सम्यग्ज्ञान की चर्चा करते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि - सच्चा ज्ञान वही है जो पापों से बचाकर चारित्र की ओर ले जाए। जिसके द्वारा वैराग्य उत्पन्न हो एवं कषायों का शमन हो वही ज्ञान मोक्षमार्ग में सहायक है। जो कषायों का सहारा लेता है, वह ज्ञान मोक्षमार्ग में बाधक सिद्ध होता है। ज्ञानी जीव वही होता है जो शांत परिणामी हो जाता है एवं लोग मुझे ज्ञानी, पण्डित कहें आदि कामना से रहित होता है।अज्ञानी ही अपने आप को ज्ञानी कहलवाना चाहता है। लोग हमें ज्ञानी कहें ऐसी भावना क्यों रखते हो, ज्ञानी बन जाओ ना। आत्मा स्वभाव से ज्ञानवान है फिर दूसरों से सिद्धी कराने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। ज्ञान का स्वाद लेना चाहते हो तो संयम को धारण करो। कुछ लोग सम्यग्दर्शन लेकर बैठे रहते हैं व्रत नहीं लेते और आत्मा की चर्चा करते रहते हैं। ऐसे लोगों को उदाहरण देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि इन लोगों की दशा वैसी ही है जैसे एक बार दूध को गरम करके मलाई (क्रीम) निकाल लेने के बाद अब उसे कितनी भी बार गरम कर लो मलाई नहीं निकलेगी, निकलेगी भी तो वह स्वाद नहीं आएगा।
तब किसी ने कहा- आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव की गाथााओं में खूब मिठास आती है। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- समयसार ग्रंथ की गाथाओं में मिठास पढ़ने से नहीं आती बल्कि प्रयोग करने से आती है। चन्दन घिसकर मिलाने से सुगंध एवं मिठास देता है सीधा खा लेने से तो कड़वा लगता है। संयम के बिना ज्ञान का स्वाद आता ही नहीं है। असंयत ज्ञान तो प्रायः मद को पैदा कर देता है।