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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • कषाय

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    कषाय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. खूब कषाय के ऊपर कषाय करना सीखो।
    2. कषाय के कारण कोई भी व्रत, व्रत नहीं होते।
    3. गुस्सा करके आप उपवास करो तो वह उपवास नहीं लंघन माना जाता है। किसी का गुस्सा किसी पर लादो यह ठीक नहीं।
    4. तुम्हें गुस्सा करना है तो अच्छे ढंग से करो, लेकिन भोजन त्याग मत करो क्योंकि भोजन का समय है अत: पहले अच्छे ढंग से भोजन करो फिर बाद में गुस्सा करो, गुस्सा ही तो उतारना है तो अच्छे ही ढंग से उतारो न हट्टे कट्टे बन जाओ फिर उतारो।
    5. कषाय के ऊपर कषाय करना चाहो तो कमर कसो कौन हारता है देखेंगे। कषाय बहुत जल्दी हारेगी, आप कमर तो कसो।
    6. कषाय को पी जाना अपने आप में बहुत बड़ा संयम माना जाता है।
    7. किसी ने कुछ कह दिया कषाय आ गई तो एक घूंट गुटक लो। ये ध्यान रखना इसे गुटकने से कभी अजीर्ण नहीं होगा।
    8. मान आने की माया होने की लोभ होने की संभावना हो तो एक घूंट ले लो गुटक लो लोभ को नीचे उतार लो किसी को मालूम न पड़े कि इनमें क्या गुटक लिया।
    9.  मान के मान को भंग कर देना ये मात्र महापुरुष ही कर सकते हैं।
    10. भूलना आत्मा का स्वभाव है। भूलो तो सभी भूल जाओ, लेकिन मतलब की बातें याद रखो। अच्छे कार्यों को भूल जाओ जिससे मान, अभिमान कम होगा।
    11. मुनि बनकर मान को जीतना ये उसका श्रृंगार है।
    12. श्रमण बनने के उपरांत अनिवार्य प्रश्न को हल करने में हम फेल हो जाते हैं।
    13. कषाय के द्वारा मुख कैसे दिखा सकते हो किसी को?
    14. कौन से रास्ते से कषाय आती है सभी दरवाजे बंद रखो बस एक दरवाजा खुला रखो और एक चाटा देकर उसे भगा दो।
    15. कषाय करके माफी माँगने की अपेक्षा कषाय करना छोड़ दो तो ज्यादा अच्छा।
    16. मानना, सम्यक दर्शन का प्रतीक है। जानना, सम्यग्ज्ञान का प्रतीक है और तानना, कषाय का प्रतीक है।
    17. मानी को मान से नहीं मृदुता द्वारा शान्त करो। क्रोधी को क्रोध से नहीं क्षमा के द्वारा शांत करो। आप ईधन का काम मत करो जल रखो पास में सब शांत हो जायेगा।
    18. धर्म और धर्मी दोनों अपमानित हो जायें इस प्रकार का मद/मान नहीं करना चाहिए। मान का नाम घमण्ड है।
    19. राग-द्वेष से जीवन में जितना हो सके दूर रहना चाहिए। पूरे जीवन से इसको दूर कर पाना मुश्किल है, पर इसे सिर पर बैठाना नुकसान देय है। जितना हो सके इससे दूरी बनाना अच्छा है।
    20. क्रोध करना कायरता का प्रतीक है।
    21. अपनी शक्ति को कम होती देखकर क्रोध करना, ये अपनी कायरता को क्रोध के माध्यम से वो व्यक्त करता है।
    22. आप क्रोध और मान से टकरा जाते हैं, माया को अपनाते हैं, लोभ करते हैं और रोते ही यह तो बड़ी बीमारी है, यह मानसिकता बीमारी है शारीरिक बीमारी तो है ही नहीं।
    23. क्रोध, मान, काया, लोभ आत्मा का स्वभाव नहीं है। जब यह स्वभाव नहीं है तो स्वभाव को छोड़ करके अपने को बाहर क्यों जाना?
