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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. मन का स्वभाव जल के समान है। वह हमेशा ढलान (पतन) की और गति करता है। जैसे पानी को मकान में ऊपर ले जाने के लिए हॉर्सपावर मोटर की जरूरत पड़ती है उसी प्रकार मन को उत्थान की और ले जाने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है। यह मन हमेशा आत्मा को पंचेन्द्रिय विषयों की ओर ले जाता है, क्योंकि संसारी प्राणी का यह विषयों का संस्कार अनादि काल से चला आ रहा है। इसलिए धर्मध्यान में ही अपने मन को लगाना चाहिए। इस प्रकार उपदेश आचार्य श्री जी के मुखारविन्द से हम सभी लोग सुन रहे थे तभी किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी धर्मध्यान कैसे किया जाए ? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- धर्मध्यान करना कठिन नहीं है कोई फावडे-गेंती नहीं चलाना पड़ती, बल्कि आर्त्त-रौद्र ध्यान का (त्याग करना पड़ता है। धर्मध्यान करने का सबसे अच्छा तरीका है आर्त्त-रौद्र ध्यान का त्याग कर दो धर्म अपने आप हो जाएगा। तब किसी ने कहा-आचार्य श्री जी एकदम आर्त्तध्यान नहीं छूटता। पंचपरमे ठी का ध्यान करते हैं तो पचास व्यक्ति याद आ जाते हैं। आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे खदान में हजार पत्थर मिल जाते हैं, लेकिन हीरे की कणिका एकाध ही मिल पाती है। उसी प्रकार आर्त-रौद्रध्यान मुफ्त में हो जाता है, लेकिन धर्मध्यान करने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ता है।
  2. ब्रह्मचर्याणुव्रत का उपदेश देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि विवाहित स्त्री के अलावा अन्य सभी स्त्रियों से विरक्त होना ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है। विवाह धर्म परम्परा चलाने के लिए होता है, लेकिन संतान में धार्मिक संस्कार होगें तभी धर्म परम्परा चल सकती है। इसलिए भारतीय संस्कृति में स्वदारसंतोष व्रत (ब्रह्मचर्याणुव्रत) कहा है। विवाह एक धार्मिक संस्कार है इसमें वासना के लिए कोई स्थान नहीं है। यह है हमारी भारतीय संस्कृति एवं परम्परा। उदाहरण देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- जैसे औषधि रोग निवारण के लिए ली जाती है स्वाद लेने या पेट भरने के लिए नहीं ली जाती है। वैसे ही वासना एक रोग है उसके निवारण के लिए विवाह किया जाए। है। उसमें रचना-पचना नहीं चाहिए। तब किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी आजकल तो पता ही नहीं चलता लड़का-लड़की कोर्ट में जाकर शादी कर लेते हैं। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- पश्चिमी देशों की हवा में भारत बह गया है। इसलिए सामाजिक व्यवस्थायें गड़बड़ा गई हैं। युवा वर्ग संस्कार, मर्यादाओं एवं परम्पराओं को भूल गया है। ग्रंथों में आया है। कि कन्यादान एक गृहस्थ के लिए पवित्र कार्य माना जाता है। धार्मिक एवं संस्कारित परिवार में ही कन्यादान करना चाहिए। धन की नही। धर्म की प्रमुखता होनी चाहिए। श्रावकों को उपदेश देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि- आप लोग विदेश से प्रभावित नहीं होइये, बल्कि आप अपने संस्कारों से उन्हें प्रभावित कीजिए। एक विदेशी व्यक्ति ने भारतीय संस्कृति एवं धार्मिकता से प्रभावित होकर लिखा है कि- "मुझे अगला भव मिले तो भारत में मिले और जैन कुल में जन्म हो।” उसने इस प्रकार का निदान बंध किया और आप लोग विदेश जाना चाहते हैं विदेशी परम्पराओं को अपनाना चाहते हैं। पहले शादी के बंधन से बंधते थे फिर प्रेम होता था आज लव मेरिज का जमाना आ गया। पहले प्रेम फिर बंधन की बात सोचते है। यह भारतीय संस्कृति पर कलंक है। आप लोगों को उत्तम देश, उत्तम कुल एवं संस्कार मिले हैं, इन्हें विदेशी संस्कृति से प्रभावित होकर खोना नहीं वरन् जीवन भर पछताना पड़ेगा।
