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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. संयम स्वर्ण महोत्सव 28 जून 2017 से 17 जुलाई 2018 यह वर्ष आचार्य श्री की दीक्षा का स्वर्णिम पचासवाँ वर्ष है। भारतीय समुदाय का स्वर्णिम काल है यह। आचार्यश्री के स्वर्णिम आभामण्डल तले यह वसुधा भी स्वयं को स्वर्णमयी बना लेना चाहती है। आचार्यश्री का एक-एक पदचाप उसे धन्य कर रही है। एक-एक शब्द कृतकृत्य कर रहा है। एक नई रोशनी और ऊर्जा से भर गया है हर वह व्यक्ति जिसने क्षणभर को भी आचार्य श्री पावन निश्रा में श्वांसें ली हैं। आगामी दिनांक 17 जुलाई 2018 को आचार्यश्री 108 विद्यासागरजी महाराज की मुनि दीक्षा के गौरवशाली 50 वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं - अवसर पर पुरे वर्ष विभिन्न कार्यक्रम आयोजन हो रहे हैं आप इस स वर्ष को कैसे मना रहे हैं ? इस वर्ष और क्या कार्यक्रम होने चाहिए ? 17 जुलाई को पुरे विश्व में क्या विशेष कार्यक्रम होने चाहिये ? आप अपने सुझाव नीचे कमेंट में लिख कर हमे प्रेषित करें निवेदन - इस पेज को अधिक से अधिक साझा करें |
  2. आचार्य श्री विद्यासागर जी के संयम स्वर्ण महोत्सव पर श्रवणबेलगोला में बना भव्य कीर्ति स्तम्भ निप्र, पीथमपुर /बदनावर - संत शिरोमणि दिगंबर जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागर जी महाराज पर भारतीय डाक विभाग द्वारा गुरूवार को विशेष आवरण (स्पेशल कव्हर) जारी किया गया। यह स्पेशल कव्हर विश्व प्रसिद्ध जैन तीर्थ श्रवणबेलगोला के पोस्ट ऑफिस से आचार्य श्री के दिक्षा के 50 वर्ष पूर्ण होने पर देशभर में मनाये जा रहे संयम स्वर्ण महोत्सव के अवसर पर जारी किया गया। हाल ही में श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) मैं भगवान बाहुबली महामस्तकाभिषेक का आयोजन बहुत बड़े पैमाने पर विगत 17 से 25 फरवरी के बीच में किया गया था। यह महा मस्तकाभिषेक हर 12 साल में एक बार किया जाता है। जिसमें देश विदेशों से लाखों की संख्या में श्रद्धालु आकर भगवान बाहुबली का मस्तकाभिषेक करने का लाभ लेते है। इस अवसर पर भारत के राष्ट्रपति प्रधानमंत्री सहित कई जानी मानी हस्तियों ने सिरकत करके अपने आप को धन्य माना। उस समय भी गोमटेश्वर बाहुबली के मस्तकाभिषेक पर एक विशेष कव्हर जारी किया गया था। श्रवणबेलगोला से सिर्फ 20 दिनों के दरमियान जैन धर्म पर जारी होने वाला यह दूसरा कव्हर है जिसे भारतीय डाक विभाग द्वारा जारी किया गया है जिससे समाज व डाक टिकट संग्रहकों में काफी हर्ष है। उक्त जानकारी देते हुए दिगंबर जैन समाज के सचिव व डाक टिकट संग्रहकर्ता ओम पाटोदी ने बताया कि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज वर्तमान में दि. जैन समाज के सर्वोच्च संत में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। आपके द्वारा हजारों की संख्या में दीक्षित संत, आर्यिका माताजी व त्यागी श्रमण पूरे भारतवर्ष में जैन धर्म की और अहिंसा धर्म की पताका फहरा रहे। वर्तमान में आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी से दीक्षित लगभग 108 दिगंबर संत, 182 आर्यिका माताजी और आपके द्वारा ही दीक्षित हजारों की संख्या में ब्रम्हचारी भाई-बहनें है जो कि धर्म संस्कृति के उत्थान के कार्य में अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं। आचार्य श्री के आशीर्वाद से भारत में सैकड़ों गौशालाएं एवं स्वावलंबन स्वदेशी मिशन के तहत कई हस्तकरघा उद्योग संचालित किए जा रहे हैं, जिसमें पूरी तरह अहिंसात्मक रूप से कपड़े का उत्पादन किया जा कर स्वदेशी का नारा बुलंद किया जा रहा है। आचार्य श्री की कठिन साधना और विशुध्द चर्या को देखते हुये भक्तगण उन्हें ‘वर्तमान के वर्धमान' कहते हैं।
