Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. शिल्पी से अपनी निरुपयोगिता, कटु आलोचना सुन प्रकृति क्रोधित हो उठी, उसके नेत्र लाल-लाल हो गए, शरीर कुरूप-सा बना उसके ललाट तट पर लिखी हुई थी कुछ पंक्तियाँ – "प्रकृति नहीं, पाप-पुञ्ज पुरुष है, प्रकृति की संस्कृति-परम्परा पर से पराभूत नहीं हुई, अपितु अपनेपन में तत्परा है।" (पृ. 124) पुद्गल ने नहीं आत्मा ने ही अपने स्वभाव को छोड़, पर को ग्रहण किया है इसलिए पाप का सागर पुरुषात्मा है, प्रकृति नहीं। पुद्गल ने कभी भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ा, ना ही किसी के वशीभूत हो हार स्वीकार किया। पुन: प्रकृति पुरुष को कुछ उपदेश देती है सही-सही पुरुषार्थ के रूप में - कि हे चेतन ! जो अपने से भिन्न, पर है; उसे कभी भी स्वीकार नहीं करो, हाँ इतना जरूर है कि पर को जानी देखी अवश्य, उस पर विचार भी करो उसमें जो अपना हो, हितकारी हो निर्णय कर स्वीकार करो। पर को छोड़ दो, मन में विषय-वासनाओं, मोह को मत रखो। क्योंकि जानना-देखना तो चेतन का स्वभाव है, वह समाप्त भी नहीं हो सकता, किन्तु जिसे जाना है देखा है उन सबको स्वीकार किया ही जाए जरूरी नहीं है, वह तो मोह का परिणाम है। फिर सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष/अपराध की पकड़ की जावे तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि- "ज्ञान का पदार्थ की ओर डूलक जाना ही परम-आर्त पीड़ा है, और ज्ञान में पदार्थों का झलक आना ही परमार्थ क्रीड़ा है।" (पृ. 124) ज्ञान जब पदार्थों की ओर प्रवृत होता है, पदार्थों को जानने का प्रयास करता है तो अत्यन्त दुख का कारण बनता है, ज्ञाता पीड़ित होता है और जब ज्ञान में पदार्थ स्वयमेव झलक आता / प्रतिबिम्बित होता है तब परम आनंद उत्पन्न होता है, परमार्थ यानी श्रेष्ठ प्रयोजन केवलज्ञान का आमोद-प्रमोद है वह। उदाहरण से समझे तो आँखें दिन भर खुली रहती हैं, सब दिखता रहता है लगातार एक विषय पर टिक जाती हैं (पुस्तक पढ़ने, टी.वी. देखने आदि कार्यों में) तो पीड़ा-थकान का अनुभव होने लगता है। अत: ज्ञानी आत्मा का जड़ की ओर जाना, निज वैभव को छोड़ दरिद्रता को धारण करना, अपनी हार से लज्जित होना है | जबकि आत्मा में पदार्थों का झलक आना, स्वाधीनता के साथ प्रयोजनभूत तत्व (केवलज्ञान, अव्याबाध सुख आदि) से श्रृंगारित होना है। गुणी से ऊपर चोट पड़ने पर गुण भी उसकी चपेट में आता ही है क्योंकि गुण कभी गुणी से पृथक् नहीं रहते और यहाँ भी यही हुआ है - प्रकृति ने पुरुष को उपदेश दिया, सत्य का बोध कराया और चेतन ने भी उसे स्वीकार किया। ठीक ही है जड़ में जल देने पर पूरा पेड़ फलता-फूलता है और मूल को ही काट देने पर पूरा पेड़ सूख जाता है। मूल अर्थात् चेतन को बात समझ में आ गई, वह जागृत हुआ स्व-पर के कर्तव्य पर प्रकाश डालता है/स्पष्ट करता है - आमोद-प्रमोद = सुख-चैन, भोग-विलास।
  2. शिल्पी ने देखा की तन का पक्ष मजबूत बना, विपक्ष के रूप में खड़ा है। माटी की रौंदन क्रिया पूर्ण करनी ही है, अत: दूसरे पक्ष चेतन को जागृत किया, यह कहकर कि- "तन, मन, वचन ये बार-बार बहु बार मिले हैं, और प्राप्त स्थिति पूरी कर तरलदार हो पिघले हैं, मोह-मूढ़तावश इन्हें हम गले लगायें परन्तु खेद है, पुरुष के साथ रह कर भी पुरुष का साथ नहीं देते ये।" (पृ. 