  3. एक बार आचार्य श्री जी ने कहा कि कुछ लोगों की शिकायत रहती है कि हमें कोई पूछता ही नहीं है। लोग हमें सम्मान ही नहीं देते। तो मैं कहता हूँ ठीक है दूसरा नहीं पूछता तो स्वयं अपने आपको पूछो, स्वयं को सम्मान दो। जैसे चुनाव में खड़े प्रत्याशी को कोई वोट नहीं देता तो वह स्वयं अपने आपको तो वोट दे सकता है। हम आपकी पूछ-परख करेगें लेकिन आप अपना एड्रेस तो बताओ। आपको अपना स्वयं का सही पता नहीं है और दूसरों से पूछ-परख करवाना चाहते हो। सम्मान सही एड्रेस वालों का होता है। आप कौन हो? तो किसी ने कहा- मैं आत्मा हूँ। तब आचार्य श्री ने कहा- ठीक है आत्मा की पूजा नहीं होती और जिसे अपनी आत्मा का भान हो आता है, उसकी सम्मान पाने की भूख समाप्त हो जाती है। पूजा, सम्मान पाने की भूख मान कषाय के कारण होती है। सम्मान, प्रशंसा के शब्द सुनकर जीवन में कभी मान नहीं आता तो समझना यह बहुत बड़ी साधना है। तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा- शारीरिक साधना भी तो बहुत बड़ी साधना कहलाती है। तब आचार्य श्री ने कहा कि मानसिक साधना प्रधानमंत्री के समान है और शारीरिक साधना कलेक्टर के समान है। जहाँ प्रधानमंत्री आ जाता है वहाँ कलेक्टर आदि सब आ जाते हैं। जब मानसिक साधना वृद्धि को प्राप्त होती है। तब शारीरिक साधना भी वृद्धि को प्राप्त होती चली जाती है।
  4. सम्यग्ज्ञान की चर्चा करते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि - सच्चा ज्ञान वही है जो पापों से बचाकर चारित्र की ओर ले जाए। जिसके द्वारा वैराग्य उत्पन्न हो एवं कषायों का शमन हो वही ज्ञान मोक्षमार्ग में सहायक है। जो कषायों का सहारा लेता है, वह ज्ञान मोक्षमार्ग में बाधक सिद्ध होता है। ज्ञानी जीव वही होता है जो शांत परिणामी हो जाता है एवं लोग मुझे ज्ञानी, पण्डित कहें आदि कामना से रहित होता है।अज्ञानी ही अपने आप को ज्ञानी कहलवाना चाहता है। लोग हमें ज्ञानी कहें ऐसी भावना क्यों रखते हो, ज्ञानी बन जाओ ना। आत्मा स्वभाव से ज्ञानवान है फिर दूसरों से सिद्धी कराने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। ज्ञान का स्वाद लेना चाहते हो तो संयम को धारण करो। कुछ लोग सम्यग्दर्शन लेकर बैठे रहते हैं व्रत नहीं लेते और आत्मा की चर्चा करते रहते हैं। ऐसे लोगों को उदाहरण देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि इन लोगों की दशा वैसी ही है जैसे एक बार दूध को गरम करके मलाई (क्रीम) निकाल लेने के बाद अब उसे कितनी भी बार गरम कर लो मलाई नहीं निकलेगी, निकलेगी भी तो वह स्वाद नहीं आएगा। तब किसी ने कहा- आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव की गाथााओं में खूब मिठास आती है। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- समयसार ग्रंथ की गाथाओं में मिठास पढ़ने से नहीं आती बल्कि प्रयोग करने से आती है। चन्दन घिसकर मिलाने से सुगंध एवं मिठास देता है सीधा खा लेने से तो कड़वा लगता है। संयम के बिना ज्ञान का स्वाद आता ही नहीं है। असंयत ज्ञान तो प्रायः मद को पैदा कर देता है।
  5. साधु वह होता है जो कभी भी किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। किसी भी व्यक्ति नेता या पार्टी का पक्ष नहीं लेता एवं सभी को समान दृष्टि से देखता है। इसी प्रकार का एक प्रसंग है। एक बार आचार्य श्री ने कहा कि चुनाव के समय कुछ नेता लोग हमारे पास जीतने का आशीर्वाद लेने आते हैं। सब अपने-अपने पक्ष की बात करते हैं। दूसरों को विपक्ष कहते हैं। अपनी पार्टी की प्रशंसा करते हैं और दूसरी पार्टी की निंदा करते हैं। पर मैं तो कह देता हूँ कि- पक्षपात पक्षाघात (लकवा) रोग से भी खतरनाक होता है। इसलिए अपने-अपने पक्ष की बात मत करो तो हमारा आशीर्वाद है।" राष्ट्र का सच्चा हितैषी वही होता है जो पक्ष–विपक्ष को गौण करके राष्ट्रीय पक्ष की