जिन्होंने इस सत्य को जाना है, उन्होंने फूलों का नहीं शूलों का सम्मान किया है तभी तो-
"कामदेव का आयुध फूल होता है
और
महादेव का आयुध शुल।
एक में पराग है
सघन राग है
जिस का फल संसार मिलता है
एक में विराग है
अनघ त्याग है
जिसका फल पार मिलता है।" (पृ. 101-102)
लोक में प्रसिद्ध है कि कामदेव का शस्त्र फूल है और शंकर का शस्त्र शूल-त्रिशूल। फूल में पराग है घना राग (प्रेम, इच्छा) है जिसका फल यह दुःख रूपी संसार है एवं शूल में वैराग्य, स्वच्छ त्याग है जिसका फल संसार से उस पार, मोक्ष है। फूलों को ही सम्मान देने वालों को संसार ही मिलता है और शूलों को चाहने वाले महादेव ‘अरिहन्त देव' बनकर संसार से पार हुए हैं।
फूलों को देखते ही विषय-वासनाएँ मन में पैदा होने लगती है। दम यानी इन्द्रिय संयम को वह छीन लेता है तथा बदले में मद, अहंकार, भोग लिप्सा से भर देता है। जबकि काँटों को देखने से वैराग्य पैदा होता है, वे इन्द्रिय संयम का भाव पैदा करा देते हैं। फिर व्यक्ति शीघ्र ही अहंकार को छोड़ देता है और अहं यानी मैं की खोज में लग जाता है। यह स्पष्ट ही है कि दम से सुख का झरना फूटता है तो मद से सुख की मौत होती है और जीवन दुख से भर जाता है। फिर भी यह कैसी विडम्बना (उपहास का विषय) है कि सभी फूलों की प्रशंसा करते हैं और शूलों से द्वेष (शत्रुता) रख उनकी बुराई करते हैं क्या यह सत्य पर आक्रमण नहीं है?
इतना तो ध्यान रखना ही चाहिए कि हमारी भारतीय संस्कृति, पश्चिमी सभ्यता के समान आक्रामक स्वभाव वाली, विनाशशील आँखों वाली नहीं है। भारतीय संस्कृति उन ऋषि मुनियों की परम्परा का निर्वाह करने वाली है, जिन्होंने संसार के सब वैभव को त्याग कर दिगम्बर वेष धारण कर, आत्म स्वरूप में लीन हो गये। ऐसी सुख शान्ति का कारण है यह भारतीय संस्कृति। यहाँ सत्य पर आक्रमण नहीं किन्तु सत्य की पूजा होनी चाहिए।