122) अनादिकाल' से आज तक पौद्गलिक मन-वचन-काय अनेक बार मिले हैं और अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण कर नष्ट हुए हैं। अज्ञानता के कारण ही हमने इन्हें स्वीकार किया, अपनाया किन्तु दु:ख की बात है कि आत्मा के साथ रहकर भी इन्होंने कभी आत्मा का साथ नहीं दिया। यदि कुछ दिया भी है तो सारभूत नहीं निस्सार (क्षणिक सुख, सुखाभास) ही दिया, मात्र धोखा दिया। इतने पर भी यह पागल संसारी आत्मा बार-बार धोखा खाता, रोता और आँखों से निकलने वाले आँसुओं से अपने मुख को धी, पुनः धोखा ही खाता आ रहा है प्रकृति यानी पौद्गलिक पर पदार्थों से, अन्य सम्बन्धियों से। इतना सब होने के बाद आज भी यह मौका देखता है कि जड़ पदार्थों, मन-वचन-काय एवं अन्य सम्बन्धियों से कुछ अभूतपूर्व सुख /आनन्द मिलने का। क्या करें! अज्ञान की महिमा है। इसी बीच चेतन शिल्पी को अपना कुछ आशय बताता है- "वेतन वाले वतन की ओर कम ध्यान दे पाते हैं और चेतन वाले तन की ओर कब ध्यान दे पाते हैं?" (पृ. 123) सीमित धन लेकर देश की सेवा करने वाले प्राय: देश की ओर कम ही ध्यान दे पाते हैं और राजा जिसे राज्य से वेतन नहीं मिलता किन्तु देश के प्रति समर्पण के कारण ही वह रणभूमि में लड़ते हुए अपने प्राण भी त्याग कर देता है। इसी प्रकार चेतन को जिसने पहचान लिया, चेतन को पाने की जिसके अन्त:करण में प्यास जगी है, ऐसे महामानव शरीर की ओर कब ध्यान देते हैं। इसलिए तो श्रमणों का मरण वन में हुआ करता है आत्मधर्म की रक्षा करते हुए गजकुमार मुनि, सुकौशल मुनि आदि के समान। जिस आत्मधर्म / वीतरागधर्म की छत्रछाया में सारी धरती सानन्द, सुखमय जीवन व्यतीत करती आ रही है। अनादिकाल = जिसका कोई प्रारम्भ न हो, ऐसा काल।
  3. माटी और शिल्पी दोनों मौन की ओर निहार रहे हैं, सो एक प्रश्न खड़ा होता है। मौन से कौन बड़ा है? इसके जबाब में मौन बोलता है, जो मौन की भाषा को समझ सके वह मौन से भी बड़ा है। क्योंकि मौन तो पोल यानी आकाश के समान सीमातीत है, सदा शुद्ध तथा शुद्ध केवलज्ञान को उत्पन्न कराने वाला है। शब्दों का शरीर सीमा से बँधा होता है, ढोलक की रचना भी सीमा से ही सुरक्षित होती है। परन्तु अनन्त आकाश के समान मौन विशाल रहस्य को लिए होता है। इसलिए महापुरुष प्राय: मौन का ही आश्रय लेते हैं तीर्थंकर दीक्षा लेने के बाद बोलते ही नहीं, केवलज्ञान होने के बाद बोलते भी हैं तो बुद्धिपूर्वक नहीं। अब मौन स्वयं समतामय मधुर शब्दों में कुछ कहता है माटी से, कि शिल्पी के विषय में तेरी श्रद्धा, आस्था कुछ कमजोर-सी, अस्थिर लग रही है। देख सागर को लक्ष्य बनाकर बहती सरिता, अस्थिर होते हुए भी आस्था वाली होती है। आस्था के साथ आचरण होने पर वही आस्था निष्ठा के रूप में बदलती है, तभी आनंद की अनुभूति होती है, निष्ठा यानी स्वानुभूति का फल ही प्राण प्रतिष्ठा यानी अरिहंत दशा है, जिससे जन-जन का कल्याण होता है। और धीरे-धीरे प्रतिष्ठा की पराकाष्ठा यानी चरम सीमा की ओर कदम बढ़ाती हुई वही आस्था समीचीन संस्था यानी सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाती है तब वही आस्था सदा-सदा के लिए आवागमन, क्षणभंगुरता को छोड़ शाश्वत पद को प्राप्त करती है। इसलिए शिल्पी के विषय में तुम्हें अपनी श्रद्धा कम नहीं करनी चाहिए। मौन की बात सुन माटी की आस्था ललकारती हुई कहती है मौन से-हे मौन! तू आस्था की बात तो कर रहा है किन्तु आस्था से बात भी तो कर अर्थात् अपने जीवन में भी श्रद्धा तो जगा। मैं पाप से मौन हूँ तो तू श्रद्धा से मौन अर्थात् रहित, तुझमें पाप ही पाप छुपा है। श्रद्धा का दर्शन ना ही आँखों से संभव है और ना ही आशा से, वह तो श्रद्धा से ही संभव है। आँखों से इच्छाओं को तो पकड़ा जा सकता है किन्तु श्रद्धा को नहीं। पुण्य-पाप से रची इस दुनिया का रहस्य चर्म दृष्टि से नहीं किन्तु आस्था की धर्म दृष्टि से ही पकड़ में आ सकता है। इतना कहकर माटी की आस्था, भीतर की ओर वापस लौटती हुई लाल आँखों से मौन को डराती-सी लगी कि शिल्पी की नीली आँखों से नीलिमा गिरते ही आस्था शान्त हो जाती है।
