काँटे की जिज्ञासा, शिल्पी का समाधान सुनती रही लेखनी और प्रासंगिक विषय साहित्य पर वह भी कुछ कहती है। जिस प्रकार रसोइया की जिह्वा रसदार भोजन का आनन्द/रसास्वादन कम कर पाती है उसी प्रकार प्रवचनकार और लेखक भी साहित्य रस का उतना आनन्द नहीं ले पाता, जितना की क्षीर-नीर विवेकी हंस समान प्रवचन सुनने की कला में कुशल, श्रद्धा से भरा श्रोता आनन्द लेता है।
इसका कारण यह है कि प्रवचन काल में प्रवचनकार और लेखनकाल में लेखक दोनों सोच-विचार में डूबते हैं कि आगे क्या बोलना अथवा आगे क्या लिखना है। उस समय ना कुछ अनुभव होता है, ना कुछ रस और ना ही नीरसता की बात केवल लगाव रहित अतीत और वर्तमान में टकराव रहता है बस।