१९-११-२०१५
भीलवाड़ा (राजः)
स्व-व्यवसायी आत्मावलम्बी स्वाभिमानी गुरुवर ज्ञानसागरजी महाराज के पावन चरणों में आत्मावलम्बी बनने हेतु त्रिकाल, त्रियोगपूर्वक, त्रिभक्तिमयी नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु…
हे भारतीय संस्कृति मर्मज्ञ गुरुवर! आप सोच रहे होंगे कि पहले भौगोलिक स्थिती बतायी अब व्यवसाय के बारे में बता रहे हो आखिर इन सब से क्या लेना देना। सच तो यह है कि आपके बहाने जगत् का उपकार किया जा रहा है दूसरी बात यह है कि विद्याधर की धमनियों में जो रक्त प्रवाहित है वह आखिर किस भोजन से बना है जो समस्त विश्व के पालनहार बन गए। इस सम्बन्ध में बड़े भाई महावीरजी ने बताया-
पैतृक व्यवसाय ने दी ऊँची सोच
‘‘सदलगा मूलत: कृषि आधारित क्षेत्र है। यहाँ खेती एवं पशु पालन जीवन का आधार है। यहाँ की मुख्य फसल गन्ना है जो बिना कीटनाशक के अहिंसक तरीके से उत्पन्न किया जाता था। इसके सिवा तम्बाकू, मिर्ची, मूंगफली, गेहूँ एवं ज्वार की फसल प्रचुर मात्रा में होती है। पानी प्रचुर मात्रा में होने से एक एकड़ में १०० टन गन्ने की पैदावार होती है। ५ फीट ऊँचाई तक घास पैदा होती हैं। एक ही जिले में ३० शक्कर की फैक्ट्रियाँ हैं। यहाँ पर गेहूँ छिल्का सहित बोया जाता है इससे अत्यन्त पौष्टिक गुणकारी गेहूँ पैदा होता है, जो लाल रंग का होता, जिसकी खीर बहुत स्वादिष्ट बनती है।
यहाँ के निवासी गाय, बैल, भैंस आदि पशुओं को बड़े ही प्यार से पालते हैं और खेतों में गोबर, गौमूत्र से निर्मित खाद डाला जाता है। पौष्टिक आहार खिलाने के कारण सभी पशु शक्तिशाली होते हैं। हमारे घर में आठ बैलों से चलने वाला हल था। यहाँ पर आज भी ४, ६ और ८ बैलों से चलने वाले हल हुआ करते हैं क्योंकि गन्ने में बहुत गहराई तक जुताई होती है जिसमें ज्यादा ताकत की जरुरत पड़ती है।
पिताजी (मल्लप्पाजी) कभी भी नौकरी के पक्षधर नहीं रहे। एक बार मेरी नौकरी करने की इच्छा होते हुए भी उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया था कि हम मालिक से नौकर बनेंगे क्या? इसलिए हमने पिता के निर्देश पर कृषि कार्य को अपनाया किन्तु जब विद्याधर ८-९ वर्ष का था तब कोई उससे पूँछता बड़े होकर क्या बनोगे? तो बड़ेगर्व के साथ बोलता था कि मैं नौकर नहीं बनूंगा कोई नौकरी नहीं करूँगा और कृषि कार्य भी नहीं करूँगा, मैं तो बड़ा बिजनेसमैन बनूंगा जिसमें मोल भाव नहीं किया जाता, ऐसी एजेन्सी लूँगा।”
इस तरह भगवान ऋषभदेव के द्वारा बताई गई कर्मयुगी अहिंसक कृषि व्यवस्था अष्टगे परिवार की आजीविका थी। कठिन परिश्रमी पिता के पूर्ण संस्कार विद्याधर के रक्त में घुले हुए थे। यही कारण है कि विद्याधर नौकरी को अच्छा नहीं मानता था किन्तु नया कुछ करने की ऊँची सोच थी। मैं भी स्वावलम्बी बनूँ इस भावना के साथ...
कृपाकाँक्षी
शिष्यानुशिष्य