बात करता है। आगे इस बात को अध्यात्म में ढालते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- जो ज्ञान यहाँ-वहाँ की बातें करता है। मन और इन्द्रियों का पक्ष लेता है वह सच्चा ज्ञान नहीं माना जाता है। सम्यग्ज्ञान वही माना जाता है जो आत्मा का पक्ष रखता है, आत्मा के बारे में सोचता है। आचार्य श्री ने पक्षपात के बारे में लिखा भी है कि - पक्ष व्यामोह, लौह पुरुष का भी लहू चूसता। अंत में आचार्य श्री जी ने कहा कि- यदि नेताओं के पास दया नहीं है, गुणवत्ता नहीं है तो कोई लायक नहीं फिर नायक कैसे बनेंगे।कुर्सी, पद तो मात्र औपचारिकता है। जहाँ कर्तव्य होता है, वहाँ सारे पद गौण हो जाते हैं। योग्यता के बिना पद का क्या मूल्य? राष्ट्रीयता क्या है जिसे इसका ज्ञान नहीं है तो वह राष्ट्र कैसे चलाएगा? पक्ष तो पक्षपात का विषय है, जिससे खतरा पैदा होता है, वह चाहे नेताओं की पार्टी का हो या धर्मात्माओं के निश्चयनय या व्यवहार नय का हर प्रकार के पक्षपात से हट जाना ही श्रेयस्कर है। जब तक चुनाव नहीं हो जाता तब तक दो-तीन पार्टियाँ रहती हैं, लेकिन मतदान के उपरांत सभी पर्टियाँ मिलकर राष्ट्रीय पक्ष में ही कार्य करती हैं। जो राष्ट्र का भला चाहता है वह पार्टी की चिंता नहीं करता, उससे चिपकता नहीं है।
  6. मद का प्रकरण चल रहा था। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि अपने आपको गुणवान एवं बड़ा मानते हुए दूसरों को दोष एवं छोटा मानना ही मद कहलाता है। इस मद के आ जाने पर सम्यग्दर्शन का दम घुटने लगता है। जो दूसरों के दोषों के बारे में जानकारी रखता है एवं स्वयं के दोष की ओर ध्यान नहीं देता उसका सम्यग्दर्शन एवं चारित्र निर्दोष नहीं पल सकता। तब किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि निर्दोष में भी दोष दिखाई देने लगते हैं। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- दूसरों के दोष देखना भी एक महान् दोष है। यह दोष जिसमें होगा उसे दूसरे दोष दिख ही जायेगे। इसे उदाहरण देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि- जैसे अपने चेहरे पर दाग लगा हो तभी तो दर्पण में चेहरा देखने से दाग दिखेगा। कई लोगों को तो दूसरों के दोष देखे बिना चैन ही नहीं पड़ता। जो दूसरों के दोष देखता है उसके सम्यग्दर्शन आदि गुणों में कमी आ जाती है। अपने गुणों में कमी लाकर दूसरों को नीचा दिखाने में लोगों को पता नहीं क्या मिलता है? पर क्या करें निन्दा रस छूटता ही नहीं। तब किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी कुछ लोग तो ऐसे हैं जिन्हें दूसरों की बुराई किए बिना भोजन ही हजम नहीं होता। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि अपने गुणों में कमी लाकर दूसरों के दोष देखने वाले की दशा उस व्यक्ति की भांति है जो अपने को जीवनभर काना बनाए रखकर दूसरों का अमंगल हो ऐसा सोचता रहता है। इस संस्मरण से हमें शिक्षा मिलती है कि दूसरों के दोषों को देखने वाला उस काने की भांति है जो स्वयं की आँख फोड़कर भी दूसरों का अमंगल चाहता है। ऐसा अमंगल कार्य हमें कभी भी नहीं करना चाहिए।
  7. स्वभाव की अपेक्षा किसी भी जीव में कोई भेद नहीं है। गुणी की ओर देखते हैं तो छोटे और बड़े का विकल्प आता है। लेकिन गुण की अपेक्षा न कोई छोटा है न कोई बड़ा। दृष्टि में भेद आए बिना छोटे और बड़े का विकल्प आ ही नहीं सकता। द्रव्य दृष्टि से तो सभी एक जैसे हैं। पर्याय दृष्टि से ही छोटे-बड़े का भेद हुआ करता है। इस प्रकार उपदेश देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि यदि व्यक्ति के गुणों की ओर दृष्टि पहुँच जाए तो फिर दोष दिखाई ही न दें। तब किसी ने शंका करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी यदि किसी में स्पष्ट रूप से ही दोष देख रहे हो तो क्या करना चाहिए? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- यदि किसी में दोष दिख रहें हो तो दोषों को पहचानो, ग्रहण मत करो एवं दूसरों से मत कहो। गुण-ग्रहण का भाव रखो। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे हंस दूध और पानी को अलग-अलग नहीं करता है, बल्कि दूध को ग्रहण करता है। आप भी दोष एवं गुण की पहचान रखिए एवं गुण को ग्रहण करिए। जैसे किसान घास और फसल दोनों की पहचान रखता है। घास तो बिना उगाए ही उग आती है वैसे ही दोष तो अपने आप ही आ जाते हैं। गुण एवं संस्कार तो फसल की भांति हैं जिसके बीज डाले जाते हैं। पुनः किसी ने पूछा कि- आचार्य श्री जी स्वयं में गुण विकसित करने का उपाय क्या है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- "दूसरे के दोष न देखना, न लेना ही अपने में गुण पैदा करना है।”
  8. कषायों का प्रकरण चल रहा था। आचार्य श्री जी ने कहा कि राग-द्वेष, क्रोध आदि कषाय सांसारिक प्राणी दूसरों पर करता है। स्वयं पर नहीं करता और स्वयं के प्रति कषाय होती भी नहीं है। धर्मात्मा को हमेशा क्रोध, मान आदि कषायों से बचना चाहिए। मैंने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- वैसे तो धर्मात्मा लोग कषाय से बचे रहते हैं, किन्तु आपसी कषाय से नहीं बच पाते। आपस में कषाय से बच सकें ऐसा उपाय बताने की कृपा करें। आचार्य श्री ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- कषाय से बचना चाहते हो तो एक सूत्र है- “दूसरे के बारे में मत सोचो। सहपाठी से बचो तो कषायें उद्वेलित नहीं होगी। उन्हें ध्यान का विषय मत बनाओ। अपने बारे में चिंतन करो, दूसरे के बारे में सोचो तो उसकी अच्छाई के बारे में सोचो। दूसरों के बारे में भूलकर भी बुरा नहीं सोचना चाहिए। दूसरों की बुराईयों को याद करते रहने से वह बुराईयाँ अपने मन पर हावी होने लगती हैं। हमारी कषाय नौ कर्म (शरीरादि) को देखकर उद्वेलित हो जाती हैं। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि हमारे अंदर कषायों का वारूद भरा है, आग का सम्पर्को मिलते ही फूट पड़ता है। बिजली स्विच के अनुसार कार्य करती रहती है। करंट वही है, स्विच पंखे वाला दवाओ पंखा चलने लगेगा। हीटर, बल्ब जिसका चाहो उसका स्विच दबाकर काम ले सकते हो। वैसे ही परिणामों के अनुसार कषायों का उत्पन्न होने एवं फल देने का कार्य चलता रहता है। इसलिए दूसरे की गलती, बुराई, दोष आदि के बारे में न सोचे, क्योंकि यही निमित्त हैं जो हमारी कषायों को भड़का देते हैं।
  9. श्रावकाचार का स्वाध्याय कराते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- श्रावक को सात्त्विक एवं अहिंसक व्यापार करना चाहिए जिससे बुद्धि, संस्कृति, समाज, राष्ट्र भ्रष्ट हो ऐसी वस्तुओं का व्यापार नहीं करना चाहिए। यदि गृहस्थ सच्चाई के रास्ते पर चलता है तो ही मोक्षमार्गी कहा जाता है। सात्त्विकता के अभाव में व्यवसायं करना है क्रूरता है, शोषण है। तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि महाराज! झूठ आदि बोले बिना घर नहीं चलता? तब आचार्य श्री ने कहा- यदि पाप की कमाई के बिना तुम्हारा घर नहीं चलता तो ले जाओ चलाते-चलाते नरक तक, मैं क्या कर सकता हूँ? आगे आचार्य श्री जी ने कहा कि- मांस, शराब, अण्डा आदि के विज्ञापन लेना-देना भी सात्त्विक व्यापार नहीं कहलाते। सात्त्विक आचार-विचार एवं व्यापार के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती। आज बाजार की किसी भी वस्तु पर यह शाकाहारी ऐसा विश्वास नहीं किया जा सकता। पैसे के लोभ के कारण आज व्यवसाय गन्दा होता चला जा रहा है। ऐसा व्यापार करो जिससे- "मांसाहार का विरोध और शाकाहार का प्रचार हो " अंत में आचार्य श्री जी ने कहा कि- जहाँ आपके बच्चे हॉस्टल आदि में पढ़ते हैं वह सरस्वती का मंदिर है। वहाँ आप लोगों को दिन में एवं शुद्ध शाकाहारी भोजन की व्यवस्था करवानी चाहिए ताकि आपके बच्चे बीमारी एवं कुविचारों से बच सकें।
