९-११-२०१५
भीलवाड़ा (राजः)
ज्ञान ध्यान तपोरक्त ज्ञानातिशयी गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महामुनिराज के चरणकमलों में त्रिकाल वियोगपूर्वक त्रिभक्तिमय नमोस्तु नमोस्तु-नमोस्तु....
हे ज्ञानवृद्ध गुरुवर! जब आप विद्याधर को मुनि दीक्षा देने वाले थे तब समय ने अनेकों प्रश्न विद्याधर को लेकर उठाये थे। कितना भ्रम फैला था कि ये जैन नहीं हैं, इनकी जाति का कुछ पता नहीं है इनके कुल परिवार वंश का कुछ पता नहीं है, कैसा? क्या है? हालाकि आप विद्याधर के उत्तरों से संतुष्ट थे और चतुराई से सारे विवाद भी हल कर दिए थे, लेकिन आपकी दृष्टि विशाल है, किन्तु निम्न दृष्टि रखने वाले लोगों को भी संतुष्टि मिले इस बाबत सदलगा से पधारे विद्याधर के ज्येष्ठ भाई महावीरजी अष्टगे से प्रामाणिक समाधान मिला-
संस्कारवान् वंश में जन्मे महापुरुष आचार्य विद्यासागर
“दक्षिण भारत में चतुर्थ, पंचम, बोगार, सेतवाल आदि प्रसिद्ध दिगम्बर जैन उपजातियाँ हैं । गाँव के जमीदारों की चतुर्थ जाति होती है। सदलगा से ४० कि.मी. दूर अष्टा गाँव है हमारी तीन पीढ़ी पूर्वं वंशज अष्टा गाँव में निवास करते थे। वहाँ से शिवराया भरमगौड़ा चौगले कर्नाटक के बेलगाँव जिले की चिक्कौड़ी तहसील के सदलगाग्राम आये थे इसलिए हमारा गौत्र अष्टगे बन गया, अष्टागाँव के होने से।
हमारे दादा पारिसप्पाजी (पार्श्वनाथ) बहु प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे सदलगा के कलबसदि (पाषाण निर्मित मंदिर) के मुखिया थे और प्रतिदिन घर पर स्वाध्याय किया करते थे। जो ग्रन्थ वो पढ़ते थे आज तक हमारे घर पर सुरक्षित रखे हैं। दादाजी के जाने के बाद अन्ना (पिता-मल्लप्पा जी) उनका स्वाध्याय किया करते थे, अब मैं करता हूँ।
मेरे दादा पारिसप्पा ने दो विवाह किए थे। पहली पत्नि से एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुई थी लेकिन कम उम्र में ही पहली पत्नि का स्वर्गवास हो गया तब उन्होंने दूसरा विवाह काशीबाई से किया था। पहली पत्नि से उत्पन्न अप्पण्णा साहेब नाम के पुत्र से चार पुत्रियाँ और तीन पुत्र हुए थे। प्रथम पुत्र भरमप्पा (मल्लप्पा बदनिकाई को गोद गया) दूसरे अन्ना साहेब और तीसरे भूपाल नाम के हैं। चार पुत्रियों में से एक पुत्री ने आर्यिका दीक्षा ग्रहण की थी।
दूसरी पत्नि काशीबाईजी से कुल चार संतानें उत्पन्न हुई थी। दो पुत्र और दो पुत्रियाँ। प्रथम संतान चन्द्राबाई नाम की पुत्री थी, फिर दूसरे नम्बर पर अन्नाजी (पिता-मल्लप्पाजी) का जन्म १२-०६-१९१६ को हुआ तीसरे नम्बर पर अक्काताई नाम की पुत्री हुई और चौथे नम्बर पर आदप्पा नाम के पुत्र हुए थे।
मल्लप्पाजी (मल्लिनाथ) की शिक्षा मराठी स्कूल में कक्षा १-५वीं तक और कन्नड़ स्कूल में कक्षा ७ वीं तक हुई थी। मल्लप्पाजी शरीर से तंदुरुस्त थे, वे बचपन से ही पहलवानी एवं तैराकी किया करते थे। एक भैंस का दूध पूरा का पूरा अकेले ही पी लिया करते थे।
आप पर दादा पारिसप्पाजी के संस्कारों का बड़ा प्रभाव था। दादा-दादी दानपरायण धर्मात्मा थे और घर पर चन्द्रप्रभु चैत्यालय में प्रतिदिन पूजा-प्रक्षाल किया करते थे तथा सदा अष्टमी-चतुर्दशी को उपवास किया करते थे। यही कारण है कि मल्लप्पाजी सांसारिक व्यामोह में उलझना नहीं चाहते थे । विवाह के छह माह पूर्व घर से भाग गए, मुनि दीक्षा लेने की चाह में, तब दादा पारिसप्पा ने किसी तरह उन्हें ढूंढा और विवाह करा दिया। मल्लप्पा जी का विवाह सदलगा से १८ कि.मी. दूर स्थित अक्कोळ ग्राम जिला बेलगाँव में पिता भाऊसाहेब माँ बैनाबाई की पुत्री १४ वर्षीय श्रीमन्ती जी से हुआ था। श्रीमन्तीजी का जन्म सन् १०-०२-१९१९ को हुआ था। जब वह छह माह की थी तभी उनके माता-पिता का प्लेग महारोग के कारण स्वर्गवास हो गया था। उनका लालन-पालन दादा-दादी के पास हुआ। श्रीमन्ती जी के दादा-दादी धार्मिक एवं बड़े वैभवशाली सम्पन्न गौड़ा जमींदार थे। आप माता-पिता की इकलौती संतान थीं। आपकी शिक्षा मराठी माध्यम से कक्षा ६ वीं तक हुई थी।
