काँटे की बढ़ती जिज्ञासा और ज्ञान की पिपासा देख शिल्पी साहित्य शब्द पर बोलता है कि-जो हित से युक्त होता है अर्थात् परोपकार से जुड़ा हो वह सहित माना है सहित का भाव ही साहित्य है, अर्थ यह हुआ कि जिसके पढ़ने सुनने से सच्चा सुख (इन्द्रियातीत) उत्पन्न हो वही सही साहित्य है, अन्यथा सुगंध से रहित पुष्प के समान जिसमें सुख का लेश मात्र न हो वह 'शब्द-झुण्ड' मात्र है, सही साहित्य नहीं कहा जा सकता है।
जिस जीवन में कषाय शमन हो गई विषयों को वश में किया जा चुका हो ऐसा परम शान्त, आदर्श जीवन ही शाश्वत साहित्य का निर्माता है। इस वीतराग साहित्य को आँखें भी पढ़ सकती हैं, कान भी सुन सकते हैं और हाथ भी इसकी सेवा कर सकते हैं, यह जड़ नहीं अपितु जीवित साहित्य है-चलता फिरता भगवान् धरती का देवता श्रमण।
साहित्य शब्द की व्याख्या सुन फटा माथा होकर भी काँटा, स्त्री समागम से भी कहीं अधिक आनन्द का अनुभव करने लगा। टूटी टाँग वाला होकर भी चिन्तन में डूबा नृत्य करने लगा वह काँटा। मन्द ही मन्द मन में वह हँस रहा है, मानी शिल्पी को इस बात का अहसास करा रहा है कि-
"सदा-सदियों से हंसा तो जीता है
दोषों से रीता हो,
परन्तु सब की वह काया
पीड़ा पहुँचाती है सबको
इसलिए लगता है, अन्त में इस
काया का दाह-संस्कार होता हो।" (पृ. 112)
आत्मा जो दोषों से रहित शुद्ध स्वभाव वाला है, सदा अनादि काल से रह रहा है परन्तु कर्मोदय से मिलने वाला यह शरीर सबको पीड़ा देता है। यही कारण हो सकता है कि अन्त समय में इस काया को जलाया जाता हो किन्तु यह शरीर भी कैसा है कि कई बार राख-खाक होने पर भी बार-बार जनम लेकर आत्मा को दुखी करता है। अभी भी कर रहा है, अत: आत्मा को सुरक्षित रखना चाहते हो तो काया को नहीं कर्मों को जलाओ, जिससे पुन: शरीर ना मिले।