मद का प्रकरण चल रहा था। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि अपने आपको गुणवान एवं बड़ा मानते हुए दूसरों को दोष एवं छोटा मानना ही मद कहलाता है। इस मद के आ जाने पर सम्यग्दर्शन का दम घुटने लगता है। जो दूसरों के दोषों के बारे में जानकारी रखता है एवं स्वयं के दोष की ओर ध्यान नहीं देता उसका सम्यग्दर्शन एवं चारित्र निर्दोष नहीं पल सकता। तब किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि निर्दोष में भी दोष दिखाई देने लगते हैं। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- दूसरों के दोष देखना भी एक महान् दोष है। यह दोष जिसमें होगा उसे दूसरे दोष दिख ही जायेगे। इसे उदाहरण देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि- जैसे अपने चेहरे पर दाग लगा हो तभी तो दर्पण में चेहरा देखने से दाग दिखेगा। कई लोगों को तो दूसरों के दोष देखे बिना चैन ही नहीं पड़ता। जो दूसरों के दोष देखता है उसके सम्यग्दर्शन आदि गुणों में कमी आ जाती है। अपने गुणों में कमी लाकर दूसरों को नीचा दिखाने में लोगों को पता नहीं क्या मिलता है? पर क्या करें निन्दा रस छूटता ही नहीं। तब किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी कुछ लोग तो ऐसे हैं जिन्हें दूसरों की बुराई किए बिना भोजन ही हजम नहीं होता। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि अपने गुणों में कमी लाकर दूसरों के दोष देखने वाले की दशा उस व्यक्ति की भांति है जो अपने को जीवनभर काना बनाए रखकर दूसरों का अमंगल हो ऐसा सोचता रहता है।
इस संस्मरण से हमें शिक्षा मिलती है कि दूसरों के दोषों को देखने वाला उस काने की भांति है जो स्वयं की आँख फोड़कर भी दूसरों का अमंगल चाहता है। ऐसा अमंगल कार्य हमें कभी भी नहीं करना चाहिए।