चिकित्सा के माध्यम से प्राणियों का शरीर स्वस्थ्य रहता है एवं शिक्षा के माध्यम से मन एवं आत्मा स्वस्थ्य रहती है। धार्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए इन दोनों की परमावश्यकता पड़ती है। औषधि धान एवं ज्ञान दान इन दोनों को मोक्षमार्ग में आवश्यक बताया है। इसी बात को समझाते हुए आचार्य श्री ने कहा कि शिक्षक को और वेध को प्रतिफल की आकांक्षा से रहित होकर परोपकार की भावना रखकर कार्य करना चाहिए। तब मैंने कहा- आचार्य श्री जी आज तो डॉक्टर्स पहले पैसा जमा करवा लेते हैं फिर बाद में चिकित्सा प्रारंभ करते हैं।तब आचार्य श्री ने कहा कि- आज अर्थ (पैसे) के युग में सबकुछ बिक रहा है। शिक्षा, उपदेश एवं चिकित्सा भी पैसों पर आधारित हो गई है। सेवाभाव समाप्त होता चला जा रहा है। पैसों के लालाच में जीवन का स्तर गिरता चला जा रहा है। लालची उपदेशक एवं चिकित्सक को शिक्षा देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि जो सेवाभाव को छोड़कर मात्र पैसे के लालच में पड़ जाते हैं ऐसे उपदेशक एवं चिकित्सक को एक बात हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि- इस प्रकार से आया हुआ धन न तो कभी रुकता है और न ही पचता है।
पहले कुछ वैद्य ऐसे होते थे जो पैसे नहीं मांगते थे बल्कि उनके यहाँ एक बॉक्स रख रहता था। उसमें इलाज के उपरांत जितना डालना हो व्यक्ति को वह उतना पैसा डाल देता था। इससे गरीब व्यक्ति का स्वाभिमान भी बना रहता था। पहले वैद्य चिकित्सा सेवा की दृष्टि से किया करते थे। भोजन की परोसी थाली छोड़कर दिशा-बोधन चिकित्सा करने आ जाते थे। आज डॉक्टर की दृष्टि पैसे कमाने की हो गई है। सेवा और उपकार की भावना समाप्त होती चली जा रही है। जीवन निर्वाह के लिए कुछ पैसे आवश्यक भी हैं, लेकिन जीव के उद्धार के लिए सेवा और परोपकार की भावना भी उतनी आवश्यक है। चिकित्सक चाहें तो परोपकार का कार्य बहुत कर सकते हैं। अहिंसक पद्धति से चिकित्सा कर सकते हैं। रोगी को शराब, मांस आदि का त्याग करवा सकते हैं। ऐसे उदार व्यक्तियों का यश बहुत समय तक जीवित रहता है।
- जो दूसरे के दुःख पर रोता है तो दुःख अपने आप दूर हो जाता है।
- दूसरे के हृदय तक पहुँचने का एक मात्र उपाय (साधन) संवा ही है।
- सेवा के भाव यदि हमेशा बना रहता है तो समझना धर्म ध्यान चलता ही रहता है।