माटी और शिल्पी दोनों मौन की ओर निहार रहे हैं, सो एक प्रश्न खड़ा होता है। मौन से कौन बड़ा है? इसके जबाब में मौन बोलता है, जो मौन की भाषा को समझ सके वह मौन से भी बड़ा है। क्योंकि मौन तो पोल यानी आकाश के समान सीमातीत है, सदा शुद्ध तथा शुद्ध केवलज्ञान को उत्पन्न कराने वाला है।
शब्दों का शरीर सीमा से बँधा होता है, ढोलक की रचना भी सीमा से ही सुरक्षित होती है। परन्तु अनन्त आकाश के समान मौन विशाल रहस्य को लिए होता है। इसलिए महापुरुष प्राय: मौन का ही आश्रय लेते हैं तीर्थंकर दीक्षा लेने के बाद बोलते ही नहीं, केवलज्ञान होने के बाद बोलते भी हैं तो बुद्धिपूर्वक नहीं।
अब मौन स्वयं समतामय मधुर शब्दों में कुछ कहता है माटी से, कि शिल्पी के विषय में तेरी श्रद्धा, आस्था कुछ कमजोर-सी, अस्थिर लग रही है। देख सागर को लक्ष्य बनाकर बहती सरिता, अस्थिर होते हुए भी आस्था वाली होती है। आस्था के साथ आचरण होने पर वही आस्था निष्ठा के रूप में बदलती है, तभी आनंद की अनुभूति होती है, निष्ठा यानी स्वानुभूति का फल ही प्राण प्रतिष्ठा यानी अरिहंत दशा है, जिससे जन-जन का कल्याण होता है।
और धीरे-धीरे प्रतिष्ठा की पराकाष्ठा यानी चरम सीमा की ओर कदम बढ़ाती हुई वही आस्था समीचीन संस्था यानी सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाती है तब वही आस्था सदा-सदा के लिए आवागमन, क्षणभंगुरता को छोड़ शाश्वत पद को प्राप्त करती है। इसलिए शिल्पी के विषय में तुम्हें अपनी श्रद्धा कम नहीं करनी चाहिए।
मौन की बात सुन माटी की आस्था ललकारती हुई कहती है मौन से-हे मौन! तू आस्था की बात तो कर रहा है किन्तु आस्था से बात भी तो कर अर्थात् अपने जीवन में भी श्रद्धा तो जगा। मैं पाप से मौन हूँ तो तू श्रद्धा से मौन अर्थात् रहित, तुझमें पाप ही पाप छुपा है। श्रद्धा का दर्शन ना ही आँखों से संभव है और ना ही आशा से, वह तो श्रद्धा से ही संभव है। आँखों से इच्छाओं को तो पकड़ा जा सकता है किन्तु श्रद्धा को नहीं।
पुण्य-पाप से रची इस दुनिया का रहस्य चर्म दृष्टि से नहीं किन्तु आस्था की धर्म दृष्टि से ही पकड़ में आ सकता है। इतना कहकर माटी की आस्था, भीतर की ओर वापस लौटती हुई लाल आँखों से मौन को डराती-सी लगी कि शिल्पी की नीली आँखों से नीलिमा गिरते ही आस्था शान्त हो जाती है।