माँ श्रीमन्तीजी ने विवाह उपरान्त व्यवहार कुशलता से गृहस्थी का पालन पोषण किया। घर में कुँआ था, पड़ोस में ही बावड़ी थी और थोड़ी ही दूरी पर नदी भी थी। वह अपने हाथ से चक्की (हाथ वाली) चलाकर आटा तैयार करती थीं, सिर पर घड़े रखकर पानी भरकर लाती थीं, गोबर से घर आँगन लीपती थीं, बच्चों को जहाँ अच्छे-अच्छे संस्कार देने में निपुण थी तो वहीं स्वादिष्ट व्यंजन जैसे-जलेबी, नुकती, रबा और बेसन के लड्डू, शक्कर- पारे, डोसा, कई तरह के नमकीन, चकली, गेहूँ की खीर, ज्वार की खीर, शांडगी (चावल की मगोड़ी की तरह व्यंजन), सिवईयाँ आदि बनाती थीं। दही मथकर मक्खन निकालती और तत्काल गर्म करके देशी घी बना देती थी। सभी बच्चों को छाछ पीना अनिवार्य था। घर और खेत के कर्मचारियों का भी पूरा ध्यान रखती थी। विशेषतया पूरणपोली, इडली, डोसा बनाती ही रहती थी क्योंकि विद्याधर को ये विशेष पसंद थे।
मल्लप्पाजी की कुल दस संतानें हुईं। सन् १९३९ में प्रथम पुत्र हुआ जिसका श्रीकान्त नाम था, जो ६ माह बाद काल कवलित हो गया। सन् १९४१ में दूसरी संतान पुत्री हुई, जिसका नाम सुमन रखा गया, जो ६ वर्ष की उम्र में मृत्यु को प्राप्त हो गई। तीसरी संतान के रूप में पुत्र महावीर ने १-६-१९४३ में जन्म लिया। चौथी संतान विद्याधर थे इनका जन्म १०-१०-१९४६ को हुआ था। इसके बाद पाँचवें नम्बर पर पुत्री शान्ता बाई का सन् १९४९ में जन्म हुआ था और तीन वर्ष पश्चात् सुवर्णा बाई पुत्री का सन् १९५२ में जन्म हुआ था,
इसके बाद एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका धनपाल नाम रखा गया किन्तु पन्द्रह दिन बाद ही महाकाल ने ग्रस लिया। इनके बाद आठवें स्थान पर पुत्र अनंतनाथ का जन्म सन् १३-६-१९५६ को हुआ था और नवें स्थान पर शान्तिनाथ पुत्र को सन् २७-१०-१९५८ को जन्म हुआ । अन्तिम संतान का जन्म नहीं हो पाया और वह माँ के पेट में ही कर्मोदय से अपने नियत स्थान पर कालदूत के साथ चला गया।
माता-पिता ने ५ फरवरी १९७६ को मुजफ्फरनगर उत्तरप्रदेश में परमपूज्य तृतीय पट्टाचार्य वात्सल्यमूर्ति श्री धर्मसागर जी महाराज के करकमलों से आर्यिका एवं मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। जिनका नामकरण हुआ आर्यिका समयमति एवं मुनि मल्लिसागर। साधना करते हुए आर्यिका समयमति जी की समाधि ०३-०६-१९८४ को ग्राम कोछोर जिला-सीकर में हो गई एवं मुनि मल्लिसागर जी की समाधि २२
दिसम्बर १९९४को कोल्हापुर महाराष्ट्र में हुई।”
वंश परम्परा की जानकारी भाट से इस प्रकार प्राप्त हुई उसका चार्ट अवलोकनीय है-पृ.-१४ इस तरह संस्कारवान् लोकोत्तर पुरुष द्याधर के बारे में जो रहस्यमयी पर्दा था वह पूर्णतया उद्घाटित हो जाता हैं, उनकी जाति, गोत्र, कुल, वंश की पूर्ण जानकारी पाकर। इस सम्बन्ध में आगे विशद जानकारियाँ हासिल कर और लिखूँगा। मुझे आप पर गौरव हो रहा है कि आप आगम चक्षु ही नहीं अपितु लौकिक मुद्रिक शास्त्र, शकुन शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र के भी ज्ञाता महापुरुष थे। आज पूरी दुनिया आपकी कसौटी का लोहा मान रही है। आपके दिव्यज्ञान को नमन करता हुआ...
चरणानुरंजित
शिष्यानुशिष्य