माटी को रौंदकर लौदा बनाने हेतु शिल्पी का माटी के पास आना हो रहा है। फूली माटी को रौंदना है, रौंदन क्रिया हाथ से सम्भव नहीं क्योंकि माटी को चिकनाई की चरमता तक पहुँचाना है, यह कार्य पैरों के द्वारा ही संभव है। हाथ प्राय: कर्तव्य के क्षेत्र में कायर ही बनते हैं, माँगने की बात हो तो खुलकर दोनों हाथों को फैलाकर धन, पैसा माँगते हैं, फिर मानवता से नीचे गिर, मानवता यानी अहंकार, अभिमान से भर जाते हैं। जबकि पैर इससे विपरीत स्वभाव वाला है, परिश्रम का आदि बना सदा परिश्रम करता है, प्राय: चोट खा घायल बनता है, फिर सदा नम्रता से मिलता है और निज को पवित्र, पूज्य बना लेता है।
जैसे ही शिल्पी माटी को रौंदने के लिए अपना दाहिना पैर उठाने का भाव करता है कि उसे अनुभव होता है मानो उसके दाहिने पैर में खून जम - सा गया वह चेतना शून्य हो रहा है और बाँया पैर भी प्रभु से प्रार्थना करता हुआ कुछ कहता है कि -
"पदाभिलाषी बन कर
पर पर पद-पात न करूँ
उत्पात न करूँ,
कभी भी किसी जीवन को
पद-दलित नहीं करूँ, हे प्रभो ।" (पृ. 115)
हे भगवन्! तुच्छ – नश्वर पदों की इच्छा लेकर दूसरों पर पैर ना रखें, ना ही किसी को बुरा कहूँ, कष्ट दूँ और ना कभी किसी को पैरों तले रौंदू। सच्चा भत तो वही है, जो ईश्वर पद के सिवा अन्य पद की चाह न रखे और रखे भी तो दूसरों को गिराकर, दबाकर, बुरा बनाकर नहीं किन्तु सबको अपना बनाकर। और फिर स्वभावत: शान्त परिणाम वाली माँ माटी के मस्तक पर पैर रखना, संभव नहीं होगा हमसे ।
यह कार्य तो–कल्याणकारी, मंगलदायक क्षेत्र पर प्रलय करना, प्रेम वात्सल्य के शिखर पर निर्दय होकर वज़पात करने के समान होगा। माटी पर पैर रख कर, इस युग को सुख-शान्ति से रहित नहीं करना है और दुख, थकावट से नहीं भरना है।