हमें ऐसा कोई मन्त्र दो, जिससे हमारा जीवन भी कषायों से रहित सुन्दर बन सके। कभी वह भी समय हमारे जीवन में आए जब हम भी किसी को सहारा दे सकें, सुखी बना सकें। काँटों की पश्चाताप भरी प्रार्थना सुनकर शिल्पी कहता है -
"मन्त्र न ही अच्छा होता है
ना ही बुरा
अच्छा, बुरा तो
अपना मन होता है।
स्थिर मन ही वह
महामन्त्र होता है
और
अस्थिर मन ही
पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है,
एक सुख का सोपान है,
एक दु:ख का 'सी' पान है।" (पृ. 108)
दुनियाँ की वर्णमाला में ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जो मन्त्र ना हो। मन्त्र अच्छा या बुरा नहीं होता, मन्त्र की सफलता तो मन की स्थिरता पर आधारित होती है। भावपूर्वक, स्थिरता के साथ जपा हुआ मन्त्र शीघ्र ही अनुकूल फलदायी होता है और फिर विषय-वासनाओं से दूर रहकर परमात्मा में, निज स्वभाव में स्थिर मन ही तो महामन्त्र कहलाता है।
इसके सिवा सदा विषय-कषायों में झूलने वाला स्वेच्छाचारी, चंचल मन ही पापतन्त्र पाप का कारण होता है। स्थिर मन सुख की सीढ़ी है तो चंचल मन दुख का पेय (पीने योग्य पदार्थ) है। इसलिए अच्छे मन्त्र की इच्छा करने की अपेक्षा अपने मन को अच्छा, निर्मल और स्थिर बनाने का प्रयास करो, भविष्य स्वयमेव उज्ज्वल और श्रेष्ठ बनता चला जाएगा।