टूटे काँटे की बात सुन माटी कहती है - अरे काँटों! कुम्भकार का स्वभाव अभी तुम्हें ज्ञात नहीं है इसलिए ऐसा बोल रहे हों। सुनो मैं तुम्हें बताती हूँ यह कुम्भकार श्रमण जैसे उत्कृष्ट क्षमा भाव को धारण करने वाला, क्षमामूर्ति, क्षमा का ही अवतार है। इधर शिल्पी भी सब वार्ता को सुनता रहा और उसके मुख से क्रोध रूपी अग्नि को बुझाने वाली, करुणा से भरी अमृतवाणी निकलती है, जिसमें धीरता और गम्भीरता भी मिली है –
"खम्मामि, खमंतु मे-
क्षमा करता हूँ। सबको,
क्षमा चाहता हूँ सबसे,
सबसे सदा-सहज बस
मैत्री रहे मेरी!
वैर किससे
क्यों और किस्से करूँ ?
यहाँ कोई भी तो नहीं है
संसार - भर में मेरा वैरी !" (पृ. 105 )
"क्षमा वीरस्य भूषण" - क्षमा वीरों का आभूषण है, कायरों का नहीं। फिर जिसने अपने को जीत लिया, ऐसा वीर किसी से क्यों वैर रखेगा। शिल्पी काँटों से क्षमा माँगता है कि मेरे कारण तुम्हें कष्ट हुआ किन्तु मैंने किसी बैर भाव के कारण, जानबूझ कर तुम्हें कष्ट नहीं दिया। मेरा संसार के सभी जीवों से सदा मैत्री भाव है, किसी को भी मेरे द्वारा कष्ट ना ही यही मेरी भावना रहती है और फिर संसार में किससे और क्यों बैर भाव रखें-सभी तो मेरे समान परमात्मा बनने की शक्ति रखते हैं अथवा शुद्ध द्रव्यार्थिक नया से सभी सिद्धों” के समान शुद्ध हैं। निश्चय से कोई भी प्राणी मेरा बुरा कर ही नहीं सकता यदि करता भी है तो मेरे अशुभ कर्मों की निर्जरा में कारण बनता है फिर मेरा बैरी कैसे और कब अर्थात् इस भव में कि पर भव में! कभी नहीं कोई भी मेरा शत्रु नहीं है मेरा किसी से बैर भाव नहीं है।
शिल्पी की विनय मिश्रित क्षमावाणी काँटों के शरीर को पार कर भीतरी चेतना तक पहुँचती है। फलस्वरूप ईंधन के अभाव में बुझने वाली अग्नि के समान काँटों का क्रोध भाव समाप्त होने लगा, क्षण–क्षण पाप का कारण बना जो बदले का भाव, वह भी दूर भाग गया। पुण्य का कारण, समीचीन ज्ञान अन्त:करण में प्रकट हुआ एवं अनुभूति का आधार, शोध-भाव (जानने की इच्छा) सहज रूप से काँटों के भीतर पैदा होने लगा।