  3. ? प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ स्वामी के जन्म और तप कल्याणक की जय हो सबको हार्दिक मंगलकामनाये ? जरूर पढ़े राजा नाभिराय एवं रानी मरुदेवी के इकलौते पुत्र राजकुमार ऋषभदेव ने संसारी प्राणी को आजीविका का क्या साधन बताया तथा उनका जीवन परिचय एवं चारित्र के विकास का वर्णन इस अध्याय में है। https://vidyasagar.guru/paathshala/jinsaraswati/prathmanuyog/lesson-7-tirthankar-rishabhdev/
  4. माँ की गोद में दूध पीता हुआ बालक माँ के मुख, नयन और गालों की ओर निहारता है करुणा या कठोरता होने पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता हुआ हँसता है या रोता है, जो इस समय टिक नहीं है | इसलिए प्रायः माँ दूध पिलाते समय बच्चे का मुख अपनी साड़ी के पल्ले से ढाँक देती है। इससे अर्थ यहे निकला- "शान्त रस का संवेदन वह सानन्द-एकान्त मे ही हो और तब एकांकी हो संवेदी वह.....!" (प्र. 159) शान्त रस के सेवन, आनन्द, अनुभूति के लिए एकान्त और एकाकी होना अनिवार्य है। रंगहीन, स्वच्छ और तरंगहीन तालाब में ही अपना रूप देखने में आ सकता है। शान्त रस का एकान्त ही सच्चा मित्र और सच्चा शरीर है। करुणा रस गरजते-बरसते हुए बादल के समान जीवन का प्राण है तो वात्सल्य स्वच्छ जल के समान जीवन को सुरक्षित रखने वाला है यह सब द्वैत जगत् की, (दो के बीच की) बात है। किन्तु शान्त रस मधुर दूध के समान स्वभाव वाला, जीवन को आनन्दित करने वाला, सुरीला संगीत है। करुण रस वह है जो कठोर पाषाण को भी मोम जैसा मृदु बना देता है, वात्सल्य वह पोशाक/पहनावा अथवा रीति, तरीका है जो पापी, अज्ञानी पुरुष को भी चन्द्रमा के समान श्रेष्ठ, सौम्य बना देता है। यह सब तो लौकिक चमत्कार की बात हुई किन्तु शान्त रस की क्या कहें वह संयम में लीन, बुद्धिमान पुरुष को ओम् यानी परमात्मा ही बना देता है। जहाँ तक शान्त रस की बात है वह मात्र कहने-सुनने की नहीं किन्तु स्वीकारने, जीवन में उतारने की बात है। कम शब्दों में या निषेध मुख से कहूँ, तो सन्तों का मन सदा यही गुनगुनाता है कि सभी रसों का अन्त होना ही शान्त रस है।
  5. उछलती हुई नहर के समान करुणावान की मनोदशा होती है जो खेत में पहुँचती फसल की प्यास बुझाती कुछ समय में बंद हो, सूख जाती है, किन्तु बहने के मार्ग को छोड़ मंजिल (सागर) को प्राप्त कर सुख पाने वाली सरिता के उज्ज्वल जल के समान शान्त रस के धारक की मनोदशा होती है। शिल्पी कहता है कि - करुणारस और शान्तरस के विषय को कुछ और स्पष्ट करना चाहता हूँ, क्योंकि बहुतायत मोक्ष पुरुषार्थी यहीं पर गलती कर जाते हैं। दया, करुणा को ही धर्म की चरम सीमा, साधना का अंतिम लक्ष्य मान लेते हैं। अत: आगे सुनो-करुणा की दशा बहते हुए जल के समान तरल, पर से प्रभावित होने वाली होती है, धूल में गिरते ही जल दल-दल (कीचड़) में बदल जाता है। अग्नि से प्रभावित हो शीघ्र ही शीतलता को भूल उबल जाता है फिर स्वयं जलता है और औरों को जलाता भी, किन्तु शान्त रस बहता नहीं किसी के बहाव में आकर, जमाना पलटने पर भी पलटता नहीं बर्फ के समान उसकी स्थिति होती है। बर्फ धूल में गिरने पर भी धूल को स्वीकार नहीं करता बदलता नहीं और इतना ही नहीं आग में रखने पर भी गरम नहीं होता, ना स्वयं जलता ना ही औरों को जलाता। इससे यह भी ध्वनि निकलती है कि- "करुणा में वात्सल्य का मिश्रण सम्भव नहीं है और वात्सल्य को हम पोल नहीं कह सकते न ही कपोल - कल्पित।" (पृ. 