चालू हो गया। चाहे गाड़ी चलाओ अथवा न चलाओ। नियम पालन कर रहे हैं तो पढ़े-लिखे न होने पर भी कर्म निर्जरा हो रही है।
    18. नियम पालन कर रहे है तो पढ़े लिखे न  होने पर भी कर्म निर्जरा हो रही है नियम पल रहे हैं तो उससे निर्जरा अबाधित रूप से चलती है।
    19. कथनी व करनी में सभ्यता होनी चाहिए।
    20. दूसरे की गलती ये है ही नहीं, अपना ही कर्म का उदय है ऐसा हर समय विचार करना चाहिए।
    21. हम कर्मोंदय से नहीं बच सकते लेकिन कर्मोंदय में राग-द्वेष से बच सकते हैं, क्योंकि रागद्वेष अपने ही परिणाम हैं।
    22. जो कर्म बंध से बचना चाहता है वह पंचेन्द्रिय विषयों को छोड़ेगा, किसी के भय से नहीं।
    23. कर्म आपके पीछे वैसे ही लगा है जैसे आपकी काया शरीर की छाया ।
    24. जो भी कार्य हो रहे हैं वे सभी कर्मों के अनुरूप ही हो रहे हैं। कर्म फूल है, फूल के बिना फल नहीं।
    25. कर्म ऐसा है जो कठोर ओर न्यायवान होता है।
    26. कर्म को केन्द्र में बनाकर चलो तो सारी व्यवस्था होती चली जायेगी जिसके पास जैसे कर्म का उदय है वैसी व्यवस्था हो जायेगी।
    27. धार्मिक क्रियाएँ बिना विवेक की नहीं करनी चाहिए। जो भी धार्मिक क्रियाएँ करो उनको विवेकपूर्वक करो ताकि आवागमन मिट सके। कर्मबंधन, कर्म की बेड़ियाँ ढीली हो सकें ओर हमारा भविष्य उज्ज्वल बन सके।
    28. अपने किये गये कर्म का फल तिल का ताड़ सरसों का पहाड़ बनकर आता है।
    29. कर्म किसी पर पसीजता नहीं तो यद्वा तद्वा किसी को पीसता भी नहीं।
    30. किसी कार्य के सम्पन्न करने के लिए यथायोग्य विधि आवश्यक है उसी प्रकार कर्म काटने के लिए भी विधि है। यदि कर्म काटने की विधि ज्ञात है तो कट सकते हैं अन्यथा नहीं।
    31. सुख-दु:ख कर्म की देन है जब तक ऐसा नहीं जान लेते तब तक समता नहीं आती है।
    32. जैसी करनी वैसी भरनी यह भारतीय नीति ही नहीं सिद्धान्त भी है।
    33. योग्यता का परिचय प्रमाण पत्र से नहीं, कार्य से प्राप्त होता है।
    34. आणविक शक्तियों से बढ़कर भी काम करने वाली शक्तियाँ हैं, जिन्हें कर्म कहते हैं।
    35. जो वीतराग सम्यक दृष्टि होता है वह विचार करता है कि जब मेरा कर्म ही मेरा साथ नहीं दे रहा है तो ये मेरे साधर्मी मेरा साथ कैसे दे सकते हैं।
    36. कर्म के उदय से सब कुछ होने वाला है ये श्रद्धान अटूट होना चाहिए तब कहीं जा करके अपने व्रत, संकल्प, विश्वास, श्रद्धान मजबूत रह सकते हैं, अन्यथा नहीं।
    37. कर्मों की निर्जरा करना कोई खेल नहीं है। सावधानी के साथ परिणामों में, संकल्पों में जाग्रति रखने वाला व्यक्ति ही कर्म निर्जरा कर सकता है।
    38. संयम के माध्यम से कर्म निर्जरा की गति नहर की भाँति होती है। नहर में हमेशा-हमेशा रफ्तार से पानी निकलता रहता है।
    39. बैठे-बैठे शांति रखो, आकुलता नहीं करो, परिणामों को जितना शांत बना सको कर्म निर्जरा उतनी ही ज्यादा बढ़ेगी।
    40. कर्म एक ऐसा निष्पक्ष न्यायकर्ता है, जिससे कोई यदि छिपाना चाहे भी तो छिप नहीं सकता।
    41. हम उस कर्म के ऊपर चिंतन कर लें कि ये हमारा ही है तो हम उसे हजम कर सकते हैं।
    42. कर्मों के उदय से बंध नहीं होता। कर्मों के उदय में जो उथल-पुथल होती है उससे बंध होता है और यदि धैर्य रख लिया तो निर्जरा।
    43. यदि हमें पाँच इन्द्रियों की विषमता और विषयों की विषमता में किसी प्रकार की कोई भी प्रतिकूलता का अनुभवन नहीं होता है तो हमारे कर्मों की असंख्यातगुणी निर्जरा होती रहती है।

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