  10. मोक्षमार्ग का प्रकरण चल रहा था। आचार्य श्री जी ने कहा कि तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएँ आई हैं "मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च” अर्थात् पंचेन्द्रिय के अच्छे एवं बुरे लगने वाले विषयों में राग-द्वेष का त्याग करना बतलाया है। "एक तरफ कुआँ एक तरफ खाई।" न राग कर सकते हो और न द्वेष कर सकते हो। यह सुनकर मैंने कहा- आचार्य श्री जी ऐसा कह सकते हैं कि- एक तरफ कुआँ एक तरफ खाई है, बीच में से निकल जा इसी में चतुराई है। सभी लोग हँसने लगे। आचार्य श्री ने कहा- हाँ, एक तरफ कुआँ है, एक तरफ खाई है, बीच में साधु भाई है, बीच में से निकल जाने में ही चतुराई है। तब किसी ने कहा- आचार्य श्री जी यह तो बहुत कठिन काम है। आचार्य श्री ने कहा- प्रतिभा सम्पन्न छात्र सबसे पहले कठिन प्रश्न ही हल करता है। मोक्षमार्ग में न कुछ अच्छा लगना चाहिए और न कुछ बुरा लगना चाहिए, जो जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों घ्राण इन्द्रिय के विषय हैं। सुगन्ध से राग और दुर्गन्ध से घृणा नहीं होना चाहिए। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- साइकिल के पहिए में हवा का बेलेंस होना चाहिए। यदि साइकिल के पहिए में हवा ज्यादा डाल दी तो साइकिल उछलने लगेगी और हवा कम कर दी तो ट्यूब कट जाता है। वस्तु स्वरूप न अच्छा है, न बुरा है। वह जैसा है सो है।
  11. जीव एवं कर्म सिद्धांत पर व्याख्यान करते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- इस चेतन पदार्थ का पुद्गल के साथ ऐसा सम्बंध हो चुका है कि एकमेक जैसे हो गये हैं। इनको कैसे जुदा किया जा सकता है ऐसा प्रश्न प्रत्येक युवा पीढ़ी के अन्दर आता होगा? क्योंकि यह प्रश्न आए बिना नहीं रह सकता? आचार्य कहते हैं कि- कारण के बिना कार्य की सिद्धि नहीं होती जैसे बिना बीज के वृक्ष नहीं होता फल नहीं लगते। कर्म के पास ऐसी शक्ति है कि वह आत्मा को राग-द्वेष पैदा करा देते हैं और पुनः कर्म बन्ध होता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक रूप से परम्परा चलती रहती है तो बीज के समान कर्म का भस्म करना आवश्यक है। आत्मा को शरीर से जुदा करने का यदि प्रयास प्रारंभ होता है तो सर्वप्रथम आत्मतत्त्व को मानना पड़ेगा। आत्मा पर किस का प्रभाव पड़ता है! जिनवाणी माँ कहती है कि- कर्म का प्रभाव आत्मा पर पड़ता है, लेकिन आप कहेंगे कि कर्म तो हमें दिखते नहीं हैं। सामने वाले का प्रभाव आत्मा पर पड़ता है। यदि ऐसा मानेंगे तो सामने वाले का आत्मा पर नियम रूप से प्रत्येक समय पड़ना चाहिए। लेकिन ऐसा देखा नहीं जाता। कठपुतली का उदाहरण देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि कठपुतली के खेल में डोर के एक छोर का सम्बंध कठपुतली के गले से रहता है और एक छोर का सम्बंध चेतन पदार्थ के साथ होता है। यह खेल दिमाग के द्वारा होता है- इस खेल में बहुत रहस्य भरा है? लोग इस खेल को मात्र देखते हैं लेकिन रहस्या नहीं समझ पाते कि यह खेल दिमाग से हो रहा है या कठपुतली से। सारे संसार का रहस्य इस खेल में समाहित है- इसी प्रकार भिमाग के द्वारा ही इस शरीर से क्रिया होती है दिमाग के बिना कोई भी क्रिया शरीर से नहीं होती और वह दिमाग कौन है? चैतन्य पदार्थ डोरी के बिना जिस प्रकार कठपुतली खेल नहीं कर सकती उसी प्रकार उस चेतन पदार्थ के निकल जाने से इस साढ़े तीन हाथ का पुतला कोई क्रिया नहीं करता है। तो वह चेतन पदार्थ कौन-कहाँ से आता है क्यों आता है, कब आता और कब चला जाता है? इसका विचार करना परम आवश्यक है। यह सारा का सारा दृश्य एक दिन विलीन हो जाने वाला है। इसको आप मानते तो हैं, लेकिन इनडायरेक्ट मानने है डॉयरेक्ट रूप से मानने के लिए आप तैयार नहीं होते हैं। जो व्यक्ति इस रहस्य को समझ लेता है कि एक दिन सारा दृश्य