157) करुणा में वात्सल्य भाव का भी मिश्रण सम्भव नहीं, किन्तु वात्सल्य को हम खाली कल्पना या खोखला नहीं कह सकते कारण वात्सल्य विशाल हृदय वाली माँ के सुडौल गालों पर खिलता है, देखने को मिलता है। करुणा के समान ही इसमें दो की आवश्यकता होती है कोई वात्सल्य देता है तो कोई वात्सल्य लेता है, इसी कारण अद्वैत (एक मात्र) यहाँ उपस्थित नहीं रहता है, अकेलेपन में इसका व्यतिकरण (प्रकट होना) नहीं होता। यह वात्सल्य ममता सहित खुशमिजाजी (प्रसन्न स्वभाव वाला) होता है। साधर्मी और एक जैसे आचार-विचार वालों पर ही इसका प्रयोग होता है, मन्द मधुर मुस्कान के बिना इसका प्रकटीकरण सम्भव नहीं किन्तु इतना भी निश्चित है कि कुछ क्षण मधुर मुस्कान के बाद वह नष्ट भी हो जाता है। वात्सल्य ओस के कणों के समान है जिससे ना ही प्यास बुझती है और ना ही इच्छा, बस जीवन ही धीरे-धीरे व्यतीत होता चला जाता है। फिर तुम ही बताओ वात्सल्य में शान्त रस का अन्तभाव कैसे संभव हो सकता है।
  6. माँ प्रकृति से उत्पन्न करुणा की पीड़ा, लेखनी के वक्तव्य को सुनकर भी शिल्पी अप्रभावित निश्चेष्ट-सा खड़ा रहा। लगता है उसने करुण रस को भी स्वीकार नहीं किया। करुणा का प्रभाव उसके मन पर कुछ भी नहीं पड़ा। यह स्थिति देख, इतनी बाल की खाल तो मत निकालो अर्थात् ज्यादा सूक्ष्म दृष्टि से परीक्षा मत करो कहती हुई करुणा रो पड़ी। इस पर शिल्पी कहता है करुणा से - रोना करुणा का स्वभाव नहीं है, ये बात अलग है कि करुणा जब प्रकट होती है तो आँखें भींग ही जाती हैं। में मानता हूँ कि मन में करुणा करने का भाव होना और दूसरों पर करुणा करना दोनों में बड़ा अन्तर होता है। माँ के मन में बच्चों के प्रति करुणा होना मोह का परिणाम है जबकि दूसरों को दुखी देखकर उनके दुख दूर करने के परिणाम रूप करुणा, सम्यग्दृष्टि का लक्षण है। फिर भी बात-बात में रोना, दुखी होना अच्छा नहीं, इससे आर्तध्यान बढ़ता है और धर्मध्यान नष्ट होता है। यह बात मैं भी समझता हूँ कि करुणा छोड़ने योग्य नहीं अपितु मोक्षमार्गी के लिए भी ग्रहण करने योग्य है किन्तु इसकी अपनी सीमा भी होती है। समझना चाहो तो उदाहरण से समझ सकती हो - खेत में खाद डालने पर बीज को ताकत मिलती है और अच्छी फसल पैदा होती है किन्तु खाद में ही बीज डाल दें तो बीज ही जल जाएगा। यदि बीज धरती के ऊपर ही ऊपर हो तो अंकुरित नहीं होगा जब तक उसके ऊपर मिट्टी न डाली जाए किन्तु ज्यादा मिट्टी डाल दिया तो बीज भी दम तोड़ देगा अर्थात् भीतर ही भीतर नष्ट हो जाएगा। “अति सर्वत्र वर्ज्यत” सभी जगह अति का त्याग होना चाहिए। इसी प्रकार करुणा में भी अति न हो, उसकी मर्यादा को समझना अनिवार्य है। जो करुणा करता है वह भले ही अहंकारी न बने किन्तु स्वयं को बड़ा अवश्य समझता है तथा जिस पर करुणा की जावे वह अपने आपको कमजोर हलका भी मानता है। दोनों का मन एक दूसरे से प्रभावित होता है। शिष्य शरण लेकर और गुरु शरण देकर कुछ नया अनुभव करते हैं पर यह सही-सही सुख नहीं है। हाँ! दुख मिटने और सुख मिलने का द्वार अवश्य यहाँ मिल जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से विचार किया जावे तो- "करुणा करने वाला अधोगामी तो नहीं होता, किन्तु अधोमुखी यानी बहिर्मुखी अवश्य होता है। और जिस पर करुणा की जा रही है, वह अधोमुखी.... तो नहीं, ऊध्र्वमुखी अवश्य होता है। तथापि, ऊध्र्वगामी होने का कोई नियम नहीं है।" (पृ. 