माटी की बात सुनकर काँटा कहेता हैं मात्र नाम की और ही नहीं, कुछ गुण और काम की ओर भी दृष्टिपात करना चाहिए माँ! इसी बीच पास में खड़ा गुलाब के पौधे में से काँटों का दल बोल पड़ा, इस बात को हम स्वीकारते हैं कि दूसरों की पीड़ा, शल्य में हम निमित अवश्य हैं, इसी कारण हम शूल कहे जाते हैं। फिर भी हमेशा हमें शूल के रूप में देखना बड़ी भूल ही होगी –
"कभी-कभी शूल भी
अधिक कोमल होते हैं
.....फूल से भी
और
कभी-कभी फूल भी
अधिक कठोर होते हैं
.....शूल से भी।" (पृ. 99)
किसी व्यक्ति अथवा प्राणी को हमेशा एक रूप में ही देखना यह मानव की बड़ी भूल हो सकती है, क्योंकि व्यक्ति एक जैसा सदा नहीं रहता। बिल्ली जिन दाँतों से चूहे का शिकार करती है, उन्हीं दाँतों से अपने बच्चे का पालन नहीं करती क्या? काँटें जो दूसरों की पीड़ा में कारण बनते हैं क्या, हमेशा शूल रूप में ही रहते हैं? कभी-कभी वे फूल से भी अधिक कोमल होते हैं तभी तो कोमल फूल की कली भी काँटों का स्पर्श पा खुल-खिल उठती है, तब हम सदा शूल कहाँ रहे? और वे फूल जो सदा हमें अपने शील से च्युत करने, विषय-वासनाओं में फँसाने , रागी बनाने का प्रयास करते हैं क्या वे शूल-समान दु:खकारी नहीं है?
प्राय: देखा जाता है कि जो सुन्दर मनोहारी काया को धारण करते हैं, बाहर से भले ही कोमल दिखते हैं किन्तु वे भीतर से मायाचारी, क्रूरता रूप परिणामों से भरे होते हैं। मुख से मीठे बोल बोलते हैं किन्तु भीतर विष घुला होता है उनमें और संसार इसलिए ठगा जा रहा है।