  4. शिल्पी किंकर्तव्यविमूढ़ - सा खड़ा है। कुछ क्षण के लिए माटी के मन में आकुलता, बैचेनी-सी होने लगी। सोचती है वह कि - अब आगे क्या होगा पता नहीं, जो घटेगा वह मेरी जीवन विकास यात्रा के अनुकूल होगा कि नहीं, यह सब भविष्य की बात है। हम - तुम क्या जाने? किन्तु जो भूत, भविष्य और वर्तमान को जानने वाले सर्वज्ञ प्रभु हैं उनके केवलज्ञान में सब कुछ स्पष्ट दिख रहा है और माटी की बुद्धि भी मौन हो जाती है। ऐसी दशा में मलिन हुआ मन भी पैरों को आज्ञा देने में पूर्ण असमर्थ हो चुप रहा और मन के संकेत पाए बिना मुख भी कुछ कह ना सका। पर रसना कह उठी - कि यदि उचित कार्य हो तभी बोलना ठीक है अन्यथा नरक की राह पकड़नी होगी यानी – "जो जीव अपनी जीभ जीतता है दु:ख रीतता है उसी का सुख-मय जीवन बीतता है चिरंजीव बनता वही और उसी की बनती वचनावली स्व–पर–दुःख–निवारिणी संजीवनी बटी.!" (पृ. 116 ) पाँच इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय को जीतना सबसे ज्यादा कठिन कहा है, जिसने रसना को जीत लिया उसने सारी दुनिया को जीत लिया। फिर उस जितेन्द्रिय का जीवन दुख से खाली हो, अनन्तकाल तक सुखमय बीतता है। उस व्यक्ति के मुख से निकले वचन अपने और पर के दुखों को दूर करने वाले बनते हैं, संजीवनी बटी के समान। चलना, अनुचित चलना और कुचलना ये तीन बातें हैं, यहाँ प्रसंग है कुचलने का, माँ माटी कुचली जाएगी। फिर भला मैं क्या कहूँ, क्यों कहूँ किस प्रकार से कहूँ पदों को और गम्भीर हो चुप हो जाती है रसना। उपरिल वार्ता को शिल्पी की नासिका ने भी सुना और इस घृणित कार्य की निन्दा करती हुई थोड़ा सा अपने को मरोड़ती, पैरों का समर्थन करती हुई कहती है कि-पदों (दोनों पैरों) का कुचलने के कार्य से विराम लेना न्यायोचित है और पद के अनुकूल भी। इधर माथे का तेज भी फीका पड़ने लगा, नेत्रों ने भी अपनी ज्योति को भीतर भेज पलकें बंद कर लीं, लगता है उसने भी कुचलने रूप कृत्य का असमर्थन किया है। संक्षेप में कहें तो शिल्पी के अंग-उपांग सभी ने पैरों का ही समर्थन किया है। किंकर्तव्यविमूढ़ = दुविधा भरी स्थिति, जो यह समझ ना सके कि अब क्या करना है।
  5. माटी को रौंदकर लौदा बनाने हेतु शिल्पी का माटी के पास आना हो रहा है। फूली माटी को रौंदना है, रौंदन क्रिया हाथ से सम्भव नहीं क्योंकि माटी को चिकनाई की चरमता तक पहुँचाना है, यह कार्य पैरों के द्वारा ही संभव है। हाथ प्राय: कर्तव्य के क्षेत्र में कायर ही बनते हैं, माँगने की बात हो तो खुलकर दोनों हाथों को फैलाकर धन, पैसा माँगते हैं, फिर मानवता से नीचे गिर, मानवता यानी अहंकार, अभिमान से भर जाते हैं। जबकि पैर इससे विपरीत स्वभाव वाला है, परिश्रम का आदि बना सदा परिश्रम करता है, प्राय: चोट खा घायल बनता है, फिर सदा नम्रता से मिलता है और निज को पवित्र, पूज्य बना लेता है। जैसे ही शिल्पी माटी को रौंदने के लिए अपना दाहिना पैर उठाने का भाव करता है कि उसे अनुभव होता है मानो उसके दाहिने पैर में खून जम - सा गया वह चेतना शून्य हो रहा है और बाँया पैर भी प्रभु से प्रार्थना करता हुआ कुछ कहता है कि - "पदाभिलाषी बन कर पर पर पद-पात न करूँ उत्पात न करूँ, कभी भी किसी जीवन को पद-दलित नहीं करूँ, हे प्रभो ।" (पृ. 