155 ) दूसरों पर करुणा करने वाला नीचे की ओर गमन करने वाला तो नहीं किन्तु नीचे मुख वाला यानी आत्म स्वभाव से च्युत, पर को ग्रहण करने वाला, समयसार (द्रव्यानुयोग) के अनुसार बहिरात्मा, बहिर्मुखी अवश्य होता है और जिस पर करुणा की जाती है उसका मुख नीचे से ऊपर की ओर (नीच गतियों पर्यायों से उच्चगति-पर्यायों) अवश्य हो जाता है किन्तु उसकी यात्रा भी ऊपर (सिद्धशिला) की ओर ही हो यह नियम नहीं है, यह तो उसके स्वयं अपने उपादान एवं पुरुषार्थ पर आधारित है। हम एक सीमा तक ही दूसरे के लिए सहारा बन सकते हैं चलना तो उसे ही पड़ेगा। वैसे भी करुणा दो प्रकार की होती है, पहली विषय कषायों के वशीभूत हो, पञ्चेन्द्रिय के विषय को ग्रहण करने वाली विषय – लोलुपनी, इसकी चर्चा यहाँ नहीं है। दूसरी विषय-कषायों को नष्ट करने वाली, सम्यक् शिव-पथ दिखाने वाली विषय-लोपनी, दिशा-बोधिनी। इसकी चर्चा यहाँ की जा रही है, करुणा का स्वाद यदि जानना चाहते हो तो आँसुओं के समान खारा ही है। इसलिए जिसके मन में करुणा है, वह शान्त रस से भी भरा होगा ऐसा मानना बड़ी भूल है। 1. आध्यात्मिक दृष्टि = आत्म तत्व की मुख्यता/निश्चय से किया गया विचार। 2. समयसार = कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ।
  7. रसों के विषय में शिल्पी की स्तब्धता देख करुणा रो पड़ी, सो शिल्पी करुणा की सीमा, सही स्थिति समझाता है। करुणा का शान्त रस में अन्तर्भाव भी नहीं मानना चाहिए, कहता हुआ दोनों की तुलना करता है, करुणा जल के समान बदलने वाली है तो शान्त रस बर्फ के समान स्थिर। शान्त रस में वात्सल्य रस का भी मिश्रण नहीं। माँ की गोद में मुख पर आँचल प्ले दूध पीता बालक के दृष्टान्त से शान्त रस के संवेदन की प्रक्रिया का व्यतिकरण। अन्त में शान्त रस की श्रेष्ठता कि वह संयत रत धीमान को ओम् यानि भगवान् बना देता है। इस प्रकार सभी रसों का अन्त होना ही शान्त रस है, सिद्ध करता है शिल्पी।
  8. प्रकृति माँ की दशा देखकर लेखनी का भी गला भर आता है और वह माँ की बातों का समर्थन करती हुई कहती है - विश्व की विचित्रता को देखकर कभी तो दया आती है और कभी तो गुस्सा, क्या करूं हँसू की रोऊँ, समझ नहीं आता। संसार इस रोती-बिलखती लेखनी को देखता है परखता भी है, भगवान् पर इसका विश्वास भी है भगवान् की बात भी सुनता, समझता है किन्तु लगता है यह सब प्रभाव मस्तिष्क तक ही है, हृदय तक नहीं पहुँचा। तभी तो आज का मानव दिल से कम दिमाग से ज्यादा काम कर रहा है। और इसी कारण इसके चरण स्थायी से हो गए हैं मोक्षमार्ग पर बढ़ नहीं पा रहे हैं। "आदिम ब्रह्मा, आदिम तीर्थंकर आदिनाथ से प्रदर्शित पथ का आज अभाव नहीं है माँ ! परन्तु, उस पावन पथ पर दूब उग आई है खूब वर्षा के कारण नहीं, चारित्र से दूर रह कर केवल कथनी में करुणा रस घोल धर्मामृत-वर्षा करने वालों की भीड़ के कारण !" (पृ. 151) यद्यपि प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ प्रभु द्वारा कथित मोक्षमार्ग का आज अभाव नहीं है, किन्तु उस पवित्र मोक्षमार्ग में हरी घास ज्यादा उत्पन्न हो गई है, इसका कारण जल की वर्षा / बरसात नहीं अपितु पथ पर चलने वालों का अभाव। संयम से दूर रहकर केवल प्रवचनों में दया और आत्मा की बात करने वाले असंयमियों की भीड़ के कारण। जो दूसरों को मार्ग बता रहा है, उसे स्वयं मार्ग दिख नहीं रहा, क्योंकि जिसे मोक्षमार्ग सम्बन्धी शास्त्र पढ़ाये जा रहे हैं, पथ दिखाया जा रहा है वह स्वयं मार्ग में चलना नहीं चाहता अपितु दूसरों को चलाना चाहता है। ऐसे चालाक चालकों की संख्या कितनी है? हम गिन नहीं सकते। क्या करूं माँ - इस संसार में जो घटित हो रहा है उसे देखती हूँ/अनुभव करती हूँ फिर रो लेती हूँ, और कागज में उसे लिख देती हूँ माँ, लेखनी जो रही मैं। 1. दूब = घास। 2. संयम = इन्द्रिय और मन को वश में करना, जीवों की हिंसा नहीं करना। 3. असंयमियों = संयम से विपरीत प्रवृत्ति करने वाले।