    24. क्रोध को जानना तो हमारा स्वभाव है मान को जानना हमारा स्वभाव है किन्तु मान-सम्मान मिल जाये तो बहुत अच्छा यह भाव क्यों आया? किन्तु क्रोध को करना हमारा स्वभाव नहीं है।
    25. मान करो नहीं, मान को जानना हो तो जानो।
    26. आप कहीं भी कितने भी छल कर लो लेकिन आप माया को छल के द्वारा जीत नहीं सकते। उसके द्वारा आप ही छले जाओगे।
    27. क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों कषाय भाई हैं। कैसे? एक एक रुपया आता है। नहीं समझे, यह एक आयेगा लेकिन बंधेगे चारों के चारों। ये भाई ऐसे हैं, ये गजब के हैं।
    28. ये उदय में तो एक आता है लेकिन सपोट में एक ही उदीरणा समाप्त हुई नहीं कि दूसरा तैयार हो जाता है। कभी भी अंतराल नहीं होता, नौंवे गुणस्थान तक लगातार चलते रहते हैं।
    29. इनको नीचे गिराना खेल नहीं है। एक का उदय समाप्त होते हुए भी चारों का बंध करें और वह जितने समय तक रहा उसने असंख्यात समय तक कितना बंध कर लिया भगवान् जाने।
    30. यह कषाय की ऐसी दुकान है जिसको देख करके हमें रोना आता है। इसलिए कषायों को जानी लेकिन करो नहीं। इसी से कर्म निर्जरा होती है।
    31. रोष उस पर करो जो दु:ख देता है। क्रोध को जान लो उस पर रोष करो क्योंकि वह दु:ख देता है।
    32. सम्यक दर्शन का गला घोंटना हो तो मद करो। सम्यक दर्शन को यदि जीवित रखना चाहते हो तो मद को निकालना होगा।
    33. राग-द्वेष को यदि हमने कम किया है तो सबसे अधिक आवश्यकों का पालन हमने किया है।
    34. कषाय की गली में नोकषाय अप्रशस्त प्रकृतियाँ अपना प्रभाव डालतीं हैं। जैसे कुत्ता भी अपनी गली में शेर होता है।
    35. कषाय की घुटन में जीना, जीना (उन्नति) नहीं है।
    36. यदि आप तीव्र कषाय से अवशिष्ट हो जायेंगे तो दूसरे को क्या स्वयं को भी समाप्त कर दोगे आप |
    37. कषाय के द्वारा स्वयं अपनी आत्मा ही समाप्त हो जाती है।
    38. दूसरा समाप्त हो या न हो लेकिन कषायों के द्वारा ईर्ष्या, मान, आदि के द्वारा अपनी आत्मा का ही हनन हो जाता है।
    39. संसारी प्राणी द्वेष से तो बचता है लेकिन राग से नहीं बच पाता। और राग से जो बच जाता है वही वीतरागी बन जाता है।
    40. विद्वेषी होना तो बहुत आसानी से हो जाता है। आँखें फेर दो तो विद्वेषी हो जाये। जो राग से चिपकन रहता है, ये खतरनाक होता है।
    41. दूसरों के द्वारा दुख नहीं होता है, विषय कषायों के द्वारा दु:ख होता है तो विषय कषायों को छोडो।
    42. संसार को हेय, कषायों को विद्रोही जानकर इनसे बचो।
    43. कषाय के कारण आंख बंद करके भी ऐसे भाव कर जाते हैं कि जिसके फलोदय में अपनी आँखों में से पानी आ जाता है।
    44. जिस व्यक्ति के मन में कषाय जितनी मात्रा में है, वह व्यक्ति आगम के अनुसार स्व की उतनी हिंसा करता जा रहा है।
    45. कषायों के कारण अनर्थ बंध हो रहे हैं, उससे हम बचना चाहें तो बच सकते हैं।
    46. कषायों के कारण हमारी दुकान में मंदी आयेगी और दुकान धीरे धीरे उठ जायेगी।