115) हे भगवन्! तुच्छ – नश्वर पदों की इच्छा लेकर दूसरों पर पैर ना रखें, ना ही किसी को बुरा कहूँ, कष्ट दूँ और ना कभी किसी को पैरों तले रौंदू। सच्चा भत तो वही है, जो ईश्वर पद के सिवा अन्य पद की चाह न रखे और रखे भी तो दूसरों को गिराकर, दबाकर, बुरा बनाकर नहीं किन्तु सबको अपना बनाकर। और फिर स्वभावत: शान्त परिणाम वाली माँ माटी के मस्तक पर पैर रखना, संभव नहीं होगा हमसे । यह कार्य तो–कल्याणकारी, मंगलदायक क्षेत्र पर प्रलय करना, प्रेम वात्सल्य के शिखर पर निर्दय होकर वज़पात करने के समान होगा। माटी पर पैर रख कर, इस युग को सुख-शान्ति से रहित नहीं करना है और दुख, थकावट से नहीं भरना है।
  6. काँटे की जिज्ञासा, शिल्पी का समाधान सुनती रही लेखनी और प्रासंगिक विषय साहित्य पर वह भी कुछ कहती है। जिस प्रकार रसोइया की जिह्वा रसदार भोजन का आनन्द/रसास्वादन कम कर पाती है उसी प्रकार प्रवचनकार और लेखक भी साहित्य रस का उतना आनन्द नहीं ले पाता, जितना की क्षीर-नीर विवेकी हंस समान प्रवचन सुनने की कला में कुशल, श्रद्धा से भरा श्रोता आनन्द लेता है। इसका कारण यह है कि प्रवचन काल में प्रवचनकार और लेखनकाल में लेखक दोनों सोच-विचार में डूबते हैं कि आगे क्या बोलना अथवा आगे क्या लिखना है। उस समय ना कुछ अनुभव होता है, ना कुछ रस और ना ही नीरसता की बात केवल लगाव रहित अतीत और वर्तमान में टकराव रहता है बस।
  7. लेखनी द्वारा प्रवचन कला परवान वक्ता और श्रोता की मिसांसा, शिल्पी द्वारा माटी को रौंदने की क्रिया प्रारम्भ करना। हाथ-पैर का कर्तव्य क्षेत्र, दाहिना पैर का अचेत हो माटी को रौंदने हेतु असमर्थन। दूसरे पद द्वारा प्रभु से प्रार्थना माँ माटी को रौंदना संभव नहीं। इस क्षण माटी की मनोदशा, म्लान बना शिल्पी का मन, उसी के साथ हुए मुख, रसना, नासिका, आँखें और सभी अंग-उपांग। मौन से बड़ा कौन, मौन का कथन, आस्था, निष्ठा, प्रतिष्ठा, प्राण-प्रतिष्ठा, संस्था, और सच्चिदानंद संस्था का विकास अव्यय दशा की प्राप्ति, आस्था की पकड़। शिल्पी द्वारा चेतन पक्ष का स्मरण, तन, मन, वचन रूप प्रकृति का पुरुष को सहयोग कितना ? धोखा, फिर भी कुछ पाने की आस। प्रकृति ने भी अपनी बात रखी-प्रकृति नहीं पापपुंज पुरुष है। किस पर किस का नियन्त्रण हो समझाते हुए चेतन सक्रिय होता है, उसके साथ तन भी सक्रिय हो, माटी की रौदन क्रिया प्रारम्भ होती है। माटी की मृदुता ने कहा पूरा चल कर विश्राम करो सो शिल्पी का तन मन पुनः स्फूर्ति से जुट जाता है अपने काम में।
  8. आज शाम को पंजाब से आए सिख समाज के बहुत बड़े संत ने गुरूदेव के नवदा भक्ति से दर्शन किये और उनके साथ काफी संख्या में लोगबाग आये जिन्होंने माथा टेक कर पुण्य लाभ लिया|