विलीन हो जाने वाला है। वह निश्चित ही अपना जीवन सफल कर लेता है और कुछ काम करके सुख प्राप्त कर लेता है लेकिन जो इस रहस्य को नहीं समझता वह इस संसार में दुःख पाता है। आत्मा-शरीर का सम्बंध मोह से है। कर्म रूपी डोर है, शरीर कठपुतली है, चेतन इस डोर को पकड़ने वाला है। इस खेल को हम प्रत्येक समय देख रहे हैं। संसार में कुछ नहीं है, केवल एक मात्र माया है। यह कथंचित सही है, क्योंकि जो कार्मण शरीर है वह मूर्तिक होते हुए भी देखने में नहीं आता फिर आत्मा तो बहुत दूर की बात है। किस प्रकार बाहरी पदार्थों का प्रभाव हमारे उपयोग पर पड़ता है इसको जानना आवश्यक है। उस अमूर्त आत्मा का अवलोकन तभी हो सकता है जब हम उन महान् आत्माओं के दर्शन करते हैं, जिन्होंने स्वरूप का अवलोकन किया है तो हम भी उनको देखकर स्वरूपस्थ हो जाते हैं और इस प्रकार स्वरूपस्थ हो जाते हैं कि फिर बाहर आना पंसद नहीं आता। यदि हम अपने उपयोग को अन्दर ले जाते हैं तो बाहरी पदार्थों का प्रभाव नहीं पड़ सकता। बाहर उपयोग जाने पर ही बाह्य पदार्थों का प्रभाव उस पर पड़ता ही है।
  12. देवगति का प्रकरण चल रहा था। आचार्य श्री जी ने कहा कि मरने और मारने के भाव मात्र से निधत्ति, निकाचित जैसे कर्म का बंध हो जाता है। नरकायु का बंध हो गया तो फिर वह फल दिए बिना छूटता नहीं है। इसमें देवी-देवता भी कुछ सहयोग नहीं कर सकते। तब किसी ने आचार्य श्री से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि अग्नि परीक्षा के समय फूल वर्षा ने देवी-देवता आ गए थे लेकिन जब दण्डकारण्य में सीता अकेली भूखी, प्यासी थी लेकिन देव भी देखते रहे लेकिन कोई नहीं आये सहायता के लिए ऐसा क्यों ? आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि जब तक भीतर जीव का, स्वयं का सातावेदनीय कर्म का उदय नहीं होगा तब तक सहायता करने कोई नहीं आयेगा। देव तो केवल शुभ-अशुभ घटना के साक्षी हैं। आपके पुण्य का प्रभाव होगा तो आपका भला कर सकते हैं और यदि आपका पाप का उदय होगा तो बुरा कर सकते हैं। आदिनाथ (मुनिराज) को इन्द्र ने वैराग्य दिलाने के लिए नीलांजना को प्रस्तुत कर दिया लेकिन जब मुनिराज आहारचर्या पर निकले तब देव किसी को विधि बताकर पड़गाहन नहीं करवा सके। क्योंकि उस समय मुनिराज के अन्तराय कर्म का उदय था। विधि मिलने के उपरांत जब आहार हो गये तो बाजे बजाने सभी देवतागण आ गये तो उसके पहले क्या सब बहरे हो गये थे या सो गए थे। शाप और अनुग्रह की शक्ति देवों के पास होती है, किन्तु वह आपके पुण्य और पाप के अनुरूप ही कार्य करते हैं। यदि प्रत्येक देव श्राप देने लग जाए तो फिर मुश्किल हो जाए लेकिन ऐसा नहीं होता और प्रत्येक देव यदि सहायता करने लग जाए तो सभी मालामाल हो जाए। चक्रवती भी देवों के पीछे पड़ जाए ऐसा नहीं होता और ऐसा देव कर भी नहीं सकते। इसलिए हमारे द्वारा दूसरों पर क्रुद्ध होना, रुष्ट होना यह हमारी ही आज्ञानता है, अपनी ही कमी है। अपने ही किए गए कर्म जीवन में बाधक एवं साधक सिद्ध होते हैं। इसलिए पाप को शत्रु एवं पुण्य, धर्म को ही अपना मित्र सहायक समझो अन्य किसी देवी-देवताओं को नहीं।
  13. नेमावर चातुर्मास में रत्नकरण्डक श्रावकाचार ग्रंथ की वाचना के अंतर्गत तीसरे श्लोक का व्याख्यान करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि- यहाँ पर रत्नत्रय अर्थात् मोक्षमार्ग को धर्म कहा है। श्रावक के एकदेश चारित्र होता है, श्रावक अणु के रूप में रत्नत्रय का पालन करता है। सम्यग्दृष्टि जीव हमेशा निर्दोष रत्नत्रय पालन का भाव बनाकर चलता है। चलने से पूर्व वह रास्ते की पहचान भी कर लेता है। प्रत्येक मोक्षमार्गी का पहला कर्त्तव्य यही होना चाहिए कि भटककर आने की अपेक्षा पहले ही रास्ते की पहचान कर लें। किसी ने आचार्य श्री से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि मोक्षमार्ग में आत्मा, सम्यग्दर्शन, रत्नत्रय की बार-बार चर्चा चलती रहती है तो इसमें आप लोगों को थकान नहीं होती है। तब आचार्य श्री जी कहते हैं कि- मोक्षमार्ग में सम्यग्दृष्टि कभी थकता नहीं है। बल्कि उसके तत्त्व चिंतन का समय और बढ़ता चला जाता है। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- जैसे आपके चौके में वही दाल-रोटी, परांठा प्रतिदिन बनाते हैं आप लोग थकते नहीं है क्या ? और दुकान पर वही सामान, वही ग्राहक इन सबसे थकान नहीं होती है क्या? नहीं होती क्योंकि आपको उसमें लाभ दिखता है। वैसे ही मोक्षमार्गी को अपने विषय में लाभ दिखता है। इस पंचमकाल में तो सबकी आयु कम ही है। पहले तो मुर्गे, बन्दर आदि पशु भी पूर्वकोटि वर्षों तक संयमासंयम अर्थात् पंचम गुणस्थान बनाए रखते थे।
  14. चिकित्सा के माध्यम से प्राणियों का शरीर स्वस्थ्य रहता है एवं शिक्षा के माध्यम से मन एवं आत्मा स्वस्थ्य रहती है। धार्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए इन दोनों की परमावश्यकता पड़ती है। औषधि धान एवं ज्ञान दान इन दोनों को मोक्षमार्ग में आवश्यक बताया है। इसी बात को समझाते हुए आचार्य श्री ने कहा कि शिक्षक को और वेध को प्रतिफल की आकांक्षा से रहित होकर परोपकार की भावना रखकर कार्य करना चाहिए। तब मैंने कहा- आचार्य श्री जी आज तो डॉक्टर्स पहले पैसा जमा करवा लेते हैं फिर बाद में चिकित्सा प्रारंभ करते हैं।तब आचार्य श्री ने कहा कि- आज अर्थ (पैसे) के युग में सबकुछ बिक रहा है। शिक्षा, उपदेश एवं चिकित्सा भी पैसों पर आधारित हो गई है। सेवाभाव समाप्त होता चला जा रहा है। पैसों के लालाच में जीवन का स्तर गिरता चला जा रहा है। लालची उपदेशक एवं चिकित्सक को शिक्षा देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि जो सेवाभाव को छोड़कर मात्र पैसे के लालच में पड़ जाते हैं ऐसे उपदेशक एवं चिकित्सक को एक बात हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि- इस प्रकार से आया हुआ धन न तो कभी रुकता है और न ही पचता है। पहले कुछ वैद्य ऐसे होते थे जो पैसे नहीं मांगते थे बल्कि उनके यहाँ एक बॉक्स रख रहता था। उसमें इलाज के उपरांत जितना डालना हो व्यक्ति को वह उतना पैसा डाल देता था। इससे गरीब व्यक्ति का स्वाभिमान भी बना रहता था। पहले वैद्य चिकित्सा सेवा की दृष्टि से किया करते थे। भोजन की परोसी थाली छोड़कर दिशा-बोधन चिकित्सा करने आ जाते थे। आज डॉक्टर की दृष्टि पैसे कमाने की हो गई है। सेवा और उपकार की भावना समाप्त होती चली जा रही है। जीवन निर्वाह के लिए कुछ पैसे आवश्यक भी हैं, लेकिन जीव के उद्धार के लिए सेवा और परोपकार की भावना भी उतनी आवश्यक है। चिकित्सक चाहें तो परोपकार का कार्य बहुत कर सकते हैं। अहिंसक पद्धति से चिकित्सा कर सकते हैं। रोगी को शराब, मांस आदि का त्याग करवा सकते हैं। ऐसे उदार व्यक्तियों का यश बहुत समय तक जीवित रहता है। - जो दूसरे के दुःख पर रोता है तो दुःख अपने आप दूर हो जाता है। - दूसरे के हृदय तक पहुँचने का एक मात्र उपाय (साधन) संवा ही है। - सेवा के भाव यदि हमेशा बना रहता है तो समझना धर्म ध्यान चलता ही रहता है।
  15. आचार्य श्री जी ज्ञान और आस्था के बारे में समझाते हुए कहते हैं कि- ज्ञान एक ऐसा लड़का है जो कमाऊ होने के साथ-साथ ऊधमी है। जब आपत्ति आती है तो ज्ञान रूपी भाई चिल्लाने लगता है। लेकिन आस्था रूपी बहन आपत्ति को झेलती है। सहनशीलता ज्ञान से नहीं बल्कि मजबूत श्रद्धान होने से आती है। श्रद्धा ही है जो ज्ञान को सम्यग्ज्ञान बनाती है। ज्ञान को सम्यक्त्वपना शिक्षण व प्रशिक्षण से नहीं मिलता बल्कि श्रद्धा से प्राप्त होता है। तब मैंने कहा- आचार्य श्री जी श्रद्धा और ज्ञान भाई-बहन जैसे हैं तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- हाँ, आस्था बहन है और ज्ञान उसका छोटा भाई है। भाई का महत्त्व उसकी बहन से बढ़ जाता है। श्रद्धा रूपी बहन जब अपने छोटे भाई ज्ञान को समझाती है तो वह अपनी बड़ी बहन की बात मान लेता है। बहन- "उभय कुल मंगलवर्धिनी" हुआ करती है। उभय कुल का अर्थ है आस्था-ज्ञान, चारित्र को बढ़ाने वाली है।
