बोध और शोध के विषय को स्पष्ट करती हुई लेखनी भी कुछ कहती है -
"बोध के सिंचन बिना
शब्दों के पौधे ये
कभी लहलहाते नहीं,
यह भी सत्य है, कि
शब्दों के पौधों पर
सुगन्ध मकरन्द-भरे
बोध के फूल कभी महकते नहीं,
फिर !
संवेद्य - स्वाद्य फलों के दल
दोलायित कहाँ और कब होंगे...? (पृ. 106)
मात्र शब्द ज्ञान से जीवन में कभी आनंद आ नहीं सकता। शब्दों के साथ अत्यन्त आवश्यक है उसमें छिपे अर्थ, रहस्य का ज्ञान होना। अर्थ ज्ञान होने पर ही अनुभूति/स्वात्मानुभूति का फल परमानंद प्राप्त हो सकता है। शब्दों में ही अटके रहने पर, ना बोध का फूल खिलेगा और ना ही शोध का फल मिलेगा, क्योंकि बोध का फूल ही शोध के फल रूप में पकता-फलता है। बोध में फिर भी आकुलता हो सकती है, होती है किन्तु शोध में निराकुलता ही निराकुलता होती है। और फिर तृप्ति फूल से नहीं फल से ही होती है।
फूल में गन्ध भले हो, पर फल तो रस से भरा होता है इसलिए सुनो फूल का तो रक्षण करो और फल का भक्षण करो। अर्थात् ज्ञान आवश्यक तो है किन्तु ज्ञान में वो आनन्द नहीं आता जो ज्ञान के प्रयोग आत्मानुभूति में आता है अत: निरन्तर ज्ञानाभ्यास करते हुए भी निज शुद्धात्मानुभूति रूप शोध में ही विशेष पुरुषार्थ करना चाहिए। तभी आत्मा का हित, निराकुल सुख संभव है।
शिल्पी के मुख से पूर्व में कभी न सुने ऐसे अश्रुत पूर्व वचनों को सुन काँटों की कठोरता दूर हुई, उनका अन्त:करण पश्चाताप से भर गया। और कंटक कहता है शिल्पी से - हमारी अज्ञानता का ही यह फल है कि हमें हानिकारक पदार्थ लाभप्रद लगा और लाभदायी हानिकारक, सही बात हम जान न सके। सत्य अच्छा ना लगा गलत दिशा में हमारे कदम बढ़ गए, सही पथ पीछे रह गया। सुगन्धित पदार्थ को गन्दा कहा, चन्द्रमा को अन्धा कहा, अमृत जहर लगा हमें, बड़ी भूल हमने की है हमें आप क्षमा करो स्वामिन् !
1. शुद्ध द्रव्यार्थिक नय = शुद्ध द्रव्य ही जिसका प्रयोजन हो/लक्ष्य हो।
2. सिद्ध = शरीर रहित परमात्मा ।
3. निश्चय = वास्तव, यथार्थ।