  9. काँटे की बढ़ती जिज्ञासा और ज्ञान की पिपासा देख शिल्पी साहित्य शब्द पर बोलता है कि-जो हित से युक्त होता है अर्थात् परोपकार से जुड़ा हो वह सहित माना है सहित का भाव ही साहित्य है, अर्थ यह हुआ कि जिसके पढ़ने सुनने से सच्चा सुख (इन्द्रियातीत) उत्पन्न हो वही सही साहित्य है, अन्यथा सुगंध से रहित पुष्प के समान जिसमें सुख का लेश मात्र न हो वह 'शब्द-झुण्ड' मात्र है, सही साहित्य नहीं कहा जा सकता है। जिस जीवन में कषाय शमन हो गई विषयों को वश में किया जा चुका हो ऐसा परम शान्त, आदर्श जीवन ही शाश्वत साहित्य का निर्माता है। इस वीतराग साहित्य को आँखें भी पढ़ सकती हैं, कान भी सुन सकते हैं और हाथ भी इसकी सेवा कर सकते हैं, यह जड़ नहीं अपितु जीवित साहित्य है-चलता फिरता भगवान् धरती का देवता श्रमण। साहित्य शब्द की व्याख्या सुन फटा माथा होकर भी काँटा, स्त्री समागम से भी कहीं अधिक आनन्द का अनुभव करने लगा। टूटी टाँग वाला होकर भी चिन्तन में डूबा नृत्य करने लगा वह काँटा। मन्द ही मन्द मन में वह हँस रहा है, मानी शिल्पी को इस बात का अहसास करा रहा है कि- "सदा-सदियों से हंसा तो जीता है दोषों से रीता हो, परन्तु सब की वह काया पीड़ा पहुँचाती है सबको इसलिए लगता है, अन्त में इस काया का दाह-संस्कार होता हो।" (पृ. 112) आत्मा जो दोषों से रहित शुद्ध स्वभाव वाला है, सदा अनादि काल से रह रहा है परन्तु कर्मोदय से मिलने वाला यह शरीर सबको पीड़ा देता है। यही कारण हो सकता है कि अन्त समय में इस काया को जलाया जाता हो किन्तु यह शरीर भी कैसा है कि कई बार राख-खाक होने पर भी बार-बार जनम लेकर आत्मा को दुखी करता है। अभी भी कर रहा है, अत: आत्मा को सुरक्षित रखना चाहते हो तो काया को नहीं कर्मों को जलाओ, जिससे पुन: शरीर ना मिले।
  10. काँटा पुन: शिल्पी से प्रार्थना करता है कि मोह क्या बला है और मोक्ष क्या कला है? यह हम जानना चाहते हैं किन्तु मात्र लक्षण के द्वारा कम शब्दों में समझा देवें, लम्बी-चौड़ी व्याख्या नहीं। क्योंकि लम्बी व्याख्या होने से मूल विषय का पता ही नहीं चलता और फिर दूध में थोड़ा-सा भी जल मिलाया जाए किन्तु दूध की मधुरता कम हो ही जाती है। इसलिए मोह और मोक्ष की संक्षिप्त लक्षणा प्रदान करें तो बड़ी कृपा होगी। इस पर शिल्पी सम्बोधन करता है - "अपने को छोड़कर पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है और सबको छोड़ कर अपने आप में भावित होना ही मोक्ष का धाम है।" (पृ. 109) मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मुझे क्या करना है यह सब नहीं विचारकर, यह वस्तु किसकी है, कितनी है, क्या है? इत्यादि पर पदार्थों के विषयों में सोचना-विचारना उन्हें ग्रहण करने का भाव रखना मोह का प्रतिफल है तथा बाहरी सब पदार्थ, सभी सम्बन्धों को छोड़कर एक मात्र अपने आत्मस्वरूप में लीन होना ही वास्तव में मोक्ष है। परपदार्थ को ग्रहण करने का ही परिणाम यह दुख रूप संसार अनादिकाल से बना हुआ है। हे चेतन! एक बार तो अपने स्वरूप का विचार कर, स्वरूप की अनुभूति कर, क्षण मात्र में संसार के सभी दुखों से मुक्ति मिल जावेगी । मोह और मोक्ष की लक्षणा सुन काँटा कह उठा-धन्य है! धन्य है! आज सही साहित्य की छाँव मिली है। आपके मुख से खिरने वाली ये पंक्तियाँ मोतियों की माला के समान सुन्दर वं शीतलदायी लग रहीं हैं। आज तक बहुतों से सुना पर ऐसा बहुत कम सुनने को मिला। आप की शैली, सिद्धों-सी आध्यात्मिकता से घुली लगती है, इसे सुनने से अनेक प्रकार के मिष्ठान, दुनिया के आकर्षण भी फीके लगने लगते हैं। यदि आपको सुविधा हो तो, वर्तमान प्रसंग के अनुकूल साहित्य शब्द पर कुछ सुनने को मिले तो बड़ी कृपा होगी।
