स्वभाव की अपेक्षा किसी भी जीव में कोई भेद नहीं है। गुणी की ओर देखते हैं तो छोटे और बड़े का विकल्प आता है। लेकिन गुण की अपेक्षा न कोई छोटा है न कोई बड़ा। दृष्टि में भेद आए बिना छोटे और बड़े का विकल्प आ ही नहीं सकता। द्रव्य दृष्टि से तो सभी एक जैसे हैं। पर्याय दृष्टि से ही छोटे-बड़े का भेद हुआ करता है। इस प्रकार उपदेश देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि यदि व्यक्ति के गुणों की ओर दृष्टि पहुँच जाए तो फिर दोष दिखाई ही न दें।
तब किसी ने शंका करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी यदि किसी में स्पष्ट रूप से ही दोष देख रहे हो तो क्या करना चाहिए? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- यदि किसी में दोष दिख रहें हो तो दोषों को पहचानो, ग्रहण मत करो एवं दूसरों से मत कहो। गुण-ग्रहण का भाव रखो। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे हंस दूध और पानी को अलग-अलग नहीं करता है, बल्कि दूध को ग्रहण करता है। आप भी दोष एवं गुण की पहचान रखिए एवं गुण को ग्रहण करिए। जैसे किसान घास और फसल दोनों की पहचान रखता है। घास तो बिना उगाए ही उग आती है वैसे ही दोष तो अपने आप ही आ जाते हैं। गुण एवं संस्कार तो फसल की भांति हैं जिसके बीज डाले जाते हैं। पुनः किसी ने पूछा कि- आचार्य श्री जी स्वयं में गुण विकसित करने का उपाय क्या है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- "दूसरे के दोष न देखना, न लेना ही अपने में गुण पैदा करना है।”