  9. फिर गम्भीर हो कुछ और कहती है करुणा - मेरा रोते रहना यदि तुम्हें अच्छा लगता है तुम्हें सुख मिलता है तो मैं रो ही रही हूँ और रोती रहूँगी। यदि मेरे रहने से तुम्हारा दिल धड़कता हो, लगता है कि माँ हमारे लिए बाधक हो रही है तो मैं अपने अस्तित्व को मिटाना चाहूँगी। प्रभु से प्रार्थना करती हूँ कि -हे भगवान्! मेरा जीवन समाप्त हो जाए, मेरा अस्तित्व पूर्ण रूप से आकाश में विलीन हो जाए बस! करुणा की बात सुन, प्रभु जबाव देते हुए कहते हैं कि - "होने का मिटना सम्भव नहीं है, बेटा ! होना ही संघर्ष - समर का मीत है होना ही हर्ष का अमर गीत है।" (पृ. 150) जो है वह पूर्णत: कभी मिट नहीं सकता यही प्रकृति का नियम है। द्रव्य कभी नष्ट नहीं होता, मिटने वाली तो पर्याय है। फिर जो होगा वह ही तो मोक्ष, सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए कर्मों से संग्राम, युद्ध करेगा। यह संघर्ष ही अस्तित्व का परम मित्र और सच्चे सुख का शाश्वत गान है। प्रभु की बात सुन करुणा अन्तर्मुखी हो अपनी आत्मा से कहती है, हे भोक्ता पुरुष मैं तुमसे क्षमा चाहती हूँ कि मर-मिटने की तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण नहीं हो सकती।
  10. श्रृंगार के गालों में चाँटे लगाने के बाद करुणामयी माँ की आँखों में आँसू आ गए। बूंद-बूंद कर बाहर आते आँसुओं के रूप में करुणा जगती के कणकण, जन-जन से कुछ कह रही है - प्रकृति की गोद में तुमने जन्म लिया तुम्हारा क्या कर्तव्य है और तुम क्या कर रहे हों। तुम इतने बड़े समझदार होकर भी आपस में लड़े-भिड़े, एक दूसरे को भला-बुरा कहा, मारने मरने को तैयार हुए इससे प्रकृति माँ का हृदय बुरी तरह आहत हुआ। अरे! जीवन को युद्ध का मैदान नहीं बनाओ अपितु माँ ने आज तक जो दुख-दर्द झेले हैं, उन्हें दूर करने का प्रयास करो, पीड़ा के घाव सुखाओ। दयावान बनो, जो दया से रहित (क्रूर) हैं, उस पर भी दया करो, भयभीत को अभयदान दो, हमेशा सकारात्मक अच्छे विचार रखो, अमृत के समान मीठे वचन मुख से निकाला करो। हे चेतन मानव! सबको मिलाकर जीने की बात किया करो और प्रकृति का जो तुम्हारे ऊपर उपकार है, उसे चुकाने का पुरुषार्थ करो। "अपना ही न अंकन हो पर का भी मूल्यांकन हो, पर, इस बात पर भी ध्यान रहे पर की कभी न वांछन हो पर पर कभी न लांछन हो !" (पृ. 149) हमेशा अपने को ही श्रेष्ठ मानकर, अपनी-अपनी ना चलाया करो, कभी दूसरों को भी आदर की दृष्टि से देखने, उनकी बात सुनने का मन बनाया करो। और इस बात पर भी विशेष ध्यान रखो कि अपने से पर वस्तु अथवा अपने स्वामित्व के बाहर की वस्तु की कभी चाह न हो। पर से कुछ अपेक्षा भी न हो क्योंकि पर से की गई अपेक्षा ही महान् दुख का कारण बनती है और कभी भी दूसरों पर दोषारोपण, उनकी निंदा नहीं किया करो। प्रकृति माँ का मन कभी न दुखाया करो। अन्त में इतना ही कहना है – "जीवन-जगत् क्या? आशय समझो, आशा जीतो! आशा ही को पाशा समझो!" (पृ. 150) संसार का यथार्थ स्वरूप क्या है? इसे समझने का पुरुषार्थ करो, गुरुओं का अभिप्राय, जीवन का उद्देश्य क्या है? समझो। इच्छाओं को जीती, क्योंकि ये इच्छाएँ ही सांसारिक बन्धन का मूल कारण है ऐसा मानो।
  11. आज शाम को पंजाब से आए सिख समाज के बहुत बड़े संत ने गुरूदेव के नवदा भक्ति से दर्शन किये और उनके साथ काफी संख्या में लोगबाग आये जिन्होंने माथा टेक कर पुण्य लाभ लिया |
