शंका - परमपूज्य मुनिश्री के चरणों में सादर नमोऽस्तु! अभी संयम स्वर्ण दिवस महोत्सव मनाया जा रहा है और आचार्यश्री के
साक्षात् चरित्र को हम देख भी रहे हैं, सुन भी रहे हैं, पढ़ भी रहे हैं। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के अन्तर्गत बहुत सारी चीजें हैं और उनकी अपनी साधना है। अगर मैं उनके द्वारा समाज को दिए गए अनुदान को संक्षेप में कहूँ तो धर्म प्रभावना, महिला शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था मुख्य है। मैं समझता हूँ कि इसमें महिला शिक्षा सबसे ज्यादा प्रभावी है, क्योंकि इसके दूरगामी परिणाम होंगे। मैं यह जिज्ञासा रखना चाहता हूँ कि इन तीन अवदानों से जहाँ समाज प्रभावित होता है, आपकी दृष्टि क्या होगी व आचार्यश्री क्या सोचते होंगे|
- डॉ. जे. के. जैन, उदयपुर
समाधान - मैं तो यह सोचता हूँ कि जो आचार्यश्री सोचते हैं, वही मैं सोचता हूँ और हम लोग तो कुछ सोचते नहीं। हम लोग तो बात को आगे बढ़ाते हैं। चीजें फॉरवर्ड हो जाती हैं, सारा काम हो। जाता है। गुरुदेव का दृष्टिकोण हमेशा यही रहा है उन्होंने समाज के सशक्तीकरण पर हमेशा ध्यान दिया है। संस्कारयुक्त, सक्षम और सशक्त समाज के निर्माण की बात वह सोचते हैं। जब ऐसा होगा तभी हम अपना व धर्म का वास्तविक उत्थान कर सकेंगे, प्रभावना कर सकेंगे इसलिए समाज को जगाते हैं। महिला शक्ति के बारे में उन्होंने एक दिन बहुत अच्छी बात कही। महिला शिक्षा के विषय में उन्होंने कहा- देखो! भगवान् ऋषभदेव ने शिक्षा की शुरुआत ब्राह्मी व सुन्दरी से की, भरत और बाहुबली से नहीं, यह एक बहुत बड़ी सीख है। उन्होंने अक्षर व अंक विद्या ब्राह्मी व सुन्दरी को दी। आज की महिलाओं को इस बात का गौरव होना चाहिए कि हम ऋषभदेव की सन्तान हैं, जिन्होंने हमें सबसे पहले शिक्षा दी और एक दिन उन्होंने चर्चा में आदिपुराण के सन्दर्भ का उल्लेख किया था कि ''नारी च गुणवती धत्ते सृष्टिरग्रे मम पदम्' तो कहते हैं कि नारी को शिक्षित होना चाहिए, पर एक बात वह सदैव जोड़ते हैं कि शिक्षित ही नहीं, संस्कारित भी होनी चाहिए। क्योंकि एक कन्या में व एक पुत्र में अन्तर है। पुत्र को कुलदीपक कहा है व कन्या को उभयकुलविवर्धिनी कहा है। उसके ऊपर दोहरा दायित्व है। पुत्र तो केवल एक कुल को रोशन करता है, कन्या दो कुलों को रोशन करती है- अपने पति के कुल को भी व अपने पिता के कुल को भी। इसके लिए उसकी दोहरी जिम्मेदारी है, इसलिए वह शिक्षित भी हो, संस्कारित भी हो।