नेमावर चातुर्मास में रत्नकरण्डक श्रावकाचार ग्रंथ की वाचना के अंतर्गत तीसरे श्लोक का व्याख्यान करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि- यहाँ पर रत्नत्रय अर्थात् मोक्षमार्ग को धर्म कहा है। श्रावक के एकदेश चारित्र होता है, श्रावक अणु के रूप में रत्नत्रय का पालन करता है। सम्यग्दृष्टि जीव हमेशा निर्दोष रत्नत्रय पालन का भाव बनाकर चलता है। चलने से पूर्व वह रास्ते की पहचान भी कर लेता है। प्रत्येक मोक्षमार्गी का पहला कर्त्तव्य यही होना चाहिए कि भटककर आने की अपेक्षा पहले ही रास्ते की पहचान कर लें।
किसी ने आचार्य श्री से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि मोक्षमार्ग में आत्मा, सम्यग्दर्शन, रत्नत्रय की बार-बार चर्चा चलती रहती है तो इसमें आप लोगों को थकान नहीं होती है। तब आचार्य श्री जी कहते हैं कि- मोक्षमार्ग में सम्यग्दृष्टि कभी थकता नहीं है। बल्कि उसके तत्त्व चिंतन का समय और बढ़ता चला जाता है। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- जैसे आपके चौके में वही दाल-रोटी, परांठा प्रतिदिन बनाते हैं आप लोग थकते नहीं है क्या ? और दुकान पर वही सामान, वही ग्राहक इन सबसे थकान नहीं होती है क्या? नहीं होती क्योंकि आपको उसमें लाभ दिखता है। वैसे ही मोक्षमार्गी को अपने विषय में लाभ दिखता है। इस पंचमकाल में तो सबकी आयु कम ही है। पहले तो मुर्गे, बन्दर आदि पशु भी पूर्वकोटि वर्षों तक संयमासंयम अर्थात् पंचम गुणस्थान बनाए रखते थे।