  11. हमें ऐसा कोई मन्त्र दो, जिससे हमारा जीवन भी कषायों से रहित सुन्दर बन सके। कभी वह भी समय हमारे जीवन में आए जब हम भी किसी को सहारा दे सकें, सुखी बना सकें। काँटों की पश्चाताप भरी प्रार्थना सुनकर शिल्पी कहता है - "मन्त्र न ही अच्छा होता है ना ही बुरा अच्छा, बुरा तो अपना मन होता है। स्थिर मन ही वह महामन्त्र होता है और अस्थिर मन ही पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है, एक सुख का सोपान है, एक दु:ख का 'सी' पान है।" (पृ. 108) दुनियाँ की वर्णमाला में ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जो मन्त्र ना हो। मन्त्र अच्छा या बुरा नहीं होता, मन्त्र की सफलता तो मन की स्थिरता पर आधारित होती है। भावपूर्वक, स्थिरता के साथ जपा हुआ मन्त्र शीघ्र ही अनुकूल फलदायी होता है और फिर विषय-वासनाओं से दूर रहकर परमात्मा में, निज स्वभाव में स्थिर मन ही तो महामन्त्र कहलाता है। इसके सिवा सदा विषय-कषायों में झूलने वाला स्वेच्छाचारी, चंचल मन ही पापतन्त्र पाप का कारण होता है। स्थिर मन सुख की सीढ़ी है तो चंचल मन दुख का पेय (पीने योग्य पदार्थ) है। इसलिए अच्छे मन्त्र की इच्छा करने की अपेक्षा अपने मन को अच्छा, निर्मल और स्थिर बनाने का प्रयास करो, भविष्य स्वयमेव उज्ज्वल और श्रेष्ठ बनता चला जाएगा।
  12. बोध और शोध के विषय को स्पष्ट करती हुई लेखनी भी कुछ कहती है - "बोध के सिंचन बिना शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है, कि शब्दों के पौधों पर सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं, फिर ! संवेद्य - स्वाद्य फलों के दल दोलायित कहाँ और कब होंगे...? (पृ. 106) मात्र शब्द ज्ञान से जीवन में कभी आनंद आ नहीं सकता। शब्दों के साथ अत्यन्त आवश्यक है उसमें छिपे अर्थ, रहस्य का ज्ञान होना। अर्थ ज्ञान होने पर ही अनुभूति/स्वात्मानुभूति का फल परमानंद प्राप्त हो सकता है। शब्दों में ही अटके रहने पर, ना बोध का फूल खिलेगा और ना ही शोध का फल मिलेगा, क्योंकि बोध का फूल ही शोध के फल रूप में पकता-फलता है। बोध में फिर भी आकुलता हो सकती है, होती है किन्तु शोध में निराकुलता ही निराकुलता होती है। और फिर तृप्ति फूल से नहीं फल से ही होती है। फूल में गन्ध भले हो, पर फल तो रस से भरा होता है इसलिए सुनो फूल का तो रक्षण करो और फल का भक्षण करो। अर्थात् ज्ञान आवश्यक तो है किन्तु ज्ञान में वो आनन्द नहीं आता जो ज्ञान के प्रयोग आत्मानुभूति में आता है अत: निरन्तर ज्ञानाभ्यास करते हुए भी निज शुद्धात्मानुभूति रूप शोध में ही विशेष पुरुषार्थ करना चाहिए। तभी आत्मा का हित, निराकुल सुख संभव है। शिल्पी के मुख से पूर्व में कभी न सुने ऐसे अश्रुत पूर्व वचनों को सुन काँटों की कठोरता दूर हुई, उनका अन्त:करण पश्चाताप से भर गया। और कंटक कहता है शिल्पी से - हमारी अज्ञानता का ही यह फल है कि हमें हानिकारक पदार्थ लाभप्रद लगा और लाभदायी हानिकारक, सही बात हम जान न सके। सत्य अच्छा ना लगा गलत दिशा में हमारे कदम बढ़ गए, सही पथ पीछे रह गया। सुगन्धित पदार्थ को गन्दा कहा, चन्द्रमा को अन्धा कहा, अमृत जहर लगा हमें, बड़ी भूल हमने की है हमें आप क्षमा करो स्वामिन् ! 1. शुद्ध द्रव्यार्थिक नय = शुद्ध द्रव्य ही जिसका प्रयोजन हो/लक्ष्य हो। 2. सिद्ध = शरीर रहित परमात्मा । 3. निश्चय = वास्तव, यथार्थ।
