शंका - गुरुदेव के चरणों में नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु! गुरुदेव! आचार्यश्री में एक अद्भुत कला है, वह अपने शिष्य को कैसे तराशते हैं? कृपया प्रसंग सुनाइए।
- श्री अनिल मेहता, उदयपुर
समाधान - देखिए! शिल्प को कैसे तराशते हैं? जैसे शिल्पी तराशता है, वह बहुत समय देते हैं। मैं औरों की बात नहीं कहता, मैं अपनी बात कहता हूँ। मेरा जिस दिन संघ में प्रवेश हुआ, ड्रेस बदली, मैं आशीर्वाद लेने गुरुचरणों में गया, उन्होंने तत्क्षण मेरे साथी ब्रह्मचारी से कहा कि इन्हें तत्त्वार्थ सूत्र दो और मुझे तत्त्वार्थ सूत्र से पढ़ाना शुरु कर दिया। मेरी जैनधर्म की शुरुआत तत्त्वार्थ सूत्र से हुई, उस समय मैं 24 भगवान् का नाम भी नहीं जानता था। प्रभु पतित पावन की विनती भी नहीं आती थी। पर जो भी हो, गुरुदेव ने मुझे पहले दिन चार सूत्र पढ़ाए। मैंने दूसरे दिन अर्थसहित गुरुदेव को सुना दिए। उसी समय विहार भी चलता था और पढ़ाते भी थे। वह समय देते हैं, संस्कार देते हैं, शिक्षा देते हैं और क्षमता बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। उनके सम्बोधन से हम लोगों का मनोबल बहुत बढ़ता है और जितना वह बोलते हैं उससे ज्यादा खुद करते हैं, तो उनको देख-देखकर ही हम लोगों के मन में ऐसी उमंग हो जाती है और हम लोगों का काम हो जाता है। इसका परिणाम है कि संघ के सब साधु बहुत पक्के होते हैं। आपने पूछा है कैसे तैयार करते हैं? मुझे याद है, 1985 में नैनागिरि से संघ से पहली बार मेरी उपस्थिति में क्षमासागर जी, गुप्तिसागर जी, योगसागर जी का विहार हुआ सागर के लिए। गुरुदेव नैनागिरि में थे। पहली बार विहार हुआ, सागर के कुछ लोगों ने, जिनमें क्षमासागर जी महाराज के पिताश्री भी थे, और लोग भी थे, गुरुदेव के चरणों में रात में वैय्यावृत्ति करते-करते कहा- महाराज! आपने कैसे निकाल दिया इन लोगों को? अभी तो यह बहुत छोटे हैं, आपने विहार क्यों करा दिया? गुरुदेव ने रात में इशारा करके कहा- कब तक उंगली पकड़े रहेंगे? फिर कहा- ठोक बजाकर देख लो, मैंने तैयार किया है, तब भेजा है। और निश्चित ही उनके द्वारा जो भी निर्मित होता है, वह परिपक्व होता है और जहाँ परिपक्वता होती है वहाँ सारा काम अपने आप हो जाता है।