मन का स्वभाव जल के समान है। वह हमेशा ढलान (पतन) की और गति करता है। जैसे पानी को मकान में ऊपर ले जाने के लिए हॉर्सपावर मोटर की जरूरत पड़ती है उसी प्रकार मन को उत्थान की और ले जाने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है। यह मन हमेशा
आत्मा को पंचेन्द्रिय विषयों की ओर ले जाता है, क्योंकि संसारी प्राणी का यह विषयों का संस्कार अनादि काल से चला आ रहा है। इसलिए धर्मध्यान में ही अपने मन को लगाना चाहिए। इस प्रकार उपदेश आचार्य श्री जी के मुखारविन्द से हम सभी लोग सुन रहे थे तभी किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी धर्मध्यान कैसे किया जाए ? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- धर्मध्यान करना कठिन नहीं है कोई फावडे-गेंती नहीं चलाना पड़ती, बल्कि आर्त्त-रौद्र ध्यान का (त्याग करना पड़ता है। धर्मध्यान करने का सबसे अच्छा तरीका है आर्त्त-रौद्र ध्यान का त्याग कर दो धर्म अपने आप हो जाएगा।
तब किसी ने कहा-आचार्य श्री जी एकदम आर्त्तध्यान नहीं छूटता। पंचपरमे ठी का ध्यान करते हैं तो पचास व्यक्ति याद आ जाते हैं। आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे खदान में हजार पत्थर मिल जाते हैं, लेकिन हीरे की कणिका एकाध ही मिल पाती है। उसी प्रकार आर्त-रौद्रध्यान मुफ्त में हो जाता है, लेकिन धर्मध्यान करने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ता है।