  13. टूटे काँटे की बात सुन माटी कहती है - अरे काँटों! कुम्भकार का स्वभाव अभी तुम्हें ज्ञात नहीं है इसलिए ऐसा बोल रहे हों। सुनो मैं तुम्हें बताती हूँ यह कुम्भकार श्रमण जैसे उत्कृष्ट क्षमा भाव को धारण करने वाला, क्षमामूर्ति, क्षमा का ही अवतार है। इधर शिल्पी भी सब वार्ता को सुनता रहा और उसके मुख से क्रोध रूपी अग्नि को बुझाने वाली, करुणा से भरी अमृतवाणी निकलती है, जिसमें धीरता और गम्भीरता भी मिली है – "खम्मामि, खमंतु मे- क्षमा करता हूँ। सबको, क्षमा चाहता हूँ सबसे, सबसे सदा-सहज बस मैत्री रहे मेरी! वैर किससे क्यों और किस्से करूँ ? यहाँ कोई भी तो नहीं है संसार - भर में मेरा वैरी !" (पृ. 105 ) "क्षमा वीरस्य भूषण" - क्षमा वीरों का आभूषण है, कायरों का नहीं। फिर जिसने अपने को जीत लिया, ऐसा वीर किसी से क्यों वैर रखेगा। शिल्पी काँटों से क्षमा माँगता है कि मेरे कारण तुम्हें कष्ट हुआ किन्तु मैंने किसी बैर भाव के कारण, जानबूझ कर तुम्हें कष्ट नहीं दिया। मेरा संसार के सभी जीवों से सदा मैत्री भाव है, किसी को भी मेरे द्वारा कष्ट ना ही यही मेरी भावना रहती है और फिर संसार में किससे और क्यों बैर भाव रखें-सभी तो मेरे समान परमात्मा बनने की शक्ति रखते हैं अथवा शुद्ध द्रव्यार्थिक नया से सभी सिद्धों” के समान शुद्ध हैं। निश्चय से कोई भी प्राणी मेरा बुरा कर ही नहीं सकता यदि करता भी है तो मेरे अशुभ कर्मों की निर्जरा में कारण बनता है फिर मेरा बैरी कैसे और कब अर्थात् इस भव में कि पर भव में! कभी नहीं कोई भी मेरा शत्रु नहीं है मेरा किसी से बैर भाव नहीं है। शिल्पी की विनय मिश्रित क्षमावाणी काँटों के शरीर को पार कर भीतरी चेतना तक पहुँचती है। फलस्वरूप ईंधन के अभाव में बुझने वाली अग्नि के समान काँटों का क्रोध भाव समाप्त होने लगा, क्षण–क्षण पाप का कारण बना जो बदले का भाव, वह भी दूर भाग गया। पुण्य का कारण, समीचीन ज्ञान अन्त:करण में प्रकट हुआ एवं अनुभूति का आधार, शोध-भाव (जानने की इच्छा) सहज रूप से काँटों के भीतर पैदा होने लगा।
  14. फूल प्रभु की पूजन में काम आते हैं, इसलिए उनकी प्रशंसा होती है। प्रभु चरणों में समर्पित होते हैं फूल, किन्तु भगवान् कभी उन्हें छूते नहीं, कारण प्रभु ने काम-वासना को नष्ट किया है, शरण हीन हुए फूल शरण की आस ले प्रभु चरणों में आते हैं अवश्य। प्रभु का पवित्र सम्पर्क पाने से हम शूलों के जीवन में फूलों से विपरीत जो परिणमन हुआ सो और सुनो - किस दिशा से किस दिशा तक, कब से अब तक और अब से कब तक इत्यादि सूक्ष्म से सूक्ष्म स्थान एवं समय का ज्ञान हमें शूलों के द्वारा ही हो पाता है। यदि ऐसा ना हो तो बताओ की दिशा सूचक यन्त्र (चुम्बकीय सुई) एवं समय सूचक यन्त्र (घड़ियों) में काँटे क्यों लगे रहते हैं। "इस बात को भी हव्मे नहीं भूलना है कि घन-घमंड से भरे हुए उद्दण्डों की उद्दण्डता दूर करने दण्ड-सहिंता की व्यवस्था होती है और शास्ता की शासन-शय्या फूलवती नहीं शूल–शीला हो, अन्यथा, राजसत्ता वह राजसता की रानी-राजधानी बनेगी वह !" (पृ. 104) शासन करने वाले शासक, राजा की शासन-व्यवस्था फूलों के समान मुलायम-कोमल नहीं, अपितु शूलों के समान कठोर होनी चाहिए तभी घोर घमण्ड से भरे हुए, अपराधियों की उद्ण्डता को दूर किया जा सकता है। अन्यथा राजसत्ता भोग-विलास का ही साधन बन जायेगी और चारों ओर उद्ण्डता, अन्याय का साम्राज्य छा जायेगा। काँटों के दल के मुख से अपनी महिमा प्रशंसा सुन टूटा-कटा काँटा कहता है माँ माटी से कि-शिल्पी की बुद्धि सही दिशा की ओर हो, उसे अपनी गलती का अहसास हो इसलिए उसे पीड़ा देना आवश्यक है। नहीं तो कम से कम अपनी इस भूल के लिए शिल्पी क्षमा याचना तो करे।