  12. श्रृंगार के बहाव में बहने वाली प्रकृति ने शिल्पी के मुख से स्वर की नश्वरता और निस्सारता को सुना तो उसकी नाक और बहने लगी। जिसमें से घिनावना मल निकला, ऐसा जिसे देखते ही ग्लानि पैदा होने लगी। उस पर राग को पैदा करने वाली, विषय भोग में रस लेने वाली मक्खियाँ भिनभिनाने लगीं। ऐसा लगा बीभत्स रस ने भी श्रृंगार को स्वीकार नहीं किया, तभी तो सभी की नाकों से ड, ण, न, म इत्यादि अनुनासिक नकारात्मक वर्ण ही निकलता है। नाक से निकला मल ऊपरी होंठों पर चिपकता हुआ नीचे के होंठ पर भी उतर आया। श्रृंगार की जीभ ने बड़ी ही रुचि से उसका स्वाद लिया। श्रृंगार की अज्ञानता को देख सब रसों को जन्म देने वाली, मूल स्रोत प्रकृति माँ क्रोधित हो उठी और उसने श्रृंगार के गालों पर दो-चार चाँटे लगाए, जिससे उसके गाल प्रवाल पुष्प के समान लाल–लाल हो गए। "सुत को प्रसूत कर विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करने मात्र से माँ का सतीत्व वह विश्रुत-सार्थक नहीं होता प्रत्युत, सुत–सन्तान की सुसुप्त शक्ति को सचेत और शत-प्रतिशत सशक्त साकार करना होता है, सत्-संस्कारों से।"(पृ. 148) संतान को जन्म देकर दुनिया के सामने रखने मात्र से माँ का सतीपना प्रसिद्ध और सफल नहीं होता, किन्तु सन्तान में छुपी हुई योग्यता को जागृत कर, उसे सत् संस्कारों के माध्यम से पूर्णतः मजबूत बनाना होता है। सन्तों के मुख से यह बात सुनी है कि सन्तान का जीवन यदि पाप / पतन की ओर जाता है तो माँ उसे डॉट-फटकार लगाती, ताड़ित करती है जिससे वह पाप से बच जाए। और यदि सन्तान अपने जीवन को श्रेष्ठ, अच्छा उन्नत बनाती है तो उस पर प्रेम, कृपा बरसाती हुई माँ गौरव से अपना माथा उठाती है। एक माँ सौ शिक्षकों से भी श्रेष्ठ मानी गई है, संस्कार देने का समय गर्भ में सन्तान के आते ही प्रारम्भ हो जाता है। माँ मदालसा के सत् संस्कारों से उसके आठों बेटे मुनि बनकर मोक्षमार्ग पर लग गए। नीति है “लाड़येत बहव: दोषा: ताड़येत् बहव: गुणा:" ज्यादा लाड़-प्यार से सन्तान बिगड़ जाती है जबकि समय-समय पर डॉट फटकार लगाने, प्रताड़ना देने से सन्तान में गुणों का ही विकास होता है। अत: माता-पिता को चाहिए की सन्तान को जन्म देने के बाद उसे संस्कारवान् बनाने के लिए अपना समय निकालें, सन्तान की अच्छी-बुरी संगति पर/आदतों पर ध्यान दें। बच्चों को अपना प्यार दें तो समय पर डॉट-डपट भी। अनेकान्त धर्म - एक वस्तु में अनेक गुण-धर्म का होना। जैसे- पेन लम्बा है, सफेद है आदि
  13. श्रृंगार का एक-एक अंग तलवार की धार के समान जीवन को नष्ट करने वाला, संसार को धोखा देने वाला है। इसके प्रत्येक रंग में वासना की आग ही आग है। इसी आग में संसार जलता आ रहा है। इस वेदना को दूर करने के लिए एक अदभुत औषध मिली है आज, जिसे पीते ही पल भर में तन की थकान नष्ट होती है और मन की गंदगी भी साफ हो जाती है। ऐसा मेरा साथी संगीतसमता रस से भरा, रंग रहित शान्त स्वभाव वाला है। सभी बन्धनों से रहित, श्रमणों की अनुभूति का विषय मेरा साथी वह संगीत है जो किसी सीमा में बंधकर रह नहीं सकता, किसी तरह शब्दों से कहा नहीं जा सकता। समुद्र की विशालता की ओर देखने पर बहुत गंभीर, करोड़ों वर्षों की अवधि के प्रमाण वाला विस्तृत दिखता है वह और लहर की ओर दृष्टि जाने पर क्षणभंगुर, पल भर की आयु वाला दिखता है वही समुद्र। द्रव्य की ओर दृष्टि जाने से जीव का कोई आदि अन्त नहीं, पर्याय की ओर दृष्टि जाने पर पलपल जीवन नष्ट हो रहा है, ऐसे ही अनेक भंगों से सहित, अनेक गुणों में दिखता छिपता सप्त भंग (स्याद् अस्ति एव, स्याद् नास्ति एव, स्याद् अस्ति नास्ति, स्याद् अवक्तव्य एव, स्याद् अस्ति अवक्तव्य, स्याद् नास्ति अवक्तव्य, स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्य) की परम्परा वाला अनेकान्त धर्म ही मेरा सही साथी संगीत है। सुख की बिन्दु से भी दूर, दुख सागर में डूबा था मैं। कभी फूलमाल से सम्मान हुआ तो कभी पराजय से अपमान हुआ। कभी कुछ मिलने का लोभ मिला तो कभी कुछ मिटने पर घबराहट, आकुलता मिली। कोई अपना मिला तो कोई धोखेबाज। यह अभागा आज तक संसार में यूँ ही भटकता रहा किन्तु सब विपरीतताएँ आज मिट-सी गई, जबसे मुझे मिला मेरा साथी संगीत कि तुम भी संसार को पराजित कर परमात्मा बन सकते हो, यह आत्मविश्वास (Selfconfidance)|
