शंका - आचार्य महाराज कई बार बड़ी-बड़ी बीमारियों के शिकार हुए। उस वक्त उनकी मानसिकता कैसी रही?
- श्रीमती चन्द्रकला पाटनी, रांची
समाधान - देखो! बीमारी तो किसी को भी हो सकती है। महापुरुषों को बीमारियाँ ज्यादा होती हैं। आचार्यश्री अनेक बार गम्भीर रूप से बीमार पड़े, लेकिन उनका मनोबल कभी नहीं गड़बड़ाया। वह बीमारी की स्थिति में भी अपनी चर्या में जागरूक रहते हैं। मैंने उन्हें कभी भी शिथिल होते नहीं देखा। सन् १९८७ की बात है, गुरुदेव थूबौन जी में थे। उस वक्त वहाँ मलेरिया का बड़ा प्रकोप था। आचार्यश्री की तबीयत गड़बड़ा गई, उन्हें पिछले कई दिनों से बुखार का आभास हो रहा था। वे आहार में केवल सब्जी ले रहे थे।
एक दिन उन्होंने उपवास कर लिया। उसी दिन उन्हें एक सौ। पाँच डिग्री बुखार आ गया। चौबीस घण्टे तक निरन्तर बुखार था। दूसरे दिन आहार के समय जो उन्हें औषधि दी गई, वह बहुत कड़वी थी, औषधि मुँह में डालते ही बाहर आ गई। आचार्यश्री का अन्तराय हो गया। बुखार तेज था, हालत खराब हो गई। बुखार उतर नहीं रहा था। मानसून की बारिश हुई नहीं थी, गर्मी प्रचण्ड थी। उन दिनों पण्डित जगन्मोहनलाल शास्त्री कटनी वाले गुरुदेव के चरणों में पधारे। गुरुदेव की वन्दना कर उन्होंने पूछा- महाराजश्री! कैसा लग रहा है? आचार्य श्री ने लेटे-लेटे ही सहज भाव से कहा- "औदयिक भाव (कर्म का उदय) है, जान रहा हूँ और देख रहा हूँ।"
उस समय मैं वहीं पर था। आचार्यश्री का उत्तर सुनकर सभी आश्चर्यचकित रह गए। प्रचण्ड गर्मी, एक सौ पाँच डिग्री बुखार, शरीर उत्तप्त, उस घड़ी में भी ऐसा भेदविज्ञान, यह कोई विरला योगी ही कर सकता है। मैं समझता हूँ इस घटना से आचार्यश्री की मानसिकता का अन्दाज लगाया जा सकता है।