    47. क्रोध करना ही है तो अपने राग पर क्रोध करो, अपने द्वेष पर क्रोध करो, अपनी कषायों पर क्रोध करो और भस्मसात कर दो इन बुराइयों को। फिर देखो एक ऐसा अलौकिक दृश्य प्रस्तुत होगा जिसे आज तक नहीं देखा।
    48. राग-द्वेष होते नहीं, किये जाते हैं। याद रखें, मोहनीय कर्म तो उदासीन है।
    49. मोहनीय कर्म की स्थिति ठीक पानी की तरह है जो मछली से यह नहीं कहता, तुम तैरो। किन्तु यदि वह मछली तैरना चाहेगी, तो वह पानी उसकी सहायता कर देगा।
    50. विषय-कषाय हेय हैं, उनका सर्वथा त्याग कर दो। उपादेय हैं अपने में रमण और उपाय हैं भगवान् के चरण।
    51. पीठ दे दो विषय कषायों को सदा सर्वदा के लिए किन्तु भगवान् को पीठ मत दो। उनको आदर्श के समान अपने आगे रखो।
    52. आप लोग पूजन में ऊपर से द्रव्य को चढ़ाते हो लेकिन उसके साथ अपने भीतर का राग भी चढ़ाया करो।
    53. दुनिया में राग ही राग नजर आता है। जिनबिम्ब में ही एक मात्र वीतरागता दिखती है। वही लक्ष्य है/मंजिल है/प्राप्तव्य है।
    54. जिस प्रकार कचरे को व्यर्थ मानकर फेंक देते हैं उसी प्रकार पंचेन्द्रिय के विषयों को व्यर्थ मानकर उनका त्याग करना होगा।
    55. स्वभाव की पहचान करने के लिए विभावरूप विषय कषायों को गौण करना अनिवार्य है।
    56. जैसे हाथी के ऊपर बंदरिया का बैठना, शोभा नहीं देता, ऐसे ही हमारी आत्मा पर मान का बैठना शोभा नहीं देता।
    57. जल में कोई चीज डालो तो सीधी नहीं जाती, यहाँ-वहाँ होकर नीचे जाती है। ऐसे ही संसार में जब तक जीव राग-द्वेष मोह के साथ है तब तक वह चलेगा भी तो जल में डाली गई वस्तु के समान ही टेढ़ा चलेगा, सीधा नहीं चलेगा।
    58. मोह विलीन हुआ समझो दु:ख विलीन हुआ।
    59. क्रोध को जीतने का प्रयास करना चाहिए हो तो वह बहुत आसान है-उस ओर देखिये मत। देखने से काम बिगड़ जायेगा।
    60. आप क्रोध से मत डरिए क्रोध करने से डरिए।
    61. कषाय को पालना ही ज्ञान को पागल बनाना है।
    62. कषाय का फल रोते हुए भोगना पड़ता है।
    63. यदि संहनन दीर्घ नहीं है तो कोई बात नहीं लेकिन संहनन के अनुकूल तो कषायों को जीतने का प्रयास कर लें।
    64. जो शिखर पर बैठ करके तपस्या कर रहे हैं उनका गुणगान तो कम से कम छाया में बैठ कर कर लो।
    65. कषाय को जीतने में काय की क्षमता चाहिए लेकिन आज वह भी नहीं हो पाता है।
    66. जो कषायों को जीतने का उपाय करता है उसकी बहुत कर्म निर्जरा हो जाती है।
    67. कषायों को ही अपना शत्रु मानो।
    68. कषायों को जीतने का प्रयास जितना होता है उतना तो करो। यदि यह भी नहीं होता है तो क्या होता है? आखिर कोर्स में क्या आएगा?
    69. कषाय की तीव्रता ज्यादा रहेगी तो निश्चितरूप से जो शरीर है वह क्षीण हो जायेगा, सारा का सारा खून पतला होकर के सब पानी बन जायेगा।
    70. दरिद्रता रखो तो कषायों के प्रति रखो।

    Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव


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