  15. जिन्होंने इस सत्य को जाना है, उन्होंने फूलों का नहीं शूलों का सम्मान किया है तभी तो- "कामदेव का आयुध फूल होता है और महादेव का आयुध शुल। एक में पराग है सघन राग है जिस का फल संसार मिलता है एक में विराग है अनघ त्याग है जिसका फल पार मिलता है।" (पृ. 101-102) लोक में प्रसिद्ध है कि कामदेव का शस्त्र फूल है और शंकर का शस्त्र शूल-त्रिशूल। फूल में पराग है घना राग (प्रेम, इच्छा) है जिसका फल यह दुःख रूपी संसार है एवं शूल में वैराग्य, स्वच्छ त्याग है जिसका फल संसार से उस पार, मोक्ष है। फूलों को ही सम्मान देने वालों को संसार ही मिलता है और शूलों को चाहने वाले महादेव ‘अरिहन्त देव' बनकर संसार से पार हुए हैं। फूलों को देखते ही विषय-वासनाएँ मन में पैदा होने लगती है। दम यानी इन्द्रिय संयम को वह छीन लेता है तथा बदले में मद, अहंकार, भोग लिप्सा से भर देता है। जबकि काँटों को देखने से वैराग्य पैदा होता है, वे इन्द्रिय संयम का भाव पैदा करा देते हैं। फिर व्यक्ति शीघ्र ही अहंकार को छोड़ देता है और अहं यानी मैं की खोज में लग जाता है। यह स्पष्ट ही है कि दम से सुख का झरना फूटता है तो मद से सुख की मौत होती है और जीवन दुख से भर जाता है। फिर भी यह कैसी विडम्बना (उपहास का विषय) है कि सभी फूलों की प्रशंसा करते हैं और शूलों से द्वेष (शत्रुता) रख उनकी बुराई करते हैं क्या यह सत्य पर आक्रमण नहीं है? इतना तो ध्यान रखना ही चाहिए कि हमारी भारतीय संस्कृति, पश्चिमी सभ्यता के समान आक्रामक स्वभाव वाली, विनाशशील आँखों वाली नहीं है। भारतीय संस्कृति उन ऋषि मुनियों की परम्परा का निर्वाह करने वाली है, जिन्होंने संसार के सब वैभव को त्याग कर दिगम्बर वेष धारण कर, आत्म स्वरूप में लीन हो गये। ऐसी सुख शान्ति का कारण है यह भारतीय संस्कृति। यहाँ सत्य पर आक्रमण नहीं किन्तु सत्य की पूजा होनी चाहिए।
  16. माटी की बात सुनकर काँटा कहेता हैं मात्र नाम की और ही नहीं, कुछ गुण और काम की ओर भी दृष्टिपात करना चाहिए माँ! इसी बीच पास में खड़ा गुलाब के पौधे में से काँटों का दल बोल पड़ा, इस बात को हम स्वीकारते हैं कि दूसरों की पीड़ा, शल्य में हम निमित अवश्य हैं, इसी कारण हम शूल कहे जाते हैं। फिर भी हमेशा हमें शूल के रूप में देखना बड़ी भूल ही होगी – "कभी-कभी शूल भी अधिक कोमल होते हैं .....फूल से भी और कभी-कभी फूल भी अधिक कठोर होते हैं .....शूल से भी।" (पृ. 99) किसी व्यक्ति अथवा प्राणी को हमेशा एक रूप में ही देखना यह मानव की बड़ी भूल हो सकती है, क्योंकि व्यक्ति एक जैसा सदा नहीं रहता। बिल्ली जिन दाँतों से चूहे का शिकार करती है, उन्हीं दाँतों से अपने बच्चे का पालन नहीं करती क्या? काँटें जो दूसरों की पीड़ा में कारण बनते हैं क्या, हमेशा शूल रूप में ही रहते हैं? कभी-कभी वे फूल से भी अधिक कोमल होते हैं तभी तो कोमल फूल की कली भी काँटों का स्पर्श पा खुल-खिल उठती है, तब हम सदा शूल कहाँ रहे? और वे फूल जो सदा हमें अपने शील से च्युत करने, विषय-वासनाओं में फँसाने , रागी बनाने का प्रयास करते हैं क्या वे शूल-समान दु:खकारी नहीं है? प्राय: देखा जाता है कि जो सुन्दर मनोहारी काया को धारण करते हैं, बाहर से भले ही कोमल दिखते हैं किन्तु वे भीतर से मायाचारी, क्रूरता रूप परिणामों से भरे होते हैं। मुख से मीठे बोल बोलते हैं किन्तु भीतर विष घुला होता है उनमें और संसार इसलिए ठगा जा रहा है।
  17. धर्म संस्कृति 3 - शास्ता/शासन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/sagar-boond-samaye/dharm-sanskriti-shaasta-shasan/
×
×
  • Create New...