  14. श्रृंगार के मुख से स्वर-संगीत की उपयोगिता / बढ़ाई सुन शिल्पी का साफ सुथरा खादी का साफा स्पष्ट शब्दों में कहता है - स्वर संसारी जीव और नश्वर पुद्गल के संघर्ष से उत्पन्न होते हैं, शुद्ध आत्मा से नहीं। सुस्वर हो या दुस्वर सारे स्वर नाशवान हैं। ईश्वर, परमात्मा भले ही अविनाशी हैं, किन्तु उससे उत्पन्न स्वर (दिव्यध्वनि आदि) तो नाशवान ही हैं। स्वर संगीत सुनने से जो सुख मिलता है, वह प्राथमिक दशा में सुख का बाह्य कारण तो बन सकता है, फिर भी स्वर ही साधना का लक्ष्य नहीं है और न ही सदा ग्रहण करने योग्य उपादेय। साधक को यह अच्छी तरह से जान लेना चाहिए कि स्वर ना ही अनंत है और ना ही अमृत पेय। कारण उसमें भी राग छुपा होता है, अध्यात्म दृष्टिकोण से स्वर-संगीत, साधक के लिए विषतुल्य हेय है। और इधर चिन्तन की मुद्रा में लीन हुआ शिल्पी सोचता है - इन कानों ने अनादिकाल से आज तक कितनी बार, कितने मधुर-मधुर स्वर-संगीत को सुना, स्मरण किया कुछ पता नहीं किन्तु अन्तरात्मा आज तक आनन्द से भीगी नहीं, क्या आत्मोपलब्धि हो पाई? अत: संगीत को सुख की रीढ़ कहकर सही संगीत को समाप्त मत करो, ना ही अपनी प्रशंसा करो, हे श्रृंगार। सही संगीत क्या है? मैं तुम्हें सुनाता हूँ, सुनो हे श्रृंगार! "संगीत उसे मैं मानता हूँ जो संगातीत होता है और प्रीति उसे मैं मानता हूँ जो अंगातीत होती है मेरा संगी संगीत है सप्त-स्वरों से अतीत.....! "(पृ. 144) सही संगीत मैं उसे मानता हूँ जो पर की अपेक्षा, सम्बन्धों से रहित होता है। सही प्रेम वह है जो शरीर से हठकर चेतन से किया जाता है। मेरा साथी संगीत तो सा रे ग मा आदि सात स्वरों से परे, स्वरातीत है। 1. अर्थ = धन, सम्पदा । 2. परमार्थ = श्रेष्ठ प्रयोजनभूत अहिंसा आदि धर्म।
  15. अर्थ और परमार्थ के सूक्ष्म भेद को स्पष्ट करता हुआ शिल्पी कहता है- कि सोना तौलने वाली तराजू अतुलनीय है असाधारण होती है। सोना तुलता है इसलिए तुलनीय है तराजू तुलती नहीं तौलती है इसलिए अतुलनीय है। इसी प्रकार परमार्थ अतुलनीय है, उसे कभी भी अर्थ की तुला में तौलना नहीं चाहिए। परमार्थ को अर्थ से तौलना यानी युग को अनर्थ के गड़े में डालना, सही सही अर्थशास्त्र को नहीं जानना है। अर्थ का मूल्य जानने वालों को क्या यह अर्थ ज्ञात है? इन सारे प्रसंगों में संगीत के स्वर को किसी ने याद ही नहीं किया। यूँ धीमी आवाज में श्रृंगार कुछ बोलता है - स्वर को प्रकाशमान ईश्वर (ब्रह्मा) की उपमा दी गई है। ईश्वर शब्द में भी स्वर छिपा है फिर स्वर के बिना शाश्वत, प्रकाशमान सुख का अनुभव कैसे प्राप्त किया जा सकता है? "स्वर संगीत का प्राण है संगीत सुख की रीढ़ है और सुख पाना ही सबका ध्येय इस विषय में सन्देह को गेह कहाँ? नि:संदेह कह सकते हैं- विदेह बनना हो..... तो स्वर की देह को स्वीकारता देनी होगी हे देहिन ! हे शिल्पिन् !" (पृ. 143) संगीत ही सुख का साधन / आधार है, इस विषय में किसी भी प्रकार से संदेह को स्थान नहीं देना चाहिए। अत: यदि देह रहित शुद्ध दशा, सच्चा सुख पाना चाहते हों तो, हे देहधारी पुरुष! हे शिल्पी!! स्वर/संगीत को अपनाना ही होगा......।
