काँटा पुन: शिल्पी से प्रार्थना करता है कि मोह क्या बला है और मोक्ष क्या कला है? यह हम जानना चाहते हैं किन्तु मात्र लक्षण के द्वारा कम शब्दों में समझा देवें, लम्बी-चौड़ी व्याख्या नहीं। क्योंकि लम्बी व्याख्या होने से मूल विषय का पता ही नहीं चलता और फिर दूध में थोड़ा-सा भी जल मिलाया जाए किन्तु दूध की मधुरता कम हो ही जाती है। इसलिए मोह और मोक्ष की संक्षिप्त लक्षणा प्रदान करें तो बड़ी कृपा होगी। इस पर शिल्पी सम्बोधन करता है -
"अपने को छोड़कर
पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही
मोह का परिणाम है
और
सबको छोड़ कर
अपने आप में भावित होना ही
मोक्ष का धाम है।" (पृ. 109)
मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मुझे क्या करना है यह सब नहीं विचारकर, यह वस्तु किसकी है, कितनी है, क्या है? इत्यादि पर पदार्थों के विषयों में सोचना-विचारना उन्हें ग्रहण करने का भाव रखना मोह का प्रतिफल है तथा बाहरी सब पदार्थ, सभी सम्बन्धों को छोड़कर एक मात्र अपने आत्मस्वरूप में लीन होना ही वास्तव में मोक्ष है। परपदार्थ को ग्रहण करने का ही परिणाम यह दुख रूप संसार अनादिकाल से बना हुआ है। हे चेतन! एक बार तो अपने स्वरूप का विचार कर, स्वरूप की अनुभूति कर, क्षण मात्र में संसार के सभी दुखों से मुक्ति मिल जावेगी ।
मोह और मोक्ष की लक्षणा सुन काँटा कह उठा-धन्य है! धन्य है! आज सही साहित्य की छाँव मिली है। आपके मुख से खिरने वाली ये पंक्तियाँ मोतियों की माला के समान सुन्दर वं शीतलदायी लग रहीं हैं। आज तक बहुतों से सुना पर ऐसा बहुत कम सुनने को मिला। आप की शैली, सिद्धों-सी आध्यात्मिकता से घुली लगती है, इसे सुनने से अनेक प्रकार के मिष्ठान, दुनिया के आकर्षण भी फीके लगने लगते हैं। यदि आपको सुविधा हो तो, वर्तमान प्रसंग के अनुकूल साहित्य शब्द पर कुछ सुनने को मिले तो बड़ी कृपा होगी।