  16. आचार्य श्री जी से एक बार शंका व्यक्त करते हुए कहा कि क्या समाज को उपदेश देना प्रत्येक साधु को आवश्यक है। तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- नहीं, यदि साधु चौबीसों घंटे आत्मध्यान में लगा रहे तो अति उत्तम है। यदि ऐसा न कर सकें तो श्रावकों को धर्ममार्ग पर लगाने के लिए उपदेश अवश्य दें। मान लो आपने एक घंटा धर्म उपदेश दिया और पाँच हजार लोगों ने सुना। उसे यदि पाँच लोगों ने जीवन में उतार लिया। तो समझो एक घंटे में बहुत बड़ा काम हो गया लेकिन निःस्वार्थ भाव से होना चाहिए। धर्मोपदेश सुनने से प्रणियों का उत्साह बढ़ता है। और जिसका उत्साह कम हो रहा हो उसे प्रोत्साहन मिल जाता है। जैसे बुझते दीपक में यदि थोड़ा-सा तेल डाल देते हैं तो वह दीपक पुनः जलने लगता है। इसी प्रकार यह धर्मोपदेश भी तेल की भांति है जो बुझे हुए उत्साह को पुनः जीवित कर देता है। स्वाध्याय को परम तप कहा है। इसीलिए कर्म निर्जरा चाहने वाले को स्वाध्याय तप स्वयं एवं दूसरों को अवश्य कराना चाहिए। पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि किसी को व्यक्तिगत भी उपदेश दे सकते हैं। तब आचार्य श्री ने कहा- जिस किसी को भी उपदेश नहीं देना चाहिए। चंचल व्यक्ति एवं अर्थ का अनर्थ निकालने वाले को कभी उपदेश नहीं देना चाहिए। जिसे आत्मकल्याण की भूख हो उसे ही उपदेश देना चाहिए। आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए कहा कि- जैसे रसोई घर में ऐसे बच्चों को प्रवेश दिया जाता है, जिन्हें अच्छी भूख लगी हो प्रज्ञावान को उपदेश देना चाहिए। प्रज्ञावान का अर्थ विद्वान नहीं होता बल्कि जो श्रद्धा के साथ धारण करें, अपनी प्रज्ञा के द्वारा पर पदार्थों को अपनी आत्मा से पृथक् जाने। आचार्य श्री जी ने पुनः उदाहरण देते हुए कहा कि- आप लोग अक्षर ज्ञानी को प्रज्ञावान समझते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। एक भील, धीवर आदि भी प्रज्ञावान निकले। मुनिराज के उपदेश से भील ने कौआ के मांस का तथा धीवर ने जाल में फंसने वाली पहली मछली का त्याग किया। अपना भव सुधार लिया एवं अगले भव में बड़े-बड़े पदों को प्राप्त किया।
  17. किसी ने आचार्य श्री जी से पूछा कि- सम्यग्दृष्टि सुखी रहता है या दुःखी? तो आचार्य श्री जी ने कहा कि परिस्थिति के अनुसार सम्यग्दृष्टि सुखी भी रहता है और दुःखी भी। जब स्वयं पर आपत्ति आती है तो यह कर्म निर्जरा का साधन है ऐसा विचार कर खुशी से सहन करता है, लेकिन जब दूसरे पर आपत्ति या कष्ट आता है तो उसे देखकर सम्यग्दृष्टि की आँखों में आँसू आ जाते हैं। दूसरे के दुःख को देखकर दुःखी होकर उसके दुःख को दूर करने का पूर्ण प्रयास करता है। अपने ऊपर आई हुई आपत्ति को वज्र के समान होकर सहन करता है जब दूसरों पर आपत्ति आती है तो नवनीत के समान पिघल जाता है। अपने दुःख को देखकर आँसू बहाना आर्त-ध्यान का प्रतीक है और दूसरे के दुःख को देखकर आँसू बहाना धर्मध्यान है।" दूसरे के दुःख को देखकर यह दुःख से कब छुटे इस प्रकार का चिंतन करना अपायविचय धर्मध्यान कहलाता है। आचार्य श्री जी ने आगे कहा कि- वैसे सम्यग्दृष्टि हमेशा सुखी ही रहता है और आपत्ति के समय अपनी आत्मा को समझाते हुए कहता है कि- हे आत्मन्! तू रोता क्यों है? तुझे तो तीन लोक की दुर्लभ वस्तु धर्म की प्राप्ति हुई है। याद रख सच्चे देव, शास्त्र, गुरु पर श्रद्धान रखने जैसा मौलिक पदार्थ दुनिया में कहीं भी नहीं है।
  18. अनुभव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/parmarth-deshna/anubhav/
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