  16. श्रृंगार को कुछ बोध रूपी धन प्रदान करता हुआ शिल्पी कहता है- इस बात को स्वीकार करो अथवा ना करो, किन्तु संसार का हर एक प्राणी सुख चाहता है। रागी धन कमाकर, उसे इकट्ठा कर, विषय-भोग की सामग्री जोड़ कर तो त्यागी-वीतरागी परमार्थ केवलज्ञान अथवा निज शुद्ध आत्मा को उपलब्ध कर सुखी होना चाहता है। एक इन्द्रिय सुख को सुख मानता है तो दूसरा अतीन्द्रिय, आत्मिक सुख को सुख मानता है। सच्चा सुख कौन प्राप्त करता है, यह तो अपने उपादान1, सम्यग्ज्ञान पर ही आधारित है। बाहरी इन्द्रिय सुख क्षणभंगुर (शीघ्र नष्ट होने वाला) कर्मों के आधीन, बाधासहित, सुखाभास मात्र है जबकि अतीन्द्रिय सुख स्वाधीन, शाश्वत, निराबाध है। सही श्रृंगार करना चाहते हो, जीवन को सुखी बनाना चाहते हो तो भीतर चेतना की ओर देखो, उसे अलंकृत करो, सजाओ-संवारो। शिल्पी श्रृंगार रस की कोमलता को उसकी अनित्यता (नश्वरता) का बोध कराता हुआ कुछ पूछता है - "किसलय ये किसलिए किस लय में गीत गाते हैं? किस वलय में से आ किस वलय में क्रीत जाते हैं? और अन्त अन्त में श्वास इनके किस लय में रीत जाते हैं? "(पृ. 141) पेड़ की नई पत्तियां किसलिए आई, कैसे बड़ी हुई, पुरानी हुई कैसे पर्याय से आई, किस पर्याय में चली गई, बदल गई। और अन्त में सूखकर गिर जाती हैं, क्यों? यही तो संसार की अनित्यता है, कौन कहाँ से आता है कब तक रहता है, क्यों रहता है कहाँ चला जाता है इसकी किसे खबर है। तुम्हारी कोमलता, युवावस्था कब तक रहेगी, कुछ समय तक बस! इसलिए अर्थ और इन्द्रिय सुख में सुख मानने वालों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अर्थ की नहीं, परमार्थ की चाह होनी चाहिए। उपादान = भीतरी योग्यता।
  17. शिल्पी के समक्ष वीर रस को भी कायर की भाँति पीठ दिखाते युद्ध भूमि से लौटते, रौद्र रस को पीड़ित के रूप में, भय रस को भयभीत के रूप में देखकर विस्मय रस (आश्चर्य, अचम्भा) भी आश्चर्यचकित रह गया। उसकी पलकें भी अपलक रह गई, मुख से शब्द नहीं निकले, उसकी भूख भी मन्द पड़ गई। विस्मय की दशा देख श्रृंगार रस के मुख का पानी भी सूखने लगा, विषयी भूख मन्द पड़ना-किसी कार्य के प्रति उत्साह समाप्त होना। मानवों को सुख देने वाली श्रृंगार-कथा भी फीकी, प्रकाश रहित हो गई। दीर्घ श्वांस लेता शिल्पी मन ही मन विचार करता है कि हे भगवान्! पञ्चेन्द्रियों के विषयों को भोगने में लीन, अन्ध बने हुए विषयान्धों को समीचीन प्रकाश, आत्म तत्व का बोध कब मिलेगा? फिर शिल्पी के मुख से निकलते हैं कुछ शब्द-जो रस, स्पर्श, गंध और रूप से रहित निज आत्मा को चाह रहा है, उसे इन बाहरी रसादि में रस यानी आनंद कहाँ आवेगा। इन्द्रियों को तृप्त करने की यह पद्धति कब से चल रही है किन्तु अब - "यह चेतना मेरी जाया चाहती है, दर्श में बदलाहट, काम नहीं अब, .....राम मिले ! "(प्र. 140) मेरी चेतना सही जीवन-साथी, दृष्टि में बदलाहट/परिवर्तन चाहती है। अब आतमराम मिले, विषय-वासना काम की चाह नहीं रही इस मन में। बाहर चल रही विषयों की गरम-गरम हवाओं से मेरी यह देह जल-सी गई है, अब धूप नहीं शान्ति की छाँव से परिपूर्ण स्थान / शिवधाम मिले। इस बीच शिल्पी का भीतरी पुरुषार्थ, चिन्तन-मनन भी बढ़ता जा रहा है। कामदेव-मदन का प्रताप, तेज कम तो हुआ ही; तत्व का विचार, चिन्तन-मनन बहुत हुआ, अभी भी चल रहा है। मन थकता-सा, तन रुकता-सा लगता है, शिल्पी भावना भाता है, अब झाग यानी ऊपर-ऊपर दिखने वाला फेन नहीं किन्तु पाग यानी सारभूत मधुर वस्तु/ तत्त्व मिले। मैं मानता हूँ कि मैं भी अनन्त गुणों का धारी परमात्मा बन सकता हूँ किन्तु यह भव्य आत्मा आखिर इसी रूप में कब तक रहेगी। कब इसके भीतर से शुद्धोपयोग की सुगंध फूटेगी। निज तत्व के उद्घाटन / प्रकटीकरण में बाधक ये ज्ञानावरणादि कर्म कब नष्ट होवेंगे? अब राग रंग नहीं किन्तु वीतरागता, वीतराग विज्ञान मिले, बस यही भावना है। 1. ज्ञानावरणादि कर्म – ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र, अंतराय ।
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