एक बार आचार्य श्री जी ने कहा कि कुछ लोगों की शिकायत रहती है कि हमें कोई पूछता ही नहीं है। लोग हमें सम्मान ही नहीं देते। तो मैं कहता हूँ ठीक है दूसरा नहीं पूछता तो स्वयं अपने आपको पूछो, स्वयं को सम्मान दो। जैसे चुनाव में खड़े प्रत्याशी को कोई वोट नहीं देता तो वह स्वयं अपने आपको तो वोट दे सकता है। हम आपकी पूछ-परख करेगें लेकिन आप अपना एड्रेस तो बताओ। आपको अपना स्वयं का सही पता नहीं है और दूसरों से पूछ-परख करवाना चाहते हो। सम्मान सही एड्रेस वालों का होता है। आप कौन हो? तो किसी ने कहा- मैं आत्मा हूँ। तब आचार्य श्री ने कहा- ठीक है आत्मा की पूजा नहीं होती और जिसे अपनी आत्मा का भान हो आता है, उसकी सम्मान पाने की भूख समाप्त हो जाती है। पूजा, सम्मान पाने की भूख मान कषाय के कारण होती है। सम्मान, प्रशंसा के शब्द सुनकर जीवन में कभी मान नहीं आता तो समझना यह बहुत बड़ी साधना है।
तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा- शारीरिक साधना भी तो बहुत बड़ी साधना कहलाती है। तब आचार्य श्री ने कहा कि मानसिक साधना प्रधानमंत्री के समान है और शारीरिक साधना कलेक्टर के समान है। जहाँ प्रधानमंत्री आ जाता है वहाँ कलेक्टर आदि सब आ जाते हैं। जब मानसिक साधना वृद्धि को प्राप्त होती है। तब शारीरिक साधना भी वृद्धि को प्राप्त होती चली जाती है।