किसी ने आचार्य श्री जी से पूछा कि- सम्यग्दृष्टि सुखी रहता है या दुःखी? तो आचार्य श्री जी ने कहा कि परिस्थिति के अनुसार सम्यग्दृष्टि सुखी भी रहता है और दुःखी भी। जब स्वयं पर आपत्ति आती है तो यह कर्म निर्जरा का साधन है ऐसा विचार कर खुशी से सहन करता है, लेकिन जब दूसरे पर आपत्ति या कष्ट आता है तो उसे देखकर सम्यग्दृष्टि की आँखों में आँसू आ जाते हैं। दूसरे के दुःख को देखकर दुःखी होकर उसके दुःख को दूर करने का पूर्ण प्रयास करता है। अपने ऊपर आई हुई आपत्ति को वज्र के समान होकर सहन करता है जब दूसरों पर आपत्ति आती है तो नवनीत के समान पिघल जाता है। अपने दुःख को देखकर आँसू बहाना आर्त-ध्यान का प्रतीक है और दूसरे के दुःख को देखकर आँसू बहाना धर्मध्यान है।" दूसरे के दुःख को देखकर यह दुःख से कब छुटे इस प्रकार का चिंतन करना अपायविचय धर्मध्यान कहलाता है।
आचार्य श्री जी ने आगे कहा कि- वैसे सम्यग्दृष्टि हमेशा सुखी ही रहता है और आपत्ति के समय अपनी आत्मा को समझाते हुए कहता है कि- हे आत्मन्! तू रोता क्यों है? तुझे तो तीन लोक की दुर्लभ वस्तु धर्म की प्राप्ति हुई है। याद रख सच्चे देव, शास्त्र, गुरु पर श्रद्धान रखने जैसा मौलिक पदार्थ दुनिया में कहीं भी नहीं है।