ब्रह्मचर्याणुव्रत का उपदेश देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि विवाहित स्त्री के अलावा अन्य सभी स्त्रियों से विरक्त होना ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है। विवाह धर्म परम्परा चलाने के लिए होता है, लेकिन संतान में धार्मिक संस्कार होगें तभी धर्म परम्परा चल सकती है। इसलिए भारतीय संस्कृति में स्वदारसंतोष व्रत (ब्रह्मचर्याणुव्रत) कहा है। विवाह एक धार्मिक संस्कार है इसमें वासना के लिए कोई स्थान नहीं है। यह है हमारी भारतीय संस्कृति एवं परम्परा। उदाहरण देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- जैसे औषधि रोग निवारण के लिए ली जाती है स्वाद लेने या पेट भरने के लिए नहीं ली जाती है। वैसे ही वासना एक रोग है उसके निवारण के लिए विवाह किया जाए। है। उसमें रचना-पचना नहीं चाहिए।
तब किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी आजकल तो पता ही नहीं चलता लड़का-लड़की कोर्ट में जाकर शादी कर लेते हैं। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- पश्चिमी देशों की हवा में भारत बह गया है। इसलिए सामाजिक व्यवस्थायें गड़बड़ा गई हैं। युवा वर्ग संस्कार, मर्यादाओं एवं परम्पराओं को भूल गया है। ग्रंथों में आया है। कि कन्यादान एक गृहस्थ के लिए पवित्र कार्य माना जाता है। धार्मिक एवं संस्कारित परिवार में ही कन्यादान करना चाहिए। धन की नही। धर्म की प्रमुखता होनी चाहिए।
श्रावकों को उपदेश देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि- आप लोग विदेश से प्रभावित नहीं होइये, बल्कि आप अपने संस्कारों से उन्हें प्रभावित कीजिए। एक विदेशी व्यक्ति ने भारतीय संस्कृति एवं धार्मिकता से प्रभावित होकर लिखा है कि- "मुझे अगला भव मिले तो भारत में मिले और जैन कुल में जन्म हो।” उसने इस प्रकार का निदान बंध किया और आप लोग विदेश जाना चाहते हैं विदेशी परम्पराओं को अपनाना चाहते हैं। पहले शादी के बंधन से बंधते थे फिर प्रेम होता था आज लव मेरिज का जमाना आ गया। पहले प्रेम फिर बंधन की बात सोचते है। यह भारतीय संस्कृति पर कलंक है। आप लोगों को उत्तम देश, उत्तम कुल एवं संस्कार मिले हैं, इन्हें विदेशी संस्कृति से प्रभावित होकर खोना नहीं वरन् जीवन भर पछताना पड़ेगा।